भय.
ह
आचाय विज्ञानमिश्च शीर भारतीय
दृद्यन मँ उनका स्थान
4 अर्त ज 90200680 20. |
8 126८ 0 [06120 0108० |
क सुरेराचन्द्र श्री वास्तव्य
एम्° ए०, शास्त्री, साहित्यरत्न
संस्कृत विभाग, इलाहाबाद युनिव सिटी
नौक्कञादनी प्चनान
१५-ए, महात्मा गान्धी मागं इलाहाबाद--१
प्रकारन
१५-ए, महात्मा गान्वी मागं
श् इलाहावाद-१ द्वारा प्रकारित
~ ©
| कापीराइट मूल्य : ००
सुरेरचन््र श्रीवास्तव ब. 9 ५ ष +
@ शर १२५. ^---८-.०--
| प्रथम संस्करण : जनवरी १९६९
©
इन्डियन प्रेस (प्रा०) लिमिटेड
३६, पन्नालाल मागं
इलाहावाद-र द्वारा मुद्रित
नेरौ अर्चनाओं के पावन प्रतीक पिताजो
की उन भाङ्धलिक स्मृतयो को
निनकौ स्नेहिल छाया -में
जीवन-संघषं के सकल
शभसीकर ज्योतिबिन्दु
बनते जति ै-
सर्वात्मना समपित
प्राक्कयन
भ्राचायंप्रवर विज्ञानभिष्चु संस्कृेत-वाडः मय के दर्शन-साहित्य के ्रद्भुत्-
ञ्ननुपम खष्टा हँ । सांख्य, योग एवं वेदान्त दर्रानों पर उनके द्वारा लिखे गए ग्रन्य
संख्या म भ्रनल्प होने के साथ ही परिमाण मे प्रभूत एवं गाम्भीयं में निरतिशय
है । ये ग्रन्थ तीनों ही दर्शनों के पृथक्-पृथक् श्रयवा भिन्न-मिन्न प्रतिपाद्य विषयों
एवं उनकी साधना-पद्धतियों कै स्वरूप को श्रनवद्य रूप से प्रकट करने के साय ही
प्राचायं भिश्ु की सुदृढ समन्वयात्मक दृष्टि को भी श्रसन्दिग्ध रूप में समक्ष उपस्थित
करते ह । उनका यह् दोहरा वैरिष््य सभी दर्खन-प्रमियों को वलात्--वरवस श्रपनी
भ्रोर श्राकृष्ट करता है । एसे प्राचां के साङ्खोपाङ्ध भ्रव्ययन की महती उपादेयता
विना कहे ही--स्वतः-सिद्ध है । किन्तु किन्दीं कारणों से एतत्पूवं इस भ्रघ्ययन कौ
श्रोर विवित्सु्रों ्रयवा विदानो की दुष्टि नहीं गई, जो सचमुच खटकनेवाली श्रौर
वड़े चेद की वात है । टमं यह् कटने में हषं श्रौर गवं का अनुभव होता है कि
हमारे पूव भ्रन्तेवासी एवं बारह वर्षो से हमारे सहयोगी प्रखर प्रतिभावान्
डा० सुरेशचन्द्र॒ भीवास्तव ने इस महनीय कायं को श्रपने डी° िल्° के शोव-
भ्रवन्व के रूप में स्तुत्य ठंग से प्रस्तुत क्रियाहै जो मूद्वित होकर विद्वज्जगत्
के समक्ष प्रका में भ्रा गया है । वह् भरव श्राचायं विज्ञानभिष्षु कौ प्रबुद्ध दानिक
चेतना एवं गुरूम्भीर भारती का माहात्म्य सुघीजनों के समक्ष प्रकट करेगा
हमें भ्राशा ही नहीं श्रपितु दृढ विर्वास है कि डा० श्रोवास्तव का यह् शोघ-
अन्थ सभी गुणौकपक्षपाती, विदयाव्यसनी जनों को सन्तोषप्रद एवं प्रिय होगा ।
इसके प्रकाशन के इस शुभ भ्रवसर पर हमारी शुभकामना है कि सवे-पररक प्रमु
डा० श्रीवास्तव को श्रन्य भ्रनेक सद्-गरन्यों की रचना में निमित्त बनावे
आयाप्रसाद मिभ
विजयादशमी, २०२५ वि० । अध्यक्ष संस्कृत-विभाग,
भ्रयाग विश्वविद्यालय
भूमिका
(=
विशाल विर्व का विपुल-विलास हमारे जीवन मेँ प्रतिदिन प्रस्तुत श्रौर
तिरोहित होता रहता है 1 विविध प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी एवं लता-पादप
व्यक्त श्रौर श्रव्यक्त होने का विचित्र चित्र उपस्थित करते रहते हँ । प्रातःकालिक
स्फृति श्रौर सायङ्कालिक उल्लास कौ भ्रनुभरूति जीवन का श्रभिन्न भ्रंग वनी रहती
है । प्रखर रवि-रदिमयां तथा श्रमन्दसुधारसनिष्यन्दिनी चन्द्र-किरणों श्रपना
क्रमिक चमत्कार प्रस्तुत करती हैं । श्राना-जाना, उढठना-वैठना, उगना श्नोर मुर-
भाना सव कुच दृष्टिगोचर होता है । कोयल की कूक श्रौर भरो की गज, विजली
की कड़क तथा वादल की तड्प कर्णंकुहरों की श्रमन्द-सहचरी बनती ह । पीडा
भ्रौर कसक, भ्रानन्द श्रौर उल्लास, इषं श्रौर शोक भांतिभाति के भाव मन मेँ
प्रनुदिन घर किए रहते हँ । चित्त में एक प्रबल क्रुतुहल मरङ्ःरित होता है कि
्रन्ततः ये सब वस्तु क्यों है ? कहां से भ्राती है भौर कुछ ॒दिनों से कटां चली
जाती है ? भ्राने-जाने का, भ्राविर्भाव भ्रौर तिरोभाव का यहं निर्वन्ब व्यापार क्यों
चलता है, कव से चलता है, भ्रौर कव तक चलता रहेगा ? इन वस्तुभरो की सारी
क्रीडाग्रों का भव्य प्रांगण-यह जगत्, इसकी पृष्ठ-भमिस्वरूप यह समय, यह् परि
वरतेन श्रौर इस परिवर्तन का यह क्रम~ये सव क्या है? क्यों? कते?
कव तक हैँ?
यह विराट् प्रदनमाला युगयुगान्तर मे चेतन मानव कौ बुद्धि को खकोरती
रही है । इसी जिज्ञासा कौ चरम परिएति का प्रतिफलक विचार दर्दान है
जीवन-व्यापार के इन रहस्यों का उद्घाटन करने की आकाङ्क्षा ही इसकी
मूलाधार है । हमारे पुराठन महषियों ने ्रपनी उत्कट तपस्याभ्नो भौर सवंतोमुखी
साघनाभरों के सहारे इस समस्त रहस्य का ज्ञान प्रजित क्रिया था । उन्नकी
चिरसंचित यही ज्ञान-राि हमें उपनिषदों एवं दर्ानास्त्रो के रूप म उपलन्ध
होती है । इसी ज्ञान-निषि को सांख्य, योग, मीमांसा, न्यायवैरोषिक श्रौर वेदान्त
्रादि रूपों म संस्छृत.वाडःमय ने भ्रानेवले युगो के लिए संजो रक्वा है।
दर्दानों का प्रमुख प्रयोजन वास्तविकता का ज्ञान श्रौर तदापादित चिरशान्ति ह ।
श्र तियो ने ्रात्माकोही वास्तविक या सच्चा रहस्य माना है । इसीलिए
उपनिषदों ने “भ्रात्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिष्यासितन्य'ः+ का
१. बृहादारण्यक उपनिषद् ४।५।६
सन्देद दिया है । श्रवण, मनन श्रौर निदिष्यासन ही दर्शन केद्वार हैँ। इन
दारो के श्ननेक श्रौर श्रसंख्यमागं हो सकते है। यही कारण है कि दर्शनों की
संख्या का परिसीमन छह, प्राठ या दस श्रादि मँ नहीं किया जा सकता । इन
दर्शनों का पारस्परिक सम्बन्व इसी प्रबन्ध के द्वितीय-पटल, प्रथम-म्रघ्याय में
प्रदरित किया जायगा
जीवन के इन परम रहस्यं को जान पाने की उत्सुकता के कारणमेभी
सदां दर्दान-शास्त्र के प्रति श्रसीम श्राकषंण का श्रनुभव करता रहा हूँ । इसीलिए
वात्यकाल से ही जाने-ग्रनजाने दर्शन के अध्ययन की ओर उन्मुख होता गया धा ।
इण्टरमीडिएट परीक्षा के लिए 'तकंडास्तर' श्रौर वी° ए० परीक्षा के लिए द्दर्शान-
शास्त्र" विषय चुनने मेँ भी निस्सन्देह मेरी यदी प्रवृत्ति निर्णायिका थी । एम्० ए
परीक्षा के लिए ॒"्दर्दनिशास्व' विषय को छोड़ कर स्ंस्कृत-विषय' ग्रहण करने
मे मेरी यह् धारणा थी क्रि भारतीय दर्दान के गूढ तत्त्वो को जानने मे तभी
समथं हो सकता हं जव भारतीय दर्धन के “मूल ग्रन्थो का भ्रध्ययन करू श्रौर
यह् बात संस्कृत-विषय लेने मे ही सम्भव थी । साक्षाद् 'दर्शनविषय' लेकर यद्यपि
मे इन ग्रन्थों को स्वतः भी पट् सकता था तथापि गुरुमुख से शास््र-श्रवण॒ कौ
वात ही रौर हे । संस्छृत-विषय में 'दर्शनि-वगं' मे ये ग्रन्थ पाठ्यक्रम के अन्तर्गत
पठाए जाते है 1 इसलिए मैने संस्छृत-विषय [दर्शनवं | लेना हो श्रं यस्कर
समभा । प्रारन्ध संस्कारो ने भी इस कार्य में मेरी ्रवदर्य सहायता की होगी ।
यहां पर मूर गुरुवयं महामहोपाध्याय डा० उमेज्ञ मिध.श्रदधेय प० रघुवर
मि्लाल जी शास्त्री एवम् भ्रादरणीय डा० श्रादाप्रसाद जी मिश्रके श्रीचरणों
म चठ कर न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग ्रौर श्रदरैतवेदान्त पठने का सौभाग्य
भरा ष्मा । श्रष्ययन भ्रपन श्राप मे अक्षय सन्तोष की सृष्टि करता है, यह सेन
यहीं जाना । सांख्य का श्रघ्ययन करते समय वाचस्पति भिश्च के प्रतं मे
विजञानभिश्चु कौ चर्चा भराई । इनके सम्बन्ध मे बहुत कम खोज हुई है एेसा स्व
गुख्वय म० म० जी से सुन कर विज्ञानभिष्ु के विषय मे समय श्राने पर शोध
करने की श्राकाडक्षा मेरे मन में उत्पन्न हई ।
भ्नुसन्यान के लिये विषय चुनते समय श्रीगुरुमुख से स्वाभिमत विषय प्राप्त `
करके मे महान् हषं हुभ्रा । इस सम्बन्ध मेँ श्रष्ययन की परम्परा प्रारम्भभीन
हो पाई थी कि श्रीगुरुचरण डा० वाब्रुरामजी सक्सेना एम्० ए० डी ० लिट्० के
शुभाशीरवादस्वरूप इसी विश्वविद्यालय मे श्रगस्त, १ ९५द् से ही रष्यापन-कायं
मिल गया । श्रधीतिबोधाचरणप्रचारण" की क्रमिक जटिलता को कौन श्रस्वीकार
कर सकता है ? श्रतः भ्रनुसन्धान-काल के प्रारम्भिक वर्षो की बलि कठोर भ्रव्यापन-
कायं की वेदी पर चडढानी श्रनिवायं हो गई । इस कारण कु शौधिल्य श्रौर उत्साह्-
दीनता का संचार भी मुभमें होने लगा किन्तु श्रीगुरुवयं डा° सक्सेना ने मुर कृत-
संकल्प होने रौर कमठ शोव-साधना करने के लिये पुनः प्रोत्साहित किया ।
म गुरूपाद-निदिष्ट धमां पर श्रारूढ हुभ्रा श्रौर सफल भी । मुभे उनके
भ्रारीर्वादो का संबल श्रौर उनकी कृपा का श्रनन्त श्रवलम्ब था । श्राचायं विज्ञान-
भिक्षु की श्रनत्प ज्ञाननिवि को प्रस्तुत करने की चेष्टाभ्रों को मूतं रूप देनेमें मने
यथासम्भव निष्पक्ष, ्रनतिरञ्जित श्रौर प्रविछरृत निं य-बुद्धि से काम लिया हे ।
उनके व्यक्तिगत जीवन का विवरण प्रस्तुत करने के लिए बाह्य सामग्री समुपलन्व
“नहो सकने के कारणा उनके ग्रन्थों के संकेतो श्रौर उनके स्वभाव से परिलक्ष्यमाण
प्रभावों पर ही भ्राध्रित रहना पड़ा है 1 इस ्रन्य के प्रथम-पटल मे भ्राचायं विन्ञान-
भिक्षु का वैयक्तिक विवरण तया उनकी कृतियों की संख्या, प्रामाणिकता, प्रेरणा
रौर उनके स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत किया गया है । विज्ञानभिश्ु की आलोच्य
दर्शानिकता दो रूपों की है । एक है उनकी सांड्य, योग श्रौर वेदान्त साघनाभ्रों का
स्वह्प भौर दूसरा है उनका निजी दर्शन, जो कि उनके समन्वयवाद के नाम से इस
गरस्थ सें विवेचित किया गया है । उनकी दार्शनिकता के दोनों ङ्प अन्ततः एकाकार
हो उठते है क्योकि न तो उनका समन्वय उनके सांख्य, योग श्रौर वेदान्त-दर्यनगत
सिद्धान्तो के विरुद है श्रौर न ही उनके सांख्य, योग श्रौर वेदान्त-सिद्धान्त कहीं उनके
संञ्न्वयवाद का विरोध करते है ।
भ्रास्तिक दर्शानो के समन्वय का संदेश किसी भी भारतीय को बरवस अपनी
ओर श्राकृष्ट करता है । इस समन्वय की जडं गहरी है । स्मृतियों ओओर पुराणों
मे इस समन्वय के वीज विखरे पड़ ह । श्रतः विज्ञानभिश्चु का इस दिशा मे प्रयास
नयापन के दायित्व से बोभिल नहीं है । प्रवयुत इस प्रौढ्-परम्परा के समर्थक तत्वों
से संवलित होने के कारण स्तुत्य ही है । कदाचित् युग को भूकपुकार को प्रति.
ध्वनि ही उनके मतवाद मँ प्रतिफलित हुई है । मेरी चेष्टा भ्रा्योपान्त विन्ञानभिष्लु
के सिद्धान्तो को शुद्ध एवं अविकृत रूप में विद्वज्जगत् के समक्ष प्रस्तुत करने
की रही है । ,वैयक्तिक दृष्टि-्क्षेप के प्रभावों का सम्मिश्रण ने यथाराक्ति
नहीं होने दिया है । किन्तु इस सम्बन्व मेमं कितने भ्रंशो मे सफल हुभ्रा हूं, कह
नहीं सकता ।
विज्ञानभिश्ु के मतवाद की तुलनातमक् समीक्षा रौर उनके सिद्धान्तो कौ तकं
संगतता के श्राधार पर , भारतीय दर्शान-जगत् मे उनके स्थान-निर्घारण का भी
दायित्व मुके संभालना पडा है। इस ग्रन्थ का तृतीय-पटल इसी साधना का
परिणाम है । यह कायं कुचं ॑टेढा श्रौर बड़े पैमाने का भ्रवद्य था परन्तु किसौ
के सिद्धान्तो की पूजो का अ्राकलन करने के परवात् उसका किसी विशिष्ट सन्दर्भ
मे मूल्याङ्कन कर सकना सौविध्यपुरां हो जाता है । इसीलिये इस ग्रन्थ का द्वितीय-
पटल विज्ञानभिक्चु के सम्पूणं-सिदधान्तों के संकलन से सम्बद्ध है । इसमें उनके दर्शन
कौ रूपरेखा, जो उनकी समन्वयात्मक प्रकृति को प्रकट करती है, प्रस्तावित की
गई है । उनके वेदान्तसिद्धान्त, सांख्यसिद्धान्त श्रौर योगसिद्धान्त भ्रघ्यायानुसार
संकलित करिए गए है । सिद्धान्तो के इस प्रकार के विभाजन कां प्रयोजन दुहरा है ।
पहला प्रयोजन तो यह था कि उनके वेदान्त-प्रन्थ, सांख्य-ग्रन्थ श्रौर योग-ग्न्थों के
निर्णीत मतवादों का श्रलग-श्रलग रूप प्रकट होता है । श्रौर दूसरा प्रयोजन इस
प्रकार के विभाजन से यह सिद्ध होता है करि विज्ञानभिश्चु के भ्रनुसार इन तीनों
दरनिं फे प्रधान प्रतिपा विषय एकं नहीं हे प्रत्युत भिन्न-भिन्न है । सांख्य के
मलान प्रतिपरा्यविपय परमाण, प्रकृति, पुरुष श्रौर विवेक इत्यादि है; वेदान्त
के प्रधान प्रत्तिपाद्य ईश्वर या बरह्म तथा जीव श्रादि रहै; जव कि योगके प्रधान
प्रतिपाद्य योग, योग के श्रङ्ग रौर सिद्धियां इत्यादि है । प्रतः इस प्रकार के
विभाजन के द्वारा श्रपने-प्रपने क्षेत मे प्रावान्येन विवेचित सब पदार्थो का
साङ्गोपाङ्ग विवरण प्रस्तुत किया जा सका है ।
मोक्ष का प्रसङ्ग तीनों सिद्धान्तो मे प्राधान्येन उपस्थित हुप्रा है ताकि तीनों
रनों कै समन्वितरूप कौ साधना न कर सकनेवाले साधक के लिये भी तीनों मे
से किसी एक दर्दान क द्वारा संेतित साधना कै हरा मोक्षलाभ हो सके । तीनों
के समन्वित ज्ञान के द्वारा मोक्षलाभ भ्रागुतर सुसम्पाद्य है तथापि समन्वय-
सावना-विवजित साधक भी इस परम पुरुषाथं लाभ से वञ्चित न रह जायें, इसके
लिए इस एकांगी मागं को भी सफलता से विभ्रुषित किया गया है । इसीलिए
विवेचन-क्रम में तीनों दर्शनों के श्रन्तर्गत मोक्ष का प्रधान रूप से विवेचन प्रस्तुत
करिया गया है।
इस प्रकार से इस ग्रन्थ के प्रथम-पटल मेँ विज्ञानमिष्यु क्रा वैयक्तिक विवरण,
दवितीय-पटल भें उके सिद्धान्तो का सद्कलन तथा वृत्तीय-पटल में भारतरीय-दर्ान जगत्
मे उनके तुलनात्मक महत्तर का ॒श्राकलन भ्रौर स्थान-निर्घारण प्रस्तुत करने का
भ्यास हमरा है । मु विश्वास है कर इस सरणि से 'विज्ञानभिष्चु का एक श्रध्ययन'
भ्रौर ^भारतीयदर्वान में उनका स्थान-निर्घारण॒' सुरुचिपर्णं रूप में प्रस्तुत क्ियाजा
सका है । यद्यपि मेरी समीक्षां का विषय उनका पूणं कृतित्व भ्राचोपान्त रहा
है तथापि उनकी प्रकारित एवं सुप्रसिद्ध स्वनाश्रों का श्रावार मने मुख्यरूप से ग्रहण
क्रिया है । इसका कारण प्रधानतः यही था कि विज्ञानभिक्षु के सम्बन्धं सें विद्-
ज्जगत् को वारणां इन्हीं अन्यो को विशेष रूप से दृष्टि में र्रकर बनी हुई है 1
प्रतः उनके विचारों का विवरणनिरदेश करने के लिये ने इन्हीं अन्थों को प्रधिक
उपयुक्त तथा उपादेय समभा है । इस हौली मेँ एकं लाभ मभ यह् भी दृष्टिगोचर
हस्रा कि इससे सामान्य भ्रष्येताश्रों को भौ इन सुलभ-निर्देशों के श्राधार पर विज्ञान-
भिष्चु के मतवाद के सम्बन्ध मेँ श्रपनी धारणाए्ं स्थिर कर सकने की सहायता
मिल सकेगी । इस पद्धति को ग्रहणा करते कौ भरणा मुके इस वात से भी भिली
कि विज्ञानभिक्चु के समूचे वाडमयमें स्व-वचो-ग्याघात का कोई प्रसङ्ख नहीं है ।
शास्त्रगत भ्रन्तर भले हों परन्तु उन भ्रन्तरो को भी वै स्पष्ट ब्दो मेँ तत्तत्स्यलों में
सूचित कर देते हँ । इसलिए श्रप्रकारित पाण्डूलिपियों से उनके विचारों का श्रधिक
निर्देश न करने पर भी उनके सिद्धान्तो का ज्ञान प्राप्त करने में सामान्य श्रष्येताश्रों
के हितों की कोई क्षति नहीं हो सकती ।
विज्ञानभिघ्चु के सास्य श्रौर योग ग्रन्थ सवके सव प्रकारित ही है । उनके
वेदान्त-गरनथों मे केवल ॒विज्ञानामृतभाष्य ही प्रकारित है, श्रुतिभाष्य श्रौर ईइवर-
गी ताभाष्य श्रभी तक श्रप्रकारित ्रौर पाण्डुलिपियों कौ परिस्थिति मे ही पडहै।
विञ्चानभिष्ु के वेदान्त-सिद्धान्त-सम्बन्धी कुच एेसे निर्देश भ्रलबत्ता मु ईरवरगीता-
भाष्य कौ पाण्डुलिपि से देने पड़ह जो विज्ञानामृतभाष्य में सुलभ नहीं हो सके थे ।
भ्रन्य पाण्डुलिपियों से निर्देश यथासम्भव नहीं दिए गए है ।
आभार प्रदशन
इस ग्रन्थ के प्रकारन की प्रवल प्रेरणाएुं मुरे पूज्य गुरुवर्यं डा० वाबरूराम
जी सक्सेना, पं० रघुवरमिट्टूलाल जी शास्त्री तथा डा० रामकरुमार
जी वर्मा से निरन्तर प्राप्त होती रहीं, जिनके फलस्वरूप यह् ग्रन्थ
प्रकाशन को प्रक्रिया पार कर सकरा । इसके लिये इन गुरुजनं के प्रति मँ सर्वात्मना
भरपनी कृतज्ञता प्रकट करता हं । परम कारुणिक गुखव्यं डा० श्राद्याप्रसाद जी
भिश्च ने समय-समय पर समुचित परामर्श देकर तथा इस ग्रन्थ का भ्राक्कथन
लिख कर मुके जो प्रोत्साहन दिया है, उसके लिये मँ श्रसीम श्राभार मानता हं ।
जिन श्रनेक विद्धानों की कृतियों एवम् सम्मतियों से इस ग्रन्य के लिखने में मुके
सहायता मिली है उनके प्रति भी श्राभार प्रदशित करना मँ श्रना परम कर्तव्य
मानता हुं ।
प्रका्न को समग्र व्यवस्था श्रपने हाथ भँ लेकर भ्रसीम कौल एवम् सौहादं
के साथ इस ग्रन्थ को विद्रज्जनों के समक्न लाने का सत्रयास करने वाले श्र
दिनेशचन्द्र जी एवम् श्री राघेनाथ जी चोपड़ा [लोकभारती भ्रकारान, इलाहाबाद]
को भी हादिक धन्यवाद दिये विना मेँ नहीं रह सकता । श्रौर ्रन्त में, इस ग्रन्थ
की भ्रकारान-परम्परा मे सवंदा एवम् स्वविष सहायता देनेवाले श्वपने प्रिय
भागिनेय श्री सतीशचनद्र श्रीवास्तव्य एवम् श्री गिरीश्चन््र श्रीवास्तव्य तथा
प्रपने प्रिय श्नु भ्रौ रविचन्द्र श्रीवास्तन्य एवम् श्री राजेशचन्द्र श्रीवास्तव्य को
मै हादिक साधुवाद देता हूं ।
विजयादशमी
घुरेरचन्द्र भीवास्तव्य
सं° २०२५ वि०
ए जायका
विषयाचुक्रबणी
पुष्ठ-संख्या
[१] भूमिका 2: र
[२] विषयानुक्रमणी थ १३-१६
प्रथम-पटल [वियक्तिक-विवरण]
अध्याय १--माचायं विज्ञानभिश्ु का परिचय [१९-४५]
[१] स्यान-साघनाक्ेतर-जन्म स्यान--विचरण-
स्थल ।
[२] व्यक्तित्व ।
[३] जीवन-काल, पृष्ठभूमि, समय-निर्घारिण ।
अध्याय २--माचायं विज्ञानभिष्षु कौ रचना [४६-८८]
[१] सूचित रचनाए-प्रामाणिक रचनाए--
रचनाम्रों का क्रम ।
[२] रचनाभ्रं का परिचयात्मक विवरण ।
[३] वेदान्त ग्रन्य--उपदेश रलमाला--
विज्ञानामृत भाष्य--ग्रन्थ का स्वरूप--
उपनिषद् भाष्य-्ईर्वरगीताभाष्य ।
[४] सांस्यग्रन्य-त्रेरणारणं-शाख्यभ्रवचन- -
भाष्य का स्वरूप-सास्यसार का स्वरूप ।
[५] योगग्रन्य-योगवातिक-ग्ेरण्ए-
योगवारतिक का स्वरूप--
योगसारसंग्रह-ग्रेरणारणं
योगसारसंग्रह का स्वरूप ।
[६] रचनां की दरौली ।
दितीय-पटल [सिद्धाम्त-सङ्कलन।
अध्याय -- आचारम विज्ञानभि्ु के दर्शन को रूपरेखा [९१-१००]
श्राचायं विज्ञानभिक्षु के दर्शन की भ्राघार-
भित्ति- समन्वय की प्रवृत्ति-समन्वय का
स्वरूप--वर्गीकरण की रीति ।
पुष्ठ-सख्या
अध्याय २--आचायं विज्ञानभिक्षु के वेदान्त-सिद्धान्त [१०१-१३९]
[१] ब्रह्ममीमांसा के प्रनुबन्व--चतुष्टय , श्रधिकारी--
ब्रह्मविद्या के विषय, प्रयोजन श्रौ र सम्बन्ध ।
[२] ब्रह्म-सत्ता--सिद्धि-त्रह्य का स्वरूप--त्रह्म
की उपाधि- ब्रह्म के दो रूप--च्रहय जगत् का
भ्रधिष्ठान!कारण है 1
[३] जीव का स्वरूप |
[४] प्रकृति का स्वरू्प-्रकृति श्रौर श्रविया--
भ्कृति को सत्ता--प्रकृति के रूपों का वर्गी-
करण--माया--जीवोपाधि--जडजगत् ।
[५] जगत्प्रप्-- नित्यता की सिद्धि-परिणाम-
वाद-भेदाभेदवाद-मृक्ति का स्वरूप-मुक्ति
के भेद-मूक्ति के साघन--ज्लानकमं श्रौर
उपासना ।
अध्याय २--आाचायं विज्ञानभिष्चु के सांस्य-सिद्धान्त [१४१-१८९१]
[१] प्रमाण--विवेचन--प्रमाण-धरक्रिया-- प्रमाणो
के विशेष लक्षण ।
[२] परुष--विचार--भ्रस्तित्व- पुरुष का स्वरूप---
पुरुष बहुत्व--उपाघि ।
[३] पुरुष भ्रौर जीव ।
[४] पुरुष भ्रौरः ईदवर 1
[५] श्रृति-विचार-श्रकृति कां स्वरूप,
प्रकृति का वर्णन ।
[६] गणो का स्वरूप ।
[७] भ्रविद्या ।
[८] सृष्टि-विकास ।
[९] कैवल्य 1
पृष्ठ संख्या
अध्याय ४--आचायं विचानभिक्षु के योग-सिदधान्तं [१८२३-२२८]
[१] योगस्वरूप--सम्प्ज्ञात, श्रसम्प्रज्ञात--दोनों
का प्रयोजन--दोनों का पारस्परिक सम्बन्व,
श्रसम्परज्ञात के भेद श्रौर उनका स्वल्प
भवं तथा उपाय--प्रत्यय--प्रसम्परज्ञात योग--
सम्प्रज्ञात योग के भेद ।
[२] धर्ममेध समाधि ।
[३] समापत्तिरयां 1
[४] योग--साघना ॐ सोपान--उत्तम साघकों कौ
साधना का स्वरूप--मघ्यम साघकों कौ साघना
का स्वरूप- मंन्दाचिकांरियो की योग साघना
का स्वरूप 1
[५] ईदवर ।
[६] योग-सिद्धियां ।
[७] कैवल्य-मीमांसा ।
[८] स्षुट विचार--स्फोट-स्फोट क प्रामाणि-
कता--क्षण-सिदधि में प्रमाण ।
तृतीय-पटल [स्थान-निधोरण]
अध्याय १- -आचायं विक्ञानभिक्षु के दर्शन को तुलनात्मक
समीक्षा-- [२२९-२७३।]
[१] समन्वथ--समीक्षा ।
[२] वेदान्त--समीक्षा-ब्रह्म--जीव-्रकृति--
भेदाभेदवाद-मुक्ति-मुक्ति की साधना--
ज्ञान श्रौर कर्मं की साघनरूपता 1
[३] सांख्य-समीक्षा--प्रमाणए--पुखष विचार--
प्रकृति श्रौर गुण विचार-परिणाम--सिद्धान्त
्नौर पुरूष का बन्ध-कंवल्य भ्रौर उसको
साधना ।
पृष्ठ संख्या
[४] योग--समीक्षा--योग साघना के सोपान
सिद्धिर्या--फवल्य 1
[५] ुटकल चर्चा ।
[६] घार्मिक सावना ।
अघ्याय २-आचा्य॒विक्ञानभिक्ष्, का भारतीय दर्शन मे
स्थान
[१] दार्शनिक पृष्ठभूमि ।
[२] सास्य-दर्शन में विज्ञानमि्चु का स्थान ।
[३] योग-दर्शन में विज्ञानमि्ु का स्थान ।
[४] वेदान्त-दर्शन में विज्ञानमि्चु का स्थान ।
[५] उपसंहार ।
सहायक ग्रन्थो एवं पत्रिकाभ्नो की सूची २९०.-२९४
परिशिष्ट--१ २९५-२९६
संकेत-शब्दों का विवरण २९७-२९०८
[२७५-२०८९]
रथम् पटल
वियक्तिक्लविवर्ण्]
फा०२
६ ९ ©> ©> ©>
१ | आचाय विजानभिक्षुका परय
परिचय तो दुर रहा स्पष्ट ज्ललक भी नहीं भिर्तौ आचायं विज्ञानभिक्षु
के गौरवमय व्यक्तित्व की । न निर्चित स्थान ओौर न अस्तित्व को बहुमुखी
गाथां । समय का भौ कोई स्पष्ट संकेत नहीं । माता-पिता तथा वन्घर-वान्ववों
के नामनिदेशा का कहना ही क्या ? अपनी गुरु-परम्परा का भी कोई उल्ठेख नहीं
किथा जाचायं ने । तथापि विद्वत्ता के तेज से आलोक्रित ओौर ज्ञानगरिमा से
जगमगाती हई उनको विशाल ग्रन्थ-रारि सें से उनके व्यक्तित्व की कुछ
धुंघी रेखाएं अवश्य उभर आती है । इन घूमि रेखाओं के ही सहारे आचाय
की एक परिचयात्मक काकी प्रस्तुत करने का प्रयास करियाजारहादै।
स्थान
कल्पनाओं ॐ वल पर कुछ विद्वानों ने आचाय विन्ञानभिक्षु का निवासस्य
निरिष्ट करते की कुछ चेष्टा अवश्य की है किन्तु उसके किये प्रमाण प्रस्तुत
करने को आवद्यकता क। अनुभव उन्होने नदीं करिया । कुछ विद्वानों" ने उन
कर्णाकर्णिका के बर पर गौड-देशवाशो वताया है ओौर कु ने उनके निवासः
स्थल के रूप मेँ उत्तरभारत मात्र का निर्देश किथा दै अन्य विद्धान् लोग
तोइस प्रसंग को भो भारतीय वामथ के इतिहास के म्मस्थलों मेंसेएक
समञ्च कर इसका स्प न करते हुए मौन रहते आए ह । उनके अस्तित्व के
स्मारकों का भी सर्वथा अभावदै। न तो उनके नाम या सम््रदायका कोई
मठ या मन्दिर कहींहै भोरन ही कहीं उनके कुटीरों का भग्नावन्ञेष । सभी
१. “"णाितपथणपाङप 2 १९८०९ 25 वण 2५९०९८10 ४एवगाहत्
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०९२५० 20-86€ण्ा०€ 1986.
२. द्रष्टन्य-प्रज्ञानन्दसरस्वतीहृत "वेदन्तदरञनेर इतिहास' पृ० ७४०
१९
२० | आचाय विज्ञानभिभु
प्रचित वेदान्त सम्प्रदायो का विरो करने के कारण उन-उन सम्प्रदायो कँ
अन्ध भक्तों ने इनके प्रति कोई सहानुभूति भी नहीं दिखायी, जिससे कि इनके
नाम पर कोई भव्य स्मारक आदि बनने कौ सम्भावना रहती । अन्य बौद्ध, जैन्,
वैष्णव तथा दौव सम्प्रदायो के प्रति हिन्दु गृहस्थ जनता को आस्था थी, क्योकि
वै सम्प्रदाय गृहस्थो को भी तत्त्वज्ञान ओर इष्टदेव-लोक-प्राप्ति रूप मोक्ष काः
मधिकारी मानते थे। विज्ञानभिक्षु के मतवाद मे सांख्य ओौर योग से अनु-
प्राणित साधनाएं ओर तात्काछिक अन्य सम्प्रदायो के तीत्र-तम खण्डन की
धुओंघार चेष्टाएुं केवल बौद्धिक आध्यामिकता कौ नीव पर आधारित थीं।
साधारण गृहस्थ जनता में बौद्धिकता के प्रति नसगिक ्िज्षक ओर
आकषंणहीनता का अनुभव सवथा निदिचत है । आचायं विन्ञानभिक्षु को अपने
मतवाद के प्रति जनसामान्य का यह् ओौदासीन्य अवद्य खलता था भौर उनके
वाक्यों मे अपना मनोवैज्ञानिक प्रभाव प्रदशित करता था। साधारण-सी बात
कहं कर॒ उसके प्रमाणस्वरूप अकारण ही “शत' गौर "सहल" उदाह्रणों काः
स्वव नाम लेना" इसी प्रभाव का द्योतक है । कहीं कहीं तो "आग्रह" छोडने
के किए जनसामान्य से उन्हँ आग्रह् भी करना पड़ा है ।२ इस प्रकार वैदुष्यके
विपुल विलास में व्यग्र विज्ञानभिक्ु जनगण के अन्तर्मन को विल्कुल न
सके । उन्होने जिस प्रकार को भव्ति अपनायी वह॒ भी वस्तुतः बौद्धिकता की
हदवसम्बन्िनो व्याख्या हौ थी । उसमे न तो निम्बाकं तथा चैतन्य महाप्रभु
भादि की भक्ति का वेसुध करने वाला मनोमोहक रस था ओर न रामानुज
भादि कौ भविति का दिव्यानुभूत्ति-समन्वित--जीवन का व्यापकं संदेश ।
1 क सच्चे योगी होने के कारण योगज चमत्कारोंकेभीवे घोर विरोधी
अ्यदाते नमत्कार भौ जनता की भावनागों को उनकी ओर आकधित करने
जनता ने उ ज्ान.नाव व म ही घ्वनित जर प्रतिध्वनित होता रहा
उतपाह नहीं दिलाया । च शति के , भज्ञानपटङ खोलने मँ श
निजञानभक ५ लए ध सार्य-रादूल, योगिराज, वेदान्तविभू
03 -मन्दिर-स्थापना सदा स्थगित ही रही ।
[1 शतैरपि
५ त १ ृिस्ृतातनिरोषः इत्यादि वाव्यत्रतेभ्यः
५ १२ १२२, १६१। द्रष्टल्य यो० वा० प° २१४,
ध २२२, ३१०, ४५६६त्यादि। तथा द्रष्टव्य सां० भ्र ० ० पु ०२, १५ इत्यादि \
* तस्मादाग्रहुं परित्यज्य . , 994 "इत्यादि--वि०्भा० पु० ४७६
अचायं विन्नानभिक्षु का परिचय | २१.
एक सम्भावना यह भी है कि विज्ञानभिक्ष् एक उत्कट त्यागी थे । कदा-
चित् इतना महान् त्यागौ भारतीय वाडमय के इतिहास मेँ मिकना असम्भव हे ।
सांसारिक निष्ठावाले विद्रानों ओर कवियों मेँ तो पूणे परिचय देने को परम्परा
रहती है । जिन पुरातन कविथों मेँ यह परिचय वाच्यरूप से नहीं मिक्ता वे
व्यञ्जनया अपना पूरा परिचय प्रकाशित कर देते थे। दरंनशस्वरवुरीणों ने
भी अपने पिता, माता गौर स्थान के नाम के द्वारा चाहे अपनी गृहस्य क्लाकी
भलेही न दी हो परन्तु अपनी गुरुपरम्पराओं का, श्रद्धासमन्वित पद-विन्यासों
के माध्यम से, परिचय देने को चेष्टा कोद । गृहस्थ को न सही, उनके ग्रन्थों
से आश्रमकरुटीरस्थ ज्ञाकी उनकी अवश्य भिक जाती है । परन्तु धिज्ञानभिन्षु
नाम-रूप के सभी प्रदंशनों से पराडमुख रदे ! अपने गुरुके प्रति उनको असीम
श्रद्धा थी तथापि उनका नाम-स्थान-संकी्तंन उन्होने कहीं नहीं किया । गुर
परम्परा भी उलिकिधित नहीं को । अपने जन्म, जीवन, निवास आदि किसी
विषय की ओर स्पष्ट इगित नहीं! पिता, माता करा कोई प्रकरण दही नहीं
उठता । कहाँ तक कह अपना भी नाम नहीं दिया उन्दने । “दिज्ञानभिक्षु"
केवर एक प्रतीक है जो 'विज्ञानयति'^ "यतीन्द्रविज्ञान, धविन्ञान भिक्षुक",
"विज्ञानाकं" र्पो मे भी हमारे सामने आता ह। इस कारण भी उनके
स्मारक- निर्माण इल्यादि कौ सम्भावना मतन्भव हो जाती है । उन्होने निरुचय
ही अपने शिष्यो को इस प्रकार के आत्म-विज्ञापन-पराथण कार्यो के प्रति
हतोत्साह किया होगा ।
कारण चाहे जो भी रहा हो, सत्य इतना अवद्य है कि विज्ञानभिक्षुकी
स्मृतियों के नाम पर उनकी गौरवमयी ग्रन्थ राशि के अतिरिक्त ओौर कुछ भी
पूजी भारतीय इतिहासनिधि मे अवशिष्ट नहीं है। इस सन्दभं में ऊपर
संकेतित उनके निव।स-स्थल का निर्धारण करन। अतीव जटिल है। तथापि
उनके ग्रन्थो में जाने-अनजाने एसे अनेक मागं-दरोक प्रकाशस्तम्भ विखरे
पड़े हैँ जिनके सहारे उनके स्थान स्वभाव एवं समयका निह्पणकियाजा
सकता है । ये प्रकाशस्तम्भ उनके हारा प्रयूक्त हए कच विशिष्ट शब्द,
=
१. मनिक्षु" शब्द का अर्थं है संन्यासी । इतत केवल बौद्ध संन्यासी सा अनन
करना चाहिए ! अनेक अन्य वेदान्तो ने भी अपने नाल कते आगे भ्श्षु रखा
है जैसे नारायण भिक्षु आदि । वि भा० पु०२८
२. द्रष्टव्य, वि० भा० पुं० ५६३
३. वेदान्तनगरीमागौं विज्ञानार्केण दशितः । ति० भा० ५० १३९
तकाकककाा
२२ | आचायं विज्ञानभिक्षु
वििष्ट अथ-चोतक वाक्य तथा विशिष्ट परम्पराओं के परिचायक प्रसंग है।
यद्यपि एसी सामग्री तथ्यो क चरम निर्णायिका नहीं हौ सकती, किन्तु बाधक
प्रमाणो के अभाव मे उसका निर्णय स्वीकरणीय ओर मान्यहोता हीहै।
आतुषंगिक सूप से एक गौर महान् लाभ एसी सामग्री के उपयोग सते होता
है कि आनेवक युग के लिए अनुसन्धान कौ स्थायी पृष्ठभूमि प्रशस्त हो
जाती है ।
साधना
इस प्रसंग मे सबसे अधिक कृतुहलमयी सामग्री जो चित्त के सामने
रस्तु होती है वह यह है कि आचायं विज्ञानभिक्ु ने हजारों पृष्ठो में फले
हए अपने ग्रन्यो मेँ केवर एक देश ओर केवल एक स्यान का ही नाम लिया
है' ओर वे देश तथा स्थान हैँ "भारतवषं"* ओौर "प्रयाग'° । उन्होने अपने ब्रह्म
सूव्रभाष्य ओर योगव।तिक् दोनो ग्रन्थो मेँ एक-एक वार ये नाम क्ष हैँ।
स्पष्ट है करि इन उद्धरणों मेँ विज्ञानभिक्षु के निचासस्यान से भारतवषे'
जौर "्रयाग' का कोई साक्षात् संकेत नहीं भिरुता । तथापि श्रयाग' शब्द मे
जुड़ा हुञा "भादि' शब्द अन्य स्थानो का बोधक है । जब अन्य स्थानोंमेभी
स्वर्गीय रोगो अर्थात् देवादिगणों का यागादि कृरना स्मृतियों मेँ बताया
गयादहैतोदोप्रकार के स्थलोंमेंसे विन्ञानभिक्षु का ्रयाग'का ही नाम
लेना कुछ सूचित करता है या कम से कम सूचना की सम्भावना रखता
है। प्रबल न सही क्षीण ही कहिए, किन्तु यह भावना तो वनने ही लगती
है कि विज्ञानभिक्षु अवश्य ही प्रयाग मे आए यथे ओौर धाभिक कृत्य या
तपोऽतुष्ठान करने मे निरत हुए थे। श्रयाग' के प्रति उनकी यह असीम
निष्ठा निस्संदेह यह सिद्ध करती है कि यह् स्थान उनकी साधनां का
१. सास्यसुत्रो, वेदान्तसूत्रों ओर योगभाष्य से थानों
पहिले ही आए हए स्थानो का
द दवारा किया गयां वा मात्र होगा, जं
तु पुत्र जदि । यहाँ पर ठ : निर्दिष्ट
नगर र देश के नाम से अभिप्राय है ॥ ५ ।
1 स्यादेवं
ध म ह यागादिश्रवणात् तेषां कर्माधिकारङ्च देवादि-
शक्तत्वा पथः व ष्योन तु भारतवपे स्वोल्टष्टदेवतायागे चार्थिटव-
त्वापकृदस्तत्वादिभ्य इति' ।-- ० सू ऋ० भा० पृ० २२१
३. स्वागिणां भारतवषेमागत्य ली
गैलामानुषविग्रहेण प्रयागादौ कर्मानुष्ठानस्य
तःफलस्य च श्रवणादिति'।-- ह यो० वा० पृ० १६२
आचाथं विज्ञानभिक्षु का परिचय | २३
क्षेत्र अवदय बना होगा, भले ही वे जन्मसे यहां न रहे हों । उनके ग्रन्थों
का प्रणयन अधिकांशतः प्रयागमें ही हुआदहै। इस त्थ्य का पोषक एक
प्रमाण ओर उपलन्ध होता है! । अविभक्तता के भनेक शास्त्रीय दृष्टान्त
्ुग्घजल' अथवा (लवणजल' आदि का सदा उपयोग करने पर भी
सांख्य प्र० भा०के एक प्रकरण मेँ त्रिवेणी कौ अविभक्तता का दृष्टान्त
देना दो प्रकार की सम्भावनाएं उपस्थित करता है। एक तो यह् कि इस ग्रन्थ
टेन के समय मे यह चित्र उनके सामने भलीर्भाति प्रस्तुत था ओर दूसरी
यह् कि उन्हें यह निदवास था कि उनके निकटतम चिष्यों के लिए यह दृष्टान्त
अधिक सुलभ ओर सुबोध होगा । ये दोनों सम्भावनां इस तथ्य को परि-
पुष्ट करती है कि विज्ञानभिक्षु के ग्रस्यप्रणयनादि कर्मो का क्षेत्र प्रयाय
रहा होगा ।
विज्ञानभिक्षु एक संन्यासी थे इतना तो निरिचत दी है; ओर संन्यासकाल
में ही उन्होन ये ग्रन्थ लिखि हैँ यह भी उनके ग्रन्थों की पुष्पिकाओं से प्रमाणित
है? । अतः वहुत सम्भव है कि वे प्रयागं मे कहीं बाहर से आए हों जौर सावना
के लिए उन्होने भारतवषं के इस अन्यतम धार्मिक स्थर को चना हो । एक तकं
ओर अधिक इस मान्यता को सवर बनाता दै, वह् यह कि “भारतवषे' ओर
-्रयाग' को कर्मकषेत्र बतानेवाङे दोनों उद्धरणों मं देवताओं का लीलामनुष-
विग्रह से पृथ्वी पर आना ओर विज्ञानभिक्षु का अपने को भूदेव कहना कुछ
उनकी अद्धंचेतन मस्तिष्कगत-सूक्ष्म-वारणा का परिचय कराता है। भारतीय
पुनजन्मादि पौराणिक धारणाओं क्षे अनुप्राणित विज्ञानभिक्षु भीतर ही भीतर
अपने को सामान्य मनुष्यो से ऊपर, देवी संपत्तर्यौ से युक्त कोई देवता पृथ्वी
पर आकर साधना करता हुआ जैसा समञ्षते रहे हों, कम से कम अचचेतन--
मस्तिष्क मे यह सूक्ष्म॒धारण। पड़ी रही हो तो कोई आइचयं नहीं । जिसके
~~
१. सा्यप्रवचनभाष्य में वे लिलते ह -- क $
“निरीदवरवादे तु त्रिवेणीवदन्योन्याविभक्ततयकस्मन् कूटस्थे तेजोमण्ड ल-
वदादिस्यमण्डले प्ङृत्यास्यसूष्ष्मावस्थया महदादेरविभागादारनवकम् तत्व"
मिति (--सां० १० भा०्पू* सं० २४
२. उनके ग्रन्थो कौ पुष्पिका द्रष्टव्य है । उनमें अधिकांश्ञतः “यतीन्द्र! ओर
'्यतिवर' यही शब्द प्रयुक्त हए है ।
३. भुदेवैरमतं तदत्र मथितुं विज्ञानविजैरिह ध
शीमदरातिकसल्दरो गुरुतरो मन्थानदण्डो ॥२।--यो० वा० पृ०र३
२४ | आचायं विज्तानभिकषु
कारण ब्राह्मण वर्णं के अन्य पर्याय शब्दों के स्थाने पर उन्होने । अपने किए
“भूदेव' शञ्द ही चुना । यह् तकं शुद्ध मनोैज्ञानिक है । मनीषियों का चिन्तन
इस प्रसंग मे आकृष्ट होना चाहिए । मेँ इसीलिए इसको ओर केवर ईगित
मात्र कर रहा हूं ।
संन्यासी लोगं प्रायः अपनी जन्मभूमि इत्यादिसे दुर रहं कर ही साधना
करते ओर अधिकांशतः विचरण करते हैँ । इससे सहज ही यह् कल्पना होती
है कि आचाय विज्ञानभिक्ष ने सर्वत्र विचरण करते हए भी ्रन्थ-प्रणयन ओौर
योगानृष्ठान आदि साधघनाओं का क्षेत्र प्रयाग को बनाया होगा । इससे यह भी
लगता है कि आए यह् कहीं दूसरी जगह से थे, इनकी जन्मभूमि ओर वाल्यकाल
क्षेत कीं अन्यत्र है, क्योकि मनूष्य को इन स्थानों में रहते हए रागादिकषायों
से जल्दी छुटकारा नहीं मिल पाता ओर विज्ञानभिक्षु ने "राग' कषायको
वहृत प्रमुख समन्षते हए छोड़ने कौ घोषणा अपने ग्रन्यों मे कीदहे।'
जन्स्यनि
इनको जन्मभूमि के सम्बन्य मे छिखते समय ध्यान स्वतः इनकी पक्ति
"देशो जन्मभूमिनेगरादिः"° कौ ओर खिच जाता है। स्पष्ट संकेत इस स्थान
पर कुछ नहीं है किन्तु तुरन्त वुद्धि का आग्रह होता है कि चिज्ञानभिक्षु ने
विना किसी चिरोष प्रकरण कौ आकांक्षा के देशो जन्मभूमिर््रामादि :"
क्यों नहं छिखा ? सोचते का एक स्फोत सूत्र मिक जाता है। कल्पना होने
लगती है कि विज्ञानमिक्षु का जन्म किसी ग्राम में नहीं वलिक किसी नगर
मे ही अवदय हुमा था। उस नगर मे बड़ी-वड़ी सडके थी । किसी राज-
घराने का महर भी था। वरहा इन लोगों का आना-जाना भी थाः। राजकुल
मे इन जोग की प्रतिष्ठा थी। वहां ये लोग साफ-सुथरे कपड़े पहन कर ही
जाना पसन्द करते थे। इस वात मेँ तो कोई संशय ही नहीं कि ये ब्राह्मण
१ तथापि अविच्यास्मितासत्वे रागस्यावर्थकत्वाद् देष भययोरच रागसूल-
कत्वाद् राग एव मुख्यतो जन्मादिहेतुतया यथोक्तवाक्यैर्निदिर्यते इति।
--सांख्यसार प० ३
२. द्रष्टव्य, योगवातिक पु० ३३३
३. “उत्तरोत्तरभृम्यारोहो राजमागंः' ।-यो० सां० सं०, पृ० १६
योगाभ्यास राजमागंः' ।-यो० सा० सं०, पृ० ४०
४. ¶वासस्ते मलिनं राजङुलं सा गाः' इति !--वि० ०, प० २४९, ५०
आचायं विज्ञानभिक्षु का परिचय | २५
परिवार में उत्पन्न हुए थे'। इस प्रसंग मे प्रस्तुत किथा गया श्री हेयवदनराव
जी का यहु मत कि 'विज्ञानभिक्ष् ब्राह्मण--कायस्थ थे" सवथा निमृ है ।
न केवल इसकिए् करि इस वतके प्रमाण नहीं हँ अपितु इसलिए भी कि इसके
विरुद प्रमाण--उनके ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होने के प्रमाण--पुलभ हैँ । केवल
ब्राह्मणों को ही तत्त्वज्ञान संन्यास आदिमे विरिष्टाधिकारटहै एसा वे स्वयं
प्रकारित करते दँ ओौर अपने को "भूदेव" स्पष्ट रूप में लिखिते है।
आचाय विक्ञानभि्ु की सम्भावित जन्म-नगरी कौन सी थी? या
भारत के किस भाग में थी? यह् कटना टेढ़ी खीर ह। तथापि कतिपय सूक्ष्म
क्षीण किन्तु सुदृढ प्रमाण-तन्तुओों को सहायता से निश्च की ओर अग्रसर
होना चाहिए--
इनके ग्रन्थों में हिन्दौ चाषा क प्रभाव पूर्णङ्पेण परिलक्षित होता है।
एसे रन्यो ओर वात्यांयो की कमी नहीं है जो तंस्छृेत रूप में प्रयुक्त होने पर
भी हिन्दी-प्रभावको ही प्रकट करते हँ। उदाहरणा हम कुछ प्रयोग छेते
हे :--'बौटक" घोड के किए अवश्यक्तत्वम्" विरम्बसिद्धि"^ ओर शौ घ्रसिद्धि'
"विलम्बभविष्यत्ता' “शो भ्रभविष्यत्ता'* “चोघ्रोमार्गं'° (कामनीया वेधनम्”
मिलनम्"” 'मिकितिम्” अधिकाः" प्रघट् टकेन"^ जमाखचं वरावर के अथं मे
नतुल्यायग्ययत्वम्'* इत्यादि ययपि संस्कृत मे कोरा ओौर व्याकरण से शुद्ध माने
जा सकते हँ किन्तु इनका उन-उन अर्थो मे प्रयोग, वह् भी बहुतायत से,
यह सिद्ध करता है किये शब्दयातो हिन्दौ व्यवहार से लेकर प्रयुक्त हए
हैँ अथवा हिन्दी के निकटस्थ संस्कृ तानुवाद मान है । इन सामान्य लक्षण-
१. “भूदेवैरभतं तदत्र मयित विज्ञानविज्ञरिह' 1 -यो० वा० व
२. श्रौ सी° हयवदनराव श्रीभाष्य कौ भूमिका में पु° ३७७ पर लिलते हँ -
“ए. 1८ एत्८व्च€ ३ 5757४ 16 25 5210 (0 129४6 06107६९
{0 (€ एशपद्रा<वायुाल्य ०2516... 12125119 8. १.
ए7वा1719ु8 (10 {गाएषद्व् श (त्त्पप्पना ग व 1८735018 25 ८211९व
६ 71201427014..
३. द्रष्टव्य, यो० वा० पु० ३३० ४. द्रष्टव्य, यो० वा० प° २८७
५. „+ यो० सा० सं ६ ६. »„ योऽ वा० पु २९६
७. + सां० सा०प्०३० ८. # यखै० सां० स० प° ५६
९. + यो० वा०पु० ४४८ १०. + यो० वा० वृ ३२७
११. „+ यो० वा० पुण १६७ १२. ५ सां० सा० पु० ४१
१३. „ सर्वग्रन्थेषु १४. + सां० प° भा० पु १५३
२६ | माचायं विज्ञानभिक्
वाले प्रयोगों के अतिरिक्त कुछ विशेष हिन्दी-प्रभावित प्रयोग भी इस प्रसङ्गः
में दशनीय दै--
१, नारायणोऽयं भासते
२. येन रात्रिदिनव्यवस्थितिरिति'।
३. मुखङग्नां मसीमिव ॥'
४. एकदापरसूष्षमे प्रवेशासम्भवात्"
५. धानस्यतण्डकस्य चावधातेनेति ।*
ये वाक्या तो निर्चय ही हिन्दी कौ संस्कृत--छायामाव्र है । सूये" को
“सूरय ओौर “सू्ेनारायण' नाम से तौ भारत के अनेक भागों मे व्यवहृत किया
जाता है। उत्तरी भारत में तो भाज भी विशेष कर देहातौं मे नारायण जीः
उडइ आये' नारायण जी के उदित हो जाने के किए प्रयुक्त क्रिया जाता है ।
सूयं को केवर (नारायण' शब्द से व्यवह्त करना विज्ञानभिक्षु को हिन्वी-
भाषी क्षेत्र का निवासी सूचित करता है । दुसरे उदाहरण मे तौ यह धारणा
ओर जागरूक हो जाती है । संस्कृत मे "नक्तंदिवम्, अहोरात्रम्" "रात्रिंदिवम्!
इत्यादि समस्त पदों का विपुल प्रयोग देखा जाता है । “रात्रिदिनः जैसा समस्त
पद इसी प्रकार के हिन्दी भादि के प्रभाव से पूणं संस्कृतके किसी ग्रन्थ मं
अले देखने को मिल जाय किन्तु शुद्ध संस्कृत-वारा के ग्रन्थों मं ये प्रयोग
मिलने असम्भव है । यह प्रयोग तो “रातदिन' नामक हिन्दी के वहुप्रयुक्त
समस्तपद की संस्कृतछायामातर प्रतीत होता है। तीसरा प्रयोगतो "मुख में
र्गी हई काकिल' का शुद्ध संसछृतानुवाद गता है । एकवारगी के अर्थं मे
एकदा का प्रयोग पूणंतः हिन्दी के प्रयोग "एकदम' या "एकधम' से अनुप्राणित
है। वैसे ही धान (वा) के अथं में “धान' शब्द का प्रयोग हिन्दौ मेँ ही
होता है। संस्कृत में ्रणुक्त होनेवाला "घान" शब्द केवर भूने हुए दने मथवा
बीज के अथं मे--वह भी केवर बहुवचन भौर स्वरीलिद्धं मे होता है।* इस
आधार पर यदि विज्ञानभिक्षु की जन्म-नगरी हम उत्तरप्रदेशमे या बिहार
१. द्रष्टव्य, यो० वा० पु १११ २. द्रष्टव्य, यो० वा०पु० ३४३;
३. » यो० वा० पु० ३५१ ४, „+ सां० प्र भा०पु०२
५. + सां० प्र भा० पृ०५९
६. श्वाना भष्टयवे स्त्रियः--अभर० २। ९। ४७
श्वाना भृष्टयवेऽडकूरे धान्याके चणसकतुषु' इति हैमः
अण्व्य इवेसा धाना भगव इति ।--छा० उ० अ० ६। ख० १२
आचायं विक्ञानभिक्षु का परिचय | २७
से अथवा मध्यप्रदेश के उत्तरी भागम माने, जोकि श्थ्वींसे लेकर १७वीं
दाताब्दी" तक हिन्दी के अन्यतम गढ रहै, जसा किं हिन्दी ना० प्र० सभा
की रिपोटेसे प्रमाणित है, तो सत्यसे वहुत दूर न होगे।
विचरण-स्थल
आचाय विज्ञानभिक्षु संन्यासीथे ही उन्होने देश में परिभ्रमण किया
होगा । दशन के ग्रन्थों मे यद्यपि स्थानों के सौन्दयं-चित्रण आदि का कोई
अवसर तो रहता नहीं इसक्ए तत्तत् स्थानो की ओर द्ंगित करना हम रोगौ
के किए असम्भव होगा तथापि कुछ फुटकल इशारों के वल पर यह कहा जा
सकता है कि उन्होने भारत के अनेक भाग देखे थे। उन्होनि न्नीरुगिररि
पर्व॑तं का नाम उल्किखित किया है * जिससे उनका दक्षिणी भारत का रमण
सिद्ध होता है 1 “उष्ट् कुडकुमवहनवत्' नामक सांख्य सूता का भाष्य करते समय
“स्वाम्यम्” पद का उनका प्रयोग॒ राजस्थान तथा प्र्चिमी उ० प्र° के
व्यापारियों की प्रगति की ओर आंखों देखा इशारा प्रतीत होता दै। “लुष्नस्य-
पाटलिपुत्रस्ययोरिव' सांस्य-सूवांशा के भाष्य मे इन नगरों को उन्होने नगर नहीं
कहा अपितु श्देश-विशेष' बताया रहै । न दोनों नगरों के नाम पर १६वीं शताब्दी
तक प्रदेशा या इलाक् बन चुके थे । इसकिएु इन इलाक्रों को मलो देलौ प्रादेशिक
रूप की सत्ता इन्होने अनुभूत की रै जौर तभी भाष्य मे इनको एसी परिभाषा
करने को उदयत हए प्रतीत होते है । इससे भागरा के प्रदेश ओौर मघ्य विहार
के प्रदेदों मे नका विचरण निर्णीत दै । प्रयाग क्षेत्र तो इनका साधनास्थक ही
रहा । काडी के रहनेवाले श्री भावागणेल दीक्षित इनके साक्षात् श्रिय रिप्य
ही थे^। देहातों के सीवे-सादे अनेक चित्र इनके ग्रन्थो मे बिखरे पड़ है" । वन
१. विद्ञानभिक्षु का जोवनकालं इसी अवधि के वीच भें ही निर्धारित
होता है। 5
२. ऽश्बतौ 9 प्रप्ता 1१011111 8 रिपोद्स काली नागरी प्रचा-
रिणी सभा से प्रकाशित हुई है! वे द्रष्टव्य है]
„ द्रष्टव्य, यो० वा० पु० २३४१
, सां० प्रन्भा० पु १०८
~ » सां० प्रं° भा०प्० ९ ४ ्
६. भावागणेशदीक्षित सम्बन्धी “ १६बीं शताब्दी काजी, में प्राप्त
हा हे । छेख पी० के गोडे महोदय का--अडि० =!० ० फरवरी,
१९४४ भें ।
७. द्रष्टव्य, यो० वा० पु० २४४ ३४२
२८ | जाचा्यं विन्नम्
के अंशभूत वृक्षों का विवरण देते हए 'पनसाञ्रदाडिमादि" का कृथन उन
प्रेद मेः इनके परिश्रमण का सूचक दै जहां न तीन प्रकारके वृक्षका
एक ही वन मे समावेश बहु तायत से रहता है । एसे उपवन सम्भवतः वंगाल
के उत्तरी प्रदेश मेँ भधिक पाए जाते हं । तात्पथं यह है कि भारत के अनेक
उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी ओर पदिचमी प्रदेशों का इन्दोने परिभ्रमण कियाथा
ओर उन-उन स्थलों के चित्र-चिचित्र अनुभवी से इनका ज्ञान परिपृष्ट था।
व्यक्तित्वं `
विगत विवेचन से हम यहं निष्कं निकाल सकते ह कि चिज्ञानभिक्षु का
जन्म एक समभ्रान्त ब्राह्मण परिवार में हुमा था । उन्होने बड़ी लगन ओर
अध्यवसाय के साथ विद्याघ्ययन किया था । संस्कृत साहित्य, व्याकरण, वेद,
वेदांग ओर समस्त ददनों का उन्दने ज्ञान उपाजित किया था। उनके
दा्लनिक खण्डन-मण्डन-संकरुल ग्रनयो मे भी कालिदास ओर माघः कौ पंक्तिथां
वरवस निकल पड़ी हैँ । उनके साहित्यिक अनुशीलन का यह सवल दो्तक है 1
बिवादास्पद पदों का व्यु्पत्ति-निमित्तक अथं देने" की पद्धति इनकी व्याकरण-
परायणता की ही व्यञ्जक है। वेद, देन ओर उपनिषदों के सम्बन्ध मे तो
इनकी कतिया, साक्षात् प्रमाण है। दक्षेन मेँ स्मृतियों जोर पुराणों के
सहयोग सिद्ध करने मतो ये अद्वितीय सजगं प्रहरी रहें है। विद्याव्यस्तन
यर अंकरुरित होते हृए वैराग्य के कारण इन्होने प्रत्रज्या ग्रहण कर री ।
गृहस्य जीचन के प्रति ये उदासीन रहं यह वात उनकी गृहस्य साधकों के
्रति भरदाश्ित हीन दुष्ट से सुस्पष्ट है ।* गुरु से दीक्षा केने के उपरान्त इन्टोने
एकान्त योग-प्ावना का मागं ग्रहण क्रिा। ये एक त्रिदण्डो संन्यासी थे।
योगस्ाधना में पर्याप्त सफलता प्राप्त" करके इन्होंने उपदेश देना ओौर
ग्रन्थ छिना प्रारम्भ किया होगा क्योकि अपने योगानुभव का उल्लेख
१९ द्रष्टव्य, यो० वा० प° १९८
२. विषमन्यमतंक्वचिद्भवेद्' ।--यो° वा० प° ३१२
३. शुद्धेभोग इवात्मनि' ।--तां भ्र° भा० पू० ५५
४. "चिती संज्ञान इतिव्युत्यर्था चेतनोऽत्राभित्तः"--सां० भ्र भा० १० ८१
इत्यादि न
५. द्रष्टव्य, उपनिबद्भाष्यम्, ईइवरगीतःमाष्यम् ओर अस्थ प्रत्य)
६. , यो० सा० सं° प° ६०
७. “स्वानुभवसिद्धस्वात्"--यो० सा० सं प ८
आचार्यं विज्ञानभिक्षु का परिचय | २९
अपने योग-गरम्थो मे इन्होंने स्वयं किया दै। इस समय तक इनके गुरं ने
विदेहकवल्यराम् कर लिया था।' इनके शिष्य भी अनेक लोग हुए । इकर
दिष्यों की संख्या बहुत थी । अनेक शिष्य गृहस्थ भी थे जिनमे से भावागणेश
इत्यादि बहुत ही प्रसिद्ध है ।? गरन्य-परणयन के साक्षाद् वोध्य इनके दिष्य
ही थे ।* शिष्यब्यतपत्तिः ही इनका अधिकांरतः लक्ष्य रहता था। इनके
सिद्धान्त की युवितयुक्तता ओौर इनके ज्ञान की सर्वाद्गीणता का पूणं
विवेचन तो अगले अध्यायो में किया जायगा । हां यहाँ यह बताना अपेक्षित
है कि इनको अपने ज्ञान पर निष्ठाथी ओौर चरम कोटिकी अस्था थी
इस आत्म-विदवास कौ अधिकता के कारण उनके ्रन्थो में विपक्षी विद्वानों
के प्रति कुछ तीखे वाक्यो" ओर शब्दो का प्रयोग हो गयादै। रङ्ुराचाये
आदि दिमगज दाक्ञेनिकों के किए प्रच्छन्नवौद्ध कलिङ़तापसिदधान्तीˆ ओर
वेदान्तितरुव+ प्रभृति पदों का प्रयोग न केवल उनके प्रबल आत्मविदवास
क्रो प्रकट करता है अपितु तज्जन्य स्वभाव की उग्रता या प्रबरता का भी
निदचायक है।
उनकी निर्मम एवं तीव्र ज्ञानात्मकसावना के अन्तरारू में भर्वित-भावना
का सुमधुर रसभीहै। जागे के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जायगा कि सांख्य,
योग, ओर वेदान्त तीनों का समन्वयचाद (योग के प्राधान्य पर ही) विज्ञान-
भिक्ष् ने निरूपित किया है। योग भै ईरवरवाद की गंजायश है विज्ञान
~
१. यान्तु श्रीमद्गुरोः पदम् (--वि० भा० पु० १
२. “परिचयात्मक इलोक' भा० गणेडा चिच्चन्दिका के प्रारम्भ मे।
३. इनके दिष्यों मे भावागणेश, प्रसादमाघवयोगी ओर दिरव्यासहमिश्च
अधिक प्रसिद्ध है! श्ञरीरकारिकाभाष्यवातिंककार' दिव्यसिंह ने स्पष्ट
ही विज्ञानभिक्षु को शिष्यता का वर्णनं किया है ओर प्रसादमाचवयोगो
को वि० भि० के शिष्यो से सबसे अधिक व्युत्पन्न बताया हं ।--हालहृत
भूमिका 'सांस्यसार' पू० २८
द्रष्टव्य वि० भा० पु० ३३ इत्यादि ।
, वि० भा० पु० ४, १६, ३८, ८७, १२५, ६०१ इत्यादि,
. "्यत्ुकदिचिदविवेकौ" इत्यादि सा० भ° भा०पु०९२. ५
~ यत्तु वेदान्तित्ुवाणामाधुनिकस्य जायावादस्यात्रलिडगं दुद्यते अनर्थं च
रीत्या नवीनानामपि भ्रच्छन्नवौद्धानांमायावादिनामविदयामातल्व तुष्छस्य
बन्धहेतुत्वम् निराङृतं वेदितव्यम् [--सां० प्र० भा० प° १७ इत्यादि
, द्रष्टव्य, वि° भा० प° २६
, {इत्यादिनैकस्थलेषु'--सां° भर° भा?
इत्यादि
@ 6 -@ ०
वि० भा० यों० बा° प ११०
० ^
३० | आचाय विज्ञानभिल्ु
भिक्षु कौ अन्तरात्मा ने ईर्वरवाद के रससिन्धु मे अपने ज्ञानचक्षु धोए थे ।
इसीलिए योगसाधना के ईरवरमागं को मुख्यकल्प ओर निरीश्वर साधना-
पथ को अनुकल्प के खूप मे विन्ञानभिक्षु ने प्रतिपादित किया दं। उन्ोने
स्वयं मृख्यक्ल्प की ही शरण ली थी। वेएक भक्त ज्ञानी थे। उनका
साध्य ज्ञान ओर तज्जन्य कंवल्य था, साधन थी भव्ति। इस प्रकार से व्र
भक्ति-मार्गी ज्ञानी थे। ज्ञानमार्गं भक्त नहीं । उनके ज्ञान का लक्ष्य इष्टदेव
के श्रीचरणों कौ भव्ति या रति नहीं है । उनकी भक्ति का लक्ष्य विवेचन-
ज्ञान या विवेक-ल्याति है। श६वीं या १७बीं शताब्दी मेँ भारतीय-भक्ति-
जागरण के समय मे अपने शिष्यो या स्वयम् अपने को शुष्क ज्ञान
मार्गी रख सकना उनके किए भी असम्भव ही था । इसीलिए अपनी रचनाओं
मे भये हृए प्रसंगो में राम ओर कृष्ण का नाम उन्होने वड़े आदर से ल्या
है ° उन्ह विण्ण्वादि के अंशावतार रूप मेँ स्वीकृत भी कियाह। किन्तु
उन्हे साक्षात् वह परमेवर नहीं माना है जो कि ज्ञानात्मक दृष्टि का उदात्त-
विन्दु है, निर्गुण है, निविशेष है ओर असद्ध॒दै। यह परमेर्वर भक्तो की
भावभीनी कल्पनाओं का सुमधुर प्रतीक नहीं । विज्ञानभिक्षु का अमरसंदेस
ज्ञानचक्षुं को खोलने के चि है, भक्तिभावना में विभोर होकर नेत्र बन्द
करने के किए नहीं । उनके हरि मोक्षस्वरूप नहीं हैँ केवल मोक्षद अर्थात्
मोक्ष-मागे को प्रशस्त करने वाले हैः ।
निस्चय ही चिज्ञानभिक्षुने दीर्घयु पायी थी। अपनी साधनाओं के
पङ्चात् उन्होने ग्रन्थलेखन प्रारम्भ किया ओर शिष्य बनाए थे, जिनके किए
उन्होने अपने व्याख्याग्रन्थ लिखे ओर संद्धान्तिक खण्डन मण्डन मं बद्धपरिकर
इए । ग्रन्थ उन्होने र्गभग १८ ल्खि हवे भी विशाक्काय ओर विचार
विरलेषणपूणं । साधनाएं प्रौढ हए विना प्रशस्त नहीं हो सकती थीं । अतः
साधनां को प्रौदि के वाद इतनी विशार ग्रन्थ-राशि के प्रणयन के लिए
दीघेकाल का अवसर सुलभ होना चादहिए। इसलिए उनके जीवन-काल को
हम कम से कम ८०-८५ वषे तक प्रसृत समज्ञ सकते हैँ । अपने अन्तिम दिनों
मेँ उन्होने चिरसर्माधि ले री होगी ।
१. द्रष्टव्यः यो० सा०सं° पू ६२, सा०प्र० भा० प० ११५, सां०ष्र०भा०
प० १३२ 4
. श्रीयतां व हरिः ।'-सां० प्र° भा० मङ्गलाचरणम् पृ० १
वाले अध्यायमें इन ग्रन्थों का सम्थक् वर्गोकररण होगा ।
~< ९)
क रेसलर ` -
आचायं विक्ञानभिक्षु का परिचय | ३१
नीवन-कालं
पृष्ठभूमि
चिज्ञानभिक्षुं के समय का निर्धारण करना भी उनकी आत्मगोपन की
प्रवृत्ति के कारण काफी जटिल विषय ह। भारतीय वाडमय के इतिहास
छेखकों ने सामान्य ढंग से उन्हे सोरहवीं रताब्दौ का आचायं माना हे । प्रोऽ
ए० वी° कथ महोदय ने इस प्रसंग में वड़ी अनिरिचतता प्रदशित कौ है।
अपने ्रन्थ "सांख्य सिस्टम"" मे उन्होने विज्ञानभिक्षु कौ स्थिति श६वीं शताब्दी
मे मानी है किन्तु अपने एक अन्य ग्रन्थ (संस्कृत वाङ्मय का इ तिहास-अग्रेजी
संस्करण) ° मे चिज्ञानभिक्षु का समय उन्होने १७बीं शताब्दी का मध्य भाग
स्वीकार किया है । श्रीयुत एष्० ई० हाक, डा सिचि गावे, प्रो° एम
विन्तरनिट्ज डा° एस° एन० दासगुप्त एवं डा राधाकृष्णन्" इत्यादि
विद्धानों ने विज्ञानभिक्षु का समय श्वी रतान्दी ही निर्धारित क्रिया है।
चकि इस प्रसङ्ग मे पर्याप्त प्रकारा का अभाव था ओर विरोध भी नहींथा
इसलिए उक्त मनीषियों ने इस मत कौ पुष्टि के लिए उपयुक्त तर्कोँकी
प्रस्तावना भी अधिक नहीं की ।
इस सम्बन्ध में डा० पी० के° गोडे ने अपने एक गवेषणापूणं लेख“ में
एक नई सूचना दी है कि विज्ञानभिक्षु के सप्रसिद्ध रिष्य भावागणेश के दारा
हस्ताक्षरित एक निणंय पत्र (१५८३ ई०)का मिला है जिससे विज्ञानभिक्षु जौर
भावागणेश दोनों का कालनिर्णय वड़ी सुविधा से ^१६बीं राताब्दौ' किया जा
सकता है । यह निर्णयपत्र बनारस में मुवितमण्डप पर लिला गया था । इसका
१. ऽत्रपतव शल. ?. 114 ण 4.8. ला.
२. घाऽ्णर 9 ऽवप [लवा १. 489 ४# ^. ए. लप.
३. 2161406 10 1116 अतरपाता2 5812 ?. 7 £. 7. प्21].
४, 169८८ (0 € 1111 २१ प्त २. 8 ण 0. ₹.
2106.
५. [ताश [न्लाश्पा (छली 70.) ?. 487 छ क. पणपष्-
1112
६. पाऽ(० 10ता त एणाग्णग ४०. 1 ए. 212, 221 णि-
9. क. 1025 @प५६.
७. [तार्ण ुषा०ण भ. 0 शाना.
1018 {11 169. *
£ 1 न ए. 76 ण २. 9. एणा,
एव 1926.
३२ | आचाय विन्ञानभिन्त्
समय शाक सं० १५०५ ( १५८३) ई० ह । इसमें तात्कालिक वाराणसीय ब्राह्मण
गे के मखियों कौ सम्भति भौर उनके हस्ताक्षर टं। उसमे भावागणेश विषयक
लेख दष प्रकार है--“तव्र संमतिः। भावये गणेशदौक्षित प्रमुखचिपोरणे ।'
गोडे महोदय ने तकंभाषा कौ टीका तत्त्वप्रनोधिनी के रचयिता गणे
दीक्षित“ जिनके पिता का नाम गोविन्द ओर माता का नाम उमा था-ओौर
विज्ञानभिक्षुके शिष्य भावागणेश दो क्षित*-डोनों जिनके पिता का नाम चिरवनाथ
ओर माता कानाम भवानी था-दोनों को एकी व्यविति मानने की भी सम्भावना
की दै ओर उस लेख की पादटिप्पणौ मे इसका हल्का संकेत किया है। इस
मान्यता से निरणयपन्र में हस्ताक्षर करने वाले 'भावयेगणेरादीक्षित' को निस्संदेह
रूप से एकमात्र विज्ञानभिक्षु के दिष्य रूप में मानने की सम्भावना ओर बड़
१-- ^ पव्तपने नामसाम्य के श्रम से इस ग्रन्थ को भी भावा-
गणेदा की ग्रन्थ-सुची में गिना दिया हे : ९ 1. 144 --'भावागणेशदीक्षित'
801 ०६ भावाविहवनाथदीक्षित, € ०105०07: ©: -भावारामकृष्ण' एष] 0॥
॥ (1111111
--कपिलमत्ररीका 0107 1४, 70.
--चिच्चन्द्िका प्रनोधचन्द्रोदयटीन्ता
0{ 1418, ०पत्] ह; 60 एललाऽ 5, 425.
- तत्वप्रवोधिनी, तकंभाषारीका
प्ल्] 118४9 गण्य 1456, 7976, २1८९ 108.
-तत्त्वसमासयाथाथ्यंदीपन
प्रा 7. 4. 1.. 1787, पि. ५. 386, 894, 596 ०प्ताष 1870, 12. ४, 70
शण, 60.
--योगानुशासनसूचवत्ति
प] ‰. 11, ए€" 60, पि. ४४. 418, 0प्तो), ॐ] 150, 1२1८६ 190.
२. भाष्ये परीक्षितो योऽर्थोवातिके गुरभिःस्वयम् । योगानुज्ञासनसुत्रवृत्तिः
पु०१। गुरभि्चवातिकेऽपि कियन्तः प्रदिता : ! पृ ०५५
मङ्गलाचरणरलोकाः। तत्त्वसमासयाथाथूर्यदीपनम् । ओर वही प०८५,८८
३. प्रनोधचनद्रोदय की चिच्चन्दिकाटीका का प्रथन शलोक आसीद्भावोप-
नामा . . -स्तु' \
आसीद्भावोपनामाभुविविदितयशा रामङ्ृष्णोऽतिवित्तः
तस्माद्भार्यां विनीतोविविधगुणनिर्धिवदवनाथोऽवती णैः ।
तस्मात्प्रव्यातकीर्तेविविधमखलृतः प्रादुरासीद् भवाल्याम्
शरीसत्यां यो गणेगो भुविविदितगुणस्तस्यचिच्चन्दिकास्तु
छ, (वा ४८ दवृप्ाल पाञापवाहा9 पणप, ©0ंरत> वत् रमि
111 एणा?"
-^का [एाया एषणाल्पा एन, णा एव्म 1 ए6€०. 1944, २. 20.
आचार्य विक्ञानभिक्षु का परिचय | ३३
जाती है क्योकि अन्य कोई गणेशदीक्षित उन दो-तीन शताब्दियों मे उग्टेखनीयः
या प्रसिद्ध हुजा ही नहीं है ।
डा० गोड के मतों का खण्डन उदयवीर शास्त्री ने अपने (सांख्यद्दन का
इतिहास" नामक ग्रन्य मे वड़े मनोयोगसे किया है ओौर साथ ही साथ यहं मतः
उपस्थित किया कि विन्ञानभिक्ु श४बीं शताब्दी मेँ हृए। उनके विचारो का
सारांश यह् है--
(१) विक्वनाथ ओर गोविन्द तथा उमा ओौर भवानी की एकता असंगत
होने के कारण भावागणेश ओर तच्वप्रवोधिनीकार गणेशदीक्षित
की अभिन्न-गव्यकतिता एकदम निराधार है।
(२) विक्ञानभिक्ु के शिष्य भावागणेश ने अपने नाम के साय कहींभी
दीक्षित पद का प्रयोग नहीं किथा। अतः आफ्रक्ट ओर हालका
अपने हस्तलिखित-गरन्थ-सम्बन्धी निदेशो मे भावागणेश के साथ
"दीक्षितः पद का प्रयोग करना सर्वथा आरान्तिमूकक है ।
(३) "भावा' ओौर भावये" पद भिन्न-भिन्न दै । एक ही व्यक्ति अपने कए
'मावा' ओर "भावये" दोनों पदों का प्रयोग अलग-अलग स्थलों पर
नहीं कर सकता । भावये पद भावे के निकट है भावा के नहीं । अतः
निर्णयपत्र मे हस्ताक्षर करनेवाला भावयेगणेश दीक्षित विज्ञानभिक्षु
का शिष्य भावागणेल नहीं दै । फलतः निणंयपत्र से विज्ञानभिक्ष के
समय पर कोडई प्रका नहीं पडता ।
(४) भ्रतयूत॒विज्ञानमभिक्षु अनिरुढ एवं महादेव के परवर्ती" ओर
अद्वैत-ब्ह्मसिद्धिकार सदानन्दः यति के पूरववर्ती रहै।
, सदानन्द यति ने जे
, द्रष्टव्य, पु० २९३-२९८ पयन्त “सांव्यदर्ञन का इतिहास" : पं० उदय-
वीर ज्ञास्त्री ! यह् अरन्य सन् १९५० ई० में विरजानन्द वेदिक संस्थान,
ज्वालापुर, सहारनपुर, से प्रक!शित हुआ है ।
विज्ञानभिक्षु ने अपने सांख्यभाष्य के अनेक स्थलों पर अनिरडधवृत्ति
करा खण्डन ओर संकेत किया है--प्० १४५ १५, २४, २२, ५२९ ८८,
८९, ९२, १०४, १४२, १४५, १६२ इत्यादि \ लिन जिन प्रमुख पाठभेदादि
कता निदेक्पू्वक खण्डन उन्होने क्या है, वे सब अनिरुडवृत्ति मं
उपलब्ध होते है!
करीर निवासी भे 'अद्ैतत्रह्यसिद्धि' नाम का
प्रसिद्ध ग्रन्थ लिलाहै। वे धवल कोकसानुयषयी ये । आकषट के अनुसार
वे ग्रन्थ है--
१-अद्रेतत्रह्मसिद्धि २-स्वरूपनिगेय -स्वरूपभ्रकार ४-जीवरमुवित् प्रत्निया
फा०३
[+
-~ ~~~
|
|
३४ | आचार्यं विज्ञानभिक्षु
सदानन्दयति ने बरिज्ञानभिक्षु का नामोल्लेखधूवेक खण्डन
किया]
(५) सदानन्द यति ने अपने ग्रन्थ “अदरैतत्रह्मसिद्धि" में रामानुज ओौर
मघ्व का जोरदार खण्डन किया है किन्तु वल्लभ ओर निम्बादित्य
कीओर कोई संकेत तक नदीं किया । इससे निरिचत होता हं
किवे वल्लभ से पूर्ववर्ती है। निम्बादित्यतो वल्लभ से भौ वाद
के है । वल्लभ का समय बिल्कुल निर्णीत दै (१४७८ ई में उनका
जन्म हुआ था ) ।
(६) सदानन्दयति के अन्यतम ग्रन्ध वेदान्तसारः के सम्बन्ध में किखते
समय प्रो° ए० बी० कीथ ने भी सदानन्दयति का समये १५००
ई० के कुछ पूर्वं ही स्वीकृत किया है ।'
(७) इससे स्पष्ट हो जाता दै कि विज्ञानभिक्षु सदानन्द से पर्याप्त पूवं
हो चुके थे! किसी भी तरह से वि्ञानभिक्षु को चौदहवीं रताब्दी
के बाद का नहीं माना जा सकता । अतः निरिचित ल्प से विज्ञान
भिक्षु का समय १३५० ई० के समीप पूवं ही माना जा सकता हं 1"
सपरय-निारण
विज्ञानभिक्षु के समय के विषय मे उनके समग्र ग्रन्थों के गहन अध्ययन
से प्राप्त निणेय को इद्कित करने के पूव ऊपर दिये गये विचारों का विवेचन
कर लेना अधिक उपादेय होगा । सम्भव रहै काम की कुछ बातें इन विचारों
के अनुशीलन-परिशीलन से भी मिक जायें । प° उदयवीर शास्त्री का यहं
सत कि-तत्तवप्रवोधिनीकार गणेशदीक्षित ओर विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावा-
गणेडा एक ही व्यित नहीं हँ--उपयुक्त है । गोडे महोदय की यह सम्भावना
पं० उदयवीर शास्त्री ने इस ग्रन्थ-तालिका सें वेदान्तसार, पंचदरीरीका
ओर अद्रैतदीपिका-विवरण जोड दिये हँ ओर स्वरूपनिणेय तथा स्वरूप-
प्रकाश को नहीं गिना है ।--सां० द० का इतिहास, प° २९९
१. यच्चा साल्य-भाष्य-कृता विन्ञानभिक्षुणा समाघानत्वेन प्रलपितम् ।
--अ०. न्न ० स्षि० द्वितीय संस्करण, कलकत्ता विदवविच्याल्य से प्रकाशितः
भु०° ९७
२. पं० उदयवीर शस्त्री ने वेदान्तसारः को सदानन्दयति की रचना
बताया है --सां्यदशन का इ तिहास प° ३०१
३. द्रष्टव्य, हिस्ट्री आंफ संसृत लिट्रेचर प° ३०१
४, द्रष्टव्य, सां० द० का इतिहास, प्० ३०४
आचार्यं विज्ञानभिक्षु का परिचय | ३५
कि विश्वनाथ ओौर गोविन्द तथा उमा ओौर भवानी एक ही माने जा सकते
है सर्वथा निराधारहै, क्योंकि इस प्रकार का नामभेद विना व्यक्तिभेद के
सम्भव नहींदहै। साय ही इस प्रकार वाच्यां के बर पर नामों की समानता
करने पर तो जाने कितने आदमी दूसरे आदमियों के स्थान पर प्रहण किये
जा सकते हँ । इस प्रकार बहुत बड़ी अव्यवस्था हो जाती है।
तथापि गोडे महोदय की यह् सूचना कि विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावा-
गणेश ने निणेयपत्र पर हस्ताक्षर किया है--समोचीन प्रतीत होती है। इस
विषय में शस्त्री जी द्वारा प्रस्तुत अपत्तियों को समीक्षा इस प्रकारकी जा
सकती है--
(क) विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावागणेश ने अपने ग्रन्थों में "दीक्षितः पद
का प्रयोग अपने या अपनेपिता विदवनाथ के नाम के साथ कहीं नहीं किया--
यह वात गरुत है। तत्वसमास पराथाथ्यंदोपन कौ परिसमाप्त करते हुए पुष्पिका
मे अपने पिता का नामोल्टेख 'विद्वनाथदीक्षित' ल्प में ही भावागणेश
ने किया है।' इसकिएु भावागणेश के गोक्षित होने मं सन्देह करना
असंगत है ।
(ख) भावा ओर भावये शव्द की भिन्नाथकता या अल्ग-अङग अस्तित्व
मानना भी उचित नहीं है । संस्कृत भाषा में प्रयोक्तव्य रूप भावा ही था।
इसलिए संस्कृत ग्रन्थ छेखन के समय गणेश अपने को भावा ही लिखिते धे
“मावये' नहीं । नि्णंयपत्र में हस्ताक्षर करते समय यद्यपि वह् अपने को भावा
भी लिख सकते थे किन्तु दैनिक व्यवहार में अन्य लोगों के द्वारा उच्चरित
होनेवाके पद का प्रयोग करना अस्वाभाविक नहीं है। उस निणेयपव्र मे
हस्ताक्षर करने वाके "खले कृष्णभटुट प्रमुख कल्ाड' इत्यादि प्रमुख रोगों
ने भी वोलचाल के व्यवहार भें प्रचलित नाम लिखे ह उनके संस्कृत
रूप नहीं । इसी निणेयपत्र मं एक “भावये हरिभट्ट' भौ निदिष्ट
है जो कि 'भावयेगणेश' दीक्षित श्रमुखचिपोलणे' के भाई या चाचा
१. इति श्री भावाविदवनाथ दीक्षितसूनुभावागणेरविरचितं तत्त्वयाथाध्यं-
दीपनं समाप्तम् !“--पुष्पिका त° या० द° चौखम्भा सं सी मं
प्रकाशित ।
२२. निर्णयपत्न १५८३ ई० ।
३६ | माचायं विज्ञानभिक्षु
ये! । महाराष्ट ब्राह्यणो का यह परिवार जो कि वोलचाल में "भावये" कटाः
जाता था शद्वीं शताब्दी में बनारस में प्रतिष्ठित रूप में निवास करता
था। यदि महाराष्ट्र निवासी ^भावे' नामक त्राह्यणवंश से व्यतिरिक्त यह्
कोई महाराष्ट ब्राह्मण वंश बनारस मेँ आकर "भावये" नाम से प्रसिद्ध होकर
रहता था तो इसका उद्गम महाराष्ट मे "भावये या "भावा" नाम से प्रसिद्ध
्ाह्मण-वंश से होना चाहिए । परन्तु महाराष्ट मे “भावये' या “भावा
नाम से प्रसिद्ध कोई भी ब्राह्मणकुलं न आज है ओौरन चार-पांच पिछली
शताब्दियों मे कभी विद्यमान था ।
एेसी दशा मे "भावये" शव्द को महाराष्ट मेँ प्रचक्ति “भावे शब्द
का तात्काछिक बनारसी {संस्करण मानने [के अतिरिक्त ओौर कोई इस
भरदन का समाधान ही नहीं हो सकता। १६बीं शताघ्दी मे भी महाराष्ट
मे “भावे शब्द ही प्रचक्िति था१। इसीक्ए शास्त्री जी कौ यह मान्यता
करि भावये शब्द ही धीरे-धीरे (भावे के रूप मे परिवत्तितहो गया
है-अमान्य है । इतने उहापोह के पञ्चात् हम यह निणंय निकार सकते
है कि जो वंश सोरहवीं शताब्दी मे महाराष्ट्र में भावे" नाम से प्रसिद्ध
था वही महाराष्टरीय त्राह्यणवंश वनारस में उस समय “भाचये' नाम से
प्रसिद्ध था 1 गणेश दीक्षित या गणेश भट्ट ओर हरिभट्ट तथा विर्वनाथः
दीक्षित उसी भावये" वंश या 'भवे' वंशके ब्राह्मण थे। भावे रोग अपने
नाम के आगे "भटृट' गौर "दीक्षित! दोनों या दोमेंसे किसी एक शब्द का
१ डा° पौ के० गोडे के जेख में पु० २५; अ० ला° बु वाल्यम,
१, फवरी १९४४
द्रष्टव्य भावेकूलवृत्तान्त'-जी० वी० भावे पूना, १९४० ई०
यहाँ के धाकुलभटभावे वेतोसी (₹८।०६) चले आए थे लगभग
१६०० इ० स |
, द्रष्टव्य, भा० कु° वु° १९४० ई० पु० १६
४. यह् सम्भव है कि वाद मँ (१७बीं, १८बीं) शताब्दी त्त _ महाराष्ट्र से
उत्तर भारत का सम्पकं. वदने पर (मुग्रलों ओर मरागें के शासन
कोल मे) वनारस के भाव्ये लोग भौ अपने को महाराष्ट्र स्थित
अपने वंशवाले लोगों की भांति अपने को भे कटने खगे हो ।
जसा कि द्रष्टव्य हे--निणयपत्र सन् १६५७ ई० “संमतन् भावे खदरदी-
क्षितस्य ।“--डा० पी० के° गोडे द्वारा निर्दिष्ट \
९४ ९)
+ *
आचाय विज्ञानभिधतु का परिचय | ३७
भी प्रयोग करते थे।* भावयेगणेशदीक्षित ने अपने संस्कृत ग्रन्थो में इस
"भावये" शव्द का संस्कृतीकरण करके भावागणेल' पद का प्रयोग किया होगा ।
इस विवेचन काल मे एक वात सर्वथा स्मरणीय टै कि निणेयपव्र मे ययपि
"तत्रसम्मतिः' या 'तत्रसम्मतम्" पद भले ही संस्कृत भाषा मेहो किन्तु
हस्ताक्षरो की भाषा संस्कृत नहीं है अथवा यों कहा जा सकता है कि
हस्ताक्षरों में संस्छृत-व्याकरणगत-समासादि नियम का पालन नहीं किया गया
दै। हस्ताक्षर उभी रूपमे किए गए टै जिस क्प मे तात्कालिक वोल्चालमे
वे नाम उच्चारित किए जाते थे।--इस वातं मेँ कोई अनुपपत्ति भी नहीं दै ।
इससे यह सिद्ध हुआ कि गोड महोदय द्वारा दी गयी सूचना कि--भावागणेश
द्वारा हस्ताक्षरित सन् १५८३ ई० का नि्णंयपत्र विज्ञातभिक्षु ओौर उसके
शिष्य के समय-निर्णय मे प्रकादा डाकत। है --चस्त्रौ जी की निवेरु मौर
अनुपयुक्त दलीलों के आधार पर त्याज्य ओर हेय नहीं मानी जा सकती ।
विज्ञानभिक्षु के समय निणेय-प्रसंग मं यह तथ्य उपोद्बलकूप में अवद्य
ग्रहण करने योग्य है।
(ग) शास्त्री जी का यह मत कि विज्ञानभिक्ु अनिर से वादके ओौर
अद्वैत ह्यसिद्धिकार सदानन्द यति से पहर के है, सवे मान्य है 1 इस विषय
मे हमें कोई आपत्ति नदीं । किन्तु इन दोनों व्यक्तियों के काल के विषय
मेँ उनके मतः बिल्कुल ही अप्रामाणिक हैँ । हम अगले शौषंकों मे इस तथ्य
का विवेचन करेगे । यह बात अरूवत्ता अग्राह्य है कि महादेव वेदान्ती
विन्ञानभिक्षु के पूर्ववरीहें। न तो सहादैव वेदान्तो के द्वारा चिज्ञानभिक्ष् के
सांख्यसूत्रभाष्य का उद्धरण अपने (सांस्यवृ्तिसार' मे न देना उन्हें विन्ञानभिक्षु
से पूरववर्ती बनाता है ओर नही अन्य कोई एेस। अन्तः या बाह्य साक्ष्य
सुभ होता हे। “सां व्यवृत्तिसार' नामक महादेव का ग्रन्य सांख्यसूव्र कीं
स्वतंत्र टीका नहीं है, यह तो ग्रन्थ के नामकरण से ही स्पष्टदै किं यह
्रन्थ अनिरुद्ध की 'सांख्यसव्रवृ्ति' का सारांश मात्र टै । अतः इसमे केवल
अनिरुद्ध के विचारों ओर उसके व्यकित्तगत निदेशो से तथा इसमे विक्ञानभिक्षु
१. भवि खद्रदीक्षितस्य, भावयेगणेदीक्षितस्य, भावागणेज्ञभद्दस्य--यो °
० वृ० (पुष्पिका) भावयेहरिभदूटः (१५८३ ई० के निवपन म),
धाङलभटभावे : भा० कु° वु०, प° १६
२. सं० २० का इतिहास पृ० ३१९ ` ० ९ ओर प° ३०१ १० १२.१३
३८ | आचार्यं विन्ञानभिक्षु
के अनिदश से महादेव का विज्ञानभिक्ु से पू्वंवत्तित्व नहीं सिद्ध होता ।
प्रत्युत महादेव वेदान्ती के समय का निर्णायक एक लोकः विष्णुसहस्रनाम
की टीका में समुपलब्ध होता है जिसके बर पर हम महादेव वेदान्ती को
१७बवीं शताब्दी इं०्से पूवं ला ही नहीं. सकते। अतः महादेव वेदान्ती
विन्ञानभिक्षु के परवर्ती ही सिद्ध होते हैँ पूरवेवर्ती नहीं ।
(घ) सदानन्द यति का समय निरिचेत करने मे शस्त्री जीनेदो प्रमाण
दिये हैँ । पहला प्रमाण यह दै किवे वल्क्भ से पूवेवर्ती हँ क्योकि उन्होने
अद्रैतत्रह्यसिद्धि में वल्लभ ओर निम्थाकं का खण्डन नहीं किय। ओर दूसरा
प्रमाण यह. है किप्रो° ए० वी० कीथ ने सदानन्द यति के अन्यतम ग्रन्थ
वेदान्तसार का समय १५०० ई० के कुछ पूर्वं निचित किया है । इनमें से
पहला तकं अद्र तत्रह्यसिद्धि की भूमिका लिखते समय वामन शास्त्री इस्काम-
पुरकर'के द्वारा पहले ही दिया गयाथा। इस मत मे कोई जान नहीं हैं ।
अनेक प्रकारं के वेदान्त शाखावरम्बियों मे से सदानन्द यति ने केवल उन्हीं
पर मृद्गरप्रहार किया ह जिन्होने शंकर को श्रच्छच्बौद्ध' संकर' "वेदान्ति-
ब्रुवं" माधुनिकवेदान्ती' आदि अपशब्दों से अभिहित किया था जैसे रामानुज,
मध्व ओर विज्ञानभिक्षु। अद्ैतत्रह्यसिद्धि में विधारण्यमुनीडवर ओर वेदान्त-
मुक्तावरीकार तथा वेदन्तकौमुदीकार का भी" निदेश है किन्तु वे सव शंकरा-
नुयायी कौ दृष्टि से महत्वमुणं थे सदानन्द यति के ल्एिन तो वल्लभ ओौर
निम्वाकं शंकंरानुयायी थे, ओर न ही उन्टोने कदी भी जपने भाष्यों मे शंकर
के किए एक भी अपराव्द का प्रयीग किया । उन लोगों ने शंकर को पूर्वपक्ष
१. ए० वेनिसछ तभूमिका-- (वेदान्त-सिद्धान्तमुक्तावली }
श्रीमत्स्वयंभ्रकाशाडधिलन्धवेदान्तिसम्पदः
महादेवोऽकरोट्व्याख्यां विष्णुसहलनासगाम् 1
खबाणमुनिभूमाने वत्सरे श्रीमुखाभिधे
मार्गासिततृतीयायां नगरे ताप्यल्केते ॥
-महादेववेदान्तिकृेत विष्णुसहल्नाम कौ टीका में पुष्पिका ।
इस इलोक के रचयिता ने इस ग्रन्य कौ रचना १७५० वि०, १६९३ ई०
सेकीहै, यह् निश्चित है!
२. द्रष्टव्य, संस्छृत-भूमिका--अदैतन्रल्यसिदि
२ „ अदृतन्रह्यसिद्धि, पृ° १३०; १४३ इत्यादि
४. ‰ अहतन्रह्यसिद्ि
~+
नका
आाचायं विन्नानभिक्षु का परिचय | ३९
के रूपमे उत्थापितं करके जपने भ्यो मेः कहीं भी जोरदार शब्दों मे
खण्डित भी नहीं किया है । एेसी स्थिति मेँ बहुत सम्भव है कि इस निर्दोपिता
के कारण सदानन्दयति के मदग रप्रहार के रिकार न वने हों। इस वङ् पर
सदानन्द यति को वल्लभ का पूवैवर्तीं मानना ठीक नहीं ह ।
रास्त्री जी का दुसरा तकं तो श्रान्तिकी चोटी का नमूना है । सभी
संस्कृत-इ तिहासवेत्ता इस बात को जानते हँ कि सदानन्दयति कश्मीर-निवासी
थे। उन्टोने वेदान्तसारः की रचना नदीं की ।' वेदान्तसार' के रचयिता
सदानन्दयति दँ जो कि रावलपिण्डी के निकट कुन्त्रीर नामक गाँव में पैदा
हुए भे मौर वाद मे कारी मे रहते थे," उनके ग् . का नाम श्री अद्रयानन्द
था ।* जव कि सदानन्द यति के गृर श्री ब्रह्मानन्द सरस्वती थे । दोनों व्यक्तियों
को एक समञ्च कर उन्होने भ्रान्ति की हद करदी है । अतः यह् निविवाद है
करि वेदान्तसार के आधार पर सदानन्दयति का समय निरिचित करना बिल्कुल
व्यथं है ।
अद तत्रह्यसिद्धिकार सदानन्दयति का समय निरिचित करना अभी तक
इतिहास की एक समस्था है किन्तु उसफी सम्भावित सीमा का निदेश करना
यहाँ पर भी अपेक्षित है । सदानन्दयति ने प° ९ पर रघूनायरिरोमणि का
नामोल्लेखपू्वक मत-खण्डन किया दै । रघुनाथशिरोमणि का समय
सोरहवीं शताब्दी का पूर्वाद्धं (१४७७-१५४७ ई०) रुगभग निरिचतं है'।
इत तथ्य का बाधक प्रमाण अभी तक कोई नहीं मिला । अव वँकि बंगाल के
नदिया प्रदेश मेः लिखे गये उनके ग्रन्थ को करमीर तक पंच कर पठन
पाठन-प्रणारी में प्रसिद्ध होने मे तात्कालिकं देशीय परिस्थिति कौ पृष्ठभूमि
मे कम से कम पचास-सा वपं अवदय लगे होंगे । इसकिए रघुनाथरिरोमणि
का स्फुट निर्देश करनेवाले ग्रन्थ अद्वैतव्रह्मसिद्धि के रचयिता सदानन्दयति
१. भ्रो० एम्° हिरियन्ना वाला वेदान्तसार का संस्करण प° ९५७
र 1 सिद्दिः 1
२. लक्ष्मणदास्त्री द्राविड द्वारा प्रकाशित 'भदवेतसिद्धि्ार' कौ भूमिका
पु० १३-९५
३. द्रष्टव्य, मडगलाचरण (वेदान्तसार ओर अवं तत्रह्यरि ट)
४. एतेन यत्दा्थलण्डनेक्िरोमणिना--परभाणुसद्भावैः *“ 4, 8
इत्यादि वल्गितं तदष्थयास्तम् अपसि द्धान्तत्वात् । अतत्रह्य मू ५
५. द्रष्टव्य, दिस्टष आफ़ इण्डियनं कलाजिर प° ५४६२-५ (रघुनाथ
भणिचिबयक अच्याय)
४० | आचाय विज्ञानभिकषु
का समय श१७बवीं शताब्दी ई० के पूवं नहीं माना जा सकता । इस्लामपुरकर
तथा अन्थ इतिहासफार भी इसी वात से सहमत हं ।
इन सारे तथ्यों के सांगोपांग विवे चन करने से स्पष्ट है किं प° उदयवीर
शास्त्री के द्वारा प्रस्तावित विज्नानभिक्षु का समय १४ शताब्दी ई० केवल
कपोलकल्पित, निर्मूल एवं सर्वेया अग्राह्य है ।
समय की पूरव॑सीमा
विज्ञानभिक्ष् के काल्निणेय कौ इस अनिश्चथात्मक पृष्ठभूमिमें हमें
कतिपय अन्य सक्त युक्तयो ओर साक्ष्य पर दृष्टि डालनी चाहिए ।
(१) विन्ञानभिक्षु क ग्रन्थों मे अनिरुद * मौर वाचस्पति? मिश्रके मतो के
खण्डन के अतिरिक्त चित्सुख के मतो का भी खण्डन हैँ । चित्सु के द्वारा
(तत््वप्रदीपिका' में स्थापित 'स्वप्रकाशत्व' के लक्षणः को विज्ञानभिक्षु ने अनेक
स्थलों पर निर्दिष्ट किया है भौर योगवातिक' मे तो स्पष्टतः उसका खण्डन
किया है--
"यत्त॒ अवे्यत्वे सति अपरोक्ष-व्यवहार-योग्यत्वं स्वप्रकारत्वमित्याधूनिक-
वेदान्तिन्ुवाणां प्रलपनं तत्प्रागेव नि राकृतम्' (यो० चा० ४।१४ सूत्र के सन्दभं
मे पृ० ४२९)
(२) विन्ञानभिक्षु ने योगवातिक कंवल्यपाद सें श्रौहषे* का नामोट्लेख
किया है :-
सस्वम्नादिदष्टान्तेन श्रीहर्षादीन।मसत्वण्डनेन च वेदान्तन्ञानतज्जन्यज्ञानयो-
रपि अरमत्वापतत्या वेदान्तप्रामाण्यासिद्रौ तत्प्रतिपायत्रह्यासिद्धिप्रसंगात्'
(प्० ४२० यो० वा० ४।१४ सूत्र के सन्दभं मे )
(३) विज्ञानभिक्षु ने योगवातिकसाधनपाद मे कर्मसिद्धान्त पर वार्तिक
का उपसंहार करते हुए कमं के एकभविकत्व' का सिद्धान्त खण्डित करने
वाले वेदान्ती श्री रामादयाचार्थ^ : वेदान्तकौमुदौकार : का स्फुट खण्डन
किया है--
१" छ्य्य्/ सा०अ० ० पृ० १३, १४.१८ इत्यादि
२, + यो० वा० प° १२, ३०, ५३ इत्यादि
३. अवेचत्वे सत्यपरोक्षव्यवहारयोग्यतायास्तत्लक्षणं तस्मःदनाविलस्वभ का
१ ध । _ --प० ११ तत्लप्रदीपिका--चिल्पुलाचार्य ।
ध हव जीवन-काल ( १०२०-१०८० सं० ई० ) ए० एनू° जानीक्त
ए क्रिटिकल स्टडी आफ नैवधीयचरितन्, पृ० १२९ `
५. अथप्रायणं स्व॑कर्माणां व्यञ्जक्तम् तानि च सर्वाणि मुनुधुदेहनारभनते 1. , .
| निय
~ ^
आयं वित्नोनभिक्ु का परिचय | ५१
'्यच्चाधुनिकवेदान्तिभिरेकमविकृमतं व्यभिचारेण दुपितं तदन्ञानदेव
ओत्सगि कमात्रस्य भाष्यकृतोक्तूत्वादिति सर्वं सुस्थम् ।' (पृ० १४७ ध ~
२।१३ सूत्र के सन्दभं मे)
(४) विज्ञानमिक्ु ने योगवातिक के साघनपाद मेँ लिङ्ग-शरीर की
विवेचना करमते समय सांख्यसूत्र 'सप्तददोकं लिङ्खमिति' मे आये हए एक शब्द
के विषयमे लिखा है--
“सांस्यशास्त्रे प्रोक्तम्" सप्तदशैकं लिङ्गमिति भत्र एकत्वं समष्ट्य-
भिभ्राप्रेणोक्तम्, व्यवितिभेदः कमं विरोऽपरादिदुत्तरसूत्रेण व्यत्ितिहपत एकस्यैव
लिद्कशरी रस्य व्यगरितमेदवचनात्, अयं च व्यष्टिसिमष्टिभावो न वनवृक्षवत्
कि तु पितापुच्रवदेव,
'तच्छरीरसमुतन्तैः कारथस्तैः करणैः सह् ।
क्षेव्ञाः समजायन्त गात्रेभ्यस्तस्य धीमतः ॥
इतिमन्वादिवाकयै हिरण्यग स्यजञ १ रदयांहौरेवािल्पुसा शरीखयोतत्ति-
रिति सिद्धेः, वनवृक्षयोस्तु नैवं काय॑कारणभावोऽस्ति इतिर् ।
(प० २१३ वो० व° सूत्र २।१९ का सन्दभ)
इस अवतरण मे लिद्ग-शरीरविषयक व्यष्टिसमष्टिभाव का दृष्टान्त
पिता-गु्रवद् है वन-वृक्षवद् नही, इस वात पर पुरा जोर अला भा है।
'वनवृक्ष' वाके ष्टान्त का खण्डन करने के किए शास्त्रीय प्रमाणो का भी
भरद्न करना आवद्यक ओर अनिवाथे अनुभव क्या गया है। 4
एसे प्रकरण कौ व्याख्या करते हए जहाँ पर किसौ भी जन्य पूवत टीकाकार
ने लिङ्खशरीर के व्यष्टिसमष्टिभाष की चर्चा भी नहीं कौ । मासिर वित्तान-
भिक्षु का यह अकाण्डताण्डव क्यों ? ¢
निदचय ही किसी प्रवल विपक्षी कौ इस संवंध की व
खण्डन करना ही यहाँ पर उनका बभीष्ट है। स् धी य ।
एसे आचाय का नहीं हो सकता जिसका नाम इत्यादि ऽना आवइयक होता
निरिचित ङप से पता
मनेक दानिक ग्रन्थो का आलोडन-विलोडन करके यहं नि
--- ^ ८
यदेहभोग्यफलानां कर्भगा*
र + ग त सद निक पी ॥1 भ्
श्नुट्याचदशनार् अ स्नायति मणय व्यज्जकत्वरस्पना'
भेकदेहारस्भक्त्वानुपयचेश्च । `
--बेदान्तकोसुदौ पु० ६५
१. द्रष्टव्य-तत्त्ववैशारदी 204 भोज रजवृत्ति
१९ पाद २ ।--योगूत्र
071 {06 भाव्य ०६ सूत्र
४२ [ आचायं विज्ञानभिक्षु
चता है कि विदान्तसार' नामक अद्रैतवेदन्तग्रन्थ के ठेखक सदानन्द व्यास!
ते इस प्रसंग में इसी पदावली मं यह् दृष्टान्त दिया है--
अत्राप्यखिलसूृक्ष्मररीरमेकवुदधि विषयतयावनवज्जलाशयवद्ा समणष्टिरनेक-
लुद्धिविषयतया वृक्षवञ्जल्वद्वा व्यष्टिरपिभवति ! अत्रापि समष्टिव्यष्ट्योस्तदू-
पहितस््ात्मतेज सयोवेनवुक्षवत्तदवच्छिन्नाकारावच्चजलारयजकतद्-ग त॒ मप्रति-
विम्बाकाशवच्चाभेदः। एवं सृक्ष्मशरीरोत्पत्तिः ।--वे° सा० पृ० ५-६
बहुत अंशो मे सम्भावना हो जाती है कि वैदान्तसारकार सदानन्द व्यास
काही यहां पर खण्डन किया गया हो । "वेदान्तसार' विज्ञानभिक्षु के समय तकं
काफ़ी लोकप्रिय हो चला था। कदाचित् इसी शली के दोग्रन्थों के शीर्षक
विज्ञानभिक्षु ने भी रक्खे भे सांख्यसार ओर योगसार (संग्रह) । साय ही, सांख्य
ओरयोग की भांति यद्यपि उन्होने वेदान्तपूत्रौं पर भी भाष्य छ्लिा हें
तथापि उनका वेदान्तसार" नाम का कोई ग्रन्थ न छिखना, इस सम्भावना को
जौर भी परिपुष्ट करता है फि यह “अन्तःप्ेरणा' कंदी 'अनुकरेणः नाम से
फप-ल्प में न कदी जने रुगे, इसीलिए वेदान्तसारः नामं का कोई ग्रन्थ
उन्दोने नहीं लिला है । यहं वात स्मरणीय है कि रामानुजाचायं द्वारा छिखा
गया वेदान्तसार विज्ञानभिक्षु की अन्तःप्ररणा का आदश इस दिशा में नहीं
मना जा सकता क्योकि उस ग्रन्थ में सपूत्र संक्षिप्तं भाष्य दिया गयाहै
जव कि विक्ञानभिलषु के दोनों ही ग्रन्थो मे तत्तद् चास्त्रं के सू त्रोपन्यासपुवेक-
विषय नहीं दिए गणु हैँ जैसा कि सदानन्दं व्यास ने शैली चलादी थो।
इन आधारो पर विज्ञानभिक्षु को सदानन्द व्यासं से परवर्ती मानने की
सम्भावना पूणंङूप मे उपस्वित हो जाती है 1
(५) विज्ञानभिक्षु ने अपने वेदान्तभाष्य म एक स्थल पर वेदान्तसू्रो
के दौवभाष्यं वेदान्तसूव्र का निदेश इस प्रकार किया है--
अतएच वैष्णवाः रौवाश्चाविवेकिनो विष्ण्वायतिरिक्तं परमेश्वरमविदवांसो
ब्रह्ममीमासाशास्वरं विष्ण्वादिपरतया व्याचक्षत इति मन्तव्यम् ।'
(वि० भा० पु० १३९)
ब्रह्मसूत्रो पर वैष्णचभाप्य रामानूज ओर मध्व आदि के निश्चित दही
विज्ञानभिक्ु के पुवं प्रसिद्ध थे । लैवभाष्य भौ उनके सामने चाहे एक ही
१. 2. (. एलफव्प]7*5 [7 ध्0तप्लम (© 5तत112709 तपर,
२. 075 ण्याः प्ल् वप € 15) ८.6.17). प८८्गताष
६0 2. €. एदथण]1, ^. 8. एल फ भात् 14. तोपतफशाा2.
आचायं विज्ञानभिक्षू का परिचय | ४३
हो--मवंश्य वतंमान था, नहीं तो यह् निदेश कंसे होता । यह वात स्पष्ट
है कि भारत का शैवं सिद्धान्त बहुत प्राचीन है, किन्तु हौ वमतानुकू वेदान्त-
सूत्रभाष्य नीलकण्ठः काही सवंप्रथम है । अतः नीलकण्ठ से कम. से कम
सौ साल वाद या ओौर अधिकं वाद विज्ञानभिक्षु का होना निद््ित ह।
इनं अन्तरंग प्रभाणों के आधार पर विज्ञानभिक्षु के समय की पूवंसीमा
हम निरिचंतं कर सकते हैँ । वाचस्पति मिश्र (शीं ज्ञ० ई०), अनिरुद्धः
(लगभग बीं श० ई०)› नीलकण्ठ, ( १४ीं श० ई०) ओौर सदानन्दव्यास
(श्५्वीं शा० ६०) के नाम या सिद्धान्तो का अथवा दोनों का निदेश ओर
खण्डनं मण्डन कंरनेवाठे विज्ञानभिक्षु १५०० ई० के वादं ही हए होगे इतना
अव निस्संदेह कहा जा सकता हे ।
समय की परसीमा
(१) विन्ञानभिक्षु की समय-सम्बन्िनी परसौमा का निर्धारण करते
समय हमारी दृष्टि सर्वप्रथम ^सांख्यसार' नामक उनके ग्रन्य की १६२३
ई₹० में लिखित पाण्डुलिपिः पर जाती है । उसमे समय-नि्देश ^““सं० १६८०
भादों सुदिं १०" इस प्रकार से है । अतंः विक्ानभिक्षुं १६२३ ई° के पूर्वं
हुए यह् निश्चित रूप से कहां जा सकता है ।
(२) सदानन्दयति,! ` भावोगणेश, नारायण तीर्थ" जौर नागेश-
१. 1716 9४ 51ततादाव 16516 0 पाट {५० गितं पदता॥०ऽ
० धल एव अत् 00€ 425 वप् 06 ऽ ला72।९ 1६८०71ला]102000
० (€ ध 25 प्परतलागूत्ा फ रागस्य (पल्ला (लप्र
4.7.) पणु0 कण०ाह 8 (्छाप्प्रलाव/ 6 € एव्व, प्ल
लप्र 09८ पणाल 7 € 7 हा ग पल आव ऽपेतामा8.
एकत एााान्डणृक छ ए ररवा ञी 2. 7285-4.
1 058, ०६ ऽत्पराकापुषछ्य ए पोपत्णत्रा(ञप {ग7० 19
ऽ2€ 9८२८४३८, 11 11115 2 ६. 1158. 710. 1597 ५. 115 7058. 16205.
25 {0110 05:
@३८१10द्प९ ग 95. 755, छ 78दवा६ २८ 1४ 91. 0. 1828.
संवत् १६८० भादौं सुदि १०1
३. यच्चात्रसांखयभाष्यज्ता विज्ञानभिक्षुणा समाधानत्वेन प्ररुपितम् ।
द्रष्टव्य--अदे तब्रह्यसिदि--पृ० २७
४, द्रष्टव्य, योग० सु० वृ° सू° प° १, ४, ५९५
५. यत्सूत्रेषुगूढा्थद्योतिकां तनुतेपराम् ।
वत्ति नारायणोभिक्षुःषुगमां हरिष्ये ॥३॥--यो० स्ि° च०--नारायण-
तीथे, पु०१
(--त० या० दी०प्०१
सरम्षः -
के -
४४ | आचायं विन्नानभिक्षु
अटट' ने अपने ग्रन्थों मे विज्नानभिकषु का नामोल्लेल किया है । सदानन्द यति
ते तो इनके मत का खण्डन क्रिया ह किन्तु जन्य तीन विद्वानों ते इनकी बड़ी
भरशस्ति की है। भावागणेश तौ इनके रिष्य ही थे ओर् इपीलिए समसामयिक
माने जाने चाहिए । अन्य तीनों कोग इनके पर्याप्त परवर्ती थे । पं० उदयवीर
शास्त्री के सदानन्द यति विषयक मत खण्डित हो जाने पर ओर रवूनाथशिरो-
मणि के पर्याप्तिं परवर्ती होने के कारण सदानन्दथति का समय ( १७बीं
दाताव्दी ई०.के लगभग) माना जा सकता है। नारायणती्थे ओर नागोजी
भट्ट १७बीं शताब्दी के बादकेही ह। भावागणेश के समय के सम्बन्व मे
किसी अन्य प्रव प्रमाण के अभाव में डा० गोडे कौ सम्भावना मी माननीय
है (१५८३-१६२३ के आस-पास) । इतने आवारों पर यह निद्चित ठंगसे
कहा जा सकता है कि विज्ञानभिक्षु के सभय कौ पर-सीमा १६०० ई० मानी
जा सकती है ।
सभय-निधांरण मे अन्य प्रमाण
(१) डा० गोडे के द्वारा निदिष्ट भावागणेश विषयक सूचना भी इस
निर्णेय की पुष्टि करती है डा० दासमगुप्त, डा० राघाश्ष्णन्, डा० विन्तरनित्ज
आदि की मान्यता भी इस नि्णंयके अनुकूर है ।
(२) विक्नानभिक्षु केद्वारा रन्यो मे संकेतित सम्राट् ओौर सम्बाद् की
दासनव्यवस्था भौ उत्तरी भारत में तात्कालिक मुगृ सम्माट् अकबर के
शासनकार की याद दिलाती है जिसमे किरगवों के अध्य जादिकेद्रारा
ग्राम-्रवन्ध होता था । तथा प्रवन्थ के अनेक विभागों के अरग-जलक्ग मन्त्री `
होते थे । प्रामाष्यक्षादि भी राज्य्तेवा करनेवके होते थे ओर मंत्री भी।
फिर भी उनमें प्राधान्य मन्त्रीकाही होता था।
(३) विज्ञानभिक्षु ने अपने सांख्यभाष्य में राजा के दारा पुननि्मित
अथवा नवनिमित नगर (पुर) का संकेत किया दै" 1 यह प्रसिद्ध घटनाभी
{ अक्र के. श।सनकारु में सम्पन्न हुई थौ जव कि अकवर ने फतेहपुर
सीकरी" का निर्माण करा कर एक नई नगरी वसाथी थी। चूंकि यह नगर
१. पातञ्जलाग्धौ रचितःसेतुविक्तानभिक्षुणा नहाषडगुमूढतभो येन तंतीणं-
वानहम् । -पा० सू० वृ०~-ना० भ० पु० २३०
२. द्रष्टव्य, सा० सा०, पृ० ४७
३. ”“ स्ां० प्र भा०, पु ९१ ओर पु० ९२
४. यथा राक्तः पुरनिर्बाण इत्यथः ।--सां० प्र° भा० ० १४७।
आचायं विज्ञानभिक्षु का परिचय | ४५.
निर्माण एक धार्मिक उपलक्ष्य मेँ (शेखुसरीम चिती के नाम पर) कराया
गया था, इसक्एि पूरे भारत में इस वात की जोर-गोर से प्रसिद्धि हुई
होगी । प्रयाग का पुननिर्माण भी अकवर के ही द्वारा सम्पन्न हुआ था।
अतः विज्ञानभिक्षु का मकवर का समकालिक होना बहुत सम्भव है ।
(४) इस प्रसंग में भाषा-सम्बन्पौ प्रमाण भी सहायक रूप मेंग्रहण
किया जा सकता है । इसी अव्याय के स्थान-तिर्णय-विषयक प्रसंग में संकलितः
शब्दों, ओर वाक्यों के आघार पर निर्णीत विज्ञानभिक्षु का हिन्दी-माषा-
भाषी होना १६बीं शताब्दी के उत्तरभारत में ही उपपन्न हो सक्ता है।
स्तुत प्रमाणं में से कुछ हल्के ओर वु धिक सशत ह| कुछ तथ्य.
करी ओर इंगित करते है, कु तथ्य का प्रतिपादन करतेर्ह। इनमें से कुछ
को अकाट्य भी कहा जा सकता है। इन सव का समवेत प्रभाव चिज्ञान-
भिक्षुके किए प्रस्तुत किए गए वीं ओौर १७बीं शताब्दी वाठे मतो को
सवया निस्तेज कर देता है मौर इह निर्धारित करने के ए विवश करता है
कि आचाय विज्ञानभिक्षु का जीवन-काल १६
चतुर्थांश अर्थात् रगमग १५२५ ई० से १६०० ई० तक. स्वीकार किया जाय
[गी
वीं चताब्दी ई० का अन्तिम तीन:
२ |आचाथं विज्ञानभिक्ष् की स्वना
सूचित रचनां
भारतीय मनीषियों कौ अलौकिक प्रतिभा, अध्यवसाय की प्रबल मनो-
वृत्ति एवं सोरहवीं शताब्दी की घर्मप्रवण किन्तु संयत सक्रियता आचाय
विज्ञानभिक्षु के व्यक्तित्व में एकाकार होकर निलर उठी हैँ । उनके विस्तृत
श्रवण ओर गम्भीर मनन ने भी उनकी प्रज्ञा क्रो अतीव प्रखर वना दियाधा)
फलस्वरूप ततत्वदरंन के प्रति उनकी अमन्द जागङ्कता ने उनकी लेखनी
को अजस्र एवं सजीव प्रवाह पदान किया है । आत्मतेज से ज्योतित उनको
विपुल ्रन्थराशि भारतीय वाङमय के मध्यकालीन युग के निस्सीम गौरव
की पुण्य प्रतीक है । अफ़क्ट महोदय ने उनके ग्रन्थों की सारणी इसं
प्रकार सूचित की है--
१-आदेशरत्नमाला 1.१७९७ (2150 ०11९५ उपदेशरत्नमाला)
२-ईइवरगीताभाष्य 1.२०५०
३--कठवत्ल्युपनिषदाखोक 1,१८१२
४--कंवल्योपनिषदारोक [१८१०
५--पातजञ्जकभाष्यवातिक या योगचातिक (एपा०]18€प)
द६--प्ररनोपनिपदालोक 1.२०५१
७-त्रह्माददं 0 २३२४.
<--भगवद्गीतारीका कव. २. ४. १०८
1. (€ ग< [75६ ° 18 00०15 25 99212016 17 (11८ (21910्प€§
(21210ह0ाप 0 ^ परिता 70 € 5९60९ 1€8व्5.
ध (न 7 प०४८९७ ०६ ऽत्रपञात६व 7085 ण २. 1. 1419,
0६ ऽप्यपत्ऽ {णः (ब(बरठहुपऽ ८ण्वाल्पा 59715, (गप. ए, ए,
णु ^ प्लत 0 गप 1864.
. वपि. 2. अ1वात्ऽ शि (भावर०षटपल ०६ ऽत्ति 58 771 01४२९
ए %165 70 द्गतलया पटला एाठपर ८६७, 41120202 1871-88.
४६
आचायं विन्चानभिक्षु क्ती रचनाए् | ४७
९--माण्डूक्योपनिषदालोक [,१८०८
१०--मुण्डकोपनिषदालोक .१८१३ |
११--मेतरेय्युपनिषदालोक [.१८११ | |
१२--योगसारसंग्रह् र्ण २३२ 2 घ] 7. १२, 860 ६७ €!€.
१ २३--विन्ञानामृत या त्रह्यसूत्रदऋजुव्याल्या । ?. ५७१ | |~
१४--वेदान्तालोक (1116 दलाल 79716 07 11}5 एएणंा्त. (
0155€112110115, )
१५--सेतारवतरोपनिषदालोक [१८०९
१६--सांख्यकारिकाभाष्य 1.१२७८ ६ ५३६ र
१७--साख्यप्रवचनभाष्य (एण11511€प्) 8
१८--पांख्यपार चिवेक ("015160) । #
इन ग्रन्थों के अतिरिक्त विक्ञानभिश्षु-विरचित एक ओौर ग्रन्थ की ।
स् चना गवनमेण्टसंस्कृतकालेज वनारस के भूतपूवं पुस्तकाक्याध्यक्ष पं०
विन्ध्येरवरीप्रसाद सर्मा ने दी ह । उन्होने "योगसारसंग्रह' की भूमिका पु० ७
पर पाद-टिप्पणी में यह् टिखा ह कि--
'्रदास्तपादभाष्यव्याल्यानं वैँशेपिक वातिकम् भिक्षुवातिकनामषेयं
वाराणस्यामेकस्य संन्यासिनो निकटेऽस्ति । तत्र॒ इरोकानां षट् सहस्राणि 1"
ॐ नमः सच्चिदानन्दमूर्तये परमात्मने । भववन्धच्छिदे तस्मे ब्रह्मविष्णुिचात्मने ।
“जिज्ञासूनां हितार्थं परमकरूणयायत्प्रणीतं सुवोषम्
भूयोभिरदूनिवन्धैः परमिहकणभुक्तन्त्रमाच्छादितम् तत् । |
सम्यग्बोवायनालं भवतिमतिमतां क्टेशनिवृ्तिकामो
भूयोविज्ञानर्भिक्षुः. .. - - कूतुकाद्वातिकेनाधूना तत् ॥'"°
१--कणभक्षमुनेस्तन्त्े यतिविन्ञानभिक्षुणा ।
प्ररास्तभाष्यव्याख्यानव्याजेनाकारि वातिकम् ।}*
इस सूचना के अनुसार विक्ञानभिकषुप्रणीत नैशेषिकशास्त्र के विषय मे
“भिश्ुवात्तिक' नाम का एक ग्रन्यहै ।
छाएज्द्तक गः (दव्चशच्ुप् ० पह प फाल तणशक त +
>0 1 क (1.
१. प्रारम्भवाक्यमेतद् ।
२. (115 25 प 560००त 91012 धिा7ए् श्ल (116 परऽ 0
शता लावऽ वप ^व्रह्यविष्णुशिवात्मने" प्र प्राप एग].
३. समाणग्तिवाक्यमेतद्
४८ | आचायं विक्ञानभिक्षु
्रामाणिक र्चनाषं
विज्ञानभिक्ु यपि एक केखनी के धनौ लेखक थे किन्तु इसका यह्
तात्पयं नहीं करि उनके नामसे अंकित अथचा उनके नाम के साथ जोड़ी गई
प्रत्येक पुस्तक को हम आंख मृद कर उन्हीं की कृति मान के । हमे इन
पुस्तकों के अस्तित्व, कृतित्व तथा कतुंत्व की प्रामाणिकता का भी चिवेचन
करना चाहिए । तभी हम किती तथ्य के विषय में निर्णय पर पहुंच सकते
है । विज्ञानभिक्षु के सुप्रसिद्ध भौर निर्णीत ग्रन्थों के अन्दर जिन ग्रन्थों का
उत्टेख-प्र्यल्लेख दै वे ग्रन्थ तो निस्सन्देह उन्हीं के है। क्योकि भन्तरंग
साक्ष्य उच्च कोटि की प्रामाणिकता का निश्चायक होता है । सांख्य-प्रवचन-
भाष्य, सांख्यसार° योगवातिंक, योगसारसंग्रह, बरह्यमीमां साभाष्य^, उपदेश-
रत्नमाला, ब्रह्मादचे° ओर श्रुतिभाष्यादि” उनके इसी कोटि के निर्णीत
ओर प्रामाणिक ग्रन्थ है । अन्तिम ग्रन्थ, श्रुतिभाष्यके साथ क्गा हुजा
आदिष्“ पद ईरवरगीताभाष्य का वोधक हो सकता दै क्योक्रि वेदान्त-
विषयक भाष्य उन्होने भीं अन्य वेद।न्तियों कौ भाति सूत्र, उपनिषद् ओर गीता
पर छिखे है । जहाँ पर श्रुतिभाष्थादिष्^ का उल्ठेख है वहीं पर उसी वारय
मेँ उसके पहले ही त्रह्ममोमां सा-भाष्य का अलग से नामोल्लेख है । इसलिए
बहुत सम्भव है कि आदि पद से ईरवरगीताभाष्य का ही संकेत हौ । ईरवर-
4
१. द्रष्टव्य, यो० वा० प° १२९ २१९ इत्यादि, यो० सा सं० पू० ३५,
सासा० पु० १, १०, ९४, १५, १६
२. »„+ यो० साः संर पु ६८, ३५ इत्यादि
३. » सां० प्र भा०पु० ८, १६ ४८, ५२ इत्यादि, यो° सा० सं० पुर
१, २, ३५, ६ इत्यादि सां० सार पु०४
४, + यह ग्रन्थ उनकी रचनाओं में अन्तिम है अतः यह पूर्वं ग्रन्थों का
अनेकशः उल्ठेख करता है ।
५० + सां० प्र भा० पु ५,२३,३४,४४ यो० वा पृ० ८५, २२२.सा०
साण्पु०द३द्
+» ब्रह्यमीमांसाभाष्यम्, पृ० ६२
# यो० सार सं० पु° ६८
५ यो० ना० पूर २२२
, (ततश्चेकल्यैव परमात्मनो मुख्यात्मता सिध्यतीति, एतच्च सर्वं ब्रह्म
मौमांसाभाष्ये भृतिभाष्वादिषु च प्रपल्वितमस्माभिः --यो° वा
पु० २९२
आचार्यं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | ४९
मीताभाष्य की मिलनेवाली अनेक पाण्डुलिपियों में प्राप्य समाप्तिवाक्य' इस
सम्भावना को ओर भी अधिक सुदृढ करदेता टै कि विज्ञान भिक्षु ने वेदान्त
के गीताभाष्य के किए ईहवरगीताभाष्य ही लिखा था। साथी श्रीमद्भगवद्-
गीता-भाष्य का न लिखनाभी इसी समाप्तिवाक्य से सिद्ध हो जातादै)
पुराणो के प्रति प्रदरिंत विज्ञानभिक्ु कौ असीमनिष्ठार् भी इसी तथ्य की
समथंक है ।
विज्ञानभिक्ु ने श््रु्तिभाष्यादिपु" क् कर जिन उपनिषद्भाष्यों की ओर
संकेत किया हे, प्राप्य पाण्डुलिपियों के आधार पर उनकेये नाम हः
कठवह्त्युपनिष दालोकः, कं वल्योपनिष दालोकः, परर्तोपनिषदारोकः, माण्डूक्योप-
निषदालोकः, मुण्डकोपनिषदालोकः, मैत्य॒युपनिषद।लोक., ेताइवतरोपनिष-
दालोकः, तैत्ति रीयोपनिषदालोकः* । इन्हीं आठ उपनिषद भाष्यों का
सामूहिक नाम वेदान्ताोक हँ । एक प्रकार से वेदान्ताखोक नामक ग्रन्थ
मालाकेही ये आोपृष्पहं। इन माष्यों कौ पुष्पिकाओं से यदी सिद्ध
होता है कि वेदान्तारोक नाम का विज्ञानभिक्षु--चिनिमित कोई अरग ग्रन्थ
नदीं है अपितु प्रत्येक उपनिषद्भाष्य 'वेदान्ताखोक' नामक पस्तक-सिरीज् का
एक अंग है । आफफरक्ट महोदय ने आ्न्तिवज्ञ वेदान्तालोक नाम का एक
अलग ग्रन्थ गिना दियाहै। इस प्रसंग में एक वत्त स्मरणीयदहै कि
ईशोपनिषद्, केनोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद् ओौर वृहदारण्यकोपनिषद् पर
इनके भाष्य नहीं द जव कि प्रस्थानत्रय के अन्य भाष्यकारो ने कवल्य
जैसी छोटी उपनिषद् पर भाष्य नहीं किला ह किन्तु प्रवान उपनिषदों
१. “सर्ववेदास्तसाराथंसंग्राहिण्या अतिस्फुटम्
आष्यमीडवरगीतायाऽचक्रे विज्ञानभि्षुकः ।
एतेन भगवद्गीताव्यास्यपेक्षाऽपि यास्यति
कब्दादिभेदमात्रेणगीतयोरथंसाम्यतः ।\" |
इति कूमपुराणे ईश्वरगीतासूष निषत्मुविज्ञानभिक्षु-कृ तभष्ये दशमो-
ऽध्यायः ॥ ¡ 5
२. अपने सास्य, वेदान्त ओर योग तीनों प्रकार = ग्रन्थों मं उन्होने
पुराणों का पुष्कल मात्रा मे उद्धरण दिया है ओर उन्हे श्रुतिकोटिक
प्रामाणिकता प्रदान कौ है । ।
३. यह पुस्तक आफेकंट ने नहीं उल्लिखित को । इस पुस्तक कौ एक
भ्रति एशियाटिक सोसायटी बंगाल मे नागर अक्षरों में उपलन्ध है 1 --
४. १८दति विज्ञानभिकषुकृते वेदान्तालोकते प्रनोपनिषदाल्मकः समाप्तः" इतिवत्
सवषूपनिषद्भाष्येषु 1
फा० ४
५० | आचायं विज्ञाननिकषु
सपं शादि सी है अपने अपने माप्य किल .ह। - बहत
संभव है अपने सिद्धान्तो कौ भनुकूरत। का दृष्टिकोण ही इसका मूल
कारण हो।
'तांख्यक्रारिकामाष्य' नामक ग्रन्थ विज्ञानभिक्षु का खा हुभा नहीं है।
उनके अन्य ग्रन्थों मेँ इसकी कोई सूचना नेहीं है।इसनाम कीजो पाण्डल्पि
पं० विन्घयेश्वरी प्रसाद जी को प्राप्त हुई थी उसके अन्त मं पाण्ड्लिपिलेखक
के 'विज्ञानभिक्षुविचरित सांस्यभाष्यम्” नामक वाक्यांश ने अधिकांश विद्वानों
को इस भ्रान्ति मे डाल दिया था कि यह ग्रन्थ विज्ञानभिभ्ु का क्िखा हुआ
है। इस भ्रान्ति का निराकरण भी उसी स्थल प्र रै। उस ग्रन्थ के अन्तिम
इलोक में यह पवित आई हुई है “भाष्यञ्चात्र गौडपादकृतम् । इस इलोक
को पढ लेने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि, सांख्यकारिकाभाष्य
विज्ञानभिक्षु की रचना है ।
-भिक्ुवात्तिक'? नामक ग्रन्थ की संभावित प्रामाणिकता काभी विचार
कर ठेना चाहिए । आपाततः यही धारणा होती है कि सांष्य, योग ओौर
वेदान्त पर समान रूप से लिखनेवाऊे आस्तिक दाशेनिक विज्ञानभिकषु ने
वैरोषिकं दशन पर भी अवद्य केखनी उठायी होगी । ग्रन्थ की पाण्डुलिपि मे
उपस्थित प्रारम्भ" ओर समाप्तिवाक्य, भी यह प्रामाणित करते प्रतीत होते है
कि यह् रचना विज्ञानभिक्षु कीटहीरहै। किन्तु फिर भी ग्रन्थ के सिद्धान्त
इस सम्भावना को स्वेथा निर्मूल सिद्ध करते ह । यद्यपि एक अनिरिचत
नाम ओौर पता वाके संन्याी के पास रहनेवारी पाण्ड्लिपि का पता लगा
सकला असम्भव होने के कारण उस प्रति कीतो' जांच नहीं कीजा सकी
तथापि प° वि्च्येशवरी प्रसाद जी द्वारा उद्धत अंशम ही एसे सिदधान्त
सामने उपस्थित हो जाते है जो विज्ञानभिक्षुसम्मत कदापि नहीं सिदहो
सकते--१-उस ग्रन्य का प्रथम वाक्य यह है-ॐ नमः सच्चिदानन्दमूरत॑ये
परमात्मने ।' अपने सांख्य, योग ओौर वेदान्त तीनों प्रकार के सभी ग्रन्थों मे
विज्ञानभिक्षु ने एक स्वरसे अत्मा तथा परमात्मा की आनन्दल्पता का
१. द्रष्टव्य-यो° सा० स० को भूमिका में पादटिप्पणी प०६
२. » वही न ६
३. „ वही पू०७
४, » वही ६.८
५. ; वही पु०८
आचायं विक्ञानभिक्षु कौ रचनाएं [५१
जोरदार खण्डन किया है। फिर भला चिज्ञानभिक्षु इस एकाकी ग्रन्य में
परमात्मा को सच्चिदानन्द-रूप में कंसे स्वीकार करेगे, उस रूप की वन्दना
तोदूरकी वात है। २-इसी शोक की दूसरी पंकिति "भवबन्धच्छिदे तस्मैब्रह्म-
विष्णुशिवात्मने' भी विचारणीय है । विक्ञानभिक्ष् ने परमतत्माया ब्रह्म पद
का वाच्याथं या प्रधान अभिवेया्ं ब्रह्मा, विष्णु भौर शिव" मानने का
प्रत्याष्यान किय। है साथ ही ब्रह्मा, विष्णु ओर शिव को जीव ही माना है,
परम।तमा नहः । अतः यह पवित भी विज्ञानभिक्षु केद्वारा नहीं क्िषीजा
सकती क्योकि विज्ञानभिक्षु के विशाल ग्रन्थ समुदाय में उनकी एक भी बात
स्ववचोग्याघात दोष से दूषित नदीं है । उनके सिद्वा त समस्त ग्रन्थों मे एक-
रूपै ओर अट्लह।
बहुत सम्भव है कि किसी अन्ध लेखक ने उनकी तात्कालिक सिद्धि
से प्रभावित होकर इस प्रन्थ के आदि ओौर अंत मे उनका नमि डाल दिया
हो ताकि ग्रन्य का पूणं प्रचलन हो सके । या फिर किसौ अन्य यति ने अपना
नाम विज्ञानभिक्षु रक्खा हो जैसा कि एक नाम के अनेक संन्य सी हुभा करते
हैँ । मेरा यह निरिचत मतै कि हमारे अध्ययन के आलम्बनरूप आचाय
विक्ञानभिक्षु का यह वैशेषिकग्रन्थ नहं है । न्याय ओर वैशेषिक की भूमिक
को वे सांख्य योग ओर वेदान्त के पारमा्धिकस्तर से वहत निचली समनज्ञते
है । स्याय वैशेषिक का यह अपमान भी इसी बात का सूचक टै कि 'याय-
वैरोषिक पर उनकी ठेखनी नहीं उठी ।
द्विविध वगींकरण
विज्ञानभिक्षु की माणिक स्वनाओं का चर्गकिरण हम दो आधारो पर
१. “एतेन ब्रह्मणः आनन्दरूपत्वमपास्तम्'-- वि० भा० पु० ६३ ओरद्रष्टव्य
१,६४,४८४,५७६ इत्यादि
्वानन्दं ननिरानन्दमित्यादिशरुतिभिःस्फुटम् । आत्मन्यानन्दरूपत्वनिषेधाद्यु-
वितसंय तात् । = 1 निषेघवाक्यं बल
वद् विधिवाक्याद् इतिस्थितिः 1
(साऽसा० पु २९ भौर भी द्रष्टव्य पु०३०,३५ इत्यादि )
२. अतोविष्ण्वादिदेवानां न साक्नादीश्वरावतारत्वं किन्तु अंश्ञावतारत्वम् ।
(विश्भा०पु १३३ ओर द्रष्टव्य पु १२५, १३७)
, त्यायवेक्ञेषिकोकतज्ञानस्यपरमार्थभूमौ बाधितत्वाच्च । सां भण
भाण पुण ४
1
५२ [ भाचायं विज्ञानभिकषु
कर सकते हैँ । एक प्रकाशन से आधार पर ओौर दूसरे विषयों के आधार पर्)
प्रकाशन कौ दृष्टि से वर्गीकरण का स्वरूप यह होगा --
(१) प्रकारित ग्रन्थ--
१--सांस्यसारः'
२--सांख्यप्रवचनभाष्यम्
३-योगवातिं कम्?
४--योगसारसंग्रहुः"
५--विन्ञानामृतभाष्यम्^
(२) अग्रकारित ग्रन्थ--
[क] १--ईरवरगीताभाष्यम्
२--उपदेशरत्नमाला
२--कठवल्ल्युपनिषदालोकः
४--कंवल्योपनिषदालोकः
५--मेतरेय्युपनिषदालोकः
६-म।ण्ड्क्योपनिषदालोकः
७--मुण्डकोपनिषदालोकः
८--प्रनोपनिषदालोकः
९--तंत्तिरीयोपनिषदालोकः
१०--उवेतारवतरोपनिषदालोकः
१ विहिलियायिका इण्डिका : एदियारिक सोसायटी आफ़ बंगाल के अधीन
कलकत्ता से प्रकाशित १८६२ ई०
२. चौखम्बा संसछृतसीरिज् बनारस से प्रकाशित १९२८ ई०
र र [योग कौ अन्य व्याद्याओं से
४. धियासःफिकल पन्लिश्ञिग हाउस, भडयार मद्रास से तथा हिन्दी टीका
सहित मोती बनारसी ७५ न° ल° वाराणसौ से भी- मैने निदेश
आचायं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएँ | ५३
[ख | १--त्रहयादज्ञः'
इस वर्गीकरण के अनन्तर, विषय के आधार पर इन ग्रन्थों का विभा-
जन कर लेना चाहिए क्योकि इस विभाजन के वारा इन ग्रन्थों का परि-
चयःत्मक विवरण ओौर उनके सिद्धान्तो के संकलन मे भी वडी सुविधा होगी ।
इस आधार पर एसा वर्गीकरण होगा--
१--सांस्यशास्त्र के ग्रन्थ--
१--सांख्यप्रवचनभाष्यम्
२-माख्यसारः
र२-- योगशास्त्र के ग्रन्थ--
१--योगसारसंग्रहः
२-योगवात्तिकम्
-द- वेदान्तशास्त्र के ग्रन्थ--
श त्रह्ममौमांसाभाष्यम्
२--ईरवरगीताभाष्यम्ः
२-उपदेशरत्नमाला
४--त्रह्यादशैः"
५--कठवल्ल्युपनिष दालोकः"
६-कं वल्योपनिषदालोकः
[~
- महामहोपाध्याय पण्डित गोपीनाथ कविराज का कथन है किं उन्होने स्वयं
"ब्रहमादशे” कौ एक पाण्डुलिपि आज से लगभग ५० वषं पुवं स्व० पण्डित
दामोदरलाल गोस्वामी वाराणसी के पारिवारिक "पाण्डुक्िपिसंग्रह' में देखी
1
थी । किन्तु प्रयत्नजील होने पर भी मे इस प्रति का दरसन नहीं कर सका ।
२. सर्ववेदान्तसारार्थसंग्राहिण्या अतिस्फुटम् ई गी० भा० के अन्तिम इलोक
को इस पक्ति से यह् स्पष्ट है कि यह् ग्रन्थ वेदान्त के साराथं का ही संग्रह
करता हे ।
३. यह ग्रन्थ भी वेदान्त का ही एक प्रकरण ग्रन्थ है ।
मे प्राप्त पाड्ल्पि के आधार पर रह्म ही इस ग्रन्थ का विषय ! वि०
भा० में संकेत भी यही सिद करता है ।
४.यो० सा० सं में पृ ११२ पर विज्ञानभिक्षु ने स्वयम् इस ग्रन्थ
¬)
को वेदान्त विषयक माना है ।
५ उपनिषद्भाष्य तो वेदान्त' विषयक है हौ । उपनिषद् ही तो वेदान्त ह !
-इन सब का सामूहिक नाम भी वेदान्तालोक ही है।
५४ | आचायं विज्ञानभिक्षु
७--मेतरेय्युपनिष दालोकः
८--माण्ड्क्योपनिष दालोकः
९--मुण्डकोपनिषदारोकः
१० प्ररनोपनिषदालोकः
११--तेत्ति रीयोपनिषदालोकः
१२--उवेताइवतरोपनिषदालोकः
रचनाया का क्रम
विज्ञानभिक्षु की सभी प्रामाणिक रचनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण करने से
यह पता चरता है कि उनकी अन्तिम रचना योगसारसंग्रह टै, क्योकि इस
रचना वा उल्टेख किसी भी उनकी दूसरी रचना मे नहीं हे । प्रत्युत' उसमें
सांख्यसार क, सांख्यप्रवचनभाष्य स, ब्रह्ममोमांसाभाष्यषग, ब्रह्मादर्च घ आदि
ग्रन्थो का अनेकशः उल्लेख है । उसके पहले की रचना सांरुगेस।र है क्योकि
इसमे सांख्य प्रवचनभाष्य क, ब्रह्ममीमांसाभाष्य ओर योगवार्तिक ग का बहुशः
नामनिर्देश किया गया है । उससे पूवं की रचना सांख्यप्रवचनभाष्य' होगी
क्योकि उसमे ध्योगवातिंक्क ओौर ब्रह्ममीमांसाभाष्यभ्य के स्पष्ट संकेत ओर
नामग्रहण हं । इसौ न्याय के अनुस।र योगवातिंकः कौ रचना ब्रह्ममीमांसा-
भाष्य के नामोस्लेख के कारण उसके वाद ही हुई होगी । ब्रह्ममीमां साभाष्य के
साथ ही साथ श्नुतिभाष्यादि अर्थात् सभी उपनिषद्भाष्य ओर ईङरगीता-
भाष्य का भी उत्कल योगवातिंक में हभ है 1 इस प्रसंग तक पहुंच कर
अस्पष्टता आ जाती है कि वेदान्त के इन तीन प्रस्थानोंमें (सूत्र, गीता भौर
उपनिषद् मे) से किंस प्रस्थान पर विज्ञानभिक्षु की केखनी पहले ओौर किस
पर बाद मे चली होगी ? ब्रह्ममीमांस,भाष्य' एक विशाल ग्रन्थ होनेके कारण
उसमे नामनिदेश को सम्भावना अधिक हो सकती थी किन्तुएसान होने
के कारण बुद्धि का भाप्रह बहुधा यही होता कि हम इन तीनों प्रकार कौ
१ द्रष्टव्य, यो° सा० सं° में क--पृ० ६८, ३५ इत्यादि, ख- पु° ३५
इत्यादि, ग--पू ० १८, घ--पृ० ६८
२. द्र सारसा०र्म क प° १, १५, १४, १० इत्यादि, ख--पृ० ३२
इत्यादि, ग--पू ०४ इत्यादि
२.द्र०, सा०प्र० भा०म क~ पु० ८, १०, १६, ४८, ५२ इत्यादि, ल--
पू० ५, २२, ३४ ४४, ४५, ७४, ७६ इ््यााद
४. द्०» यो° वा० पु° ८५, २२२ इत्यादि
५, 2०, यो° वा० पु० २२२
|
अक ~
आचायं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | ५५
रचनायों मेँ सूत्रभाष्य को पहले को ओौर उपनिषद् भाष्य तथा ईदवरगीत्ा-
भाष्य कोवाद को रचनाएं मानें । ब्रह्यादशं प्रन्य की कोई पाण्डुक्िपि प्राप्त
न कर सकने के कारण इस ग्रन्थ की रचनाका काल यदि वेदान्त-विषयक
रचनाकालकेही बीच कहीं मनलेतो सत्यसे बहुत द्रुरन होगे । अव
चूंकि 'उपदेशरत्नमाका' ब्रह्मसूत्रभाष्य' मेँ ही उल्लिखित दै अतः यह उनकी
वेदान्त-प्रन्यों मेँ प्रयम रचना होगी ।
अन्तरंग साक्ष्यं के आधार पर निर्णीत इन ग्रन्थों के इस काल-कममें
गरन्थ-रचना की पृष्ठभूमि का एतिहासिक आधार भी स्पष्ट ओर सगंत प्रतीत
होता दै। विज्ञानभिक्षुने वृद्धावस्था के काफी पहले ही संन्यास के प्रति
प्रद्शिंत उनको प्रौढ अभिरुचि'्से ही प्रकट है । इसक्िए दी्ंकालोन संन्यास
मे इतने अधिक ग्रन्थ लिने का सुअवसर भो उन्हं मिरु सका । उनके
सारे ग्रन्थ संन्यासी जीवनमेंही लिखि गए इस वातको ग्रन्थकार क नाम
यतिवरविज्ञानभिक्ष, विज्ञानयति या विज्ञानाचायं ही प्रमाणित कर देता
क्योकि ये नाम संन्यसकार के ही हो सक्ते हँ । प्रत्येक प्रन्थके मगला-
चरणमें की गईग्रु को स्तुति जौर गुरु-दतत ज्ञान को चर्चाभौ इसो तथ्य
को प्रमाणित करती है! प्रन्यों का प्रतिपाद्य विषय भी उनकी संन्यास--
कालनिर्मिंति का ही निरचायक है । 'विज्ञानामृतभाष्य'--जो किं विज्ञानभिक्षु
की प्रारम्भिक रचनाभों मेँ से एक है--की रचना के पूवं ही उनके गुरुवयं
क्¡ देहावसान हो चुका था। मंगलचरग को पंक्तिमे गुरुके दारा प्राप्त
पद"? को प्राप्ति ही उनके प्रत्य के अध्ययन का चरमलक्ष्यहै। कहने कौ
आवरथकता नहीं कि वह पद कैवल्य या मोक्षपद हौ हो सकता है जीवन्म्क्ति
नहीं वयोकि विज्ञानभिक्षु के दशंन में चरमलक्ष्य जीवन्मुवित नहीं विदेहमुक्ति
ही है ओौर प्रारन्धकमे का क्षय जीवन्मुक्ति में भी ज्ञान से नहीं हो सकता बल्कं
असम्प्रज्ञात समाधि से ही होता है। "चिजित्यज्ञानकमंम्याम्” मे प्रयुक्त ल्यप्
प्रत्यय भी इसी तथ्य का समर्थन करता है ।
बहुत सम्भव टै कि संन्यास लेने के पश्चात् अपने गरु के कंवल्यलाभ
के अनन्तर उन्होने अपने शिष्यो को ब्रह्मवि्याविषयक उपदेश दिये हों ओर
१. द्रष्टव्य, त्र° सी० भा० पु० ६२
२ | ४ १९६१ श भाष्य।
३, ४. विजित्यज्ञान-क्मभ्यां यान्तुभीमद्गुरोःपदम् 1" वि० भा० पु १
५६ | आचाय विज्ञानभिक्षू
उन्हीं को जिज्ञासु विदानो के लाभार्थं "उपदेश रत्नमाला" में ध् करदिया
हो ।' पर इस संग्रह को वे एक साधारण कोटि हा -पकररण पल्य ही मानते
व । इसौकिष शुरदक्षिणा' के रूप मे उन्होने ब्रह्मीमांसाभाष्य को ही तुत
किया है इसे नहीं । सोलहवीं शताब्दी के वेदान्तप्रधान--दाशंनिक वाताचरण
में उनका सवंप्रथम वेदान्त-सूत्रो पर भाष्प लिखने के लिए लेखनी उठाना
स्वाभाविक ही था । "उपदेशरत्नमाला' गत सिद्धान्तो के सांख्य संवलित एवं
योगयुत वेदान्तीस्वरूप को देखकर सहसा उद्विग्न अन्य॒वेदान्तवगं कौ
आलोचनाएं निङचय हौ बड़ी कटु ओौर प्रतिक्रियाएं अत्यन्त तीत्र रही होगरी ।
अतः अपने सिद्धान्तो के समथंन मे सूत्र, उपनिषद् ओर ईरवरग्रीता पर भाष्य
लिखि कर (अपनी दुष्टि से) तथाकथित आधुनिकवेदान्ततरुवों के श्रान्त
मत का प्रत्याख्यान करना उनके किए परमावश्यक् था ।
इसके अनन्तर सांख्य ओर योगशास्त्र के मौक्लिक ग्रन्थों की व्याख्या करनी
भी इसक्िएि अत्यन्त आवदथक प्रतीत हई होगी कि कहीं विद्रज्जन उनके
सास्य ओर योगज्ञान को केवल वेदान्तविकृत न कहने लगे ओर इस प्रकार
से ततत्वदशंन के क्षेत मे घोर स दवान्तिक अव्यवस्था न आ जाय । अपने समी
व्याख्या ग्रन्थों को रचना के पचात् अपनी वाणी मं अपने सारे सिद्धान्तं
भौर समूची ज्ञानराशि को दो प्रकरणप्रन्थों मे पुञ्जीभूत करने की उनकी
अभिलाषा होनी स 'था स्वाभाविक थी । दोनों ग्न्य सारः ग्रन्थ हुए । उनमें
से पहका 'सांख्यसार' उनफे श्ञान' की मूल-मत-माला ओौर दुसरा 'योगसार-
सग्रह' उनके कर्म" को पावन-विधि है ।* ञान" ओर "करम" के मागं से प्राप्त
होनेवाले मोक्ष जैसे परशस्त लक्षय की सिद्धि के किए दोनों एक दुसरे के धुरक
€ । उनकी दृष्टि में सास्य की सक्रिय साधना ही योग है। कदाचित्
इसीलिए इन दोनों रचनाओं के कारुतकरमे उनका उदेश्य, भी 'ईशः' 'हुरिः-
्रीयताम्^ से आगे बढ़ गया है ओौर नातोऽधिको मुमृक्षूणामपेक्ष्यो मोक्षदशने'
के रूपमे प्रकट होने रगा था ।
१. वेदान्ततत््वं संक्लिप्तमिदमाकरण्यतां बुधः । उपदेश्ञरतनमाला पण्ड् -
लिपि पृ०१ र £
२. इति विजञानभिशषु - विरचितमुषरेशरतनमालास्यवदान्तभकरणं समाप्तम् ।
० ₹० भा० की पुष्पिका पाण्डुलिपि ।
“ ब्रह्मपुत्र ऋन् व्याख्याक्रियते गुरुदक्षिणा । वि० भा० पु० १
विजित्यज्ञानकर्भभ्या यान्तुभ्रौमद्गुरोःपदम् । वि० भाः पु० १
ˆ दष्टव्य, पु के धवं के इलोक वि० भा०, योऽ वा० सां०.भ्र० मा०।
` ष्टव्यः पृष्पिका के पूवं का इलोक यो सा० सं.
~ 6 < ~
गाचा्थं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | ५७
इन अन्तरग ओौर बहिरग प्रमागों की विवेचना पर आधित निर्णयके
अनुसार उनको रचनां का क्रम यह् सिद्ध होता है --
१-उपदेशरत्नमाला
२-त्रह्यसूत्रभाष्यम्
३-१०--श्रुतिभाष्यादिः (वेदान्तालोकाष्य आटो ग्रन्थ)
११-ईरवरगोताभाष्यम्
१२--त्रह्मादशः
१३--यो गवातिकम्
१४--सांख्यप्रवचनभाष्यम्
१५--सांस्यसारः
१६-योगसारसंग्रटः
॥| ©+
रचनाभो का परिचयात्मक तितरण
वेदान्तप्रन्थ
१ उपदेशरत्नमाला--पिले अध्याय से यह स्पष्टहै कि संन्यास-ग्रहण
करने के परचात् श्रवण ओौर मनन की परम्परा में पूर्णतः निष्णात होकर
आचायं विज्ञानभिक्षु ने अपने शिष्य-समुदाय के लिए 'उपदेशरत्नमाका' नाम
का अपना प्रथम प्रकरण प्रस्तुत किया था । “उपदेशरतनमाला' उनके वेदान्त
सिद्धान्तो का प्रकाशक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ कुल दस खण्डो मे विभक्त है।
प्रत्येक खण्ड का प्रतिपाद्य विषय इस प्रकार दै--१-त्रह्यात्मतोपदेशः
र-व्यावहारिकपारमाधिकात्मद्वयोपदेशः ३-द्रयोःस्वरूपोपदेशः ४-अन्योऽन्य-
विवेकोपदेशः ५-त्रह्याद्रैतोपदेशः ६-त्रह्मचिन्मात्रसत्यतोपदेशः ७-सृष्ट्यादि-
्रक्रिपोपदेशः ८-त्रह्यविद्यास्वरूपोपदेदाः ९-यिचांगोपदेशः १०-विद्याफलो-
पदेशः ।
उपदेशरत्नमाला मे प्रमुख विषय बरह्म को चिन्मात्रेता का प्रतिपादन
हे ।' फलतः बरह्म कौ आनन्दरूपता का खण्डन भी वलपुवेक किया गया है ।
ब्रह्य के सम्बन्ध नें प्रस्तुत इस सिद्धान्त ने तत्कालीन अद्रेतवादियों के वीच
मे एक प्रवल प्रक्रिया को प्रेरित क्रिया होगा ओौर इस ब्रह्मपरक प्रकरण ~
ग्रन्य की कटु आलोचनामें रंकरमतानुयायिओं ने कोई कसर न रक्ली
होगी । अद्वेतवेदान्ती ही नहीं अपितु कोई भी अन्य वेदान्ती-- चाहे वहं
विरशिष्टाद्ैत अथवा देत सिद्धान्त का पोषक हो या द्रैतादरैत अथवा शुदधाद्रैत
का समर्थक हो-त्रह्मततत्व मे आनन्दरूपता अवश्य मानता आया है । विज्ञान
भिषषु ने पदे पहल वेदान्त का एसा स्वरूप विद्वज्जगत् के सामने इस
प्रकरण-्रन्थके द्वारा प्रस्तुत किया जिसमे सांख्यसिद्धान्त वेदान्तसिद्धान्तों
का स्थान ग्रहण करता हआ दिखाई पड़ा । इसको प्रतिक्रिया दशन जगत्
मे सवथा स्वाभाविक थी ।
१* न्रल्याट्मतत्वविदयेयं विज्ञानेनोपदिश्यते ॥ पा० कि०.उ० र० मा०
२. इति विज्ञानभिक्षुविरचितमुपदेशरतनमालाख्यं वेदान्तप्रकरणम् समाप्तम् ।
पुष्पिका पा० छि० उ० रण मा०
५८
आचायं विज्ञानमिक्षु फौ रचनाएं | ५९
एसी परिस्थिति में वेदान्त-दरन का पूरं वास्तविक रूप प्रकारित करने
के लिए श्राचायं विज्ञानभिक्षु को §सका विस्तृत विवेचन करना भ्रौर तदर्थं
ब्रह्मसूत्रो, उपनिषदों श्रौर ईरवरगीता पर भाष्य लिखना श्रावद्यक प्रतीत ह्भ्रा
होगा । वे एक प्रसाधारण मनीषी; श्नौर श्रपने सिद्धान्तो के प्रति श्रसीम निष्ठ-
वान् योगी थे । उन्होने सूत्रोपनिषद् श्रौर गीता तीनों वेदान्त्रस्थानों पर भाष्य
लिख कर यह् प्रदशित करने का प्रयास किया कि मूलग्रन्थों का श्रभिप्राय केवल
उनकी विचारधारा में ही ठोक-ठोक प्रकाशित हुम्रा है तथा वेदान्त के विषय में
केवल उन्हीं का मतवाद सर्वथा पृष्ट, युक्तियुक्त प्रमाणसंगत श्रौर श्रवर्य-
स्वीकायं है ।
भ्रपनी दृष्टि में वे ही सच्चे ्र्रौतवादी थे। भ्राचायं शंकर श्रादि
तो श्रपने श्रखण्ड श्रौर भ्रानन्दरूप ब्रह्मसिद्धान्त के कारण भ्रान्त प्रचारक श्रौर
जगन्मिथ्यात्व-प्रतिपादन के कारण ून्यवादी बौद्धं के१ ही समकक्ष श्रीर
्ररैतवेदान्तिनरूव मात्र ये । श्रपने सूव्रोपनिषद्गीतामाष्यों मेँ उन्होने दवैतादरैत-
वादियों, विशिष्टाद्रैतवादियों श्रौर दैतवादियों का कहीं पर भी नाम-निदश-
पुवेक स्पष्ट विरोध या प्रत्याख्यान नहीं किया है। वे केवल मायावादी शंकर
मतानुयायियों से ही खुल्लमखुल्ला लते दीख पड़ते हँ । इसका कारण स्पष्ट है
करि अन्य सभी प्रकारके वदान्ती इनकी दुष्टिमें ज्ञानी दाशेनिक न होकर
भक्तिमार्गी साधक थे । उनका लक्ष्य तत्वसाधना' नहीं भपि तु साधना का तत्तव"
था । विज्ञनभिक्षु की दृष्टि में ये भक्ठभाष्यकार मानवीय तथा दिव्य गुणों के
समवेत रूप के पजारी ही प्रतीत हुए । भ्रतः उनकी दुष्टि मे वे सब दवैतवादी
ही थे वेश चाहे उन्होने विरिष्टादेत का वारण किया हो अ्रौर चाहे शुद्धाद्रैतया
देताद्वैत का । १५ वौं शतान्दी के श्रन्त तक में द्वैत परम्परा के शंकरानुयायियो २
ने श्रौर सभी प्रकार के वेदान्तियों को इतना परास्त भी कर रक्वा थाकि
इनके खण्डन मण्डन की श्रावश्यकता ही विज्ञानभिक्षु को नहीं प्रतीत हुई ।
ंकरानुयायियों ने श्रपने तीन्रतम त्को से केवल ॒भ्रपने सिद्धान्तं को ही सुसंगत
सिद्धान्त सिद्ध करके वेदान्त कीजो एक मात्र ठेकेदारी ग्रहण करली थी,
विज्ञानभिश्षु ने उस भ्रान्ति के विरोघ में भ्रपनी भ्रावाज ऊँची की भ्रौर वेदान्त
१. न तु तद्रे दान्तमतम् -सां० प्र° भा० प° २३
२, अनयैव च रीत्या नवीनानामपि प्रच्छन्नबोद्धानां मायावादिनामविद्या-
मात्रस्य तुच्छस्य बन्धहेतुत्वं निराङृतं बेदितन्यम् ।--सां० प्र° भा०
न
३. विद्यारण्यभरुनी श्वर, सदानन्दग्यास आदि ।
६० | आचायं विज्ञानभिश्च
के मूल रूप से उन्हं भटका हृश्रा सिद्ध किया श्रौर स्पष्ट घोषणा की कि यह्
वास्तविक वेदान्त.मत १ नहीं, श्रपितु नथा वेदान्त या श्राधुनिक वेदान्त है ।
निज्ञानागरतमाष्य
इस पृष्ठभूमि मे भ्राचायं विन्ञान भिक्षु ने वेदान्तभाष्य की परम्परा का
प्रथम ग्रन्थ श्रह्ममीमांसामाष्य' उक्त निष्ठुर कसौटी के संकषं पर चढ़ा कर
विदरज्जगत् में प्रस्तुत किया । इस भाष्य का नाम श्राचायं ने "ऋजु-व्याख्या'
रखा है । सामान्यतः भाष्यो श्रौर टीकाभ्रों का नाम उनकी विश्ञालता, संक्षिप्ता,
विशदता श्रथवा सुवोधता सम्बन्धी रखा जाता है । कभी-कभी व्याख्याश्नो के
नामकरण मे हितकतृःत्व, संतोषदायकत्व एवं प्रियरूपत्व का पुट भीलादिया
जाता है । दर्शनग्रन्थो की व्याख्याश्रों एवं भाष्यं के नामकरणं में ग्रन्थकार लोग
भ्रपने मतवादका भी श्राधार नेते भ्रौर सिद्धान्तके मूलशब्दों का भी उपयोग
करते हए देखे जाते है । किन्तु "ऋजु" व्यास्या से इन विरिष्ट प्रयोजनों कौ व्यंजना
तो होती नहीं । फिर भी ऋजु" शब्द का प्रयोग भाष्य कौ सरलता भ्रौर
सुबोधता के प्रति संकेत करने के साथ साथ कु श्रौर विशिष्ट श्रभिप्राय के
परति भी इंगित करता है । वह॒ श्रभिप्राय साफ़ है। विज्ञानरभिक्षु की दुष्टिमें
पूवत सभी श्रह्मसुत्रभाष्य' ऋजु होने के स्थान पर कुटिल, वक्र श्रौर विषम
थे । भ्र्थात् सूत्रों का श्रथं निकालने मेँ शंकर रामानुज प्रादि सभी भष्यकासों
ने भ्रपने सिद्धान्त के पोषक तत्त्वो के भ्रनुकूल तोड-मरोड की है श्रौर सूत्र की
स्वाभाविक मान्यताश्रों की श्रवहेलना की है । ग्रतएव श्राचायं बादरायण के यथार्थं
परमिप्राय को बिल्कुल सरल रीति से व्यक्त करने के प्रयोजन को स्पष्ट करने के
विचार से विज्ञानभिक्षु ने श्रपने भाष्यका नाम कऋजु-व्याख्या' रखा होगा ।
ग्रन्थ का स्वरूप
यह् भाष्य बहुत विडाल है । श्राकार की दष्ट से श्रीभाष्य के बाद तरेदान्तसूत्ो
पर सवसे बृहद् भाष्य यही है । लगभग १४ सहस्र पंक्तियां इस ग्रन्थ में हैँ जब कि
श्रीभाष्य में १६ सहस्र के लगभग पं्तिर्या है । प्रथम भ्रघ्याय के प्रथम पाद का पंचम
मुत्र भौ विज्ञानमिशचु की दृष्टि मेँ पहले चार सूत्रों की ही भति बड़ा महत््वपूरं है ।
इसीलिए चतुःसूत्री के स्थान पर इन्होने पञ्चसूत्री की महत्ता स्वीकार की हैर ।
भ्राचायं शङ्कर, रामानुज, मध्व श्रौर निम्बाक ने चतुःसूत्री परर विशिष्ट, विशद एवं
१. नेदं न्यासदरंनम् !--वि० भा० पु० ८५ ॥।
२. पञ्चसुत्रयां समासेन पूर्वाचार्य प्र्वातितः ।
वेदान्तनगरोमार्गो विज्ञानार्केणए दशितः ॥- वि० भा० पु० १३९
आचायं विज्ञानभिक्षु कौ स्चनाएं | ६१
विस्तृत भाष्य लिला है । सारे प्रतिपाय विषयों का संक्षिप्त परिचय इसी चतुसूत्री-
भाष्ये कर देने की परम्परा थी । भ्राचार्य वल्लभ ने त्रिसूत्री भाष्य की योजना
प्रपनायी थौ । परन्तु यह् “व्रिभत्री?' श्रौर “चत्, सूत्री” का अन्तर नाममा काधा
क्योकि वल्लभ ने “जन्मादस्य यतः” वै सू° १।१।२ श्रौर “शास््रयोनित्वात्"”
वे° सू० १।१।३ इन दोनों सूत्रों को एक करके ही प्रस्तुत किया है। इस प्रकार
से ^तत्त्समन्वयात् ” सूत्र के भाष्य के श्रन्त में उन्होने “इति त्रिसूत्री भाष्यम्"
लिखा हे । श्राचायं विज्ञानभिश्चु ने इन चारों सूवरोंके सदृश महत्त्व पांचवें सूत्र
“ईक्षतेर्नाशब्दम् को भी प्रदान किया है] इस परम्परा-परिवर्तन का कारण
कदाचित् यह् था कि इस पांचवें सूत्र द्वारा ई्वरकतरुत्वादि विषयों कै प्रतिपादन मे
उनका विशेष संरम्भ दीख पडता है । उन्हं ्रपने मतवाद के--जो कि सांख्ययोग ग्रौर
वेदान्त का मिलन विन्दु है, भ्र्थात् संसार का ईश्वरकतरं कत्व-मण्डन श्रौर श्रनिर्वच-
नीयतावाद-खण्डन रूप है-- प्रतिपादन के लिए यह सूत्र भी पहले चार सू्ोकीही
भाति विशेष महत््वपूणं लगा । इसी कारण से उन्होने पञ्चसूतरी भाष्य का पृथङ् ~
निर्देश किया है । इस प्रयोग का ्राधार उन्होने पूर्वाचिार्यो की मान्यता बतायी है।
परन्तु भ्रभी तक कोई एसी भ्राचायं-परम्परा उपलब्ब नहीं हुई जिसमें इस प्रकार
से चतुःसूत्री के स्थान पर पञ्चसूत्री का उपयोग हरा हो ।
ग्रन्थके प्रारम्भ मे प्रस्तुत मङद्कलाचरणमें ही उन्होने ्रन्थगत विषय की
संक्षिप्ततम सूचना दे दी दै कि वेदान्तप्रतिपाद्य ब्रह्य सकल-संसारव्यापी
हँ । चिद्रूप नीव श्रौर श्रचिद्रूप प्रकृति उसकी शक्तियां हँ । इन शक्तियों से शक्तिमान्
वह् ब्रह्य चिन्मात्र है? । उन्होने प्रथम सूत्र के भाष्य में यह् भलीभांति स्पष्ट किया
है कि वेदान्त का प्रतिपाद्य विषय ब्रह्य है न कि जीवत्रह्यं क्य, जैसा कि शङ्करमता-
नुयायी मानते हैँ ।२ पूणं ग्रन्थ ,भांति-भांति के तरको ्रौर प्रमार्णो के द्वारा प्रस्तुत
शाङ्करमत के खण्डन सेभरा पड़ाहै। हर प्रासद्धिक स्थल में शाङ्कुरमत का
प्रबल खण्डन दिया गया है । एक ही प्रकार के विचार का खण्डन अ्ननेकं स्थलों पर
करने के कारण पुनरुक्ति कीभी कमी नहीं हैँ । शङ्कुराचायं के श्रग्राह्य मतोंका
पृं र्पेण खण्डन किए बिना वे प्रागे नहीं वदृते । पादो ्रौर प्रघ्यायों के प्रारम्भ
मे विगत पाद श्नौर् प्रध्याय के प्रतिपाद्य विषय की सूक्ष्म-सुचना पूरे ग्रन्थमे दी
गयी है। इस प्रकार से सिद्धन्तों को हृदयद्धम करने में श्रद्भुत सहायता
मिलती है ।
१. सर्वत्र यो यत्र सवं यचसवंमतो भवेद् ।
चिदचिच्छक्तये तस्मेनमर्चिन्मात्ररूपिरो ।1--वि० भा० प° १
२. अस्यशास्तरस्य 'जीवत्रह्यं क्यविषयत्वे लिङ्धाद्यभावात् ।- वि०भा०पु०३१
६२ | आचायं विज्ञानभिष्षु
ग्रन्थके ग्रन्त मे कुं शलोक हैँ जिनसे पूवं लगभग पाच पृष्ठो में पूरे भाष्य
का सारांश दिया हुप्रा है । इन रलोकों में ज्ञानभावना से प्रोतप्रोत ब्रहम की स्तुति
है । इस स्तुति मे भक्तिभाव से भीने हृदय के उद्गार नहीं हँ प्रत्युत वुद्धिबल के
प्रकारक तर्को के श्राधार पर सवंशक्तिमान् ईख्वर से कंवल्यप्राप्नि की कामना ही
प्रकट होती ह ।१
उपनिषद्भाष्य
उपनिषदों के भाष्य में कोई विषेष संरम्भ नहीं दिखायी पडता । साधारण
किन्तु सुबोध भाषामे वाक्यों की स्पष्ट व्याख्या की गयी है । इन ग्रन्थों
का प्राकार बहुत पृथुल नहीं है । खण्डन-मण्डन की परम्परा भी बहुत
स्वल्प मात्रा मे समुपलब्ध होती है । वे ही वेदान्तसिद्धान्त जो सूत्रभाष्य मे स्पष्ट
कि गये हैँ यहां पर भी सुगम शली में प्रस्तुत हैँ! इन भाष्यों मेँ सबसे बडा
““इवेतारवतरोपनिषदालोक” श्रौर सवसे छोटा “त्रययुपनिषदालोकः” है ।
ईेश्वरगीताभाष्य
उपनिषद्भाष्यो के श्रनन्तर॒ईर्वरगीताभाष्य का परिचय आवश्यक
है । इस ग्रन्थ का प्राकार बड़ा है । यह॒ गीता श्रीमद्भगवद्गीता से
भिन्न है । ईखवरगीता कूर्मपुराण के द्वितीय भाग के प्रारम्भिक ११ भ्रध्यायों का
ही नाम है । इस गीता में भगवान् महादेव या शिव बदरिकाश्रम में एकत्र
सनत्कुमार भ्रादि ब्रहज्ञानियों को वैदान्त का उपदेश करते है । इस गीता का नाम
शिवगीता या उत्तरशीता भी है ।२ इसका प्रतिपाद्य विषय पूणंतः वेदान्त ही
है । विज्ञानभिष्ु ने इसका विशेषण “वेदान्त्षाराथसंग्राहिणी दिया है ।
विज्ञानभिश्ु ने इस पर भाष्य लिख कर वेदान्तियों द्वारा गीता-भाष्य लिखने की
परम्परा का पालन भी क्याहै। श्रौर साथ ही अपने सिद्धान्तो का प्रतिपादन
१. द्रष्टव्य, वि० भा० पुण ६२८
२. ईइवरगोता भौर उत्तरगीता के नाम से रमन होना चाहिए । क्योकि
शंकर ने अपने भाष्य मे कहीं कहीं ८ तथाचोक्त मौव रगीतायाम् ° कह कर
श्रीमद्भगवद्गीता को हौ उद्धृत किया है । एक ““उत्तरगीता"" नामक
६ भध्यायों का ग्न्य गौडपादलृत-भाष्य सहित गुजराती परस बम्बर से
भी प्रकाशित हृभा है । कुर्मपुराण बाली शिवगौता ही विज्नञानभिक्षु को
उत्तरगीता भौर ईइवरगीता नाम से इष्ट है \ अन्य गोताए् नहीं ।
आचायं विज्ञानभि्षु कौ रचनाएं | ६३
करने के लिए उपयुक्ततर क्षेत कौ प्राप्ति का भी लाभ किया है ।१ उनकी दृष्टि में
श्रीमद् भगवद्गौता श्रौर ईस्वरगीता मेँ पृरणातः श्रथंसाम्य है । केवल शब्दों का
भ्रन्तर है । इसलिए एक पर लिखा गया भाष्य दरी केश्र्थोकाभी पृण
प्रकाशक है ।
इस भाष्य मे भी विन्ञानभिश्चु ने प्रपने वेदान्त-सिद्धान्तों का प्रकाशन उसी
रूपमे कियाहै। दूसरे प्रध्याय के भाष्य से सिद्धान्तो का प्रतिपादन प्रारम्भ होता
दै । ब्रह्म प्रौर जीव का भ्रंशांरिभाव तथा श्रविभाग पर श्राधारित मेदाभेदवाद तो
मङ्गलाचरण के रलोक से ही परिलक्षित होने लगता है । शक्ति रूप जीव श्रौर
रव्तिमान् रूप ब्रह्य का प्रभेद तो पूरे ग्रन्थ का मूलमन्त्र वन गया है ब्रह्यको
इस प्रन्थमेभी संसार का श्रविष्ठानकारण सिद्ध किया गया है श्रौर संसार
ब्रह्म की शक्तिभुतप्रकृति का परिणामरूप । सारांशतः उनका श्रभेदात्मक श्रदरेत-
वेदान्तसिद्धान्त इस ग्रन्थ में बड़े ही रोचक ठङ्घ से प्रस्तुत हुश्रा है ।
वेदान्त-ग्रन्थो की कोटि में निरदिष्ट ब्रह्यादर्श नाम के ग्रन्य का परिचय देना
श्रसम्भव है क्योकि बड़ प्रयास के परात् भी इसकी कहीं कोई पाण्डुलिपि उपलन्व
नहीं हो सकी है । इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का ज्ञानं श्रवद्य हो जाता है योग-
सारसंग्रह् के निर्देश से । निश्चय ही इस ग्रन्थ में भी ब्रह्म या ईख्वर् का ही वणेन
हरा है किन्तु प्रतिपादन की परिपाटी क्या रही होगी, यह नहीं कटा जा सकता ।
सम्भवतः यह भौ उपदेगरतमाला को ही भांति वेदान्त का एक प्रकरण-
ग्रन्थ है।
१ स्ववेदान्तसाराथंसंग्राहिण्या अतिस्फुटम् ।
भाष्यमोर्वरगीतायाश्चक्ते विज्ञानभिश्चुकः ॥
एतेन भगवद्गीता व्याख्पपेक्षाऽपि यास्यति ।
शब्दादिभेदेमात्रेणए गीतयोर्थसाम्यतः ॥
--ई० गी° भा० पाण्डुलिपि, समाम्तिदलोक
मद्धलाचरण, ई० गो० भा० पां० लि० ।
बरह्यप्रकरर ब्रह्मादर्शादावीहवरोऽपि च । |
वाएितो वण्यंतेऽत्र ग्रन्थसंक्षेपकाभ्यया ।।--यो० सा० सं° प्रु ६०
सांख्यन्ग्रन्थ
प्र रणा
विज्ञानभि्षु को दृष मेँ यदि वेदान्तशास्व श्न.तिवक्यो का श्रवश कराता
ह श्रौर योगशास्त्र निदिध्यासन का प्रकार वतातादै तो सांख्यशास्त्र श्र.तवचनों
का मनन कराने वालाहै।१ श्ववण के द्वारा श्रात्मज्ञान का स्पष्ट संकेत
सुलभ होता है। मनन के विना उस ततत्वं का सम्यग् वोध नहीं होता ।
विना भली भाति तत्वका बोध हुए परमाथंसाघनापरायण साधक ध्यान या
निदिध्यासन में सफल कदापि नहीं हो सकता ।२ इसलिए सांख्यशास्त्र तत्त्वबोध
या तत्त्वज्ञान कराने की क्षमता के कारण श्रपनी श्रक्चुण्ण महत्ता रखता है ।
सास्यशास्त्र ही त्वज्ञान फ विषय में सबल उपपत्तियां प्रस्तुत करता हैर भ्रौर
दुर्बोध तत्तव के श्रशेष प्रपंचं का सांगोपाङ्ग विवेचन भी करता है । इसीलिए
तत्त्वदर्शन या श्रात्मसाक्षात्कारसूपी परम-पुरुषाथं की साधना का ग्रन्थो द्वारा
उपदेश करने में तत्पर विज्ञानमिक्षु के लिए यह् सर्वथा स्वाभाविकथा किवं
सांख्यशास्त्र पर भ) ग्रपनी लेखनी उठावें । यद्यपि श्रपने वेदान्तभाष्य मे तत्वों
का बड़ा व्यापकश्रौर विशद विवेचन उन्होने पहले ही कर रख।था। फिर
भी वेदान्त का प्रमूख प्रतिपाद्य ब्रह्मया ईश्वर होने के कारण ईशवर।तिरिक्त
तत्त्वों जैसे प्रकृति, पुरुष श्रादिकों का केवल ब्रह्य के सम्बन्धसे ही वंन हुभ्रा
है । प्रकृति, पुरुष अ्रादि के पणं-स्वरूप का विवेचन, उनसे संसार की उत्पत्ति का
पूर-प्रकार-निरूपण तथा ज्ञान के विवेक ख्याति भ्रादि सारे प्रावश्यक सूपोंका
स्पष्ट वरान करना श्रनिवार्यं श्रौर अ्रपरिहायं था । श्रतः सांख्यशास्त्र के मूलाधार-
ग्रन्थ साख्यसूत्रों पर विन्ञानभिश्चु ने भाष्य लिखना प्रारम्भे किया। एक प्ररत
१. तस्य श्रुतस्य मनना्थंमथोपदेष्टुं सच. क्तिजालमिह सांस्यकृदाविरासीत् ।
- मंगलाचरण, सां० प्र०भा०)
२. श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येम्यो मन्तव्यरचोपपत्तिमिः ।
मत्वा च सततं ध्येय एते दशंनहेतवः ।।--स्मृत्िः, वि० भिण दवारा
सां० प्र° भा० पु १ पर उद्धत)
३. तत्र श्रुतिभ्यः श्रुतेषु पुरुषार्थतदहित, ज्ञानतद् विषयात्मस्वरूपादिषु शरुत्य-
विरोधिनीरूपपत्तःषडध्यायीरूपेण विवेकश्तरिंण कपिलमुतिभेगवातरु-
पदिदेदा (-सां० प्र° भाण्पु०र
आचायं विज्ञानभिश्ु कौ रचनाएं | ६५
यहां पर श्रौर उठ्तारहैकि सांख्य के मूलग्रन्थके रूपमे जव शंकराय तथा
वाचस्पति मिश्र श्रादि भ्ननैक मनीषियों ने व्याख्या के लिए सांख्यकारिका को ही
चुना थातो विक्ञानभिक्चुने उस पर भाष्य न लिखकर (सांख्यसूत्रो" पर भाष्य
क्यों लिखा ?
इस प्ररन का सामाधान सांख्यप्रवचनभाष्य के मद्धलाचरण में विज्ञानभिक्षु
ने स्वयं प्रस्तुत किया हैँ । उनका विश्वास था कि जो कपिलमूनि सांख्य स्त्र के
भ्रादि वक्ता थे--उनके हारा प्रणीत सांख्यसूत्र की लोकप्रियता उस समय नहीं थी
वयोकि इन सूत्रों के प्राधार पर लिखे गये षष्टितन्त्र १ प्रादि पृथुल ग्रन्थ लुप्त हो गये
थे । समय के फेर से मूलसांख्य के भाष्यादि ग्रन्थोंके लुप्त हो जानेके कारण
कृलामात्रावशिष्ट श्रर्थात् केवल सूत्ररूपों में वचा हुभ्रा सांस्यरास्त्र लोगों के
दष्टि-पथ में था।२ वाचस्पतिमिश्च श्रादिने इसीलिए क्षीण तेज वलि, खः
ग्रव्यायों मे विभक्त. सांख्य-सूत्रों पर भाष्य न लिखकर ईइवरङृष्ण-विरचित
सांख्यकारिका पर टीकाएँ या व्याख्यां लिखी हैँ । विज्ञानभिक्चु ने जोकि शास्त
के मूल ल्प का श्रावार लेना ही पसंद करते थे इसीलिए कारिकाश्रों पर भाष्यन
लिखकर सूरो पर भाष्य लिखना श्रधिक पसन्द किया । इस रीति से वे सांस्य-
शास्त्र का मूल रूप भी प्रस्तुतं कर॒ सक्ते थे रौर साथ ही कालकवलित सांख्य-
शास्त्र का उद्धार भी कर सकते थे । इसीलिए कलावरिष्ट सांख्यशास्त्ररूपी चन्द्रमा
की कलाश्रों की श्रपने वचनामृतों से पूति करने का दावा भी उन्होने कियाहे।
इससे यह धारणा न वना लेनी चाहिए कि संख्याकारिकाभ्रों को प्रामाणिकता
वे सूत्रों से कहौं कम समते थे प्रत्युत वे भ्रपने भाष्य मे भ्रनेकं स्थलों परर
सांस्यकारिकाश्रों को उसी श्रद्धा रौर प्रामाणिकता के साथ उद्धूत करते है जैसे
पञ्चिखाचार्यं के वचनों को 1 तात्पयं यह् किं कपिल-सूत्रो को प्रकार में लने
श्रौर उसे बोधगम्य बनाने का उनका निर्य ही साख्यप्रवचन भाष्य लिखने में
१, षष्टितन्त्र के सम्बन्ध मेंभी विद्रानों के अनेक मत है मुभ
पं० उदयवीर शास्त्री का सत युक्तिसंगत प्रतीत होता है. इसीलिए उसी
आधार पर मेने अपर की पंक्तियां लिली है । पुरे विवेचन के लिए
्रष्टग्य “सांस्यदर्शंन का इतिहास" प° २०४-२७३, पं० उदयवीर
शास्त्री ।
२. कालारकंभक्षितं सांख्शास्त्र ज्ञानसुधाकरम् ।
कलावशिष्टं भुयोऽपि पुरयिष्ये वचोऽमृतेः ॥ ५ ॥!
-मद्ध.लाचरण सा्थप्रवचनभएष्य 1
३. द्रष्टव्य, सांश्प्रष्मापु० ६ , ६४, ६१, ६२, ६३ इत्यादि ।
फा० ५
६६ | आचाय विलञानभि्
मधान कारण है न किं सांख्यकारिका के प्रति 6 उनकी कोई हीन-भावना । ए
बात इस प्रसंग मे रौर उल्ेखनौय है कि सास्यकारिका में पूरे सास्यत्त क
प्रकाशन करने का श्रवप्तर भी नहीं था क्योकि आत्मतत्व या ॥ षततव काशं
विवेचन जितना कि सांख्यशास्त्र को भ्रभिमत है साध्यास म नहीं दिया गया,२
इसलिए भी उनको सास्य-सूतरों पर भाष्य लिखना न था। एसा उह
लयं सस्यसार कँ मङ्गलाचरण मे प्रकट किया टं । "सास्य-प्वचन-भाष्यं
सभी ज्ञान के तत्त्वो का श्रौर सभी तत्वों के ज्ञान का विवेचन किया गयाहै।
साख्य की सारी प्रक्रिया सांख्य-कारिका श्रौर॒सांख्य-प्रवचन-भाष्य मे दौ गयी ह ।
इन दो ग्रन्थो से भी जो सांख्य की प्रक्रिया बच जाती है उसका तथा भ्रातमतत्च
या पुरुष का प्राधान्येन विवेचन करने के लिए विज्ञान धिघर ने सस्थसार (विके)
नामके प्रकरण ग्रन्थ की भी सजना की ।२ इत अरन्य के द्वारा प्रकृति-तत्व भ्र
पुरुषतत्त्व का विवेक भी बड़ी ही विशाल पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत किया गयाहै।
"विवेक ही इस ग्रन्थ का प्रमुख प्रतिपाद्य है 1 इसलिए मङ्गलाचरण मे इस प्च
को विज्ञानभिक्चु ते सांख्यसारविवेक भी नाम दिया है। इन दोनों प्न्योके
विषय-सन्तिवेशा पर विधिवत् विचार भ्रागे किया जायगा । यहाँ तो इन ग्नो $
लिखने के प्रयोजन भ्र्थात् श्रान्तरिक प्रेरणा श्रौर बहिःप्रेरणाश्रों काही विकार
करना श्रभीष्ट है ।
वेदान्त-भाष्य लिखते समय विज्ञानभिक्चु ने कहा था कि सांख्यशास्त्र
के सभी स्वरूपो का विवेचन करने के कारण प्रमाणो पर भी पूं मत प्रकारित
करता है । योगश्च तो प्रधानतः क्रिपात्मक विज्ञान है जिसमे साघक को साधा
को समनित गतिविधियों का निदेश किया जाता है । श्रतः प्रमाणं कौप
प्रणाली काज्ञान योगमेंभी सास्य से ही लेना है ।° इस कारण प्रमाणो की
परम्परा का धरर ज्ञान प्रस्तुत करने के लिए भी सांख्य शास्त्र पर ग्रन्थ ति
विज्ञानभिशच के लिए एक प्रबल श्रान्तरिकं प्रेरणा का प्रतिफल था । 8
(िजञानामृतमाप्य लिखने से श्रदरौ तवेदान्त जगत् म मची हद हतकत
-पि-भति कौ परतिशरियाभ का मुखरित होना स्वाभाविक था । निन ष
९१
२.
३.
सस्थकारिकया लेशादात्मतरव विवेचितम् । मद्धलाचरण स” #
र इलोक सं० २, ३, ४। न
ऽतो विज्ञानेन प्रपञ्चयते' । सां० सा० का
चरण ।
'स्वशास्त्र ्ानोत्पत्तिप्रक्रियाया अभावेन तमो पर्रियेव ग्राही
` स्तात् । वि° भा० पर ७३--७४।
0
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आचायं विज्ञानभिश्चु कौ रचनां | ६७
प्रौर योग के सिद्धान्तो के सन्निवेश प्रौर समर्थेन से श्रदैतवेदान्त का स्वरूप
विज्ञानभिश्ु ने शाङ्करभाष्य के पर्यास विरुद प्रस्तुत किया था, शङ्कुरानुणायियों न
उस सख्पयोगज्ञान पर भी छींटाक्शी जी खोल कर की होगी । बहुत संभव है
कि प्रतिक्रियाके प्रवेश मेँ उन लोगों ने यह स्पष्ट रीति से कहना प्रारम्भ किया
हो कि विज्ञानभिष्चुने सांख्य के जिस स्वरूप की दुहाई वेदान्तमाष्यमेंदीह
वह सांख्य का वास्तविक स्वरूप ही नहीं है । क्योकि श्राचा वाचस्पति मिश्र
भ्रादिने सांख्य के समग्र सिद्धान्त क) जिस रूप मेँ श्रपनी प्साख्यतत्त्वकौमुदी"
श्रादि में प्रकाशित किया है उससे विज्ञानभिष्चु के साख्य-सिद्धान्त बहुत भिन्न
है ।१ विज्ञानभिश्चु के सास्य-सिद्धान्त इस श्राघार पर विरोधियों के द्वारा
स्वोत्प्रक्षितमात्र करार दिये गये ह् गे । इसलिए विज्ञानभिक्षु को भ्रपने सास्य-ज्ञान
को मौलिक कापिल सांख्य से श्रविरुद्ध सिद्ध करना भी तत्काल श्रनिवायं प्रतीत
हुप्रा होगा । योगवातिक लिख कर के ्रपने योगसिद्धान्ों को उन्होने पतञ्जलि
ग्रौर व्याससम्मत सिद्धही कर रखा था। श्रतः रचनाभ्रोंकेकालक्रमसे
(सांख्यप्रवचन-भाष्य ' लिखने की बाह्य प्रेरणा का भी उन्होने स्वागत किया ्रौर
वाचस्पतिमिश्च भ्रादि ्रद्धेतत्रेदान्तियों तथा भ्रनिरुद्ध नामक श्रद्रैतवेदान्तोन्मूख
सभी सास्यटीकाकारों के श्रान्त श्रौर अगत मतवादों के निरास पूवक
सांख्यसूत्रों का भ्रतिराय महनीय भाष्य प्रस्तुत किया ।
“सांख्यप्रवचनभष्य' लिखने के परचात् पारमाथिक भूमि में प्रशस्त तोनों
भ्रास्तिक दशनो के सूत्रों की व्याख्या की परम्परा पुरी हो गयी थी 1 सांख्य-योग-
वेदान्त के सिद्धान्तो के सम्बन्ध में भ्रव उन पर कोई उंगली नहीं उठा सकता ।
उनका मतवाद एक सुनिरिचित, ग्रविकल तथा सुस्थिर स्वरूप वारण कर चुका
था । उनका भ्राचायंत्व सवंसाधारण में स्थापितिहो गया था} अतः शिष्यों
प्र भ्र्थ के विवेचनपुणं प्रतिपादन का विशाल उपक्रम करने की श्रावदयकत। उम्ह
नहीं थी । ये तीनों ग्रन्थ पर्यास थे उनके सिद्धान्त के श्रशेषत्रिरोषों को समाने के
लिए । रव एक नैसगिकर प्रतिक्रिया होती है कि भ्रपने सिद्धान्तो के समन्वित रूपो
का संक्षिप्त प्रकाशन किया जाय । जिसे शिष्थगण सदा स्मरण रख सकं ग्रौर
प्रधान तथा सारभूत बातों के लिए प्ररे तीनों ग्रन्थों का बार-बार प्रालोडन-
विललोडन करने का भ्रायास उन्हे न करना पड़ । इस प्रान्तरिक प्रतिक्रियाका
प्रतिफल उनके 'सांख्यसार' भ्रौर ोगसारसंग्रह' नाम के ग्रन्थ ह । इनमेंसे
'सास्यसार' उनके ज्ञान के सिद्धान्तो का संक्षिप्ततम संस्करण है ° श्रौर योगसार
१, द्रष्टव्य सांख्यसिद्धान्त' द्विती य-पटल, इसी ग्रन्य मे प° सं १३८--१७८।
२. सांख्यसार-विवेकोऽतो विज्ञानेन प्रपञ्चूयते । मद्धलाचरर-सां० सा०
६८ | आचाय विज्ञानभि ष्च
संग्रह योगसाघना की विधियो का सूक्ष्म संकलन । “सांख्यसार” वस्तुतः तत्त्वज्ञान-
सम्बन्धी उनके सारे सिद्धान्तो का मुकुटमणि हे ।
साख्यप्रनचनभाष्य का स्वूप
सांख्यसूत्रो के छह अ्रघ्याय हैँ । इस कारण से इस सूत्र-गरन्थ को षडघ्यायी
भी कहा गया है । विनज्ञानभिष्षुने भी कहीं-कहीं इस सूत्र-ग्रन्य को षडध्यायी
नाम दिया है 1 इसी सूत्र-ग्रन्थ पर विज्ञानभिक्षु का सांख्य-प्रवचन--भाष्य लिखा
गया है । इस सांख्य-भाष्य के दवारा लुत्तप्राय सांख्यशास्त्र का उद्धार प्रम प्रयोजन
है । साथ ही चिति या पुरूष को चिदचिद्ग्रन्थियोसे चुडाना प्र्थात् पुरूष का कौवल्य-
पथ प्रशस्त करना, उसके सांसारिक-वन्धनों से विमूक्त स्वरूप को प्रदर्शित करना
उनका वास्तविक प्रयोजन है ।° मंगलाचरण के श्रन्तिमि श्लोक मे श्रपने इस
ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य भी उन्होने 'सर्वात्मनामवैधम्य॑म्* कहू कर प्रकाशित
करिया है । भ्र्थात् पुरुष का सच्चा सांख्यसम्मत स्वरूप-निर्धारण करना इस ग्रन्थ
का प्रमुख विषय है ।
भाष्य प्रारम्म करते ही इस ग्रन्थ को महत्ता श्रौर इस शास्र का भ्रन्य मुख्य
भ्रास्तिक दशेनशास्त्ौं से श्रविरोध प्रकट किया गयाहै। यहीं पर उनकी यह्
घारणा भी स्पष्टहो गयौ हे कि सांस्यशास्तर को महत्ता श्रौर विशेषता विवेक-
प्रतिपादन में है, ईश्वरःप्रतिषेघवाले भ्रंश में नहीं । ईशवरप्रतिषेध तो सास्य की
दुवंलता श्रौर भ्रग्राह्य सीमा है ।: इस ग्रन्थ का प्रथम श्रध्याय श्रपेक्षाकृत विद्चाल
दै । इसमे कुल १६४ सूत्र हँ जिन पर विज्ञानभिश्चु ने बड़े मनोयोग से विस्तृत
भाष्य प्रस्तुत क्या है। इस श्र्याय को उन्होने “विषयाघ्याय' कहा है ।
भ्रव्यायान्त में विज्ञानमिक्षु के स्वनिर्मित दो इलोक हैँ जिनमे विषयों की
संक्षिप्त सूची दै ।
दितीय अध्याय में सृष्टि-प्रक्रिया वणित है 1 इसमें कुल ४७ सूत्र है । इसका
नाम उन्होने श्रधानकार्याच्याय' दिया है । विषय -सूची देनेवाला इलोक यहां मी
रन्त मे श्रन्य समी भ्रव्यायोंकी भांति दिया गया है। ८४ सूत्रौवाले तृतीय
१. चिदचिदुग्रन्थभेदेनमोचयिष्येचितोऽपि च ।
सांस्यभाष्यमिषेरास्मात् प्रीयतां मोक्षदो हरिः 11 ६
-मद्धलाचरण सां० प्र० भा०
२. तद्विवेकांश एव सांख्यन्नानस्य दर्गानान्तरेभ्य उत्कषं प्रतिपादयति
नत्वीरवरप्रतिषेधाशेपि ।- सां० प्र० भा० पर ३
~ .. ^ ^~ ल र
आचार्यं विज्ञानभि्चु कौ रचनाएं | ६९
तथा ३२ सूत्रोवाले चतुथं प्रध्याय को क्रमशः धैराग्याध्याय' श्रौर "्रास्यायिका-
घ्याय' नाम दिया है । यहं तक में पूरे सांष्य-शास्तर के सिद्धान्तो का संकलन
समाप्त हो जाता है।१ भ्रतः पंचम श्र्याय में पवपक्षों का निरास ही प्रधानतः
किया गया है । इसमें १३० सूत्र है । इसका नाम विन्नानभिष्षु ने (परपक्षनिर्जया- ॥
ध्यायः रक्खा है । श्रघ्यायान्त के इलोक ने इस श्रव्याय कौ संगति परपक्षनिरा- |
करण पूरव॑क स्व-सिद्धान्त-दृढीकरण के द्वारा लगायी है । इसके वाद ७० सूत्रों
वाला छठवां तथा भ्रन्तिम श्र्याय ^तन्व्राध्यायः नाम से व्याख्यात हुम्रा है। इस |
भरघ्याय कौ भ्रन्विति विज्ञानभिक्ुके मत मेँ रिष्यों को अ्रसम्दिग्य श्रौरश्रविप- |
यंस्त उक्तां का दुदृततर बो कराने के कारण स्थुणानिखननन्याय से है ।२ |
्न्थान्त में कपिल की प्रामाणिकता का शाङ्कुर सिद्धान्त के खण्डन-पर्वक निर्वारणा |
जोरदार शब्दों मेँ किया गया है । श्रन्तिम दो श्लोकों के द्वारा कपिल के उपकार, ॥
कृतित्व का रूपकं द्वारा स्तवन २ तथा भ्रपने भाष्य कौ प्रामाणिकता की परिपुष्टि |
को गयी है ।* सांख्यशास्त्र की परम्परा मेँ इस भाष्य की श्रद्रितीय महत्ता है ।
सांख्यक्चार का सखह्प
विन्ञानभिश्चु के समस्त सिद्धन्तों का संक्षिप्त संकलन इस ग्न्धम हुप्राहै।
उनके सारे विचारो का समन्वित संस्करण हमे इस ग्रन्थ में देखने को मिलता
है । उनके दशंन का सम्यग् बोध प्राप्त करने के लिए यह् एक ग्रन्य पर्याति है ।
इस प्रकार से यह् ग्रन्थ न केवल सांख्यशास्त्र का एक मात्र श्रद्धितीय ग्रन्थ है
रपि तु मोक्षमागं को प्रशस्त करने क श्नन्यतम कुञ्जी भी है । इतने सूक्ष्म कलेवर
में सारे ततत्व-विचारों का प्रभावपूणं सन्निवेश उनकी सफल व्याख्या-रोली का स्तुत्य
भ्रादशे है । मङ्गलाचरण में ही उन्होने यह स्पष्ट कर दिया कि यह् अरन्य
१, स्वशास्त्रसिद्धान्तः पर्याप्तः । सां० प्रण भा० पञ्चमाध्याय को
उत्थानिका 1 |
२. उक्तार्थानां हि पुनस्तन्तराख्ये विस्तरे कते शिष्याणामसन्दिग्धाविपयस्तो
हृढतरो बोधं उत्पद्यत इत्यतः स्थुरानिखननन्यायादनुक्तय॒क्त्यादय्.पन्यासाच्च
नात्र पौनरुक्त्यं दोषाय ।- सां ० प्र० भा० प° १५१
३. सांख्यकुल्याः समापुयं वेदान्तमयितामूतं : । |
कपिलषिंज्ञानियज्ञे ऋषौनापाययत् पुरा ॥१।- सां प्र° भा० प° १६५८
४. तद्वचः भद्धया तस्मिन् गुरौ च स्थिरभावत.: \
ततप्रसादलवेनेदं तच्छास्त्रं विवृतं मया । २ ॥--सां° प्र० भा० पर १६८
७० | आचाय विज्ञानभिष्ु
जहाँ एक श्रोर सांख्यकारिका श्रौर सांख्यभ्रवचनभाष्य का पूरक है वहां विज्ञान-
भिक्षु के सारे तात्त्विक विचारों की घनीभूत मूति भ्रौर उनके सांख्ययोगवेदान्त-
समन्वय का सुरुचिपुणं प्रतिफल भी है 1
श्राचायं विज्ञानभिष्चु ने मद्धलाचरण के तुरन्त बाद चार पांच पंक्तियों
वाले एक वाक्य मे श्रपने मोक्ष सिद्धान्त का डण्डिमनाद प्रस्तुत क्या है।
यही वाक्य उनके सिद्धान्तों का बीजमन्त्र है । इस लघुकाय ग्रन्थरत्त के
"पूवेभाग' श्रौर “उत्तरभाग' नामसेदो प्रमुख मागर । पूर्व॑भाग की रचना
गद्यमयी श्रौर उत्तरभ्राग की रचना बिल्कुल पद्यमयी है। इस श्रन्तर का
कारण भी विन्ञानभिश्चु ने उत्तरभाग की रचना के प्रारम्भ मेंदहीदेदियारहै
कि रिष्यों के स्मरण रखने की सुविधा से यह भाग पद्यमाला में प्रस्तुत
करिया गया है 1२
ग्रन्थ का पूर्वभाग तीन परिच्छैदों मे विभक्त है । इन परिच्छेदो के नाम
विषयों के श्राधार पर इस प्रकार हैँ --
१-विवेकख्यातिजन्य परमपुरुषार्थं का परिच्छेद
२-मोक्षहेत्-विवेकख्याति का परिच्छेद
३ विवेकख्यातिप्रतियोगी प्रकृत्यादिपदार्थस्वरूपों का परिच्छेद
इन्टीं विषयों का इन परिच्छेदो में क्रमशः सूक्ष्म एवं संक्षिप्त शब्दों मेँ विशद एवं
स्पष्ट विवेचन किया गया है । परम पुरषारथभतमोक्ष श्र््याहित होने के कारण
प्रथम परिच्छेद में विवेचित किया गया है । उसके वाद करम-प्रास्त विवेकस्याति
के स्वरूप का निर्वेचन किया गया है । इसके बाद क्रम-प्राप्त विवेक-ख्याति के
प्रसङ्ग में स्वतः उपस्थित होने वाले प्रकृति श्रौर तद्धिकसित तत्त्वों के स्वरूपो
का साङ्ग विवेचन हुभ्राहै।
श भात्मानात्मविवेकसाक्षतकारात् कवु त्वाद्यखिलाभिमाननिवृत्या तत्का्॑राग-
ह षधर्मोधर्मानुत्पादात् पवेत्पिन्नकमंराम् चाविद्यारागादिसहकायुच्छेदरूप
दाहिनविपाकानारम्भकत्वात् प्रारग्धसमाप्त्यनन्तरं पुनजंन्भाभावेन त्रिविषदुः-
खात्यन्तनिवृत्तिरूपो मोक्षो भवति इति भर तिस्मृतिडिण्डिमः ।-सां० सा०
(1.
२. अथरशिष्येः सुखेनैव ग्रहीतुं पद्मालया । विवेकस्यानुयोगयात्मा पुरुषाख्यो
निरूप्यते ॥ १॥--सां० सा० प° २२
३. द्रष्टव्य, प्रत्येक परिच्देद की पुष्पिका ।- सां० सा० प° भा० 1
, (यय ~
आचायं विज्ञानभिष्षु कौ रचनाएं | ७१
इस क्रम कौ विवक्षा में पुरुषतत्त का
विविक्तत्व तथा साधना का मागं श्रवरिष्ट
पणं प्रकादन “उत्तरभाग' में किया ग
विषयभेद के श्राधार पर ७ परिच्छेदो
नाम इस प्रकार रक्खा गया है।9
१--पुरुषस्वरूपपरिच्छेदः
२--भ्रात्मानातमनोःसत्यासत्यत्ववेधम्यंपरिच्छेदः
३--प्रत्मानात्मनोःचिदचित्ववेधम्यं परिच्छेदः
४--अ्रःत्दानात्मनोः प्रियाप्निषत्ववैधम्यंपरच्ददः
५--ध्रात्मवेषर्म्यगणपरिच्छेदः
६--राजयोगप्रकार-परिच्छेदः
७--जीवनमुक्तिपरममुक्तिः इति द्योः परिच्छेदः
पुरे उत्तरभाग में पुरुषतत्त्व के स्वल्प का निरचय, अ्नात्मपदार्थो से उसके
वेधम्ये का निर्धारण तथा "राजयोग" रूपी साधनामागं एदं परम पुरुषाथं रूप
मोक्ष के देहिक एवम् श्रामुष्मिक् र्पों (अर्थात् जीवन्मुक्ति भ्रौर परममूव्ति) का
स्वरूप सविस्तार प्रस्तुत किया गया है । इस प्रकार से इ ग्रन्थ का उत्तरभाग
भ्रपने श्राप में एक पुरं ग्रन्थ है । इसीलिए इसकी भ्रवतारणा प्च रूप मेकी
गयी है । बीच बीच मे विरोधी दांनिकों के मतवादों का खण्डन भी पंके
हरा सुललित रीतिसेकर दिया गयाहै। २ म्पे सिद्धान्तो कौ स्थापना के
लिए बड़ प्रसिद्ध योगवासिष्ठ रादि ग्रन्थों के इलोकों को भी ज्योंकात्यों रख
दिया गया है ।३ विज्ञानभिश् ने परग्रन्धय्हीत शलोको का उद्धरण देकर भ्रपनी स्वा-
भाविक सरलता श्रौर अपनी ततत्वमात्रैकबद्धदृष्टि का भी परिचय दिया है ।
स्वरूप श्रौर उसका प्रकृति से
र्हं नाताहै। इन सव वातोंका
याहे । इस भाग का विभाजन
मेहुभरा है। इन सातों परिच्छेदो का
क ~= "य
~~ %
९. द्रष्टव्य, प्रत्येक परिच्छेद कौ पुष्पिका ।-सां० सा० उ० भा० ।
नन्वेवमेकतेवास्तु लाघवादात्मनां खवत् । (
घीष्वेव सुखढुःखादिवेधरम्यादिति चेन्न तत् ।२३।--सां० सा० १० २
इत्यादि ।
२. परग्यस निनीनारी व्यग्रापि गृहकमंणि ।
= इत्यादि ।
तदेवाऽऽस्वादयत्यन्तनरसङ्गरसायनम् ॥ १५॥ इत्य 9
--सां० सा० पु० ४० इत्या
~ =` ~ ~~ ~~
गोगर्ताक
० 4
प्रण
योगलास््र पर लेखनी उठने के लिए भी श्राचायं विज्ञानभिष्षु के सामने नितान्त
प्रक वातावरण समुपस्थित था । उनके गुरु भौ प्राधान्येन योगी थे क्योकि इनको
उन्होने योगमागं मे ही प्रथमतः दीक्षित किया था । योगसारसंगरह में पतञ्जलि श्रौर
व्यास की वन्दना करते समय “्रन्यान् गृरून् ` पदों से विज्ञानभिक्षु ने कदाचित्
'प्रादरार्थे बहुवचनम्"' के श्रनुसार श्रपने गुर की ही अभिवन्दना कौदहे। भ्रतः
योगदयास््र की रोर इनकी प्रभिरुचि ग्रौर उसमे इनका पार ज्गतत्व स्वभाविक ही
था । इन्हँ स्वयं योगशास्त्र के सिद्धान्तो के प्रति श्रसीम श्रद्धा तथा भ्रमित विइवास
था । ^चूजुभाष्य” लिखते समय श्रनेकशः योगसू्रो का तथा भाष्य-सस्मतियों
का बडी निष्ठा से उद्धरण दिया गया है। इतना ही नहीं ऋजुभाष्य मे प्रथम
सूत्र के भाष्यमें ही कमसे कम तेरह बार योग की दुहाई दी गयी दहै । इसी स्थल
मं पातञ्जल सूत्र को अ्रपने मत के समर्थेन मे इस धारणा या ठद्धं से उपन्यस्त
किया गया है१ जैसे उसकी ्रकाय्यता स्वतः सिद्ध हो । ““ऋजुभाष्य'' मे ही
शङ्कुरादि जगन्मिथ्यात्ववादी अरहैत-मतावलम्बियों का खण्डन करने के लिए तथा
उन्हं प्रच्छन्न-बौद्ध एवं वेदान्तितरवादि उपाधियों से भूषित करने के लिए एकमात्र
योग-भाष्य की पक्तियों का सहारा लिया गया है ।*
विज्ञानमिष्षु योग के प्रति इतना श्रधिक ्रावस्त ये कि उनकी दृष्टिमें योग
ही एकमात्र सर्वसम्पन्न दशन है । शेष सभी दर्शन उसके श्रङ्गमात्र प्रतीत होते थे 1२
१, न च सति मुले तद्विपाकोजात्यागुर्भोगा इति पतञ्जलसूत्रेण क्लेशसत्व
एव कर्मविपाको भवतीति वचनात्कथं विदुषाभोग : स्यादिततिवाच्यम् 1
-- त्र ° सु° विज्ञानामृतभाष्यम् पर° २१
२. इति सिद्ध योगभाष्ये व्यासैरेवमवधृतत्वात् !--वि० भा० प° तय
तदा्र्टुःस्वरूपेऽवस्थानमितियोगसूत्रात् । वही पण ७७
योगजधर्माणां जा्रसिद्धाचिन्त्यश्वितित्वाद् । वही प° ७२
३. गङ्कखाद्याः सरितो यद्वदब्धेरशेषु संस्थिताः ।
साख्यादिदन्ञनान्येवमस्ये वशेषु कृत्स्नशः ॥४॥--यो° वा० सद्खलाचरणम् ।
७२
भाचायं विज्ञानभि्चु कौ स्वना | ७३
योग के सिद्धान्त भि सारे वेदों के सारभूत लगते येः ¦ ग्रतः उनकी निवि-
चिकित्सित वापा टै क मुमष्ुप्रो की एकमात्र गति योगशास्त्र ही रै,
“धमृक्षुणामिदं गतिः+--यो० वा० । इ प्रकार की धारणा रखने पर स्वाभाविक
ही है कि वे योग पर लिखने के लिए भ्रत्यन्त उक्तटता से ्राकृष्ट
हुए हों ।
यद्यपि वेदान्तसू्रों का भी उन्होने योगसम्मत ही श्रथं किया था ग्रौर सांष्य-
बासव की मान्यता योगाविरुढ ही है फिर भी योग-शास्त्र दोना शास्र की श्रपक्षा
उन्हे श्रधिक भ्रनुकूल लगा। वयोकि वेदान्तप्रतिपादित ज्ञानराशि की प्राप्ति के
उपायो का पर्यवसान--““्रात्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यःमन्तव्यः निदिष्यासितव्य्च'
के श्रनुसार निदिध्यासन से ही है। जो केवल सम्प्रज्ञातयोग की ही भूमि है 1 प्रतः
योग के विना वह् विकलाद्ध दही है। सस्य मं सव वुं स्वारस्य होने पर भी
सेदवरता का भ्रभाव है श्रतः भक्तिभावनाभावित विज्ञानमिष्ु के भरन्तस्तल
मे सांख्य वह प्रादरपूणं स्थान न बना सका जोयोग ने प्राप्ठक्यिांथा।
ब्रहमसूव्र-भाष्य लिखने के लिए उनके मन मे उतनी तीव्र प्रेरणा नही.थी
जितनी कि बाह्य श्रनिवा्यंता । गुरुदक्षिणा के स्प े श्रवा वेदान. के मठो
का खण्डन करने के लिए ही प्रघानतः (कजुभाष्य' का प्रयम् उपन्यास किया गया
था । पर् योगवातिक लिखने की प्रेरणा उतनी बाहरी नहीं है जितनी कि उनकी
्रान्तरिक चेतना । इस योगामृत को निकाल कर योगीन्र क शरमृतपान के लिए
उपस्थित करन को श्राचायं विक्ञानभिधु लालायिद । ऋछजुभाष्य के द्वार
पाण्डासुरयूथपों को जीतने के पर्चात् ही इस अरूपा" का आनन्द उाया ता
सकता था इसीलिए इस वातिक की रचना का ्नवसर भ्रव प्राया था 1 ्रतः रपी
प्रतिभा के प्रसर प्रसार को योगवातिक कै स्प मेँ प्रकाशित करने का
सफल संकल्प किया । ए ५
रपे द्वारा प्रस्तुत किये गये दोनो मृतो “विजानात एवम् ५
मे भी उम्होने उत्कषं परम्परा पात-भेद स प्रकट करते की चेष्टा ५ ८
मृत नामक श्रमृतरस सामान्य भूदेव के पान करे के लिए उपस्थित ४
~
१. सर्ववेदा्थसारोऽत्र वेदव्यासेन भाषितः ।
योगभाष्यमिषेातो मुचणामिदंगतिः ५८
२. अनतर्यामिगरूदिष्टज्ञान-विज्ञान-भिधणा । ० सङ्खलाचरण ।
्ह्मसत्रुव्याया यते गुस्सिणा ॥ ९ 1 ८ यान्तु शरीमदगुरोः
पीत्वेतद्रलवन्तस्ते पाखण्डासुरगरुथपान् । विलितयलानक
पदम् ॥ ५ \--वि° भा मङ्गलाचरण ।
६॥ यो० वाण मङ्धलाचरण ॥
` ` ह
७४ | आचाय विज्ञानभि्च
जब कि योगामृतः उनमें से कतिपय लब्धप्रतिष्ठ, स्वन।मधन्य योगीन्द्रो के लिए,
साधारण योगियों के लिए नहीं उपन्यस्त हुग्रा है 1१
इन भ्रान्तरिक़ श्रनिवा्यताभ्रों के ही भ्रनुकूल कु बाह्य परिस्थितियां भी
एेसी थीं जिन्होने ““योगवातिक' जैसे दिव्यग्रन्थरतनन की सजना के सद्ययःसमारम्भ
मे योगदान किया । श्रन्यमतखण्डनप्रधान रचना (विन्ञानामृतभाष्य के रूपमेँ) करने
पर श्रभी विज्ञानभिश्चु का स्वरूप लोकमत में वैतण्डिक की ही भांति उद्भासित
हुमा था उस स्वरूप की पूणंता श्रपने मत के परिपुष्ट उपन्यास के हारा ही सुलभ
थी । तभी उनका पुण श्राचायं-रूप विद्रज्जनों में मान्य होता । ग्रतः योगवा्िक
की रचना उनके लिए श्रत्यन्त भ्रावर्यक थी जिसके द्वारा श्रपने विचारों का उप-
देश वे विधेयरूप में कर सकते थे ।
योगशास्त्र में सूत्र एवं भाष्य पर सुविस्तृत व्याख्या लिखने के लिए क्षेत्र भी
पर्याप्त था । दर्योक्रि वाचस्पतिमिश्र-ठृत तत्ववैशारदी मे भी दई श्रभाव उन्हे
खटकते थे । प्रथम तो यह् कि वाचस्पति मिश्च मे योगानुभव उतना नहीं था
जितना कि तकंशक्ति से विषय की सिद्धि का प्रयास । द्वितीय यह् कि भोजराज ने
स्वयं यद्यपि उन चरूटियों से बचने की बड़ी चेष्टा की थी पर संक्षिप्त दरौली के कारण
तथा केवल सूत्रों पर वृत्ति लिखने के कारण उनका वांछनीय परमा्ज॑न नहीं
हो सका था । इसलिए योगवातिक लिख कर उन तरषियों से रहित एक बोधगम्य
तथा निख च व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए उचित श्रवसर था ।
भरतः वातिककार भ्राचायंभिश्च ने श्रवसर की चेतना से सर्वेथा श्रनुप्राणित
होकर योगवातिक का प्रणयन बडे धूम-धाम से यह कहते हुए किया है कि
- ब्रह्ममीमांसा श्रौर सांख्य शास्त्र मे केवल ज्ञान का ही प्रधानतः विचार किया
गया है श्रौर ज्ञान के साधनभूत योग का संक्षेपतः वरान किया गया है । ज्ञानजन्य
चरमयोग (्रसम्प्ज्ञात) का लेदामात्र भी विचार नहीं किया गया है इसलिए
१. (क) ज्ञानामृतं गुरोः प्रत्ये भरदेवेभ्योनुदीयते ।-वि० भा० ३।२
कृतकन्विञ्चयित्वेदं पीयताममूतेप्युमिः ॥--वि० भा० ५।२
(ख) वेदग्यासमुनीन््र.बुदधि-खनितः योगीन््रपेयामृत : ।
भरदेवेरमृतं तदत्र मयित विज्ञान-विज्ञं रिह 1-- यो° वा० मंगलाचरण ।
२. दुर्बोधं यदतीव तद्विजहतिस्पष्टा्थमित्य॒क्तिमिः।
स्पष्टारथेष्वति विस्तृति विदधति व्यर्थेःसमासादिकंः ॥
अस्थानेऽनुपयोगिभिरच बहुमिजत्पेभन मं तन्वते ।
श्ोतृणामिति वस्तुविप्लवकृतः सर्वेऽपि टीकाकृतः ।--६ ॥ रा० भा० व°
र 8
आचारं विलञानभिषु कौ रचना | ७५
दोनों प्रकार के योगों का प्रतिपादन करनेवाले योगशास्त्र का प्रणयन महि
पतञ्जलि ने सूत्र रूपमे कियाहै 1१ ग्रतः द्विविधयोग का सम्पूणं ज्ञान र
कराने के लिए योगवातिक प्रस्तुत किया गया है ।
योगनातिंक का स्वरूप
इन प्रेरणाश्रों से भ्रनुप्राणित अ्राचायं विज्ञानभिक्षु ने योगसूत्रभाष्य पर ।
वातिक की सजना करने के लिए श्रपनी मंजी हुई लेखनी उठायी श्रौर श्रद्भुत
सफलता के साथ उक्तानुक्त-दुरुक्त प्रसंगो का वड़ी सूक्ष्मता भ्रौर ष्टा घे
चिन्तन प्रस्तुत किया है । श्नादि मे भव्य श्रौर भावपरं मङ्गलाचरण है । रथम
इलोक मे परब्रह्म की वन्दना की गयी है । जिसमे भक्त ओर भगगत् का शुद्ध
स्वरूप तथा उनके पारस्परिक सम्बन्ध की दार्शनिक भाक दिखायी गयी है ।
दवितीय इलोक में सिन्धु-विमन्थन के रूपक के द्वारा ग्रन्थ का महत्व एवं प्रयोजन
प्रतिपादित किया गया है । तृतीय तथा चतुथं स्लोकों मँ योगशास्त्र कौ महनीयता
क अ्रद्ुनदहै।
--ल न #
योगवातिक सूत्र तथा भाष्य के भ्राघार पर चार भागों प्रथवा पादोंमे (न ।
विभक्त है । भाष्यकार के लिए वाचस्पतिमिध्र के ही समान इन्टोने भी भगवान्
बादरायण की संज्ञा प्रदान की है ।* योगशास्त्र मं श्राये हुए पदो का यथासम्भवं
व्युत्पत्ति प्र दशेन-सहित प्रथं बताने की चेष्टा की गयी है। सर्वत ननु रौर
'्रथ' इत्यादि के दारा शंका का उत्यापन करके उसका सुबोघ समाधान कराने
का प्रयास किया गया है ।
जहाँ पाठ-भेद मिले ह, उनका भी अरे स्पष्ट क्रिया गया है । यदि किस
भी भिन्न पाठ की संगति पर उन्हे रापत्ति हई तो उसका भी ्रङ्गादिनिदश-
पूर्वेक उर्होने समीचीन खण्डन किया है ।२ तत्ववेशारदीकार श्राचायं वाचस्पति-
१. ब्रह्ममीमांसासांख्यादिषु च ज्ञानमेव विचारितं बाहुल्येन, ज्ञानसाघनमातर
स्तु योगः संक्षेपतः, ज्ञानजन्ययोगस्तु संक्षेपतोऽपि तेषु नोदतोऽतोऽतिविस्तरेणए
दिविधयोगंऽप्रतिपिपादयिषुभंगवान् पतञ्जलिः प्रतिज्ञातवान् ।
_ योगवातिक् पृ ५६
लोकहिताय भगवान्
२. (अथयोगानुश्चासनम्' तदिदं सूत्रमारभ्य समग्रं शास्त्रं सवं
बादरायणो व्याचष्टे !--यो० वा० परं° ६
२ * द्रष्टव्य, यो० वाण पु० ४०; पु | ८ इत्यादि ॥ यथा-
पञ्चमो-पारस्तु ललनअमायातप्यक्षतिदध ुमितिवष्यदिति
७६ | आचायं विन्ञानभिक्षु
मिश्च के उपयुक्त मतो को तो उन्होने निस्संकोच भ्रपनाया दै । यहाँ तक कि कभी-
कभी वाचस्पति मिश्र के वाक्यादि ज्यों के त्यो श्रपना लिये गये ह| द्वितीय पाद
के प्रारम्म में भ्राया हृग्रा उत्थानिकारूप वाव्य-विन्यास तत्त्ववेशारदी से ही
लेकर ज्योंकात्यों प्राचायं विज्ञानभिक्षुने उस स्थान पर श्रपने वार्तिके
प्रयुक्त कर दिया है 1१ परन्तु जहां उन्होने वाचस्पति मिश्र को त्रनभिमत श्रथ
करते देखा है वहां सच्चे सत्यान्वेषक की भावना से उसे त्याग कर उपयुक्त
एवं वद्ध श्रथं ही रखा है। श्रौर पाठकों की पू्वग्रहजन्य भ्रान्ति को
मिटाने के लिए तत्त्ववेशारदौकार को श्राड़े हाथों भी लिया है । पूरा “योगवातिक'
इस प्रकार के खण्डन-मण्डनों से भरा हुभ्रा है।२
प्रथम पाद के भ्रन्त में सांख्य एवं योगशास्त्र की भ्रत्यन्त गवेषणाधूणं किन्तु
संक्षिप्त तुलना के द्वारा दोनों का साम्य तथा वैषम्य स्पष्ट किया गया है ग्रौर
योगको सांख्य का ही प्रकर्षेण वचन म्र्थात् सांख्य-प्रवचन बताया दै । ध्थान-
स्थान पर श्रपने चरमसिद्धान्तों की सङ्खति बताते रहने का क्रम उन्होने पालन
किया. है ।२
१. ननु प्रथमपादेनेव--आह उद्िष्ट इति, । दरष्टग्य तत्त्ववैशारदी ओर योग-
वातिक पु० २३३
२. उदाहरणा्थ--करिचतत्, संवेगो वे राग्यमिततिव्याचष्टे तत्र योगिनोनवधात्-
वातरुपपत्त: ।--यो० वा० पु० ३१ ओर ६१
३. 'तदेव क्रियायोगस्य मोक्षन्नानादिग्यापारकथनात्कममयोगो ज्ञानादिसाघनतया
जञानाचङ्गमेव न साक्षान्मोक्षहेतुरितिसिद्धान्तः इति ।--यो० वा० पु० १४२
योगसारसंग्रह
प्र रशे
ग्रन्थो के पौर्वापयं को निर्णीत करते हए यह् सिद्ध कि
उनके भ्रन्तिम ग्रन्थ क्रमशः 'सांख्य॑सार' एवं योगसारसंग्र
उनका शुद्धविवेक-विषयक प्रवन्व है 1१
'्योगसारसंग्रह' मेँ इस परिपाटी का परिपाक प्रतिफलित हग है । समग्र
विवेक तथा विशाल भ्रनुभव की आधार-रिला पर हौ मोक्ष साधना कौ प्क्निया
का ज्योतित प्रकाशा करनेवाले इस॒गन्थरलस्तम्भं का भव्य निर्माण किया
गया है।
निरन्तर उत्कृष्ट कोटि के ग्रन्थप्रणयन करते रहने से श्राचायं की शैली का
भी परिमाजंन हो चला था। उनकी वाणी की प्रभावोत्पादकता श्रौर नैसिगिकं
ग्रोजस्विता में भी ्रयिकाधिक सतकंता श्रौर स्फीतता संक्रान्त हो चुकी थी।
वागिवस्तार के लोभ में भी वांछनीय क्षरता ्रा गयी थौ । श्रत: उन्होने श्रपनी
प्रौढतम मान्यताश्नो को सुरुचिपूां दौली में संकलित करते का संकल्प क्या श्रौर
श्रपनी मौलिक विचारधारां को योगसारसंग्रह मे सन्तिविष्टि कर दिया है।
ग्रन्थ के श्रारम्भमेंश्राएु हूए तृतीय इलोक में भ्राचायं विन्ञानभिश्चु ने स्वयं
ह संकेत क्या है कि योगवा्तिक के द्वारा सुलभ किए गए भ्रमृतरसधार काभी
सार-भाग भ्र्थात् उसका भी उत्तमांश इस अरन्थकलश में मुमृषुमरो के पान करने
के लिए सन्निहित किया गया है २
प्रक्रिया बताने वाले प्रथवा साधना की रीति वतानेवाले ग्न्य में केवल
शस्नप्रमाण रौर अनुमानप्रमाण पर श्राधारित रहने से विषय का पूणं तथा
संशयहीन प्रतिपादन नहीं हो सकता । योगवातिक कौ रना करते समय विज्ञान
भिक्षु साधना के मागं पर्रारूढ हीथे उपतमा्गं को पार नहीं कर चुके थे।
पा जाचृका हैकि
ह हं। सास्यसार
१. सांख्यसारप्रकरो विवेको बहर्वाएितः ।-- यो सा० सं° पृ ११२
२. वातिकाचलदण्डेन मथित्वा योगसारम् । ष
उद्ध.त्यासृतसारोऽयं ग्रन्यकरुम्मे निधौयते ॥ ३ ॥--यो° सा० सं°
मंगलाचरण
७७
७८ | आचाय विज्ञानभिष्षु
रतः तथ तक विवादास्पद स्थलों पर॒ शस्तरप्रमाणो एवं बुद्धि-बल के भ्नुमान
तकं रादि उपादानों का ही उन्हे सहारा था । अ्रतः दो-टूक निणंय करनेवाली
शक्ति की कमी से उनकी लेखनी मे वह॒ सशक्तता उन्हे श्रपने श्राप में नहीं प्रतीत
होती थी, जिसकी भ्रावश्यकता इतने महतत्वशाली, श्रनुभवसपिक्ष तथा जटिलशास्त
का प्रतिपादन करने के लिए श्रनिवायं होती है । योगसारसंग्रह् लिखने के समय तक
वे उस साधनामागे को पार कर चुके थे प्रौर एक जीवन्मुक्त कौ स्थितिमेंथे।
उनके पास श्रनुभव का ्रक्षयय भण्डार हो गया था, श्रतः बड़ी सादगी श्रौर
निविचिकित्सा के साथ वे विचारों का प्रतिपादन करने में समथे थे । जिन स्थलों
को तात्कालिक विष्टज्जनों के द्वारा श्रथवा तत्काल-सुलभ-विष्ठल्लेखमाला के
श्राधार पर संशयात्मकं समभा जाता था उन पर ्राचायं की भ्रनुभवात्मकग्रौर
एेकान्तिक मति होती थी श्रौर उस मति की स्थापना करते समय वे कभी-कभी
सस्वानुभवसिंद्वत्वाच्च'^ की घोषणा भी कर देते थे ।
उनकी धारणा थी कि , जितनी श्रावर्यक वस्तुएँ योगसाधना-सम्बन्धिनी हैँ
उन सबका एक संक्षिप्त उपन्यास कर दिया जाय भ्रौर इस प्रकार से ग्रह॒ एक
भ्रनिवायं ग्रन्थरत्न सब साधकों के पास रहे श्रौर उनके लिए श्रधिकाधिक उपादेय
सिद्ध हो ।२ ग्रन्थ की परिसमासि के किचित्पूवे उन्होने यह स्पष्ट कहं भी दिया
कि इसके भ्रतिरिष्त मोक्षमागं के पथिको के लिए योगदर्शन मे भ्रौर कुखं ज्ञातव्य
हैभी नहीं ।
योगदर्शन ही उनकी दृष्टि में सर्वोच्च एवं सबका भ्राकर दर्शन? है । इसलिए
कदाचित् प्रपने ग्रन्थरचना-म्रभियान का मङ्खलमय पयंवसान वह॒ योगदर्शन के ही
किसी ग्रन्थ कौ रचनाम करना चाहते थे। इसीलिए यह् उनकी श्रन्तिम तथा
स्वेश्रेठ रचना साधको के लिए विनिमित हो सकी है ।
१. एवमेवासं्र्तातयोगेनापि भोगहेतुवासनारूपः कममणां सहकार्येवो-
च्छिद्यते व्युत्थानसंस्काराणां निरोधसंस्कारोर्बलवत्तरेरुच्छेदस्य सुत्रभाष्या-
भ्यामुक्तत्वात्स्वानुभवसिद्धत्वाच्च 1--यो० सा० सं० प° १४
२. योगजाल्लस्य साराथंःसंक्षेपेणायमीरितः ।
नातोऽधिको मुमृक्षणामपेक्ष्यो योगदर्शने ।॥--यो० सा० सं° पु° ११२
३. गद्धाद्याः सरितो यद्रदन्धेरशेषु संस्थिताः ।
सास्यादिदर्शनान्येवमस्येवारोषु कृत्स्नशः ॥ ४ ॥--यो० वा०
मंगलाचरण
माचायं विज्ञानभिक्षु की रचनाएं | ७९
योगसारसंग्रह का स्वरूप
ह संग्रह श्रत्यन्त लघु प्राकारकाहै। प्रारम्भे मंगलाचरण के तीन इलोक
हैँ उसके वाद सरल सुबोध एवं प्राञ्जल गद मेँ योगशास्त्रगत विषयों का सुक्ष्म
प्राकलन किया गया ह । योगास्तर म स्वीकृत क्यि गये चारों पादों के ्राधार
पर इस ग्रन्थ में भी प्रथमोंऽशः, दितीयोऽशः, तृतीणेऽशः श्रौर चतुर्थोऽशः नाम से
चारमभागवक्यि गयेह।
प्रथम श्रं में समाधिपादगत विषयों का संक्षिप्त संकलन है । द्वितीय भ्रंश में
साधनपाद-गत विषय श्रौर समाधिपाद के श्रवरिष्ट विषय जैसे चित के परिकर्म
प्रादि संगदीत हैँ । तृतीय भ्रंश में संयमजन्य सिद्धियां विभूतिपाद तथा प्रारम्भिक
कवल्यपाद के अ्राधार पर गिनायी गयी है । चतुथं रंश में कैवल्य १ पाद का श्राश्रय
लेते हृए क॑वल्य में भ्रानन्द की कल्पना करनेवाले "नवीन वेदान्िब्र वो का सबल
तथा संक्षिप्त खण्डन भी किया गया है । सभी श्रतिरिक्त दर्रनों के मोक्ष से श्रपने
कंवत्य का श्रविरोव भी स्फुट किया गया है । २
इसके वाद उन्होने चतुर्था श मे (तदेवं कैवल्यं संक्षेपेण प्रतिपादितम् कहु कर
छः शलोक लिखे श्रौर श्रपने भ्रेष मतवादों ॐ प्रकाशक स्वरचित ग्रन्थों का विवरण
दिया । स्फोट तथ मनोवैभव श्रादि जिन विषयों पर किसी भी पूवेवर्ती
ग्रन्थ में उन्होने श्रपनी लेखनी नहीं उठायी थी उनके विषय मेँ इसी चतुथं भ्रंश के
चरम भाग मे संक्षिप्त एवं स।रात्मक विवेचन प्रस्तुत क्रिया हैर ।
ग्रन्थान्त मे योगशास्त्र के प्रति भ्रात्मीयता का सरक्त प्रदर्दान करते हए
भ्राचायं विज्ञानभिश्चु शिष्यो के लिए यह् शिक्षा दे जाते है कि एसे ही श्रन्य
भ्रवान्तरसिद्धान्त जो हम योगियों को मान्य है रौर सांख्थादि में प्रतिषि है
१. योगसुत्राणि-चतुरथपाद के १, २, ३, ४, ५ सूत्र ।
२. यत्त्, नवीना वेदान्तिन्न वा नित्यानन्दावाप्तिं परममोक्षं कल्पयन्ति तदेव
च वयं न मृष्यामह ।--यो० सा० सं° पु २०९
३. अथ त्रिविध.......... ^.“ -----.^*"*विजेषात् ।--यो० सा० सं० पुर
१०८,१०९
८० | आचायं विक्षानभिष्षु
सोपपत्ति सिद्ध समभने चाहिए? । इसके पश्चात् ग्रन्थ की परिसमास्ि हो जाती है ।
इस ग्रन्थ के भ्रन्त मेको इलोक नहीं हँ भ्रन्त में केवल यह् मिलतारहै कि
समाप्तश्चायं ग्रन्थः" श्री भगवदपणमस्तु' । यह् उनका चरम ग्रन्थ है । कदाचित्
इसकी रचना करके उन्होने चिरसमापि प्रहरण कर ली थी । सांख्यसार की दौनी
पद्यमयी है जव कि योग्रसारसंग्रह में ग्य की ही प्रधानता है । यह् गद्य भी सीधा-
सादा, सरल श्रौर सुबोध है ।
१. तेनाप्यसाधित्ःस्फोटशब्दो धौवेभवं तथा ।
सक्ष पात्साध्यतेऽस्माभिःसांख्यदोषनिरसतः ।--यो° सा०सं०पु० ११३
एवमन्येऽपि अस्मच्छाल्र-सिदन्ताः सा्यादिगप्रतिषिद्धाःसूबुद्धिभिरपपाद-
नीया इति दिक् ।--यो० सा० सं० पु° १२५
ए्चनाभों की शैली
विज्ञानभिु श्रपने दार्शनिक मतवाद की निष्ठा स श्रोत-प्रोत मनस्वी लेखक
थे । उन सांख्य, योग श्रौर वेदान्त इन तीनों प्रमुख श्रास्तिक दर्शनों के एक.
मार्गाभिमूख सन्देश को विदरज्जनमानसपटल पर भरकित करना था । सोलहवीं
शताब्दी तक वेदान्त-दर्शन कौ श्रनेक धाराएं भी प्रस्फुटित हो चुकी थीं जिनके
भ्रलग-ग्रलग स्वरों की श्रलाप विविध स्थलों मँ गंज रही थी । दार्शनिक श्रौर
धामिक दोनों दृष्टियों से वेदान्त जनमानस के श्रधिक सम्पकं मेंश्रागया था।
कदाचित् इसीलिए दाशेनिक श्रौर धामिक दोनों दृष्टियों से मतमतान्तर का
भ्राश्रय भी वेदान्त ही वना हुश्राथा। इस पृष्ठभूमि मेँ दोनों दृष्टियों से मत-
मतान्तर का श्राश्रय ही वना हुभ्ना था । नियतिविघान के द्वारा प्रतिष्ठित विज्ञान-
भिश्चु ने समन्वय की स्वरलह्री का कोमल राग छडा । सांख्य, योग श्रौर वेदान्त
तीनों दनो के प्रतिपा्य तत्त्वों को श्रविरुदध ढंग से एकीकृत किया । तीनों
का विरोधी भ्रंश त्याग कर तीनों के प्रमुख श्रौर सपरिहार रूपों का समन्वय
प्रस्तुत किया ।
कायं नितान्त दुष्कर श्रौर प्रतिभपेक्षी था । तात्कालिक विद्वानों ने चकित
होने के सारे चिल्ल प्रकट कयि होगे । उनमें से भ्रनेक ने विज्ञानभिष्चु की समभ
भ्रौर सूत को ्रज्ञान का भ्रनल्पजल्पन भरौर किसी विक्षिप्त का प्रलपन कह
कर तिरसछृत करना प्रारम्भ किया होगा । सांस्य, योग रौर वेदान्त तीनों की अरव
तक की गयी व्याख्याश्रों के भ्रनुयायी विद्वानों ने एक स्वर से विज्ञानभिश्चु पर
तीनों दशनो को न समभ सकने का तिरस्कारपूणं श्रारोप लगाना प्रारम्भ किया
होगा । एसी स्थिति में विज्ञानभिष्चु ने इन तीनों शास्नों के मूल ग्रन्थों को चुना
भ्रौर उन पर व्याख्ाएुं प्रस्तुत कीं, ताकि यह सिद्ध हो सके कि पूर्ववतिनी
व्यास्पाएं सीधी, सरल ओर वास्तविक श्रथं की प्रकारिका नहीं टै श्रपितु
सम्बन्धित व्यास्याताश्नों के दुराग्रह की सूतियां भ्रौर पूवर की प्रतिमाएं है ।
तात्कालिक पूवग्ररी विद्वानों को शान्त करने तथा उदीयमात जिज्ञासुग्रों को
सन्मागं प्रददित करने के लिए भी यही मागं उन्द श्रेयस्कर समभ पड़ा होगा ।
एक बात इस प्रसङ्ग में भ्रविस्मरणीय है कि विज्ञानभिश्चु दानि चेतना के
परिमार्जन में कत-संकल्प तत्त्ववेत्ता थे । भवितिभावना में भ्रामतविभोर भगवद्-
भवत नहीं । उनका सन्देश वुद्धि-परीक्षणों के भ्रनन्तर सत्य का साक्षात्कार करने
फा०--६
८२ | आचायं विज्ञानभिश्च
कै लिएथा भावना के प्रतीक विन्दुभ्रो कीस्मृतियों में इषने श्रौर तिरने के
लिए नहीं । इसलिए उनकी समग्र रचनाश्रो का लक्ष्य-केन्द्र॒ सर्वसाधारण जन-
सम्मदं न होकर भारतीय दशंन-परायण-विद्रदगं था । उन्होने तात्कालिक
्रनुयायियों के लिए नहीं तात्कालिक शास््रप्रचारक गुरुप्रों के समाने के लिए
अपने ग्रन्थों की रचना कौ । उन्होने विद्टज्जगत् का विशिष्ट वौद्धिकस्तर दृष्टि
मेँ रखकर ही सारे ग्रन्थगत.तत्तवो का प्रतिपादन किया है । इसीलिए सारे रचना-
काल में उन्होने संस्छृत माध्यम ही भ्रपनाया है, हिन्दी माध्य नहीं ।
व्याख्या ग्रन्थ गद्य में लिखे गए हैँ । योगसारसंग्रहु" नामक प्रकरणग्रन्थ भी
ग्य में है । 'साख्यसार' नामक प्रकरण ्रन्थ का पूर्वाद्धं गद्य में ग्रौर उत्तराद्ध
पद्यमें है 1 उनके गद्य श्रौर पद्यसरल तथा प्रभावपूणं संस्कृत के उत्कृष्ट
नमूने है । नव्यन्याय की शली से पूर्णतया परिचित होने पर भी उनकी भाषामें
“ग्रवच्छेय-ग्रवच्छेयक-प्रवच्छिन्नः का जाल नहीं देखने को मिलता । न ही, श्राचारयं
वाचस्पति मिश्च की भांति शब्दगतानुप्रास-संवलित१ पदावली कौ योजना ही
उन्हें प्रिय लगी । वे बड़े सीधे ढंग मे, बड़ी सरल संस्कृत मे, बड़ी महेतत्वपूरं
वातं कहते दँ 1
उनकी सहज सरल संस्कृत परवर्ती ग्रन्थों में सरलतर होती गयी है ।
साख्यसारर श्रौर योगसार-संग्रह मे नितान्त सरल शब्द श्रौर भ्रत्यन्त छोटे
वाक्यों का प्रयोग किया गयादहै। योगसार-संग्रहु मेँ तो समस्तपदोंका प्रायः
श्रभाव ही है। जैसे “परं वैराग्यमुच्यतेः या इदानीमभ्यासस्यान्तर द्धसाघनं
परिकर्मादिकमुच्यते' ५ इत्यादि वाक्य । जहां कहीं समास हैँ भी वे नितान्त स्फुट
भ्रौर द्विपद समासदहीरहै। प्रारम्भिक ग्रन्थों में भी लम्बे-लम्बे समास श्रधिक
नहींहै। जोर भी वे विलष्ट नहीं हैँ। इस प्रकार प्रसाद-गुण-सम्पन्न भाषा
लिखने में वे ्राचायं शंकर की समता सफलतापूर्वक करते हैँ ।
१. इह खलु प्रतिपित्सितमथं प्रतिपादयिताऽवेयवचनो भवति प्ेक्षाताम् 1
अप्रतिपित्सितमथं तु प्रतिपादयन् नायं लौकिको नापि परीक्षकः
इति प्रक्षावद्भिर्मत्तवदुपेक्षयेतेति ।--सां० त० कौ० पु० ३ ,
तत्रन्यक्तं पृथिव्यादि स्वरूपतःपांसुलपादोहालिकोपि प्रत्यक्षतःप्रतिपद्यते ।
--सांत० को० पुष
२. विवेकमेव सद्. क्तया मत्वा तदनुभ्ुयते ।
राजयोगं यथा कुर्यात् समासेन तदुच्यते ॥।- सां सा० पृ९ ३६
द्रष्टव्य, यो० सा० सं० पु० २६
४. यो० सा० सं० पु २६
९५
नि ` |
आचाय विज्ञानभिश्चु को रचनाएं | ०८३
भाषा कौ प्रभावोतपादकता का उन्हं सदा व्यान! रहता है । उनके वाक्य
मतमतान्तर का खण्डन करते समय बडे जोरीले श्रौर सीघी चोट
करनेवाले होते हँ । इसीलिए 'शत' श्रौर "सहस्र" श्रादि शब्दों का वै बहुत भ्रधिक
प्रयोग करते हैँ । “योगग्रन्यसहस्राणाम्' १ या 'वाक्यशतेभ्यः'२ श्रौर श्रहं गौरः.
इत्यादि भ्रमशतान्तःपातित्वेन', “भ्रमशतान्तःपातित्वेनाप्रामाण्यशंकास्कन्दित-
त्वाच्च शतशःसाधितत्वेन' ४ इत्यादि प्रयोग तो यत्र-तत्र विखरे पड़ है । खण्डन
करते समय उनकी यह जोशीली दौली कभी-कभी उग्ररूप भीधारण कर लेती
दैइपत उग्रता में वे विद्रञ्जनमर्यादा का उल्लंवन भी कर ज।ते थे ।
उदाहरणाथं शंक राचायं का मत-खण्डन करते समय वे वहुधा श्राधुनिकवेदान्तिनः'
धवेदान्तित््ूवा', ्रच्छन्नवौद्ध :' “रपरे वनारिकाः' श्रौर यहाँ तक कि भुढाः'
“शुष्कताकिकाः' "दिगभ्रान्ताः' भी कह जाते हँ ।६ उनके मत को तो एक स्थल
पर विज्ञानभि्षु ने कलिकृतः श्रपसिद्धान्तः' भी कह डाला है ।७ इसी प्रकार
£ सांय प्रवचन भाष्य' में एक स्थल पर सांख्यसूत्रवृत्तिकार श्रनिरुद्ध का मत खण्डित
करते समव यत्तु करिचिदविवेकी वदति"< काभी प्रयोग किया गयाहै। यह
निर्मर्याद श्रसदिष्एुता विज्ञानभिक्चु की्ंली का एक श्रपरिहायं दोष रहै फिर
भी यह् एक एेसा दोष है जो कतिपय भारतीय दानिकों को छोड कर श्रन्य
सव में पाया जाता है । यहां तक कि मध्व श्नौर रामानुज श्रादिके ग्रन्थ भीडइंस
प्रकार के कटु वाक्यों से भरे पड़ेहै।
उनकी ली का सबसे महत््वपुणं वैशिष्ट्य उनकी श्रथंबोच कराने की
तत्परता है 1 इसीलिए सिद्धान्तो का उन्होने विद्लेष णात्मक प्रतिपादन किया है ।
सिद्धान्त-गत शब्दों का शुद्ध श्रथं लेने के लिए वे प्रायः व्युत्पत्तिप्रधान शली
भ्रपनाते हैँ । शब्दों की व्याकरणात्मक व्युत्पत्ति बताते हैँ जैसे 'वृत्तिवेतंनजीवने'
इति हि यौगिकोऽयं शब्दः । जीवनं च स्वस्थितिहेतुर्व्यापारः । “जीवबलप्राण-
१, यो० वा० पु० ४५६
२, यो० वा० प° १६१
३, सां० प्र० भा० पु° १५
४. सां० प्र° भा० पु ७०
५. वि० भा० पृ २४
६. सां० प्र° भा० यो० वा० अनेक स्थलों पर ।
७. वि० भा० पु० २६
८. सां० प्र० भा० पर ९२
८४ | आचायं विज्ञानभिश्चु
धारणयोरित्यनुशासनात्'१ इन पक्षियों मे जोवन शब्द का प्युत्पत्तिनिमित्तके पर्थ
निकाला गया है । एेसे ही जीव शब्द का प्रथं निकालने का प्रयास द्रष्टव्य है--
जीवबलप्राणनयोरितिब्युत्यत्या जीवत्वंप्राणित्वम् तच्चाहङ्कारवतामेव सामर्याति-
शयप्राणधारणयोर्दशं नात् ।२ श्रहङ्कार शब्द का शुद्ध श्रथं लेने के लिए भी कुम्भं
करोति इति कुम्भकारः" इतिवत्समासः--श्रहङ्कारोतीत्यह ङ्का रः" ° कुम्भकारवत्
व्याकरण का श्राश्रय लिया गया है । इसी प्रकार से स्थान-स्थान पर (मध्यमपद-
लोपीसमासः'* श्रौर /लम्बकंठवत्तदगुणसंविज्ञानो बहुब्रीहिः" (करणलक्षणं
चात्र फलायोगव्यव च्छिच्चत्वम्" ६ “चितीसंज्ञाने इति व्युत्पत्या चेतनोऽत्राभिज्ञः° श्रौर
“सर्वदैवनामधातुस्थले मूलघात्वर्थेन सहैव कारकाणामन्वयव्युलपत्तेः* इत्यादि
वाक्यांश विज्ञानभिश्चु की व्याकरणात्मक शैली का परिचय देते ह ।
उनकी हैली की इस श्रथंप्रत्यायनप्रवणता ने उनकी रचनाग्रो मे (एकत्य
का श्रनेकराःकथन', देशी शब्दों का प्रयोग' श्रौर "लिखितां का सारांश वार-वार
देना" प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता है । उनके प्रत्येक ग्रन्थ के मूलभूत
सिद्धान्तो की पुनरुक्ति हर ४-६ पृष्ठ बाद श्राप से श्रापहोजातीहै। जैसे
भ्रात्मा श्रखण्ड नहीं है, "यह वातः सांख्य-प्रवचन भाष्य के मङ्खलाचरण के
प्रथम इलोक से प्रारम्भ होकर पूरे ग्रन्थ में वीसों बार कही गयी है । साहित्य
प्रादि के ग्रन्थो में इसे बौली-दोष भले ही माना जाय किन्तु दाशंनिक-सिद्धान्त
की स्थापना करनेवाले ग्रन्थों मे 'यह् दोष नहीं, भ्रपितु शिष्यव्युत्पत्ति
की श्रपेक्षासे गुणी समभा जाता है । इसी प्रकार संकोच" “^टितिः१ ०
(तुल्यायव्ययत्वम्"१ १ श्रथमदलाथंः' १ २ सिद्धान्तदला्थंः*१२ भ्रादि देशीय प्रभावों
से परिपूरं शब्दों का प्रयोग भी उनकी दौली को जन-मन के सम्पकंमें
सां० प्र० भा० प° १४५
सां प्र० भा० प° १६५
सा० प्र० भा० प्रं ८३
सा० यो० बा० पु° २२०, २०२
यो वा० पणर
या० वा० पृ० २९
सा० प्र० भा० पृ० ८१
वि०भा० पु० २५
यो० वा० पु० १३१
१०. यो० वा० पृ० २३६
१९१९. सां०प्र० भण पु० १५३
१२. यो०वा० पु० णद
१३. सां० प्र° भा० प° १५७
० ॐ @ क ‰ @ ५ ५ ©
आचायं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | र्षु
लाने के कारण सबल ग्रौर लचीली वनाता है । प्रतिपादित श्रथं का सारांश देने
की उनकी दो रीतियाँ हँ । 'विज्ञानामृतभाष्य', ससांख्यप्रवचनभाष्य' श्रौर
“योगवातिक' मे अ्रव्यायों श्रौर पादोंके श्रादि में ग्म विगत श्रव्यायों ग्रौर |
पादों के प्रतिपादित विषयों का संलिप्त उपसंहार श्रौर प्रतिपाद्य विषयों की | +
सारवती सूचना वे स्पष्ट रोली में देते है । वीच-बीच में भी प्रतिपाद्य सिद्धान्त ८
का -संक्षेप मरे कथन करते जाते हँ १ पादां के भ्रन्त मेँ पूरे विषय का पुनः संक्षिप्त
निर्देश सरल शलोको मे करना भौ वे नहीं भूलते । 2 प्रकरण ग्रन्थ में तो विषयों
कासारभरूतरूपही दिया गया है । सांख्य श्रौर वेदान्त भ्यो मेँ तो पूरी शास्त्र- ।
प्रक्रिया ही संक्षिप्त शब्दो मे कह दी गयी है । इस प्रकार से विज्ञानभिश्चु के मन्तव्य
के सम्बन्व में कहीं कोर वात संशयात्मक स्थिति में नहीं रह् पाती । जो कु
उन्दं कहना था वह् उन्होने स्पष्ट-लूप से डके की चोट पर कहा है। उनकी
सुबोध हौली के प्रभाव से उनके सिद्धान्त दपंण कौ भांति उज्ज्वल श्रौर
प्रकारामान है|
उनकी व्याख्याग्रों का एक अरन्य वैशिष्ट्य है तकंपरायणता । वे एसी किसी
बात को कहु कर इतिकर्तव्यता का श्रनुभव नहीं करते, जिसे किसी शस्त्र ने
या किसी विशिष्ट ्राचायं ने वास्तविक या तात्विक मान रक्खा हो । उस वातत
को वे तकं की कसौटी पर परखते हँ । उसके सम्बन्ध में श्रनुमानादि तर्कोके
दवारा पणं निरीक्षण उपस्थित करते हैँ रौर तभी उसकी सत्यता को स्वीकार
करते ट । किसी योग-संबंघी विप्रतिपत्ति पर तकां के साथ-साथ वे ्रपने
मरनुभवों का पुट देकर भी उसे स्पष्ट भ्नौर तिरिचत करते हैँ ।२
दूसरा प्रधान गुर उनकी रोली का उनकी उद्धरणएप्रियता हे । श्र.तियो श्रौर
समृतियों तथा पुराणों के लम्बे-लम्बे ओर छोटे-छोटे हर प्रकार के असंख्य उद्धरण
उनके ग्रन्थो में भरे पड़ हैँ । किसी भी वात की प्रमाणिकता प्रदशित करने के
लिए श्रुतिस्मृति-वाक्यो का उपयोग उनकी दौली का भ्रनिवायं अरङ्ग है । उनकी
व्याख्याय प्रतिपृष्ठ एसे उद्धर्णो से भरी पडी हैँ । इससे उनकी रोली की
शाब्दप्रमाणप्रवणता प्रकट होती है । किन्तु कहीं-कहीं इन उद्धरणों को प्रनावश्यक
१. प्रमाता चेतनःशुदधः इत्यादि ।- सां० प्र° भा० प° ४८ इत्यादि
२. हियहाने तयोरहृत् इति व्यहा यथाक्रमम्
चत्वारःशास्त्मुख्यार्था अध्यायेऽस्मिनप्रपञ्चिताः
-सां० प्रा० भा०प्० ७० इत्यादि
३. स्वानुभेवसिद्त्वात् ।-यो० सा० सं० पु १४
८४ | आचायं विज्ञानभिश्षु
धारणयोरित्यनुशासनात्"१ इन पंक्तियों मे जोवन शव्द का व्युत्पत्तिनिमित्तके भ्रर्थ
निकाला गया है । एेसे ही जीव शब्द का प्रथं निकालने का प्रयास द्रष्टव्य है--
जीवबलप्राणनयोरितिब्युत्पत्या जीवत्वंप्राणित्वम् तच्चाहङ्कारवतामेव सामर्थ्याति-
शयप्राणधारणयोदंशंनात् 1२ ्रहङ्कार शब्द का शुद्ध श्रथं लेने के लिए भी (कुम्भं
करोति इति कुम्भकारः" इतिवत्समासः--श्रह ङ्का रोतीत्यह दगा रः" ° कुम्भकारवत्
व्याकरण का श्राश्रय लिया गया है । इसी प्रकार से स्थान-स्थान पर (मध्यमपद-
लोपीसमासः'* श्रौर (लम्बकंठवत्तदगुरासं विज्ञानो बहुत्रीहिः * "करणलक्षणं
चात्र फलायोगव्यव च्छिच्नत्वम्" ९ “चितीसंजञाने इति व्युत्पत्या चेतनोऽत्राभिज्ञः० भ्रौर
“स्वदे वनामघातुस्थले मूलघःत्वर्थेन सहैव कारकाणामन्वयव्युत्पततेः" = इत्यादि
वाक्यांश विज्ञानभिक्चु की व्याकरणात्मक शैली का परिचय देते है ।
उनकी हैली की इस श्रथंप्रत्यायनप्रवणता ने उनकी रचनाग्रो मे "एकतथ्य
का श्रनेकशःकथनः', देशी शब्दों का प्रयोग भ्रौर "लिखितां का सारांश बार-बार
देना" प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता है । उनके प्रत्येक ग्रन्थ के मूलभूत
सिद्धान्तो की पुनरुक्ति हर ४-द पृष्ठ बाद श्रापसे श्रापहोजातीरहै। जैसे
भ्रात्मा श्रखण्ड नहीं है, ष्यह॒ वातः सांख्य-प्रवचन भाष्य के मङ्खलाचरण के
प्रथम इलोक से प्रारम्भ होकर पूरे श्रन्थ में वौसों वार कही गयी है । साहित्य
भ्रादि के ग्रन्थो में इसे लैली-दोष भले ही माना जाय किन्तु दार्खानिक-सिद्धान्त
की स्थापना करनेवाले ग्रन्थों मे "यह् दोष नहीं, भ्रपितु रशिष्यव्युत्पत्ति
की श्रपेक्षासे गण ही समभा जाता है। इसी प्रकार “संकोच “भटिति"१०
तुल्यायग्ययत्वम्' ११ श्रथमदलाथेः" १ > सिद्धान्तदला्थः*१२ भ्रादि देशीय प्रभावों
से परिपूरां शब्दों का प्रयोग भी उनकी हौली को जन-मन के सम्पकंमें
सां० प्र० भा० पु° १४५
साप्र° भा० पु १६५
सा० प्र० भा० परर ८३
सा० यो० वा० पु° २२०, २०२
यो वा० पुर्ण
या० वा० प° २९
सा० प्र० भा० प° ८१
वि० भा० प° २५
यो० वा० पु० १३१
यो० वा० पू० ३३६
सां० प्र भ० पृ० १५३
यो० वा० पृ० ८६
सां० प्र° भा० प° १५७
© „<
3 1
~, 9
1 ~, -।
= ९1
आचायं विज्ञानभिष्ु कौ रचनाएं | ठप,
लाने के कारण सवल ग्रौर लचीली वनाता है । प्रतिपादित श्रथंका सारांश देने
कौ उनकी दो रीतियां हँ । 'विज्ञानामृतमाष्य', स्सास्यप्रवचनभाष्य' ग्रौर
“योगवातिक' में प्रव्यायों ्रौर पादोंके श्रादिमें गद्य में विगत श्रध्यायों ग्रौर
पादों के प्रतिपादित विषयों का संक्षिप्त उपसंहार श्रौर प्रतिपाद्य विषयों की
सारवती सूचना वें स्पष्ट हौली मे देते हँ । वीच-बीच में भी प्रतिपा सिद्धान्त
का संक्षेप में कथन करते जाते हैँ ।१ पादो के श्रन्त मेँ पूरे विषय का पुनः संक्षि
निर्देश सरल इलोको में करना भो वे नहीं भूलते । २ प्रकरण ग्रन्थ में तो विषयों
कासारभूतरूप ही दिया गया है । साख्य श्रौर वेदान्त भष्यों में तो पूरी शास्व-
प्रक्रिया ही संक्षिप्त शब्दों मे कह दी गयी है । इस प्रकार से विज्ञानभिश्चु के मन्तव्य
के सम्बन्ध में कहीं कोई वात संशयात्मक स्थिति में नहीं रह् पाती । जो कु
उन्दँं कहना था वह् उन्होने स्पष्ट-रूप से के को चोट पर कहा दै। उनकी
सुबोध हौली के प्रभाव से उनके सिद्धान्त दपंण कौ भांति उज्ज्वल ओ्रौर
प्रकादामान ह ।
उनकी व्याख्याग्रों का एक अन्य वैशिष्ट्य है तकंपरायणएता । 3 एेसी किसी
बात को कहु कर इतिकर्तव्यता का अनुभव नहीं करते, जिसे किसी शस्त्र ने
या किसी विशिष्ट श्राचायं ने वास्तविक या तात्त्विक मान रक्खा हो । उस बात
कोवे तकं की कसौटी पर परखते हैँ । उसके सम्बन्ध मे श्रनुमानादि तर्कोके
द्वारा पणं निरीक्षण उपस्थित करते है श्रौर तभी उसकी सत्यता को स्वीकार
करते ह । किसी योग-संवंधी विप्रतिपत्ति पर तकं के साथ-साथ वे ्रपने
भ्रनुभवों का पुट देकर भी उसे स्पष्ट श्रौर निरिचत करते हैँ ।९
दूसरा प्रधान गुण उनकी रोली का उनकी उद्धरणप्रियता हे । श्रतियों भ्रौर
स्मृतियों तथा पुराणों के लम्बे-लम्बे प्रौर छोटे-छोटे हर प्रकार के ्रसंख्य उद्धरण
उनके ग्रन्थो मेँ भरे पड़ हैँ । किसी भी वात की प्रमाणिकता प्रदशित करने के
लिए श्रुतिस्मृति-वाक्यों का उपयोग उनकी दौली का भ्रनिवायं श्रङ्ग है । उनकी
व्याख्याय प्रतिपृष्ठ एसे उद्धरणों से भरी पड़ी हँ । इससे उनकी दौलीकी
शब्दप्रमाणप्रवणता प्रकट होती है । किन्तु कहीं-कहीं इन उद्धरणों को भ्रनावश्यक
१. प्रमाता चेतनःशुदधः इत्यादि !-सां० प्र० भा० प्रु ४८ इत्यादि
२. हेयहाने तयोर्हृत् इति च्यहा यथाक्रमम् ।
चत्वारःशास्त्रमुख्यार्था अध्यायेऽस्मिन्रपञ्चिताः ॥
-सां० प्रा० भार प्० ७० इत्यादि
३. स्वानुभवसिद्त्वात् ।--यो० सा० सं० पू १४
८६ | आचायं विज्ञानभिक्षु
विस्तार प्रदान कर उन्होने श्रपनी रौली की प्राञ्जलता पर कुठाराघात भी कर
लिया है) चैनी का यह गुण यहां दोष बन जाता है । उनकी हौली एेसे स्थलों
¶र उपहासास्पदता की सीमा तक पहुंच कर दिखावापन से युक्त, पण्डितम्मन्यता
से बोभिल श्रौर पुरातन-पन्थिनी प्रतीत होती है । कहीं कही यह दोष श्रौर
प्रधिक मुखर हो उठता है जब वे इन उद्धरणों की भी लम्बी-चौड़ी व्याख्या
भी वहीं पर देने लगते हैँ ।१ फल यह् होता है कि मुख्य सिद्धान्त का विवेचन
गौण हो जाता है ।
शरुतियों के प्रतिरिक्त उनके उद्धरणों के श्राकर ग्रन्थ श्रीमदभगवद्गीता,
मोक्ष घमं,२ वसिष्ठसंहिता,* मनुस्मृति,* भ्रनुगीता, न्यायवैेषिक्र, सांस्ययोग
ग्रौर वेदान्त के सूव्र,° तथा ग्रन्य प्रनेक सूत्र ग्रौर स्मृतियां है । पुराणो की
प्रामाणिकता के प्रति भी विज्ञानभिष्चु की भ्रसीम निष्ठा है ग्रतः स्मृतियोके ही
समान वे पुराणों को भी यत्र-तत्र सर्वत्र उद्ध.त करते हँ । ्रन्य किसी भी भारतीय
दशंन के व्याख्याकार ने पुराणों को ससम्मान इतनी विस्तृत योजना
के साथ अ्रपने ग्रन्थों मेँ नहीं उद्धत क्या है । पुराणों में भौ
विज्ञानभिष्चु की सर्वाधिक श्रद्धा कृूर्मपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण, ११
यो° सा० सं० पु० ५० इत्यादि ।
यो° सा० सं० प° २७, २४
यो० सा० सं० पु २३ इत्यादि।
वि० भा० प° ४९
वि भाण 1, (1
यो० सा० सं० प॒० २३ इत्यादि)
सां० प्र° भा० पु० ३८, २९, २८ इत्यादि,
सां० प्र भा० पृ० २ इत्यादि।
सा० सा० पृ०२,१६,१७,१८ । यो० सां० सं० पु० २२, २३;
२४, ५७ । सां० प्र° भा० पृ० ३ ४०, ५१, ८०, ९०, १५४ यो०
वा० १३९; १६२, २१०, २४३. २५३, २७२, २८१; ४१५ वि°
भा० पु० ३७, ९७, ९९, १०१, १०९; ११२ १३६ इत्यादि 1
१०. सां० सा० पु० ५, १६ यो० सा० सं० पु० २२, २३ सां० प्र
भा०प्० = यो० वा० पु० ठ वि० भा० पू० १३० १३४
इत्यादि ।
११. सां० प्र° भा० पु० ८३, यो० वा० पृ० ५८, ५९
4 4
आचायं विज्ञानभिक्षु कौ रचनाएं | ८७
गरुडपुराण, १ विष्गुपुराण,२ माकंण्डेयपुराण, * नारदीयपुराण,४ भागवतपुराण, ४
पद्मपुराण. तथा लिङ्खपुराण पर है क्योकि अ्रधिकतर इन्हीं के लम्वे-चौड़े
उद्धरण नामनिर्देश पूर्वक भ्रनेक स्थलों पर दिये गये है । यद्यपि इस प्रकार की शैली
में पण्डितम्मन्यता श्रौर वहल्ञता.प्रदशेन की भलक मिलती है, तथापि सांख्ययोग
श्रौर वेदान्त-सिद्धान्तों के समन्वय का मूल पोषण इन पुराणो से ही प्रारम्भ होता
है । इस कारण विज्ञानभिष्षु को श्रपने मत के समर्थेन मे इन पुराणो को उद्धत
करना न केवल स्वाभाविक दै, परव्युत प्रनिवायं भी था । समन्वथ की कटिया पुराणों
मँ ही प्रस्तुत होने लगी थीं । श्रतः आस्तिक दर्शनों के समन्वय के किसी भी परवर्ती
प्रयास का मूलाघारये पुराण ही बन सकते थे। इस प्रकार १६ वीं शताब्दी
कौ धार्मिके जनता मेँ अ्रषने सिद्धान्तो को प्रचारित करने के लिए पुराण
्राप्य-पोप से उन्हे वंचित रखना विज्ञानभिष्चु की भूल ही होती ।
उनकी रोली के एक ग्रौर उक्कृष्ट विष्टर की श्रोर इद्त करना भी ग्रप्रा-
सद्धिक न होगा । वह् वशिष्टत्र प्रतिपक्षखण्डन के श्रवसर पर दिखायी पड़ता है 1
ह्म इसे दौली की (संवादात्मकता" नाम दे सक्ते हैँ। इस दौली में लिखे गये
१. द्रष्टव्य-यो० सा० सं० पृ० ३८, ३९ सा० प्र° भा० प° १०२,
११५, यो० वा० पु० ८३, १३७ १४८, २८१३ २८२, २९४, २८६,
२८७ । वि० भा० प°
२. द्रष्टव्य--सां० सा० प° १३, १५ यो० सा० सण पु० ६१, १००।
सां० प्र० भा० प° ४, २३, ३५, ३९, ५५ ६०, ६३, ७२, ११७,
१५२, १५३, १५५ यो० वा० पृ २०) ३५, ६२, ७३, ठ४, १६५,
१७७, २०३; २०७, २५३, २६९, २७७ ३११, ३४२. ३४३,
३८९, ४१५, ४१७, ४४९ । वि० भां० पुर ७, ३७, ६०
इत्यादि ।
३. द्रष्टव्य-सा० प्र भा० पु० ३८, ११८ । यो० वा० पु० १७)
२५९, २७१ । वि० भा० पु० ९९ ।
४. द्रष्टव्य--यो० सा० सं० पु० ६६; ७३, ७९, सां० प्र० भा° पृ
१११, यो० वा० पु० ६७, ८७ ३४३ वि० भा० प° १२२;१३४
इत्यादि । ध
५. द्रष्टव्य, सां० प्र भा० प° रे यो० वा० पु० २५४, वि भा०
पु० १२३ इत्यादि ।
६. द्रष्टव्य, सां० प्र° ना० पुर ४
७, द्रष्टव्य, यो० वा० पु० ८५, वि० भा० पु० १४८ इत्यादि ।
८८ | आचायं विज्ञानभिक्षु
स्थलों का विषय श्रांखों के सामने ्रभिनीत सा होने लगता है। उनके भाष्य
ग्रन्थो रौर वातिक मे इस दरौली के भ्रनेक नमूने देखने को मिलते हैँ । इन्द
पटने १ पर लगता है कि विन्ञानभिष्ु प्रत्यक्ष-उपस्थित प्रतिपक्षी की खबर ले रहे
हैँ । इस विशेषता के कारण रौली की सजीवता वहुत श्रधिक बढ जाती है ।
उद्धरणों के प्रसद्ध में एक बात कहने को रह ही गयी कि विज्ञानभिक्ु केवल
दानिक या धामिक श्रन्थोका ही सहारा नहीं लेते वरन् कालिदासः श्रौर
माघः जसे साहित्यिक धुरन्धरों को स्वनाग्रों में भी अ्रपनी उक्तियों का समर्थन
दृढ लेते हैँ श्रौर तत्सम्बद्ध पंक्तियों को उद्धृत कर देते हैँ । संक्षेप में उनकी
व्याख्या-दौली में संक्षितता, सजीवता, सरलता, सप्रमारोक्ति, सुबोधता, सुरुचि-
पणंता ्रादि सभी एेसे गुण उपस्थित हँ जिने कि उनके ग्रन्थ भारतीय दर्शन में
सदा मटान् ्रादर कौ दृष्टि से देवे जा्येगे |
१. “भायतं मा्गेए--सां० प्र० भा० पु० २३
२. "विषमप्यमृतं क्वचिद्भवेदमृतं वा विषमीइवरेच्छ्या । यो० वा० पुर
२१३ पर उद्धत ।
३. बुद्ध भोग इवात्मनि" ।- सां ० प्र° भा० पु० ५८ पर उद्धत ।
द्वितीय पटल
| सिद्धान्त-संकलन |
ध्यायथ १
आचाय विज्ञानभिक्तु के दशन की रूपरेखा
@ ~ (७ गि प्र प्र >>>
तिज्चानमिक्ष् क दशन की आषारमित्नि
9
भ्राचा्यंविज्ञानभिष्चु॒निष्ठावान् आस्तिकं थे। वेदों पर उन्हे भ्रमिट.
विशवास श्रौर अ्रटूट श्रद्धा थी । वेदों पर मूलतः श्राधारित स्मृतियों तथा उनसे
भ्रनुप्राणित पुराणों ने भी उन्दं एक महनीय सीमा तक प्रभावित श्रौर प्रेरित
क्याहै । वेद, स्मृति ग्रौर पुराणरूपी श्राषं-घरोहर का प्रतिफल हमे उन
दाशंनिक विचारधाराग्नों के रूप मे मिलता है जिन्हं हम “भारतीय श्रास्तिक-
दशेन' नाम देते हैँ । मोक्षमार्गे की उपादेयतां के दृष्टिकोण से वेदान्त, सांख्य
मरौर योग इन श्रास्तिक दर्ंनों मे श्रविक प्रसिद्ध श्रौर परशं माने गये है । यद्यपि
इन तीनों शास्वों के प्रपने-ग्रपने विशिष्ट संदेश है, भ्रलग-ग्रलग मान्यताएं है, श्रौर
म्रनेक प्रसंगो में परिस्फुट मतभेद भी है, तथापि मूलाधार को ्रभिन्नता, प्रयोजन
की एकता श्रौर सफलता की समानता के कारण विज्ञानभिश्चु ने तीनों द्शन-
परम्पराग्रो मेँ एक ही सतत भरक्चमान तथा सर्वथा श्रविकरद्ध सत्यका
साक्षाक्तार क्या है ।
यही तीनों दाशंनिक सिद्धान्त उनके दाशंनिक मतवाद के मुल केन्र है ।
उनके सिद्धान्तो का भव्य भवन इन्दी के सामञ्जस्य पर विनिर्मित है । यद्यपि ये
तीनों दार्शनिक धारयेः उनकी दष्टि में भी अ्रलग-प्रलग मोक्ष प्रासि के साधन के
रूप मे श्रमोघ श्रौर पर्यस्त है तथापि तीनों का समन्वय, जो उनका दार्शनिक
मतवाद कहा जा सकता है-सुगम, सरल, रोचक श्रौर सद्यः फलदायी होने के
कारणा ्रधिक श्रेयस्कर है । इस समन्वय के प्रति उनकी निस्सीम श्रास्था है ।
दाशेनिक सिद्धान्तो का प्रतिपादन करते समय स्वेत वे इस समन्वय के लिए
जागरूक हँ । इस प्रकार से इन सिद्धान्तं की संवलित त्रिवेणी का सद्घमदही
उनके दाशेनिक मतवाद का केन्द्र-चिन्दु है 1
समन्वय की प्रवृत्ति
ठ कौन-सी भ्रावरयकता, प्रान्तरिक या बाह्य थी जिसने विज्ञानभिश्चु को
इन तीनों दर्शनों में समन्वय की दष्टि रखने को प्ररित किया । विज्ञानभिश्च
प्रधानतः योगी थे । योग श्रौर सांख्य का तात्विक या वैचारिक स्तर श्रधिकांशतः
आचाय विज्ञानभिक्ष के देन कौ रूपरेखा | ९३
प्रभिन्न प्रसिद्धही है)? इसीलिए वै सांस्य-योग-पिद्धान्तों के मुववः श्नुयायो
रहे । १६ वीं शतानव्दी का समय दशनं की ख्याति कौ दृष्टिसे दान्तान युग
था 1 भरतः वेदान्त के प्रभावों से उस समय श्रपने को प्रहता रखना किसी भी
मनीषी के लिए न केवल भ्रपम्भव था श्रपितु जनमत से वैचारिक-सम्पकं-गून्यता
काहेतु भी वन सकता था । इस कारण वेदान्त का पारायण श्रौर उसको रिक्षा
भी विज्ञानभिचु के लिए श्रनिवायं रूप से ग्राह्य थी। वेदान्त-धाराशरौ मं भी
प्रतिष्ठा दाशंनिक स्तर पर श्रदैतवेदान्त की ही थी। वेदान्त-ूत्रो में सास्य
भ्रौर योग के प्रति तोत्र उपेक्षा उपलब्ध थी।२ शङ्कुर प्रादि भाष्यकारो नै तो
इस गूढ उपेक्षा को भ्रधिक कटुतर एवं स्पष्टतर वना दिय! था । विज्ञानभिचु के
सामने एक विकट समस्या थी कि शाङ्कुरवेदान्त के प्रभविष्छरु संस्थान के समक्ष
वे श्रपने ग्रभीष्ट सांख्य-योग-सिद्धान्वों की वलि चढा दं श्रथवा शाङ्कुरवेदान्त
को श्रपने प्रौढ तर्को से जजर करने का यत्न करं ।
इसमे से पहली बात तो उनके स्वभाव के विरुद्ध थी, सवंथा अ्ररुचिकर थी,
श्रतः उ्तके लिए स्वधा ्रग्राह्य थी । रही दूसरी बात । उसमें कठिनाई यह थी
कि योगभाष्यकार बादरायण व्यास को विज्ञानभि्षु वेदान्त-सूत्र का कर्ता
समभते थे ।* बादरायण व्यास के वेदान्त-सू्ो पर भला अरब वे कंसे उंगली
उठाते । इस श्रभिन्न-कतूं कत्व ॒के विरवास से उन्हे संदेह का कोर भ्रवकार ही
न रह गया । कदाचित् पुराणों के प्रति उनकी प्रथित श्रास्था का भी यही कारण
१. सांख्ययोगौ पुथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।--गीता ५।४
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगे रपिगम्यते ।-गीता ५।५
२. स्मृत्यनवकाडदोषप्रसद्धः इति चे्ान्यस्मूत्यनवकाशदोषप्रसङ्खात् ।
--त्र० सु° २।१।१
एतेन योगः प्रत्यक्तः । - ब्र सु° २।१।३
३. अतश्चसिद्धमात्मभेद-कल्पनयापि कपिलस्य तन्त्रवेदविर्द वदानुसा।र-
मनुवचनविरद्ध' च न केवल स्वतनतरप्कृतिकल्पनयेवेति ।- त्र° °
शां० भा० पुर ४४३
एतेन सास्यस्मृतिप्रत्याख्यानेन योगस्मृतिरपिप्रत्याल्याता द्रष्टः
त्यतिदिाति ।- त्र० सू० शां० भा० प° ४४४
४. स्ववेदा्थसारोऽत्र वेदव्यासेन भाषितः ।
योगभाष्यमिषेणातो भसुक्षूणामिदं गतिः ॥-यो० वा० पृ०३
९४ | आचायं विज्ञानभिक्षु
थाकि पुराणों के कर्ता भी उनकी दृष्टि में यही व्यास थे। इसलिए उन्होने
सांख्ययोग के विरोध का उत्तरदायी वेदान्त-सूव्र॒को नहीं, श्रपितु उस पर किये
गये भाष्यों को ही ठह्राया श्रौर उनकी भर-पेट भत्संना श्रपने ग्रन्थों में कीहै।
सांख्य, योग श्रौर वेदान्त सिद्धान्तो के समन्वय कौ इस विशेष प्रेरणा के
भ्रतिरिक्त उनके मस्तिष्क में इस समन्वय का एक श्रन्य साधारणकारण भी
सदा समुपस्थित रहा होगा । वह् है उनका यह सोचना कि सभी शास्त्र, जो
भ्रास्तिक हैँ, वेदों परं श्राधारित हँ तथा श्रात्मा के भ्रस्तित्व में विद्वासं रखते 9
उनका प्रणयन महर्षियो ने किया है ग्रौर उन सवका श्राधार केवल श्रतिर्याँ ही
है । श्रतः सांख्य, योग, वेदान्त, मीमांसा, न्याय श्रौर वैशेषिक छं दर्दान श्रविरुद
श्रौर परस्पर संगत होने चाहिए ।१ किन्तु मीमांसा, न्याय श्रौर वैशेषिक मुख्यतः
केवल चिन्तन, मनन की दौली के प्रतिपादन मे दत्तचित है, श्रतः परमाथ भूमि
पर उनके विचार केवल इद्कखित मत्र, विस्तृत श्रौर सांग विवेचन के साथ
प्रस्तावित नहीं हुए हैँ । ्रतः न्याय, वैरोषिक को परमाधथिक स्तर पर विज्ञानभिश्चु
ते बाधित या म्रनुपयुक्त बताया है ।२ किन्तु इन दर्शनों को भी भ्रान्त या विरोधी
कहीं नहीं ठहराया है 1 इस प्रकार से यद्यपि पारमार्थिक तत्तवविचार की दुष्टि
से उनक्रा समन्वयवाद सांख्य, योग श्रौर वेदान्त तकं ही सीमित है। परन्तु इस
शुदध-समन्वय को समथेक बृहत्तर सीमाएं न्याय, वैशेषिक एवं मीमांसा इन
तीनों श्रास्तिक् दर्शनो, स्मृतियों श्रौर पुराणों तक प्रसृत रहै । इनकी रचनाश्रों
के प्रायः प्रत्येक पृष्ठ पर इस विशाल समन्वय-सागर की तरे र्लोकों श्रौर
पंक्तय के उद्धरण के रूप में दीख पड़ती हैं ।
=-=
१. आषंज्ञानानि सर्वाणि वेदान्तानां कलाः स्मृताः ।
शरृत्यवान्तरवाक्यानामूते नास्ति ट्यसङ्खतिः ।।--वि० भा० पु० ९०
२. न्यायवेशेषिकोक्तज्ञानस्य परमारथभरमौ बाधितत्वाच्च ।- सां० प्र
भा० पुर
३. न चैतावता न्यायादप्रामाण्यम । विवक्षितार्थे देहाद्यत्तिरिक्तकोे
वाधानावाद् यत्परः शब्दः स शब्दाय: इति न्यायात् ।-- सां० प्र
भाः पु° र
सम्रन्तय का स्वरूप
समन्वय की प्रने रतिर्या हो सकती है| जिन वस्तुनो का समन्वय किया
जाता है उनमें से किसी को प्रवान मान कर उसी के ्नुकूल शेप वस्त्रों को
बना लेना एक रीति है । दूसरी रीति यह हो सकती है कि समन्वीयमान वस्तु
में से प्रत्येक में प्रधान तत्तव सुन-चुन कर गौण वातो को चोड दिया जाय । इसी
प्रकार समन्वय की भ्नन्य रीति्यां हो सकती हँ। भले ही समन्वय की सफलता
मरौर निर्दौपता की दृष्टि से कोई एक दौली अन्य रतिया की श्क्षा प्रचिकं
ग्राह्य हो । विज्ञानभिश्चु ने सांख्य, योग ग्रौर वेदान्त शास्रं का समन्वय जिस रूप
मे प्रस्तुत किया है वह यहं पर विवेचनीय है। इस समन्वय में उन्हे कितनी
सफलता मिली है इस वात का विचार हम समीक्षा वाते मरघ्याय में करेगे
विज्ञानभिश्च ने तीनों समन्वीयमान दर्शनों पर भाष्य या वातिक लिखा दै,
भ्रौर तीनों दर्शनों में पूणं श्रात्मीयता तथा भ्नुभूति की दृष्टि रखी है । तीनों
दानो के लिए उन्होने अ्रनेक स्थलों पर श्रस्मच्छोस्तर ्रस्मन्मते", स्वारा"
इत्यादि पदों से श्रभिहित किया है । तीनों शास्र उनके श्रपते है । तीनों उनके
लिए प्रधान हँ । उनका सूल विवास यह् है कि जिन ऋषियों ते ्रुतियों ऊँ
प्राधार पर तथ्यों का प्रतिपादन क्रिया है वे सभी दिव्यदष्टि वते तया
ऋतम्भराप्रज्ञा-पुो थे । ग्रतः उनक्री बाते न तो श्रान्त हो सकती है प्रीरन ही
परस्पर विरोधिनी । उनकी यही निष्ठा उनके समन्वय-सिद्धन्त का वीन-मन
है । इन शास्त के सिद्धान्त ्रापाततः परस्पर विरोधी प्रतीत होते है । पववत
भयित व्यास्य ताभ ने साख्य, योग शौर वेदान्त के मतभेदो को शरीर अविक वदा
चदा कर प्रतिपादित भी किया था । इस समस्या का समाधान सवंप्रथम उन्होने
सस्थप्रचनभाष्य की प्रारम्भिक पंकतर्यो मँ कर देना नितान्त उचित समभा श्रौर
बड़ सुरुचि रोली में तीनों शास्र का विशेष स्प मेँ प्रर सभी शरास्तक
शास्म का सामान्य रूप से भ्रविरोष प्रतिपादित किमा है ।२
~ ५
१. द्रष्टव्य - सां० प्र° भा० पु० १७, यो० सा० सण पुण १२५;
वि० भा० पु० ७३ इत्यादि । त ११
२. तस्मादास्तिकशास्त्रस्य न कस्याप्याप्रामाण्य
सरदेषाम् अबाधात् अविरोधाच्चेति ।-सां° प्र° भा° १० ^
९६ | आचायं विज्ञानभिक्षु
इस समाधान से एक नयी समस्या उठ खड़ी होती है । यदि तीनों शास्तों
मे विरोध नहीं है श्नौर तीनों शास्त्र दर्शन विषयके ही हैँ तो तीनों मे केवल एक
बात की ही पुनरुक्ति हई होगी । दर्शन जैसे विषयमे तथ्यकाही मूल्य होता
हैनतोभाषाकी भ्रालडःकारिकता का उसमे कोई विशेष महत्व है श्रौर न
उसमें कलात्मक नवौनता के ही लिए कोई गुञ्जायश है । फिर श्राखिर एक
ही सत्य को सांख्य, योग ॒श्रौर वेदान्त--इन धाराश्रों मेँ ढालने की पिष्टपेषण-
परायण प्रवृत्ति महषियों ने क्यों दिखायी होगी ?
इस समस्या का समाधान सरल प्रौर सीधा है। विज्ञानभिक्षु का कहना है
तीनों शस्त्रो के प्रतिपाद्य विषय भिन्न-भिन्न हँ । यद्यपि तीनों शास्त्र का
स्तर पारमार्थिक है फिर भी पारमाथिक स्तर पर ही विषय-भेद है । उनके मत
मे न्याय, वैशेषिक (मीमांसा भी) व्यावहारिक स्तर के विषयों का तत्वज्ञान
उपस्थित करते हँ इसलिए ॒पारमाथिक स्तरवाले सांख्य, योग श्रौर वेदान्त से
उनकान तो कोई विरोध है, न पुनरुक्ति है श्रौरन ही न्यायादिकों की श्रप्रामाशि-
कता है क्योकि यत्परः शब्दः स शब्दार्थ यह् नियम है । प्रत्येक शास्त्र मे जो
गौण विषय हैँ उनके सम्बन्व मेँ तीनों शस्त्ोंके जो मतभेद हैँ विज्ञानमिष्षुने
उनका स्पष्ट उत्लेख उचित प्रवरो पर निस्संदेह किया है, किन्तु उन श्रांशिक
मतभेदों के कारण समूचे शास्त्र से विरोध मानना उन्हँ स्वीकार नही है । जैसे
सांख्य की निरीरवरता श्रौर सांख्य योग का स्वतंत्र-प्रधान-कारणतावाद
प्रादि सिद्धान्त योग श्रौर वेदान्त से विरद ह| उन श्रंशोंको विज्ञानर्भश्चुने
त्याज्य बताया है प्रौर उन भ्रंशो मँ सांख्य को उन्होने दुबल भी कहा है । भ्रतः
श्रंख मूंद कर उन्होने समन्वय नहीं किया 1 श्रपि तु त्याज्य भ्रंशो का परिहार
करते हुए उन्होने तीनों शास्त्रों का मौलिक सामज्जस्य प्रदश्चित्त कियाहै। श्रतः
व्यावहारिक तत्त्व-ज्ञान में न्यायादि की प्रामाणिकता म्रुण्ण भ्ौर संदेहातीत
है ।२ पारमाथिक स्तर के दर्शनों के प्रतीयमान विरोधो के सम्बन्धं मे विज्ञानभिश्चु
का मत, कि वेदान्त में प्रवान विषय 'ईङवर श्रथवा ब्रह्म है, सांख्य का मुख्यः
१. न चेतावता न्यायाद्यप्रामाण्यं चिवक्षितार्थे देट्याद्यतिरिक्तांरे बाधा-
भावाद् ।-सां० प्र° भा० पु०ठ
२. द्रष्टव्य, सां० प्र भा० पृ० १
द्रष्टव्य, वि० भा० प° ३३-३५ ।
किञ्च ब्रह्ममीमांसायाः ईदवर एव मुख्यो विषय उपक्रमादिभिरि घृतः ।}
-सां० प्र० भा०प्०३
माचायं विज्ञानभिक्षु के दन कौ रूपरेखा | ९७
विषय '्रकृतिपुरुषविवेक? हैश्रौर योग का प्रधान विषय प्रकृतिपुरूषविवेक
को उतपन्न करनेवाला तथा उससे उत्पन्न होनेवाला श्विविघ-योगः है । इन
तीनों में से प्रत्येक शास्त्र के इन प्रघानप्रतिपा्य विषयों की पारमाथिक पृष्ठ-
भरमि में वे तत्त्व भी गौरा रूपसेश्रा ही जाते हँ जिनका विवेचन तदतिरिक्त
दो शास्त्रों में प्रषान तत्व के रूप मेँ हुम्रा होता है ।
यह् सम्भव नहीं है कि इन गौण तत्त्वों की चर्चा लाये बिना भ्रपने-ग्रपने
प्रघानेप्रतिपाद्य विषय का विवेचन इनमे से कोई शास्व कर सके, क्योकि ब्रह्म
का वंन बिना प्रकृति, जोव श्रथवा विवेक की पृष्ठभूमि के संभव नहीं है ।
इसी प्रकार ज्ञानजनक श्रौर ज्ञानजन्य योग का निवंचन भी ज्ञान के ज्ञं यभूत ब्रह्य,
पुरुष श्रौर प्रकृति की पृष्ठभूमि के विना सर्वथा असम्भव है । इसलिए ॒विज्ञान-
भिदु की दृष्टि मेँ परमां भूमि के लिए भ्रनिवार्यतः उपयोगी इन तीनों दर्शनों
की न परस्पर विरोधिता है, न श्रप्रामाणिकता है, न पुनरुक्ति हैश्रौरनही
निरथ॑कता है । प्रत्युत एक दूसरे के प्रति पूरकता है । पूणंज्ान की प्राप्ति तीनों
दर्शनों के सेवन से ही सम्भव है । उनके दर्शान-क्षितिज पर यदि सांख्य एकान्तिकि
साधना का सहारा प्रस्तुत करता है, तो वेदान्त उस एकान्तिकता को सार्व-
भौमिकता कौ विराट् पीठिका पर उतार कर मुक्ति-साधना का मां प्रशस्त
करता है । योग दोनों प्रकार के संद्धान्तिक निर्देशों की क्रियात्मक प्रस्तावना है \
चाहे निरीर्वर सांस्य-साधना हो भ्रथवा सेश्वरवेदान्त-साघना दोनों को योग के
घरातल पर उतरना ही पड़ता है । क्योकि तदापादित सम्प्रज्ञात योग॒ के विना
ज्ञान या विवेक की उत्पति संभव नही श्रौर ज्ञान के विना मुक्ति कहां ?४ श्रत
विज्ञानमिश्ु की दृष्टि में योगशास्त्र सवसे भ्रधिकं महत्त्वपुणं ॒है ।४ बिना उसके
१. सांख्यदात्तरस्य तु पुरुषा्थतत्साधन-्ङृतिपुरुषविवेकावेव मुख्यो विषयः !
-सां० प्र० भा० पू० ४
२. ब्रह्ममीमांसासांस्यादिषु च ज्ञानमेव विचारितं बाहुल्येन ज्लानसाधन-
मात्रस्तु योगः संक्षेपतः ज्ञानजन्ययोगस्तु संक्षेपतोऽपि तेषु नोक्तोऽतोऽति-
विस्तरे द्विविधम् योगं प्रतिपिपादयिषुभेगवान्पतञ्जलिः रिष्यावघाना-
यादोयोगानुशासनं शास््रमांरम्यतया प्रतिज्ञातवान् ॥--यो० वा० पु०५
तथासंपरज्ञातयोगे............... इति सुत्रेण ।--वि० भा० पु०६
ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः !- ऋग्वेद
५. गङ्खाद्याः सरितो यद्वदन्धेरशेषु संस्थिताः । ॥
सांख्यादिदर्शानान्येवमस्येवाशेषु कृत्स्नशः ।॥--यो० वा० प्०३
फा०-७
न ~
९८५ | आचायं विज्ञानभिक्षु
सास्य भ्रौर वेदान्त दोन प्रकार की सावनाएं निष्फल ही होगी । कदाचित्
इसी कारण से उनकी श्रद्धा सब ग्रन्थों से श्रधिक "योगसूत्र श्रौर योगभाष्य'
पर ही परिलक्षित होती है । किन्तु इससे उनके समन्वय-सिद्धान्त में लेशमात्र
भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडता । किसी भी सिद्धान्त को पुष्ट करते हुए वै भ्रन्य
दो दर्शनो मँ श्राये हए उस प्रसंग के सिद्धान्तो का उल्लेख करते हए समथेन
करते हँ । इस प्रकार से तीनों शास्र उनकी दृष्टि मेँ एक विराट् चरम सत्य
के विभिन्न श्रद्धां के पारमाथिक व्याख्यान हँ, जिनमें पारमाथिक भ्रभिन्तता,
परस्पर पुरकता श्रौर एकनिष्ठा है ।
न.
त्गीं गी री £
करण की रीति
इस समन्वयात्मक दुष्टि के फलस्वरूप विज्ञानभिष्ु के दार्शनिक सिद्धान्तो
का साक्षात्कार तत्तद्-विषयों के प्राधान्य के श्रनुसार वेदान्त, सांख्य श्रौर योग
तीनों शास्तों के व्याख्या-प्रन्यों में होता है । परमाथंभूमि के सभी तत्त्वों का
पुरं विवेचन किसी भी एक शास्त के ग्रन्थ में उन्होने मुखप रूप से नहीं किया ।
जिस शास्त्र का जो मुख्य प्रतिपाद्य है उसका उस शास्त्र मे विशद एवं विस्तृत
विवेचन किया है ।* यद्यपि भ्रन्य विषयों का भौ जो भ्रन्य शस्त्रो में
प्रषान किन्तु उस शास्त्र मेँ गौण है--वणंन सम्बन्वित भ्रवस्था में उन्दोने उस
स्व मेँ भौ किया है, किन्तु वह संक्षिप्त रीति से। इस प्रकार यद्यपि उनके
सांख्य, योग रौर वेदास्त सभी ग्रन्थों मेँ भ्रलग-प्रलग भी उनके पूरे समन्वित
दर्दान की फलक मिल जाती है तथापि।उसको पूरी भांकी देखने के लिए विषय-
्राघान्य की दृष्टि से ही उनके तीनों शास्तर-ग्न्यों का श्रनुलीलन करना समीचीन
नौर श्रेयस्कर होगा भ्रौर तभो उनके मतवाद के सम्बन्ध मे निविचिकित्सित भ्नौर
निभ्रन्ति ज्ञान सुलभ होगा ।
किसी दार्होनिक के सभीं सिद्धान्तो को प्रस्तुत करने के लिए भराजकल प्रायः
यह् दौली भ्रपनायी जाती है कि विषय को चरमततत्वमीमांसा, संसारमीमांसा,२
प्रमाणमीमांसा, मनोविज्ञान,“ श्राचारशास्त्रः भ्रादि विभागों में बांट कर भरस्तुत
किया जाता है । भ्रौर उस दानिक के भ्रनेक ग्रन्थो से इस विभाजन के प्रनुरूप
सामग्री खट-छँट कर उपस्थित की जाती है । विज्ञानभिष्वु के सम्बन्वमें भी
१. व्यवहारे वयं योगाः तत्वर्षाड्वशगोचरे ।
भेदस्तुवीक्षयते बालेरूपासावाक्यमोहितेः
पु प्रकृत्योविविकेन जीवत्वेशवयं बाघतः ।
चितिमात्रेकरूपात्मवादे सांख्यार्च याहशाः ॥
महाप्रलयकालीनं ब्रह्य तं तदात्मता ।
ब्रह्मणःसृष्टिरित्यादि चास्माकमधिकं मतम् ।--वि°भा०प्० ८९९०
२. 0पागण्् ३. (1050010४
४, 01567000 ५. 5५०0४
६. 2111105
९९
१०० | आचायं विज्ञानभिक्षु
यही रीति श्रपनायी जा सकती दै; किन्तु उनके सिद्धान्तो का स्वरूप प्रस्तुत करने में
एक अरन्य दौली श्रधिक ग्राह्य, उनकी दृष्ट में प्रत्येक शास्त भिन्न विषय का प्रतिपादक
है । इसलिए वेदान्तशास्त्र के ग्रन्थों मे उनके ब्रह्म, जीव, मायाः जगतप्रपञ्चः
सम्बन्वी विचारः ह । सांख्यास्न कै ग्रन्थो में उनके प्रमाण, पुरुष, प्रकृतिः;
भ्रविद्या, सम्बन्धी विचारः ञ्रौर योगशास्त्र के ग्रन्थों मे साधना के मागं, योगके
रूप, योगज-सिदिर्या, मन की स्थिति रादि विचार? प्रधान सूप से प्रकारित हैं ।
इसलिए इन भ्रलग-प्रलग विषयों से सम्बन्धित उनके सभी सिद्धान्तो को प्रकट
करने के लिए उनके दर्शन को इस प्रकार भी विभाजित कर सकते हँ -
१--विज्ञानभिवु के वेदान्त-सिद्धान्त
२-- विज्ञानभिश्च के सांख्य--सिद्धान्त
३-- विज्ञानभिश्चु के योगसिद्धान्त
इस वर्गीकरण को श्रपनाने से जरहा हमे प्रथम प्रकार के वर्गीकरण से
्राप्त फल की पूरंवः सिद्धि हो जाती है, वहीं वेदान्त, साख्य श्रौर योग
लञास््ो के प्रति विज्ञानभिष्चु के योगदान का भ्राकलन करने तथा उन शास्त्रों के
्नन्य व्याख्याताग्रों के सिद्धान्तो से. इनके सिद्धान्तो की तुलना करने की भी बडी
सुनिघा मिल जाती है । साथ दी इस वर्गीकरण से उनके ग्रन्थों का श्रलग-भरलग
शरष्ययन प्रस्तुत करने का मन्तव्य भी सिद्ध हो जाता है । भ्रगले तीन भ्रव्यायों
नं इसी वर्गीकरण के श्राधार पर उनके दार्खनिक-सिद्धान्तों का स्वरूप प्रस्तुत
करने का प्रयास कियाजारहारै।
„ चरमतत्वमीमांसा, ईदवरमीमांसा ओर संसारमीमांसा ।
२. आत्मतत्त्वमीमांसा प्रमाणशास्तर एवं विवेक^विज्ञान ॥
३. आाचारशास्त्र, मनोविन्नान एवं साधना-गास्त्र ।
[1
¢
अभ्ययि २
आचाय विज्ञानमित्त्, के वेदान्त-सिद्धान्त
ब्रह्ममीमांसा करे अनुबन्धचतुष्टय
त्रधिकारी
्राचायं॒विज्ञानभिधचु द्विजातियों को सामान्य रूप से श्रौर ब्राह्मणों को
विशेष रूप से ब्रहयज्ञान का श्रधिकारी समभतते है । ब्रह्ज्ञान का भ्रमृतरूपी भ्रपना
भाष्य उन्होने ब्राह्मणों के लिए भ्रपित किया है 1१ इन द्विजातियों मे भी
ब्रह्मविद्या का भ्रधिकार कतिपय प्ररिक्षित लोगों को ही है। उनकी स्पष्ट घारण
है कि ब्रह्मविद्या के सच्चे भ्रधिकारी वे लोग है जो- +
वेदान्त शास्त्र का भ्र्थबोघ कर सकने के लिए उपयोगी रमदमादि-साघन-
सम्पत्ति से युक्त हों ।२ जिनमें ्रटूट॒गुरूभक्ति कौ भावना भरी हो। जो नित्य
कम श्रौर तप श्रादि से सम्पन्न हों ।९ जिनमें ब्रह्म श्रथवा चरमत्वं के प्रति
वास्तविक जिज्ञासा हो । साथ ही जो कर्मफल के प्रति विरत हों भ्र्थात् निष्कामं
कमं करनेवाले हों ।
शंकरमतावलम्बियों के द्वारा भ्रभिमत लमदमादिसम्पन्न सवकम -संन्यासी
को ब्रह्मज्ञान का सच्चा भ्रधिकारी मानना ठीक नहीं है। क्योकि संन्यास का
र्थं सर्वकरमेत्याग हरगिज् नहीं है 1 गौतमीय-तन्त्रादि ग्रन्थो में भी संन्यासियों
के सर्वकर्मत्याग का खण्डन प्रतिपादित किया गया है 19 श्रूति-परतिपादितः
१. ज्ञानामृतं गुरोः प्रोत्य शदेवेभ्यो चु दीयते 1३।-वि० भा० प° 5
२. द्रष्टव्य, विज्ञानामृतभेाष्य प° २७
३. यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरो । तस्यैते कथिता हयर्थाःप्रकाशन्ते
महात्मनः, इति भुतिः । इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चा-
लरुभूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसुयति ॥ इत्यादि स्मृतेदच ।-वि°भा०
प° २८ पर उद्ध.त।
४. गौतमीयतन्त्रे च--केवलंसततं भ्रोमच्वररणाम्भोजभाजिनाम् ।
संन्यासिनां सुमूक्ष्रणां तामसः कयितोविधिः \\
तथा-
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते 1
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीतितः ॥\
--वि० भा० पु० ९ पर उद्धत
१०३
रेति
॥
-१०४ | आचायं विज्ञानभिश्च
गुरूपगमन मे भी समित्पाणित्वलिङ्घ से भी होम का बोध होता है।१ प्रशान्त
चित्तादिपदों से भी केवल विद्याग्रहण के लिए उपयोगी या अ्रनिवायं शम का |
निर्देश किया है क्योकि श्रजनादि कमंपरायण लोगों को ब्रह्मविद्या का उपदेश ॥
दिया गया है।२ इस प्रकार से ब्रह्मविद्या-ग्रहण या ब्रह्मोपदेश-श्रवण के
ग्रषिकारी के लिए स्वैकर्मत्याग की स्थिति स्वीकार करना सवंथा दूषित
सिद्धान्त है ।* ।
श्रवणा के श्रनन्तर मनन होता है श्रौर मनन के पड्चाद् निदिष्यासन का
क्षेत्र प्रारम्भे होता है । श्रवण एवं मनन की गयी ब्रह्मविद्या का परं भ्रभ्यास
निदिष्यासन-वेला मे ही होता । सर्वाधिक महत्त्व की यही वेला होती है । श्रतः
इसके लिए सच्चा भ्रधिकारी कौन है--प्राचायं विज्ञानभिश्चु ने इस सिद्धान्त को /
भी स्पष्ट क्रिया है । श्रवण-मनन की गयी ब्रह्मविद्या के श्रम्यास का सच्चा भ्रधि- |
कारी वह् है जो-
योगशास्त्र मेँ बताये गये अ्रज्खों [श्रष्टाङ्ग योग] की साधना से सम्पन्न है । |
श्रवण श्रौर मनन के द्वारा जिसे कोमलकण्टकन्याय से शास्त्र-ज्ञान उत्पन्न हो
~ गया है । जिसे नित्यानित्यविवेक रा चारों साधनों की सिद्धि है।२ जो चान्त,
दान्त है रौर योगविरोवी कर्मो से उपरति रखता है ।४
ब्रह्मविद्याम्यास या निदिष्यासन के श्रधिकारियों के दो भेद ईै--१--मन्दा- |
धिकारी, २--उत्तमाधिकारो । मन्दाधिकारी वे है जो यहस्थाश्रम से लेकर
त्रिदण्डयाश्र मपयंन्त करिसी स्थिति में रहकर ब्रह्मवियाम्यास करे, भ्रौर परमहंस
लोग उत्तमाधिकारी कहलाते है ।५
१. समित्पारित्वलिद्ध न होमावगमाच्च ।--वि० भा० पु० १५
२. अजुंनादिकमिभ्योऽपि ब्रह्मविद्योपदेशदशेनादिति ।--वि०भा० प° १५
३. तस्मात्स्वकर्माणि संन्यस्य श्रवणं कुर्यादिति अपसिद्धान्तःकलिकतः
एव ।--विज्ञानामृतभाष्य पु° २६ $
४. शास्त्रोक्तविद्याभ्यासे पुनरधिकारौ योगशस्त्रीक्तयोगाङ्धादिसम्पन्नः
भवरमननाभ्यां कोमल कण्ट ककन्यायेनोत्पन्नज्ञानो नारदीयोक्तनित्या-
नित्यविवेकादिसाघनचुष्कवान /'शान्तो-दान्त उपरत इत्याद्य क्तश्रतेः
तत्नचोपरतिर्योगविरोधिकरमंम्यः उपरम इति ।-वि०'भा० पु २८
तत्रापि मन्दाधिकारी गृहस्थादिस्त्रिदण्डिपयन्तः उत्तमाधिकारी च पर-
महसः ॥--वि० भा० पु० २८
५
आचायं विन्नानभिक्षु के वेदान्त-सिद्धान्त १०५
ये भ्रधिकारी भ्रपने श्रधिकार के अनुकूल मोक्ष को साघना में प्रवृत्त होते
ह । उस साधना का विज्ञानभि्षु के मन में क्या स्वरूप होता है यह् सावना
प्रौर साघकोवाले' प्रकरण मे बताया जायगा 1
हाविद्या के विषय, प्रयोजन श्रौर सम्बन्ध
श्राचा्यं शंकर इत्यादि वेदान्तशास्त्र का विषय जीवब्रहयं क्य॒मानते ह । इस
मान्यता का विरोध करते हुए श्राचायं विज्ञानभिष्चु यह् सिद्धान्त प्रतिपादित करते
है कि गीताके वाक्य सही पता चल जाता है कि ब्रह्मसूत्रो का विषय ब्रह्य
है, ब्रह्मजीवैक्य नहीं । यदि ब्रह्यसूत्रकार को वही मानना भ्रमीष्ट होता तो इस
शास्त्र में पहला सूत्र श्रातो जीव-ब्रह क्यजिज्ञासाः दही होता 1 इसलिए इस
शास्र का विषय श्रह्म' ही मानना चाहिए । ब्रहम-सूत्रो मे जो जीव का निरूपण
हु्ा है वह् प्राणादि-निरूपण की भाति ब्रह्य-शेषतया गौण रूपसे हीहुप्रा
है ।२ यदि यह् कहा जाय कि वेदान्त के महावाक्यो का प्रतिपाद्य तो ब्रह्मात्मा
हीहै। तो इसका उत्तर यह् है कि ब्रह्मात्मता या ब्रहाजीवैकात्मता तो ब्रह्य के
पूं ज्ञान से स्वयम् श्राक्षित हो जाती है । भ्रतः इस शस्व का विषय ग्रसंदिण्
रूपसेब्रह्महीदहै।
श्रन्य सभी श्रास्तिकदर्शानों की भांति वेदान्तशास्त्र का भी परम प्रयोजन
मो्च-लाभ ही है 1 इसमे सभी श्राार्यो का एेकमत्य हे । इस परम् प्रयोजन भूत
मोक्ष-लाभ के स्वरूप के विषय मे जो मतभेद ह वे मोक्षवाले भ्ष्याय म प्रकट
किए जागे । सब शास्त्रों की भांति यहां परः भी विषय श्रौर शास्त का प्रतिपा्-
प्रतिपादक सम्बन्ध समना चाहिए ।
` ` ए मल्लप्वेवहडमदिमवििसित 1 इति भताव नरस
विबयतामावावगमात् --वि० भा० पृ° २१
२. जोवनिरूपरणं चात्र ब्रह्मशेषतयेव ्राणादिनिरूपरवद् ।
-वि० भाग प ३१
व्रह्म
सत्ता-सिद्वि
भ्राचार्य विज्ञानभिश्चु ने प्रकृति भ्रौर पुरुष दोनों से श्रतिरिक्त ब्रह्य की सत्ता
स्वीकार की है । प्रकृति श्रौर पुरुष ब्रह्य की श्रन्तर्लीन शक्त्यां है 1"
ब्रह्मा, विष्णु, महेशः हिरण्यगर्भ श्रौर नारायण इत्यादि साक्षात् ब्रह्म नहीं है २
ये तो ब्रह्म की व्यक्त शक्त्यां ह । कितने भी उच्व कोटि केक्योंनहोंब्रह्म-
विष््वादि हँ तो जीव ही । ब्रह्म के लिए पर्यायवाची शब्द ईश्वर ह । जीव
नहीं, विज्ञानभिष्ु ने ब्रह्य को परमेश्वर, महेश्वर श्रौर ईश्वर कहा है 1 भ्रन्य पदों
से इस परमतत्त्व का बोध नटीं होता । ब्रह्म कौ सत्ता में श्च्तिरयां भ्रोर स्मू-
तियाँ प्रमाण है ।° निदिध्यासन केष्रारा भी योगि-जनों ने ब्रह्य का साक्षात्कार
किया है भ्रतः प्रमाण-रूप से योगज-प्रतयक्ष को भी स्वीकार क्रिया जा सकता
है ।* अ्राचायं विज्ञानभिश्च ने ब्रह्म या ईख्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिए भ्रनु-
“ मान का भी श्राश्नय ग्रहण किया है< जिससे कि तीनों प्रकार के प्रबल प्रमाणो
१. परमेश्वरादन्तर्लानप्रकृतिपुरुषाण्यखिलदक्तिकाद् ।-- वि ० भा० १० ३२
काल ओर अहृष्ट आदि भो श्रकृत्यादि से उपलक्षित
अस्तित्व वाली ब्रह्य की अन्तर्लोन शक्तिर्या ही है, एेसा ही समना
चाहिए ।
२. अतोविष्ण्वादिदेवानां न साक्षादीह्वरावतारत्वम् 1--वि० भा० पु°
१३३११३५ ओर १३७ भी इस विषय भे द्रष्टव्य है 1
३. परब्रह्यण्येव रूढिः ब्रह्मरब्दस्योक्ता । तथा विष्णुपुराणेऽपि परमेश्वर
एव ब्रह्यगन्दस्य शक्तिरुक्ता !-वि° भा० पु० ३७
४. तत्र श्रुतयः स्मृतयश्च प्रायेण प्रमारत्वेनोपन्यसनीयाः 1-वि°
भ्रा पु ७०
५. योगिप्रत्यक्षादिकमपि ब्रह्मणि प्रमाणं ‹ भवति । (आत्मा वाऽरे.
द्रष्टव्यः भोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इत्यादि शरुतिः ।
-वि० भा० पु० ७०
६, कदाचिच्च संशयस्थलेऽनुमानमप्युपन्यसनीयम् “उपपत्ते इच" त्यादिसुत्रैः 1
.-वि° भा० धूण ७9
॥
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्ान्त | १०७
क दवार सिद्ध किये गये तततव क विषय मँ सी को सेह करन , का रका
रह् जाय । बरह्मसिद्धिविषयक भ्रनुमान का स्वह यह् ६-
पहली कडी-चुदधि इत्यादि सारे कायं उपादान-गोचरःप्रयक्ष-जन्य है ।
(१) कायं होने के कारण,
घटादि की भांति
(कायं मे उपादान गोचरपत्यक्ष वृत्ति ही देतु बनती है चैतन्य नहीं प्रयल~
लाघव की दृष्टि में)
दूसरी कडी--वुद्धि, इत्यादि सारे कार्यो का मूल कारण, कारणसक्तव है \
(२) उपादानगोचरवृत्तीच्छाङृतिमज्जन्य होने से,
ग्रतः कारणसक्व की सत्ता सिद्ध हो जाती ह
तीसरी कडी--इस कारण-सत्व का भोक्ता कोई एतदतिरिकत सत्ता है।
(३) इसके श्रन्य से भोग्य होने के कारण,
[अर्थात् इसके इच्छाकृतिमत्वादि के कारण]
जीवोपाधि की भाति 1
इस प्रकार से कारणस्व के भोक्ता के रूपमे ईश्वर की सत्ता का स्पष्ट
्ननुमान किया जा सकता है ।२ कारणसर्व का भक्ता कारणसतत्वाविस्कत ईरवर
या ब्रह्य है--यह निरिचित होता है 1 ्रति-स्मृतियो से श्रवण करके, उपर कहे
गये श्रनुमान से मनन करने के पङ्वात् योग के दारा भूमिका के कम से
मन की सहायता से ब्रह्म का श्रशेषविशेषतः साक्षात्कार किया जा सक्ता ह ए
मान्यता की पृष्कल पुष्ट शरतियां भौ करती है ।*
ब्रह्म कां स्वरूप
यद्यपि ब्रह्य श्रतीन्दरिय है तथापि योगज-प्रत्यक्त से उसके स्वरूप कौ प्रतीति
हो सकती है 1 इसके दो कारणं है 1 पहला तो यह् किं शरवस्तुभूतविेष मान कर
१. द्रष्टव्य, वि० श्रा पुर ७९१
२. कारणसत्त्वभोक्तृतया इहव सोऽ्तुमेयइति --वि० भा० १०५० ध
३. इाब्दादिमात्रेण सामान्यतो जञाने जति मिकाक्रमात् स्वय
अशेषविशेषतः साक्षात्कयत इत्यवगमात् वि |
४ " एतदभरमेयं ध्र
४. अन्यथा "वेदश्च सर्वैरहमेव मनसवानुद्ष्टव्यम् र
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पर्यन्त सुरय' इतयादिभूतिविरोषापत
रिति-वि० ना पुर ७१
पणि
१०८ | आचायं विज्ञानभिक्षु
योगज-श्तयक्ष संभव है श्रौर दुसरा यह करं योगजघमं की राक्ति भ्रचिन्त्य है, एेसा
सभी शास्त्र मानते है ।* मन को विभुः मानने पर मन का सर्वत्र संयोग हो
सकता है श्रौर उसे परिच्छन्न मानने पर भी योगज प्रत्यासत्ति के द्वारा ब्रह्म-
साक्षात्कार, सर्वथा सम्भव हैर । शांकरमतावलम्बी वेदान्तियो के द्वारा प्रति-
पादित ब्रह्य भँ वृत्तिव्याप्यत्व की स्वीकृति श्रौर॒फलब्याप्यत्व [अर्थात् श्रनुभव-
व्याप्यत्व | का निषेव सर्वथा श्रप्रामाणिक ह ।* श्रनुभवन्याप्यत्वं न स्वीकार करने
पर ब्रह्म के सम्बन्ध मेँ कोई व्यवहार ही, (श्रवणमनननिदिघ्यासन भ्रादि कोई
व्यवहार सम्भव नहीं हो सकेगा । यह् कहना कि वह स्वप्रकाश है इसलिए तद्विषयक
व्यवहार) सम्भव है--भी भ्रान्ति ही है। इसमें निरर्थक कल्पनागौरव है ।“
उनका यह कहना क्रि कमकतृ विरोध की श्रारद्धा से भ्रौर स्वध्रकाशत्व कौ
्रनयथानुपपत्ति से ब्रह्यानुभवरूप व्यवहार में स्वविषयानुभव हेतु नहीं सम्भव है।
इसका जोरदार खण्डन करते हुए श्राचायं विज्ञानभिश्ु ने कहा है कि--
हम ब्रह्म की प्रकषपत्वरूप स्वप्रकाशता नहीं मानते हैँ प्रौर न ही हम जीव
रह्म का भ्रलण्डत्व मानते है जिससे कि जीव के ब्रहयज्ञान मे कर्मेकतृं विरोघ पड़
सके 1 सच तो यह् है कि श्रवण्डाठमा माननेवालों के लिए भी ।स्ांख्ययोगोक्त
जीव की स्वसाक्षात्कारक्रिया के द्वारा ब्रह्म-साक्षात्कार मानने मेँ भी कमकत
विरोध नहीं पड़ता । भ्रतः स्वप्रकाश होने पर भी ब्रह्य के स्वरूप का साक्षात्कार
योग क द्वारा किया जा सकता है श्रौर तभी उसके स्वरूप की की देखने को
भ्रात हो सकती है ।£
ब्रह्म चिन्मात्र है ।° चैतन्य या चेतनता ब्रह्म का गुण नहीं है श्रपितु द्रव्य-
विशेष है ।< इसमें घम प्रौर धर्मी का विभाग नहीं है । इस चिन्मयता भ्र्थात् ज्ञान-
मात्रैकरूपता के कारण ब्रह्म को शास्त्रों में सवंज्ञ भी कहा जाता है । ब्रह्य भ्रानन्द
द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ७२
द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ७२
द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ७२
तत्रैताहाशकल्पनायां प्रमाणादकेनात् 1-वि० भा० पु०७२
तद्विषयकन्ञ।नस्यतदन्यवहारहैतुत्वकल्पने गौरवात् ।-वि ° भा० पु०७३
द्रष्टव्य, वि० भा०पु० ७२-७४
तस्मे नमध्िचन्मात्ररूपिणे।\--वि° भा० प° १
चेतन्यं चाट्मनो न गुणःकिन्तु द्रव्यविदेष एव घमंरघामिविभागरून्यस्चेतन
इतिचेतन्यमिति चोच्यते ।-वि° भा० प° ६२
भ & < < % & ~ ८
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्त सिद्धान्त | १०९
स्वरूप नहीं है । श्रतः उसमे सच्चिदानन्दरूपता की कंल्पना । भ्रान्ति है । जो
चित्मात्र है वह् चैतन्य के श्रतिरिष्त। म्ानन्दादि रूप नहीं हो सक्ताः । शरुतियो
् द्वारा एकरस प्रतिपादित किये जाने के कारण ब्रह्य मे ज्ञानरूपता श्रौर ्रान्द-
रूपता का प्रकार-भेद नहीं माना जा सक्ताः । ब्रह्म मे श्रानन्दमयता श्र तियों ने
केवल भेदपरता के निङ्वय कराने के लिए प्रतिपादित की है जैसे स एको ब्रह्मण
श्रानन्दः 1 विज्ञानमयादन्योऽन्तर श्रात्मा ्नानन्दमयश्च २ इत्यादि । इतना ही
नही, श्रुतियो न ब्रह्य की श्रानन्दरूपता का स्फुट प्रत्याख्यान भीक्रियाहै।°
समृतियों ने भी ब्रह्य को सुखरहित प्र्थात् श्रानन्दुन्य बताया दै 1 ्रानन्दादि
वस्तुतः प्रधानः के धमे है। स्थूल-दुष्टिवलि उपासकों के लिए ही ब्रह्य की
उपाधिभूत ध्रवान' के घमं की-कटीं श्रुतियो म ब्रह्म के सम्बन्व में कह दिए
गए रै । ्रानन्दयुक्तता भी वैसेही कही गयी समी जानी चादिए । इस प्रकार
से ब्रहम श्रानन्द स्वरूप नहीं है ्रपितु श्रानन्द उसका श्रौपाधिक धमं है ।*
ब्रह्म वस्तुतः श्क्षर दै । कूटस्थनित्य है । ्नौर निगुण है। जीवों रौर
सकल प्रकृतिप्रसूतपदार्थो का लयाघार होने के कारणं वहं ्रन्र्यामी भी कटा
जाता.है 1 यहं ब्रह्म॒ही भ्रन्तिम सत्तः है क्योकि सभी प्ख उसके प्रय रै
र्यात् उसकी शक्ति-मात है 1 सकल बोधो श्रौर भोगों का साक्षिमात्र होने से
ही वह भोक्ता कहलाता हे । योगशास्व मे बताए गए ईव के लक्षणप्मेभी
इस प्रकार के साक्षित्वं खूप भोक्तृत्व का कोई निषेव नदीं है । इससे स्पष्ट है
१. एतेन ब्रह्मणः मानन्दं रूपत्वमपास्तम्' नैकस्यानन्दचिद्रपत्वेविरोषा-
दिति सांख्यसुत्रोक्तन्यायाच्च ।--वि° भा० पुर ६३
२. ज्ञानत्वसुखत्वरूपं प्रकारभेदश्च त्वयापि नेष्यते एकरसत्वभुति-
विसेधाच्च !--वि° भा० ५० ६३
३. वि० भा० प० ६४ पर उद्धत भु
४. नानन्दं न निरानन्दं विदन् हरषश्षोको
पर उद्ध,त 1
॥
जहाति (-वि० भा प० ६४
सम्यरध्यानायेवोक्ताः शरु श्रुतिषु ४
७. लित्यत्वादिनास जातीयत्वस्योपपादिततया जीवो ४ प्ति
* } ~ !च्० 9 9 ६१
१ पत्रः 1-वि० भा व ३ सषवत वर --यो० स्० ९ ९५
११० | आचायं विज्ञानभिक्षु
"करि जीव के भोग से यह ईदवर-भोग॒ सवथा विलक्षण है।* बह्म विभुहै।
-निरतिशयवृ हत्वात् ही से तो उसे ब्रहम या परब्रह्म कहा गया है । ब्रह्मपद
-पद्कुजादि की भाति योगरूढ ही समना चाहिये । इसलिए शाङ्खरमत के विप-
रीत ब्रह्मशब्द का मुख्याथं जीव कभी नहीं हो सकता । हिरण्यगर्भादि का भी
-बोध ब्रह्मशब्द के मुल्याये के रूप सजीव कभो नहीं हो सकता । हिरण्यगर्भादि जीवों
के लिए जहाँ कहीं भो ब्रह्मशब्द का प्रयोग हुश्रा है वह विभुत्वसर्वाधारत्वादि गुणों
क्केयोगके कारण गौणरूपमेंदही।
ब्रह्म की उपाधि
यद्यपि ब्रह्मा या ईश्वर नित्यशुद्धवुद्धमुष्तसत्यस्वभाव् है तथापि पुरुष श्रौर
श्ङृतिरूपिणी श्रपनी श्रन्तर्लीनि शक्तियों के द्वारा होनेवाली सृष्टि इत्यादि
समस्तव्यवहारकाल में वह् उपाधियुक्त या उपाधिविशिष्ट होता है । विशुद्धसत्त्वा
माया ही उसकी उपाधि बनती है ।२ स्मरणीय यह है कि ईवर भी विभु है
्नौर उसकी उपाधि भी विभु हैश्रौर दोनों का संयोग भी नित्य है। इसलिए
सृष्टि, स्थिति ओर लय कौ परम्परा निर्बाच रीति से चलती रहती है । चूंकि
विना उपाधि के माने ईख्वर का इच्छादिकतृं त्व सिद्ध नहीं होता इसलिए इच्छा-
दिकतृं त्वानन्यथानुपपद्या ईरवरोपाधि कौ सत्ता सिद्ध होती है 1 ईश्वरोपि कौ
जीवोपाधि से विलक्षणता स्पष्ट श्रौर निरिचत है । ईदवर मे कारणोपाधि
नौर जीवों में कार्योपाधि रहती है 1* ई्वरोपाधि नित्य विशुद्धसत्व कीरै भरतः
ईरवर के उपाधि भोग के लिए किसी इन्द्रिय या श्रंतःकरण की भ्रावश्यकता
नहीं होती ९ ईर्वरोपाधिभूत विशुद्धसत्त्वा माया को श्रविद्या नहींक्टाजा
१. नत्वीदवरो जीववत्कामजन्यं सुखंभुक्ते इति दिक् ।--वि° भा० १०१८५
२. अन्यजीवेषु ब्रह्मशब्दप्रयोगोऽशांश्यभेदोविथुत्वसर्वाघारत्वादिगुणखयोगा-
टेति बोध्यम् ।--वि० भा० पु० ३८
३. किन्तु केवलम् नित्यज्ञानेच्छानन्दादिमत्सदैकरूपम् कारणसत्वमेवतस्यो-
पाधिः ! ईदवरगीताभाष्यम्, पाण्डुलिपिः ।
ॐ, न हि चिन्मात्रस्योपाधिद्वारतांविना इच्छादिकं सोऽकामयत तदात्मानं
स्वयमकुरतेत्यादि प्रयुक्तं सम्भवतीति --वि० भा० पु० ९०
.५. कार्योपाधिरयं जीवःकारणोपाधिरीदवरः । इतिभुतिः- वि भा०
पु० ९७ पर उद्ध.त
.६. ब्रह्मकरणवन्नभवति कुतः भोगादिप्रसङ्खात् {जी ववत्युखदुःखादिभोगस्य
रागद्धे षादेकच प्रसङ्कादित्यथः \--वि° भा० पु° ३१९
.७--ईहवरोपाघिर्मायाख्य उक्तः ।--वि० भा० पु० ९९
।
|
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्त सिद्धान्त | १११
सकता भ्रविद्या तो जीवोपावि का भ्द्ख है । यह माया प्रकृति का एक् खूप श्रवस्य
है। इस ईरवरोपाधि का रूप स्पष्ट करते हुए भ्राचायं विज्ञानभिश्चु ने प्रति-
पादित किया है कि यह् नित्यज्ञानः नित्येच्छा एवं नित्यानन्द से युक्त रहती
है । इसे माया कहते रै श्रविद्या नदीं 1" यह् ईरवर के सट्यसंकल्पादि की श्राघार-
भूत है । ईदवर की श्रन्तरङ्ध है। इसको प्रमुख विरोषता तो यह है कि यह्
परिणामिनी है 1९ कदाचित् इसके श्रपरिणामित्व गुण के ही कार्ण विष्णएु-
पुराण मे इसे प्रकृति से भिन्न सत्तावाली माना है। कितु भ्राचायं विज्ञानभिधु
ने इसका प्रवेश प्रति के ही भ्र॑तगंत माना है।९
जके दो रूप
यद्यपि ब्रह्य अ्रविक्ारी श्रौर चिन्मात्र है फिर भो भ्रविष्ठान रूप से वह जगत्
का उपादान कारण वनता है" क्योकि प्रकृति के माध्यम से उसकी कारणता
श्रघुण्ण है ।“ उपाधि सं विकार-पूणं कृत्यो की निमित्त-कारणता मानने में
कोड श्रनिष्टापत्ति नहीं दै । सोपाधि तह्य केदो शरीर भ्रुतियों मँ बताये गेह
जैसे कि जीवके दो शरीर होतेः है। एक दारीर सूक्ष्म कहलाता हैश्रौर दूसरा
स्थूल । सभी विकारपूरूणं कर्यो का भाधार-रूप नित्य विशुद्धसत्त्व (स्वयम्
उपाधि या) माया ही ब्रह्यका सूक दरीर है 1 तथा साक्षात्प्रयत्नजन्यक्रिया
खूप चेष्टाग्नों का श्राश्रयरूप भ्रन्य जीव-जन्तु एवं निर्जीव पदाथं उसके स्धरूल
खूप ह ।° शास्त्र मे ब्रह्म के इन सोपाधि शरीरों का प्रतिषेव नहीं किया गया है,
१. शुक्तिरजतायविदयायां माया जब्दाप्रयोगाच्च !--वि° ना० १० १२६
२. ईकशोपाघेःअपरिणामित्वेऽपि जउत्वसाधर््यंण प्रकृतिमध्येप्रवेसम्भवा-
च्चेति ।--वि० भा० पु° १२७
३, अत्र तु समानतन्त्रपातञ्जलसिद्धान्तत्वादानन्दादयः प्रधानस्येत्यागामि-
सुत्राच्च $डवरोपाघेः प्रधाने भवे एव सुतरकाराभिभ्रतो जडत्व-
साधर्म्यरत्यवगम्यत इति ।--वि ° भा० ९० ४५५
४, तदेवं तमन्वयसूतरेएाविकारिचिन्मात्स्यापि ब्रह्मरणोऽधिष्ठानत्वेन
जगदुपादानत्वमुपपादितम् --वि० भा० पु० १०९
५. वेदा्तेऽपिश्रुदधचिन्मानस्य ब्रह्मः
जगदुपादानत्वम् (--वि० भा० पु० २७२
६. जीववत्परमात्मनोऽपि शरीरदयवत्वात् "यस्य सर्वेशरीरम्' इत्यादि-
श्रुतीनां गौणएत्वानोचित्यात् (--वि०भा० पु० १००
७, द्रष्टव्यः वि० भा० परण १००
बरह्मोपाघेरेव
[व ` =^
११२ | आचार्यं विज्ञानभिक्ष्
केवल इन्दरियाश्रयरूप शरीर का ब्रह्य के विषय में निषेध है। श्रतः ब्रह्य की
| विराद्-रूपता कै प्रतीक इन सूक्ष्म श्रौर स्धरूल शरीरों को प्रतिपादित कियां
| गया है । इससे ब्रह्य कौ श्रविकारिता या चिन्माच्रता या निग्णता नें कोई वाधा
न सममनी चाहिए । यह शरीर-भेद तो वस्तुतः उपाधिसंयक्त रह्म कीदुष्टिसे
बताया गया है । यह् कथन संसार-सापक्ष है ।
जहाम जगत् का अरपिष्ठान कारण है
॥ इस श्रचिन्त्यरचनात्मक जगत् का जन्मस्थितिलयादि भ्र्थात् उत्पत्ति या
विकास श्रादि परमेश्वर से होता है । क्योकि बरह्म मे प्रकृति पुरुष श्रादि श्रखिल
शक्तिं ग्रन्तर्लनि रहती है ्रौ र स्वतः चिन्मात्र होने पर भी वह॒ विशुद्धसत्त्वाख्य-
मायोपाचि युक्त है ।* महदादिक्रम से विकसित होनेवाला यह सारा जगत् इसी
ब्रह्म परं भ्रषिष्ठित है । यह् त्र्य इस जगत् का श्रषिष्ठान कारण है ।२
भ्रधिष्ठान कारण उसे कहते है जिस भ्रावार से भ्रविभक्तः तथा उपष्टन्धण
होकर उपादान कारणा कायं रूप मे परिणत होताहै । जैसे सृष्टि केश्रादिमें
जल से अ्रविभक्त पृथिवी के सूक्ष्मांश (्र्थात् पाथिव तन्मात्रा जल) के द्वारा
| उपष्टव्व हो कर पृथ्वी के ्राकार में परिणत होते हैँ इसलिए जल, स्थूल पृथ्ती
| का भ्रधिष्ठान-कारण है स्मृतियों मे भी भ्रधिष्ठानकारण रूप से महेद्वर को
। माना गया है“ । इसी प्रकार से ब्रह्म से श्रविभक्त प्रकृत्यादि, ब्रह्य के साक्षित्व-
मात्र से उपष्टन्ध हो कर जगत्-रूपी कार्यं के भ्राकार में परिणत होती है 18
| भतः त्रह्य जगत् का कारण भी सिद्ध हुश्रा श्रौर उसमे विकारित्वं कामी
| भरसङ्ग नहीं भ्राया । साथ ही प्रकृति अथवा पुरुषादि शक्तियों मेँ मूलकारणता
|
|
का भ्रतिप्रसङ्ग भी न हुप्रा ।७ इस प्रकार से भरषिष्ठान-कारण के साथ ही साथ.
४
१. द्रष्टव्य, वि° भा० प° ३१-३२
२. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ३२
३. अविभागचाधारतावत् स्वरूपसंबन्धविशेषोऽत्यन्तसंमिश्नररूपोदुग्ध-
| जलाद्य कताप्रत्ययनियामकः !- वि० भा० पृ० ३३
॥ ४ यस्य यत्कारणं प्रोक्तं तस्यसाक्षान्महेदवरः । मषिष्ठानतया स्थित्वा
सदवोपकरोतिहीति ।--वि० भा० प° ३२ पर उद्धृत
| ५४ विकारिकारणवदविष्ठानकाररस्यापुपादानत्वव्यवहरात् कार्या-
विभागाधारत्वस्येवोपाद नसामान्यक्षणात् ।--वि० भा० पु० ३३
द्रष्टव्य, वि० भा० प० ३१
| ७. भत एवाविकारिचिन्मा्त्वेऽपिब्रह्मणो जगदुपादानत्वं जगदभेदक्चोप-
पद्यते ।--वि० भा० पु०° ३३
“.
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | ११३
ब्रह्म जगत् का उपादान कारण भी सिद्ध हुग्रा क्योकि उससे ्रविभक्त रहकर
भ्रौर उपष्टन्य हो कर ही तो प्रकृत्यादि का परिणमन कार्यल्प में हुजा है, वैशेषिक
भ्रौर सांख्य सिद्धान्तो से भी यह् मत श्रविरुद दै। पदावली मेंभते ही थोडा
भ्रन्तर हो । वैरोषिक लोग ब्रह्म को निमित्त कारण कहते हैँ । श्रौर हम लोगों
की दृष्टि में ब्रह्य, संसार का, समवायि श्रसमवायि से उदासीन तथा निमित्त
कारणों से विलक्षण चौथे प्रकार का श्राधारकारण म्र्थात् श्रविष्ठानकारण
है 1“ इस प्रकार से ब्रह्म की उपादान-कारणता उसकी श्रन्तर्लीन परिणामिनी
शक्ति प्रकृति के वल पर सिद्ध हुई । जगत् का कतं त्व भी ब्रह्म मेँ कटा जाता है ।
यह कतर त्व ब्रह्म की उपाधिभूत शुद्धसत्त्वा माया के वल पर है। यहु माया
भ्रपरिणामिनी है । हम जानते हैँ कि कतं तव एक प्रकार का निमित्तकारणत्व ही है ।२
इस प्रकार से जगत् का अ्रधिष्ठानकारण श्रौर कर्ता होने के कारण ब्रह्य जगत्
का श्रभिन्ननिमितोपादानकारण भी सिद्ध हुभ्रा 13
१. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ३३
२. ब्रह्मणश्च जगत्कतु तवं स्वोपाधिमायोपाधिकं, परिणामित्वरूपोपादानत्वं
्कृतितलत्कार्याद्योपाधिकमपीष्यत एव ।--वि० भा० पु० ३४
३. एतेन जगतोऽभिननिमित्तोपादानत्वं व्याख्यातम् ।--वि० भा० पु० ३४
फा०--८
नीत का स्वह्प
नगत् द्विधा भासमान होता है--चेतन रूप मेँग्रौर भ्रचेतन रूपमें। चेतन
्रौर प्रचेतन तत्त्वो का ही नाम क्रमशः पुरुष श्रौर प्रकृति है । ये दोनों ईरवर
या ब्रह्म की भ्रन्तर्लीन शक्तियाँ हैँ । चेतन-रवित कार्योपायि से प्रवच्छिन्न होकर
जीव कहलाती है । ब्रह्य शब्द का प्रयोग जीव के प्र्थं में मुख्य रूप से कभी नहीं
किया जा सकता । विभत्वसर्वाधारत्वादिगुरासाम्थ के योगसे भले ही कभी
गौण रूप में ब्रह्य शब्द का प्रयोग जीव के लिए कर दिया गया हो । बन्ध भ्रौर
मोक्ष जीव कोटी होते हँ परमेश्वर को कभी नहीं । यह वात श्रौरदहै किये
बन्धमोक्षादि जीव को भी स्वरूपतः न होकर श्रौपाधिक रूप से होते हैँ । इसी-
लिए जीव को उपाधि कार्योपाधि या मलिनसत्तवप्रधाना कही गयी है जव कि
ईङवर की उपाधि कारणोपाधि या विशुदधसत्वप्रधाना है ।
जीव एक नहीं ्रनेक हैँ । भ्रनेक जीव न मानने पर बन्धमोक्षादि व्यवस्था
की भ्रनुपपत्ति होगी । बन्धमोक्षादिव्यवस्या के कारण ही जीवनानात्व मानने के
गौरव को भी स्वीकार किया जाताहै।* यदि जीव को केवल एक ही मानें
मरौर ग्रनेक उपाधियों मे भेद मानें तो भी बन्धमोक्ष-व्यवस्था श्रसम्भव ही रहेगी
क्योकि एक ही जीव जव नाना उपाधियों से संयुक्त रहेगा तव निर्चित रूप से
उसे मोक्ष-लाम कभी हो ही नहीं सकेगा । प्रतः जीव का श्रनेक होना ही सिद्ध
है ।२ तो प्रदन यह् उठता है कि फिर ॒विज्ञानभिश्चु जो श्रदवंतवादी बनते हँ यह
स्थिति कंसे सम्भव है? इस शंका को समाहित करने का उनके पास
साधन यह है कि वे जीवों मं जातिपरक एेक्य ही मानते हैँ । जीव श्रौर ब्रह्मम
भी यही सामान्याद्रं त या जातिपरक श्रद्रतहै। इस चिन्मावत्व सामान्यकी
दष्ट से जीवों के वीच परस्पर तथा "जीव" श्रौर परमात्मा के बीच श्रद्रैतही
सिद्ध होता है ।
१. बन्धमोक्षव्यवस्थानुपपत्तिप्रमारसिद्धतया आत्मनानात्वगौरवस्यं वादतंव्यत्वात्
-वि० भा०प्.० ४२
२. उपाधिभेदे सत्यपि एकस्येवात्मनो नानोषाधियोगः स्यादतो न व्यवस्थेत्यर्थः ।
--वि० भा०प्.० ४६
३. जातिपरकत्वात्चित्सामान्यद्रे तपरत्वात् श्रुती नामित्यथं : ।
--वि० भा० पृ० ४७
आचाय विन्ञानभिश्चु के वेदान्तसिदान्त | ११५
सृष्टि के पूर्वं भी शक्ति-सम्बन्य से ईदवरापिष्ठेय जीव की सत्ता थी ।
५ जीव श्रौर ब्रह्म का पूरणं एवय भर्थात् पूं श्रमिन्तता श्रलवत्ता श्रसम्भव है।
| | क्योकि विना स्वरूपभेद के ईदवर भ्रौर जीव का प्रविष्ठात्रधिष्ठेयभाव श्रसम्भव
है । इपलिए अ्रखण्डेकात्म्य कौ स्थिति सर्वथा श्रमान्य दै।१ जीवों श्रौर ब्रह्म के
मध्यवर्ती सम्बन्ध में प्रंशांदिभाव ही मानना चाहिए । २ भ्रंश नौर श्री मे भेदा-
भेद दोनो है । यदि यह का उठे कि भेद श्रौर ग्रभेद धिरोधी शाब्द हं इसलिए किन्दीं
दो वस्त्रों मेँ मेद श्रौर प्रभेद दोनों एक साथ प्रसम्भव हं? तो उसका समाधान
यह है कि कालभेद से भेद श्रौर अभेद दोनो स्विति सम्भव तथा युक्तियुक्त है ।
जीव श्रौर ब्रह्म में श्रात्यन्तिक या सवंकरालिक ग्रन्योन्याभाव है । इसमें कोई सन्देह
हीं । शक्ति च्रौर राक्तिमान् का ग्रविभाग नित्य दी माना जाना चाहिए ।२
इस प्रंशांशिभाव का वास्तविक स्वरूप भरस्तुत करते हृए विज्ञानभिष्चु लिखते
ह कि श्रंशत्व का अ्रथं है सजातीय होने पर अविभाग का प्रतियोगित्वं श्रौर
भरंशित्व का ्रथं है उसका परनुयोगित्व ।* सजातीयत्वं का अ्रथं है ्रन्यत्वसाक्षाद्
व्याप्यजातित्व' श्रौर विभाग का भ्रं है 'लक्षणान्यत्व' भर्थात् श्रभिव्यक्तघरमेभेद'
तथा श्रविभाग का श्रथ है लक्षणान्यत्वाभावः ग्र्थात् श्रमिव्यक्तव्मं
भेदाभावः" । ्रविभाग को इस प्रकार भी समभना चाहिए कि अ्रविभाग एक
संयोगविशेष या स्वरूप-सम्बन्ध-विशेष है।* जल श्रौर दविलवण का जिस प्रकार
से समुद्र मे श्रविभाग कहा जाता दै उसी प्रकार प्रकृति भ्रौर जीव का ब्रह्य में
श्रविभाग सम्बन्व समभना चाहिए ।
भ्रशांशिभाव सम्बन्व स्वीकार करने पर एक स्वाभाविक सन्देह उठता है
कि वह्यतो निरवयव है उसमें सावयवपदार्थो के विभागों या भ्रंगोंकी भांति
(| चायस्ुपाधिसंबन्धात्पुवंमधिष्ठेयाधिष्ठातृभावो निरशस्यात्मनः स्वर्प-
भेदं विनोपपद्यते ।-वि० भा० पुरत
२. तस्माद्भेदाम्यां जीवन्रह्यणोरंशांदिभाव एव ब्रह्ममीमांसासिदान्तोऽ
वधारणीयः ।--वि० भा० पु० ५०
३. भ्रंशांहिनोङच भेदाभेदौ विभागाविभागरूपौ कालभेदेन अविरुद्धो,
अन्योन्याभावज्च जोवत्रह्मणोरात्यन्तिक्त एव तथा शक्तिरक्तिमद
विभागोऽपि नित्य एगेतिमन्तव्यम् !--वि० भा० पु० ५१
४. अंशत्वं च सजातीयत्वे सति अविभेगप्रतियोगित्वम्, तदनुयोगित्वम्
चांरित्वम् ।1--वि० भा० पृु०५१
4. अथवास्तु अविभाग : संयोगविशेषः स्वल्पसम्बन्योवा आषेयत्वादिवत् 1
--चि० भा० पु० ५१
११६ | आचार्यं विज्ञानभिक्षु
ध्रंरांशिभाव की कल्पना कैसी ? इस सन्देह को निर्मूल करते हुए भ्राचायं विज्ञान-
भिक्चु लिखते है कि जिस प्रकार का भ्रंशत्व हमने माना है वहं ग्रवयवरहित
पदार्थं मे भी संभव है । जैसे शरीर का श्रवयवन होने पर भो केशादि शरीर के
रंश कहे जा सकते हैया राशिभूतवस्तु का प्रवयव न होने पर भी उसमे का एक-
देशा उसका भ्रंश हो सकता हैयाजैपे शरीर का भ्रवधव न होने पर भौ पुत्र
पिता का भ्रंश कहलाता ठै? वैसे ही सभी जीव पिता मे पुत्रों की भांति नित्यस-
्वावभासनलील चिन्मात्र ब्रह्म सं विषयभासन-रूप-स्वलक्षण को त्याग करं प्रलय
लक्षणानन्यता या ग्रभिन्यवतघर्म-मेदाभाव को प्रास होते हैँ । सृष्टिकाल सेंत्रह्यकी
ङ्च्छासे कालमें चैतन्य ही ब्रह्म से फलोपघान को प्राप्त करके वैसे ही उत्पन्न
(आविर्भूत) हो जाते ह जैसे पिता से पूत्रगण॒ । प्रतः जीवों को ब्रह्म का भ्रंश मानना
चाहिए 1१ श्रात्मा वै जायते पुत्रः इस श्रूति सेभी जीव श्रौर ब्रह्य का पृत एवं
पिताकी भांति ग्रविभागलक्षणाभेद सिद्ध होता है। भ्रतः श्रंरा शब्द का इसी
ग्रथ मे ग्रहण करना ठीक है। पिता, पत्र ग्रौर श्रचिस्पुलिङ्ध की भांति
यह माना जाना चाहिए, भ्राकाश की भाति नहीं आकाश की भाति मानने
ने गौरा्थंत्वादि भ्रनेक दोष प्रसक्त होगे 1२
यदपि जीव भी ब्रह्य को आंति स्वरूपतः विभु एवं चिन्मात्र होते है तथापि
उपाघ्यवच्छेद के कारण शभिव्यक्तपरिच्छिनचैतन्य होने से चित्गारियों की
भाति होतेह 1 शुद्ध ल्पमें जीव भी श्रसङ्ध, असंसारी, विमु श्रौर सर्वाधार
होते दै। पर उपाधिमालिन्य के संयोग से उनकी सारी सांसारिकता है 1 जीव में
चैतन्यफलोपधान कादाचित्क है । वाचारम्भणमात्र है । जीव ईरवर-परतन्त् है
नौर श्रल्प है 1* चिच्छवित के प्रमुख्य योग के कारण जीव गौणात्मा हैश्रौर
ईहवर मुख्य ्रात्मा है । सर्वज्ञता स्वतंत्रता के कारण जैसे कि प्राण मुख्य हैश्रौर
्रनेक कारण गौण है । इसी कारणं ईकवर परात्मा या परमात्मा है, जीव
~ न्द
१. सर्गकालेच तदिच्छया तत एव लब्ध चैतन्यफलोपधाना आविभेवन्ति
पितुरिव पुत्रा अतो जीवाः ब्रह्मांला भवन्ति --वि० भा० पुर ५२
२. आका्षवदंशंदिभावाश्रयणोऽकनकन्दस्यगौरत्वंस्यात् । घटाकालोह्याका-
जाद् विभक्तो न भवति लक्षरणान्यत्वाभावात् घटाक्ताङधर्माणासप्या-
कारधमंत्वात् अवच्छिन्न चांशशन्दवदिति गौरोऽवयवादिङान्दवदिति 1
अतोनैवाकारावदंशत्वं ब्रह्ममीमांसार्थः ।--वि° भा० प ५२-५२
३. जीगेषुचेतन्यफलोपधानं कादाचित्कतया वाचारस्भणमात्रम् ईइवर-
परतन्त्रम् सदल्पं चेति 1--वि° भा° पूर ५६
आचाय विज्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | ११७
भ्रपरात्मा है, ईदवर श्रेष्ठ श्रात्मा है, जीव श्रध्रष्ठ श्रात्मा है, ईदवर मुख्यात्मा
है रार जीव गौणात्मा है ।\ ।इस प्रकार से जीव ब्रह्म का वास्तविक सम्बन्व
खण्डैकात्य श्र्थात् श्रविभागलक्षणाभेद या श्रंशांशित्व रूप का है ।
इस प्रकार जीव श्रौर ईखवरमें ्रंशांलिभावसे विभागरूपी भेद श्रौर
श्रविभागरूपी श्रभेद सिद्ध हूभ्रा । विशेष .घ्यान देने की केवल एक वात ठैकि
भ्रादि श्रौर श्रन्त में चकि नित्य जीव श्रौर नित्य ब्रह्म मे श्रविभागरूपी श्रभेद ही
रहेगा, इसलिए वही सत्य श्रौर पारमाधथिक है । बरौर चकि मध्य मं उपाधिके
स्वल्पावच्छेद के कारणा नैमित्तिकं रूप से जीव श्रौर ब्रह्म के पारस्परिक सम्बन्व
मं श्रन्य ्रौपाधिक विकारो की भांति विभागरूपी भेद होता है, इसलिए वह
वाचारम्भणमात्र है भ्र्थात् भेद केवल कटने भर को हुप्रा श्रौर इस प्रकारसे
भ्राधान्येन श्रात्माद्रौ त ही सिद्ध होता है ।*
जीव की उपाधि किस प्रकार की होती है ? इस विषय मं उनका मत हैकि
जीवोपायि क्लेदादिवासनाश्रों के हेतु मलिनसतत्ववाली है 1 पर है वह उपावि
नित्य ही, श्रनित्य कदापि नहीं । प्ररत उठता ह कि यदि यह् उपाधि नित्यहैतो
फिर इसे कार्योपापि की संज्ञा क्यो दी गई ? कार्येवस्तु तो नित्य हो ही नहीं
सकती । इसके उत्तर में उनका कहना है कि नित्य होने पर भी चकि वहं बाह्य-
सत्त से संभिन्न होकर कायं रूप में परिणत हुभ्रा करती हं श्रौर तभी लौकिक-
ज्ञानादि का हेतु वनती है भरतः उसे कार्योपाधि कहा गया है । जव कि ईदवरोपाधि
सर्वेथा विशुद्धसत्त्वा हैर श्रौर भ्रपरिणामिनी ह । जीवोपाधि परिणामिनी है ।
१. त्था च नारदीये गोणमख्यभावेनात्मद्वयमुक्तम् आत्मानं दि विधं प्राहुः
परापरविभेदतः 1 परस्तु निर्गुणः प्रोक्तो ह्यह ङारयुतोऽपरः ॥।
इति परापरौशवष्ठाशनेष्ठौ भस्यगोरएत्वाभ्याभितिभावः ! इदमेव खण्डे-
कात्म्यमबुद्धा आधुनिका अखण्डेकात्म्योपपत्तये जीवानां प्रतिबिम्बा-
वच्छेदिरूपैः कुकत्पनां कुर्वन्ति 1-वि° भा० पु° ५७
२, तस्मातसिद्धौ जीवेश्वरयो रंशंदिभावेन भेदाभेदौ विभागाविभागरूपो 1
तन्राप्यविभागएव आदयन्तयोरनुगतत्वात्स्वाभाविकत्वान्नित्यत्वाच्च सत्यः
विभागस्तु मध्यस्वल्पावच्छेदेन नैमित्तिको विकारान्तर वद्-वाचार
स्भरमात्रमिति विशेषः ! तदेवम् आत्माद्रंत्त व्याख्यातम. ॥
--वि०भा० पु° ६१
३. तस्य नित्यत्वेऽपि बाह्यसत्वसंभेदेनकायंतयापरिएतस्यव ज्ञानादिहेतुत्वा-
उजीवस्य कार्यपाधिः !--वि० भा० पुर ९९
११८ | आचार्यं विज्ञानभिक्ष
हिरण्यगर्भ श्रादि जीव ही हैँ । वे आनन्दमय नहीं हैँ । जीव श्रसंकुचित भ्रौर
विस्तृत संसार की सृष्टि नहीं कर सकते । जीव का प्रधान लक्षण वृद्धि है । विना
बुद्धि सम्पकं के जीव संज्ञा हो ही नदीं सकती ।१ जिस दृष्टि से जीव का परमेश्वर
से मेद बताया गथा है उसी दृष्टि से उनका पारस्परिक विभाग या भेदभी
सिद्ध है । कार्योपाधियुक्तता के कारण उनमें कादाचित्क ज्ञान, भ्रत्पन्ञान
एवं परतन्त्र ज्ञान की ही सम्भावना रहती है । ब्रह्म की भांति शाइवत ज्ञान का
भान जीव में नहीं हो सकता ।*
इस विवेचन से यह् सिद्ध हृश्रा कि सुपुस्ति, प्रलय ओर मोक्ष दशा मे भी जीव
नौर ब्रहम का श्रनौपाधिक या स्वाभाविक मभेद रहता ही दै । यह् भेद स्वरूपभद
है श्रौपाधिक नहीं । यह् पारमा्थिकमेददहै, नहीं तो भेद का कथनहीन
होता, व्योकि अभेद केवल श्रविभागलक्षणवाला है, शखण्डतावाला नदीं ।
जीव सृष्टि के पूर्वं प्रविभक्त रूपसेनब्रह्य मे श्रवस्थित रहते हैँ । उसके
पश्चात् सर्गकाल में पिता से पुत्र के समान ब्रह्य से जौव विभक्त हो जाते है ।
जैसे अमि से भद्र विस्फुलिङ्क निकलते ह वैसे ही ब्रह्म से जीव निकलते है ।
भराभासवाद, ्रवच्छेदवाद श्नौर प्रतिविम्बवाद के श्नुसार जीव को मिथ्या मानने
से मोक्षादि की भी श्रनुपपत्ति होती है ग्रतः एेसी मान्यता सर्वथा हेय है 1*
१. श्रुतौ च विज्ञानमयषष्वकापि जीवावस्या नास्ति इद्धि' विना जोव-
व्यवहाराभावात् !--वि ० भा० पु° १५३
२. प्रतिपादितंच पञ्चसूव्यां ब्रह्मणो मुख्यमात्मत्वं स्वतः सवदा सवद्षटर-
त्वात्, जीवानां च कादाचित्कात्यल्पतदधीनज्ञानयोग्यतामात्रेण गौरमा-
त्मत्वम् 1-वि० भा० पु° १७१
३. एतेन सुषुप्िप्रलयमोक्षेव्वपि जीव्रल्णोराचा्ययैण भेदवचनादनो-
पाधिकः स्वाभाविक एव तयोर्भेद आचार्यसिद्ांतोऽवधायते भदस्योपाधि-
कत्वे सत्युपाधिविलयदल्लायां भेदघ्रतिपादनातुपयत्ते: ! नहि घटविलये
तद्यौपाधिके आकारो भेदतो वदतुं केनापि शक्यते युज्यते वा भेदस्यापार-
माथकत्वे सतितदावुमीयमानभेदस्यानुवादाञुपपन्त : अभदस्येव प्रतिपाद
नाहुतवादिति तस्मादेतत्सुत्राञ्जीवन्रह्माखण्डतावादोऽपसिदधांतः एवा्ि
कानामिति ज्ञातव्यम् ।--वि० भा० प° २३६
४. आधुनिका अखण्डेकातम्योपपत्तये जीवानां प्रतिबिभ्बावच्छेदादिरूपैः
कुकल्पनां कुर्वन्ति --वि० भा० पु० ५७
आचाय विज्ञानभिश्चु के वेदान्तसिद्धान्त | ११९
जसे जडाजडत्वादिवेघम्यं के कारण पाषाण को ब्रह्म नहीं कहा जा सकता,
वैसे ही जीवकोभी ब्रह्य का रूप नहीं कहा जा सकता, क्योकि इस सम्बन्व में
भी सवं ज्त्वाज्ञत्वसंसारासंसारादिवैघम्यं हँ ।१ वस्तुतः जैसे पाषाणादिब्रह्मकी
जडशवित है वैसे ही जीव परमात्मा की चेतनशक्ति है ।
जीव भी वस्तुतः निरवयव है ।२ जीवादि की जो उत्पत्ति कही गई है, वह्
भी गौएा है ।* प्रधानादि की भी उत्पत्ति गौण ही है। सद्वस्तु की उत्पत्ति गौर
ही समी जानी चाहिए । जो सच है मुख्यरूप में उसकौ उत्पत्ति होही नहीं
सकती । सृष्टि-्रक्रिया श्रादि मँ किसो जीव यादेवता का मुख्य योग दान
नहीं है । ये सभी परतन्त्र ह । ब्रह्म ॒ही वास्तविक कर्ता है। जीवादि की
उत्पत्ति केवल श्रभिव्यक्तिरूपिणी है, इसीलिए गौणी कही जाती है । जीव भी
ज्ञस्वरूप है, श्रर्थात् पूर्वानुभूत वस्तुभ्रों का स्मरण करनेवाला है । उसे भी
्रनुभव ्रौर स्मृतियां का श्रालम्बन दै । अरन्या उसकी स्तनपानादि कौ प्रवृत्ति
रनु पपन्न हो जायगी 1^ वह् ब्रह्य कै सरूप अ्रवश्य है किन्तु फिर भी बिल्कुल
ब्रह्मस्वरूप या ब्रा ही नदींदहै।
जीव भी विभु दै । उसमें श्रुत्व का व्यपदेश केवल श्रौपाधिक है 1 क्योकि
श्रतियों मे स्पष्ट उपदेश है कि “स चानन्त्याय कल्पते सवा एषमहानज भ्रात्मा
योऽयविज्ञानमयः प्रारोषुः ।६ जीवोपाचि बुद्धि दी कायावस्था के कारण
परिच्छिन्नपरिणामवाली है श्रतः वही श्रणुहैन किजीव। वह् तोनिर्गुणहै
१, यथा हि ब्रह्मणःपाषारणादिरूपत्वं नोपपद्यतेजडाजउत्वादिवेधर्म्यात् एवं
जीवरूपत्वमपि नोपषद्यतेसर्वजञत्वाज्ञत्वसंसारादियवेधर्म्यादिति ।
-वि० भा० प° २९१
द्रष्टव्य, विण भा० पु० २९३
अतो जीवोत्पत्िगौण नान्तःकरणस्येतिविभागः }--वि ०भा०प्० ३४७
द्रष्टव्य, वि० भा पु० ३३१
अतएव नित्यत्वादेव जोवो ज्ञ ूर्वानुभुतस्मर्तभिवति.अनित्यत्वेहि पूर्वाननु-
भरतं स्तनपानेष्टसाघनत्वादिकं जातमात्रःस्म तु नक्ञबनोति \--वि° भा०
पुण २३२३८
६. वि० भा० पु० ३४३ पर उद्धुत ५ ॥
७. कार्योपाधिरयं जीवः इत्यादि शूतिस्तु जीबोपाधरन्त.करण्स्य काम्-
कारसोभयरूपतवादुपपद्यते जीवेषु कार्यावस्थोपाधिधर्माणामेव दशनाच्च 1
-वि० भा० पु° ३४७
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ययक
१२० | चायं विज्ञानभिक्षु
। उसमे परिच्छेद श्रसंभव है, श्रतः उसमें श्रुतियों के वल पर विभुत्व ही मानाजा
| सकता है अरुत्व या मघ्यमपरिमाणवलत्व नहीं ।
शब प्रदन यह् होता है कि जीव कर्ताहे कि नहीं ? इस प्रसंग के प्रसार के
पूवं कतृं त्व को सम्यक् परिभाषा श्राचायंनेदेरखी है कि कार्यं को उलत्न करने
वाले कृत्य का श्राश्रय होना हौ कतृत्व हं। १ यदि जीवको कर्ता मानतेहैँतो
ब्रह्म का सव॑ -कतृःत्व नष्ट होता है 1 यदि जीवको कर्ता नहीं मानते तो वह् (
जडवत् हो गया रौर तद्गत-सुखादि के कारण ब्रह्म मे वैषम्य श्रौरनैघुंण्यकी
प्रपक्ति होगी । एे्ी विचिकित्सा मे सकल पूर्वपक्षो को श्रपास्त करके सिद्धान्त
रूप मे आ्राचायं विज्ञानभिचु कहते है कि स्व-व्यापारों में जीव भी कर्ता होता हे ।
विना जीवकमे के माने हए यज्ञविधियों मे प्रनुष्ठानलक्षण नाला तरामाप्य भ्रसिद्ध
होजातादहै। साथ ही ब्रह्य ' मे वेषम्यनैघु ण्यादि की प्रसित होती है: इन
सब बातों से जीव श्रौर ई्वर दोनों कर्ता है । अन्तर यह् है कि जीव श्रदुष्ट के
दवारा ही महदादिकों मे संयोगमात्र से कर्ता होता है जब कि ईरगर
साक्षात् कायं करके ही सर्वकर्ता कहलाता है ।२ ईरवर सरवैकर्मकारयिता भी है 19
तो क्या किर जीव में वास्तविक कतृःत्वगुण है ? यदि ेसाहैतो जीव का
शुद्धस्वरूप निर्गुण कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर यह् है कि जीव मे जिस प्रकार
| चिन्मात्रता नित्य है उस प्रकार से कृत्व नहीं है । जीव का कतृ त्व यावदुदर्यभावि
| श्रौर नित्य नहीं है 1* वह् केवल श्रौपाधिक हैः वद्धिरूपीडपाघिकृत ही है 1९
ईश्वर का कलूत्व भी श्रौपाधिक ही है। जीव में कतृत्वादि परमेख्वर से ही
प्राप्त ह स्वतन्त्र नही जैसे कि घोड़े की विविध चाले घुडसवार से प्रेरित होती दै 1
कुत्वं चात्र कायंजनक्कृत्याश्रयत्वम् 1--वि ० भा० प° ३५०
द्रष्टन्य, वे० सु०
द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ३५२
अतः ईंदवरः कर्तापि कारयितापि भवतीति सिद्धम् ।--वि० भा०
पु० ३५०
५. यथा जीवस्यार्यौष्ण्यवच्चैतन्यं नियतं यावद्रव्यनावि नैवं कतृं त्व
भवति इत्यथं : ॥--वि० भा० प° ३५३
६. एवं जोवो बुद्धिकतंत्वादेवोपाधिवशात् कर्ता स्वतस्तु परमा्थंतोऽकतति ।
| --वि० भा० पु° ३५६
| ७, तज्जोवस्य कतूत्वादिकं परात्परमेरवरादेव भवति न स्वातच्त्येएभश्वस्य
विविधसञ्चार इवाहवारोहात् 1-वि० भा० पु°
= ~ ‰
म =
आचाय विज्ञानभिश्ु के वेदान्तसिद्धान्त | १२१
तो क्या जीव घुडसवार से सम्बन्वित घोड़े कौ भांति ब्रह्म के परतन्् ही रै? इसका
उत्तर यह दहै कि ईश्वर, जीवकृतशुभाशुभषपक्ष हो कर ही उससे शुभाशुभ
करवाता है 1?
विज्ञानभिश्ु ब्रह्म श्रौर जीव के पारस्परिक सम्बन्ध के प्रसद्खं में श्रन्य वेदा-
न्तियो के दास-भाव, भक्त-भाव, प्रतिविम्बवाद, श्रवच्छैदवाद श्रौर श्राभासवाद
श्रादि का खण्डन करते हैर रौर श््रामास एव च' सूत्र से यह् श्रयं तेते ह कि
जैसे, १-ठेतु ग्नौर हेत्वाभास दोनों सत् या वस्तुभूत है; दोनों का ्रस्तित्व है
वैसे ही जीव भी आभास होने पर भी मिथ्या नही, प्रपितु ब्रह्म केही समान
सत्तावान् है । विज्ञानभिक्चु कौ दृष्टि में इस सूत्र का एकं भ्रन्य श्रं भी सम्भव
है । श्राभास होने से तात्पर्यं है “भासमान होना' । इस दष्टिसे र्-जीव भी
ब्रह्य की भांति श्राभासमान है, प्रकाशस्वरूप रै चिन्मात्र है 1९ दोनों प्रकार से
सूत्र का श्रथं ग्रहण करने पर एक बात नदित खूप से सिद्ध होती दकि जीव
की सत्ता वास्तविक है 1
१. ृतप्रयत्नपेक्ष॒ एव जीवात्मा प्रसेदवरात्कर््ादिरूपो भवति । ईहवरो
जीवकृतशभातरुभसापेक्ष एवान्यत् ्ुभाघुभं कारयतीति ।--वि° भा०
शासतरऽनुकतसम्दिग्धाथेषु समानतन््र ॥
बरह्ममीमांसाभाष्ये प्रतिपादितमस्माभिः 1) स° प्र° भा० प°
३. आत्मा जीवः हेत्वाभास इवेत्यर्थः ।--जीवानां च ग र
भावो “जन्माद्यस्य यतः' "इतिसूत्रे व्याख्यातः । अथवा जीवस्य |
मित्याकाडःक्षायामाह--आभास एव च" स च जीवो ब्रह्मवदाभासमानः
अकाशभानद्चिन्मात्र इत्यथः ।--वि० भा० पू ३७४
विज्ञानामृतमाष्य मेँ प्रकृति क्रा स्तरूप
भ्राचायं विज्ञ।नभिश्ु का प्रकृति भ्रौर माया सम्बन्धी सिद्धान्त वडा ही
भ्रनोखा प्रौर विचित्र है । यह सिद्धान्त विज्ञानामृतभाष्य नाम के उनवेः
वेदान्त-सूत्राष्य मेँ विशद रूप से प्रतिपादित हृभ्रा है। सांख्यमत , में प्रकृति
सत्त्वरजस्तमोमयी श्नौर जड मानी गई है । प्रकृति का यही स्वरूप न्यूनाधिक रूप
मे यद्यपि उन्हे भी श्रभीष्ट है परन्तु वे प्रकृति को स्वतंत्र नहीं मानते' श्रपितु पर”
मेरवर या परत्रह्य* की भ्रन्तर्लीनि शक्ति के रूप में स्वीकार करते ह । इस मान्यता
के कारण यद्यपि वे रामानुज श्रौर निम्बाकं के बहुत निकट प्रतीत होते है परन्तु
इन लोगो कौ भांति वे प्रकृति को अ्रविद्या या माया अथवा ब्रक्षर नहीं मानते।
उन्होने माया नाम की श्रपरिणामिनी प्रकृति को सामान्यप्रकरृति से भिन्न पर-
मेश्वर की उपाधि रूप में स्वीकार किया है 1 शङ्कुराचायं की भांति प्रकृति को
माया रौर रविद्या कह कर उसे सवंदा तुच्छं भ्रथवा श्रसत् श्रथवा भ्रनिर्वचनीय
मानने के वे तीत्र विरोधी हैँ।
चिन्मात्र परमेश्वर शक्तिमान् है श्रौर सोपाधि भी । पुरूष श्रौर प्रकृति ये
दोनो उसकी शक्तियाँ द रौर माया उसकी उपाधि । माया का भ्रन्तर्भाव उन्होने
प्रकृति में ही बताया है । यद्यपि सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है, फिर भी
ब्रह्म को शक्ति होने के कारण भ्रन्ततोगत्वा बह्य ही सृष्टि का वास्तविक उपादान
कारण है । इस प्रकारसे सृष्टिका कारण बनने में प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है
प्रत्युत ब्रह्म के परतन्त्र है । सांख्य-योग मे प्रकृति पुरुषाथं-सम्पादन के लिए
स्वयं ही स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्त हुई मानी जाती है । किन्तु विज्ञानभिश्ु ने प्रकृति-
पुरूष के संयोग को परमेदवर-कृत माना है ।२ इसीलिए पूरे भाष्य में उन्होने
भ्रन्य सांख्ययोगाचार्यो के प्रकृति-स्वातन््य-सिद्धान्त का प्रबल प्रत्याख्यान
कियाहै।९
१. दृष्टान्ताच्च प्रधानं न स्वतन्त्रम् ।-वि° भा० प° २४५
२. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ३४
३. द्रष्टव्य, वि० भा० प° ३०१
आचार्यं विन्लानभि्चु के वेदान्त सिद्धान्त | १२द
सृष्टि के पूवं यह प्रकृति परमेर्वर मे गर्तस्थमृतसपंवत् विलीन रहती है 1"
यह् स्मरणीय है कि जीव -चैतन्य यद्यपि परमेश्वर-चैतन्य कं भ्रंश है लेकिन जीवो-
पाधि परमेश्व रोपाधिभूतमाया का भ्रंश नहीं है 1२ जीवोपाचि सामान्यप्रकृति से
बनती हैँ । ्रतः दोनों अ्रलग स्वभाववाली वस्तुं है । जीवोपाधि क्लेादि-
वासनाग्नों से मलिन होती है जव कि परमेद्वरोपावि विशुद्धस्वा होती दै।
परमेख्वरोपाधि म निलयेच्छाज्ञानसंकल्पादि एेदवर्यं॑होते है । सृष्ट के निमित्त
कारणा वनने में परभेरवर की उपाधिया माया दही मूल दै) विज्ञानभि्षु ने माया
ज्व्द को परमेशवरोपाधिरूपप्रकृति के श्र्थमें ही रूढ माना है । जीवोपाधिभूत
रति तथा जड़ात्मकप्रकृति उनकी दष्टि मे माया शव्द से भ्रवाच्यहै। इस
्रकार से प्रकृति व्यापक श्रौर माया संकुचित मर्थं म प्रयोग करने योग्य शब्द
ह । मावा श्रौरं प्रकृति मेदस प्रकार कौ भेद-व्यवस्था का मूल स्रोत विज्ञान
भिष्चु को कदाचित् गीता की इस पंक्ति मेँ समूपलन्ध हप्रा होग--
"प्रकृति स्वामविष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया 1
श्रीमद्भगवद्गीता भ्र०४ इलो० ६ ॥
प्रकृति रौर विचा
शङ्धुराचार्यादि श्रखण्डादर तवादियों के अविद्या -सिदधान्त का उन्होने भलो-
मति खण्डन किया है श्रौर स्पष्ट क्रिया है कि रविद्या ` या शरज्ञान न प्रकृति के
पर्यायवाची ह श्रौर न माया के समानार्थक । भ्रतः श्रविद्या जगत् का कार्ण
नहीं मानी जा सकती है 1 इस खण्डन के सिलसिले मेँ उनका कथन है कि
यदि ्रविद्या संसारकास्ण हो तो एक व्यक्ति की भ्रविद्या के नाश होने से
जगत्कारण का नाश ्रौर इसीलिए सारे जगत् प्रप का नाद हो जाना चादिए।
तब जीवन्मुक्ति कौ दर्शा भी सम्भव न होगी । यदि जीवन्मुक्ति की दशामें
तो ज्ञान श्रौर भ्रज्ञान का सह-
श्रविद्या का अ्रस्तित्व लेशमात् भी स्वीकार करं
श्रस्तित्व सर्वथा भ्रसम्भव है 1 ग्रतः:्रविद्या जगत्कारण नहीं दो सकती 1 इसलिए
नतो प्रकृति कोश्रौरन माया कोटी “अविद्या कहा जा सकता है । वस्तुतः
पविद्या पुरुष-मेद से भिन्न प्रकार का ्रान्तज्ञान है जिसका लक्षण यथार्थं रूपमे
~
१. विरतव्यापारतया कारणर्पेण गर्तस्थमृतसपंवद् विलीनमासीदित्य्थंः \
--वि० भा० प° ३६
२. न चेश्वरोपधेरंगो जीवोचाधिरीषवरस्थापि तदद्राराभवन्मते संसार
प्रसंगात् 1--वि° भा० १० ५२-५३
३. द्रष्टव्य, वि० भा० प° णर्
[= ~
१२४ | चायं विज्ञानभिश्षु
योगसूत्रकार ने दिया दै प्रनित्याशुचिदुःखानात्मपु नित्यशुचिभुखात्मख्यातिरविद्या 1"
वेदान्त मेँ श्रविद्या का यहं स्वरूप मानना विज्ञानभि्षु की दृष्टि मेंकेवल
बौद्धो के कुप्रभाव काही योतक दैः प्रकृति" श्रौर ्रवानः शब्द पर्यायवाची
ह सृष्टि ग्नौर स्थिति की दशाम प्रकृति नाना श्राकृतिवाले कार्यो में परिणत
| होती रहती है 1 श्रतः उस समय उसे व्यक्त कहा जाता है) सृष्टि के पूर्वया
। प्रलय ददा में निर्व्यापार श्रौर परमात्मा में गरतस्थमृतसर्पवद््रन्तहित रहुने के
कारण? प्रकृति को भ्रव्यक्त कहा जा सकता है ।
प्रकृति को सत्ता
श्रव तक के विवेचन से स्पष्ट है कि प्रकृति वस्तुतः परमेर्वर की जगज्जन्मा-
दिनिर्वाहिका शक्ति दै । इस राक्ति के विना निविकार एवं निर्गूणब्रह्य की
उपादानता श्रौर निमित्तता या श्रधिष्ठानता श्रसम्भवहै।* प्रति का भ्रस्तित्व
ऊर्णनाभ के शरीर के श्रस्तित्व के समान है। प्रकृति सूक्ष्महैग्रौर विशाल
जगत्भपंच उसी का स्थूल रूप है । धुले मिले हुए सैन्यवनमक से युक्त समूद्र-जल
मं जैसे द्ैतापत्ति नहीं होती वैसे ही साम्यावस्योपलक्षित प्रकृति नामक शक्ति से युक्त
शक्तिमान् परमेश्वर में भी दैतापत्ति नहीं है उसकी श्रदैतता श्रशयुण्ण है ।९ इस
भ्रति का भ्रत्यन्तोच्छेद केभी नहीं होता लय भले ही हुभ्राकरे । लय का श्रथ
नाश नहीं है भ्रपितु लीन होना है भर्थात् श्रविभक्ततया भ्रव्यक्त श्रौर निर्व्यापार
दशा में रहना है । प्रकृति का विश्वरूप में श्रवभासित होने का स्वभाव .भी प्रलय
की दशा मे शरष्ुण्ण रहता दै ।£ प्रकृति श्रौर जगत््पंच को श्रत्यन्त तुच्छ या
१. द्रष्टव्य, यो° सु० २।५।
२. नेदं व्यासदर्ञनमपि तु सप्तमं प्रच्छ्नवोद्धदर्शनमेवेति ।--वि० भा०
पुऽ ८५
एतेन वेदान्तेषु प्रपञ्चस्यात्यन्ततुच्छत्ववादोऽप्रामािक इति मन्तव्यम् 1
--वि० भा० पु० ३१४
द्रष्टव्य, वि० भा० प° ९द
४. ब्रह्मणश्च जगत्कतुं तवं स्वोपाधिमायोपाधिकं परिरामित्वरूपोपादानत्वं
च प्रकृतितत्कार्याद्योपाधिकमपीष्यत एव ।--वि० भा० पु० ३४
५, तथा च विलीनावस्थसेन्धवेन समुद्रस्येव साम्यावस्थारूपेणएप्रधानादिनापि
ब्रह्मणो न द तं कि त्वैक्यमेव समुद्रसेन्धवयोरिवेति भावः \--वि० भा०
पु० २४१
६, द्रष्टव्य, वि० भा० पु° ९७
[
=
आचायं विज्ञानभिश्चु के वेदान्तसिद्धान्त | १२५
ग्रसत् माननेवाले शङ्कराचार्य प्रभृति दार्शनिकों की भर्संनामे गीता१काभी
उन्होने भ्राश्रय लिया है श्रौर स्वयम् भी पर्याप्मुखर रहे दै ।२ प्रकृति को उन्होने
नित्यपरिणामिनी सिद्ध किया है । इस प्रकार की नित्यता के स्वरूप की व्याख्या
इस प्रकार की गई है कि यह नित्यता व्यावहारिक है परमेरवर की भाति
पारमार्थिक नहीं, श्रपितु प्रथंक्रियाकारित्वज्ीलतारूप कौ हे ।२
प्रकृति के रूपो का वर्गीकरण
प्रकृति के सत्त्वादिगुणा यद्यपि वस्तुतः रूपादिहीन हैँ फिर भी उनसे राग-
प्रकाशावरणरूपता की प्राप्ति के लिए उनमें लोहितशुक्लकृष्णरूप कत्पित कर
लिए गए ह\ ये तीनों गुण ही समवेत रूप में प्रकृति भ्रथवा प्रवान नामसे
प्रभिहित किए जाते हैँ । इस प्रकृति के मुख्य भेदं का वर्गीकरण इस प्रकार से
किया जा सकता है-
१, साया
नित्यशुद्ध केवलसतत्वांशमयी प्रकृति नित्यज्ञान, नित्येच्छा एवं नित्यानन्द
यक्त रूप मेँ ईर्वरोपाधि कटलाती रहै ।* इसी का नाम माया है। इसी
को कारणसतत्व भी कहते हैँ । वह् ईर्वरके संकल्पादि की भ्राघारभूत भ्रौर भ्रत्तरद्धं
होती है । सामान्यप्रकृति परिणामिनी होतो है जव कि माया भ्रपरिणामिनो
है । कदाचित् इसी वैवम्यं के कारण विष्णुपुराण में माया को प्रकृति से भिन्न
एक श्रलग तत्तव स्वीकार किया गया है । विज्ञानभिष्षु ने इस मान्यता के प्रति
श्रपना वैरस्य प्रकट करते हुए कहा है कि माया भ्रौर सामान्य प्रकृति में एक प्रमुख
साधम्यं भी है वह है जडत्व या भ्रचेतनता । इस साधम्यं के कारण हम माया
को प्रकृति के अन्तरगत प्रविष्ट कर सकते है । ^
१. असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीइवरम् । गोता १६।८
२. द्रष्टव्य, वि० भा० पु° १०५
३. प्रधानेऽथक्रियाकारित्वरूपव्यावहारिकसत्वस्स्येवास्माकमिष्टत्वात् 1
-वि० भा० पु° २४३
४, केवलं नित्यज्ञानच्छानन्दादिमत्सदैकरूपकारणसत्वमेवतस्योपाधिः 1
--वि० भा० पुण १३०
५. ईइवरोपाधेरपरिणामित्वेऽपि जउत्वसाधम्येण परकृतिमध्ये प्रवेश
सम्भावाच्चेति 1 -वि० भा० पु° १२७
|
|
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| १२६ | आचायं विज्ञानभिष्ष
|
|
| २, जीवोपाधि
| कृति जव मलिनसत्त्वविशेषणरूप श्रपने भ्रवयवों से पुरुष संयोग के
| द्वारा महत्त्व के रूप मे परिणत होती है तो जीवोपाधि कहलाती है । यह्
| परिणामिनी होती है 1"
|
३, जडजगत्
उसी प्रकृति के तमोबहुल श्रंशों से स्वकीयपरिणामधारा के फलस्वरूप
सकल जडजगत् विकसित होता रहता है । यदी प्रकृति का तीसरा रूपरहै। इस
रूपमे भी प्रकृति परिणामिनी ही हैर ।
१. सैव च प्रकृति्मलिनसत्वविरेषल्पैरं गान्तररजस्तमःसम्भिन्न :पुरुषसंयोगेन
महत्तत्वरूपतः परिरता सती जीवोपाधिभवति \- वि ०भा० पु° २६२
२. ततोऽपि निङ्ष्टैरंशान्तरेःस्वमन्यद्िकारजातमुत्पादयतीति \!--वि° भा०
पु० २६२
नगत्प्रपञ्च
जगलमप॑च कौ वास्तविक सत्ता के सम्बन्व मेँ भ्राचायं विज्ञानभिष्ु को पूरं
विदवास है 1 जगतप्रपञ्च नाम" श्रौर ष््प" से व्याकृत होकर दुर्यमान हो रहा
है । यह् चेतन प्रर श्रचेतन दोनों से युक्त है । जगत् के सकल व्यापार देश, काल
शरोर संस्थान की दृष्टि से प्रतिनियत ह । जगत् कीभ्रादि, मध्य ्रथवा भ्रन्त;
प्रत्येक दशा सुनिरिचत रीति से उपस्थित होती है, उसमें किसी प्रकारक
यदुच्छा त्रथवा श्रनृतता नहीं है । सव ङ पूर्णतया सुदिलष्ट है! एसे विपुल
एवं विज्ाल जगत् की रचना का प्रकार इतन। विचित्र दुगंम एव जटिल है कि
श्राचायं ने साफ़ शब्दों म जगत् को श्रचिन्त्यरचनात्मक कहा है । यह् जगत्
उत्पन्न होता है, स्थित होता है, वृद्धि प्रपत करता है, विपरिणत होता है, क्षीण
होता है ्रौर नष्ट होता है। उत्वत्ति इत्यादि छहों धमं इस जगतत््पंच में पाए
जाते है । जो वारी-वारी से इस धर्मी मं वताए जाते ह| चाहेइन चछःखूपोमें
से जिस श्रवस्था में यह् रहे, रहता यहं जरूर है । इसका भ्रात्यन्तिक नार म्रसम्भव
है । इसकी सत्ता सावं कालिक है ।
नित्यता की सिद्धि
इसकी सावं कालिक सत्ता को तकं से पुष्ट करते हुए विज्ञानभिश्चु ने कहा है
कि वेदान्तसूव्रकार को भी यही मत प्रभीष्ट है अन्यथा “जन्मायस्य यतः ' सूत्रका
रूप "एतद्यतः° ही होता । अव्यक्त रूप से जगत् नित्य है ।* संसार को श्रित्य
माननेवाले वेदान्तियो को विज्ञानभिष्चु ने बौद्धप्रभेद ही कहा है ।२ पद्मपुराणक़रत
निन्दा का भी उन्होने उल्लेख किया है । श्रसत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीरवरम्'
इत्यादि गीतावाक्य का भी उन्होने प्रमा उपस्थित क्या हे । श्रौर इतना ही
नहीं, यह भी तकं उन्होने दिया है कि बन्धमोक्ष इत्यादि सब भिथ्या होने पर
१. द्रष्टव्य, बि० भा० पु० ३१-२२
२. ते तु बौद्धभरमेदा एव मायावादमसच्छास््नं प्रच्छ बोद्धमेव वेत्यादि-
पद्मपुरारादिवादयात्... ...-... ^ क्ति च वन्धमोक्षादिकं सर्वं मिथ्येति
वेदान्ता आहुरिति गुर्मुलादापाततः श्रवणदिवाृततसाक्षात्तारस्यापि
शिष्यस्य सर्वतैवानारवासात् श्रवणमननादौ साक्षात्काराय प्रवृत्तिरेव न
स्याद् -वि० भा० पु° १०५
१२८ | आचायं विज्ञानभिक्षु
श्रवण-मनन श्रौर निदिध्यासन इत्यादि के लिए कभी प्रवृत्ति ही नहींहो
सकती । “सर्वम् श्रनित्यम्' मानने वालों के पास सत् प्रमाण भी नहीं हो सकते
जिनके बल पर वे संसार को श्रनित्य सिद्ध कर सकं । विज्ञानभिश्चु का कहना
है कि जगत् सृष्टि-दशा स व्यज्यमान, स्थिति दशा में व्यक्तं श्रौर प्रलय दा ५
प्रव्यक्त रहता है । उसकी अत्यन्त श्रसत्ता कभी नहीं मानी जा सकती । जगत्
को स्वप्नमायागन्धवेनगर की माति माननेवालों को प्रमाणप्रमेयव्यवहार का
शरभिमान करना उनकी दृष्टि सँ सवथा तिरस्करणोय तथा धिक्करणीय दहै ।
सत्कायवादी निष्ठा ने उन्हँ जगत् को नित्य मानने के लिए विवश कर दिया हे
पहले के प्रकरणो मे प्रकट कियाजा चुका हैकिजीव की सृष्टिब्रह्यसे
वैसी ही समनी चादिए जैसी श्रग्निसे स्फुलिद्धो को । इस वात को तथा
जड पदार्थो की सृष्टि को व्यापक रौति से निर्दिष्ट करने के. लिए सम्पूणं संसार
की सृष्टि तथा उसका क्रम ्रस्तुत॒ करना श्रविक वांछनीय होगा । श्राचायं
विज्ञानभिष्चु की हौली स्पष्टतः सारी बातों को इकटी कहने की है ग्रौर कभी-
कभी एक नहीं अनेक स्थानों पर उसी बात को दुहराने की भी प्रवृत्ति रहती दै ।
जिस वात पर उनका विर्वास है चाहे कितनी ही विरोधपूरं बात क्योनदहो
उसे वे डके की चोट कहते है । कोर वात दवी जवान कटनी उन्हे पसन्द नहीं ।
श्रतः दूसरे श्रघ्याय के चौथे पाद मेँ श्रगुस्चः । १३। सूत्रभाष्य करते समय
इस प्रकार से उन्दने सृष्टिक्रम निरूपित किया है --
सकल सृष्टि का श्रधिष्ठान ईर्वर या ब्रह्य है । पुरूष श्रौर प्रकृति दोनों ब्रह्य
की अन्तर्लीनि शक्तियां है । पुरुष से उपष्टव्य हो कर भ्रकृति ईरवर मे भ्रधिष्ठित
रहती हुई अन्यक्तता से व्यक्तता की भ्रोर उन्मुख होती है तो उस समय महत्ततव
उत्न्न होता दै । सृष्टिक्रम में सर््रथम उत्पत्ति महत् की ही होती है । इस
महत् का स्वरूप दो प्रकार काहै। इस महत् की क्रियाठमक शव्तिका नाम
प्राण श्रौर इसकी श्रष्यवसायात्मक शविति का नाम वुद्धि है। प्राण में प्रकृति का
घर्मं [क्रिया रूप] श्रौर वृद्धि मे पुरुष का घमं [चैतनता-रूपं] श्रधिक उदुभूत
प्रतीत होता है1.इन दोनों मे भी प्रथम प्रवृत्ति की ही उत्पत्ति हुई है* ।
इसके वाद जैसे श्रकुर वृक्षरूपता को प्रास्त करने लगता है उसी प्रकार महत्व से
१९५ विण भाः पु० १०३
२. तदयं सक्लशरुतिस्मृतिसांख्ययोगेकवाक्यतया महाभ्चुतपययन्तायाः
सृष्टेः कमः कथ्यते !--वि० भा० पृ* ४०९१४०२
३. तयोर्मध्ये प्रथम प्राणवृत्तिरुत्यदते ॥--वि° भा० ¶० ४०१
आचायं विज्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | १२९
प्रहङ्कार रूपी श्रन्तःकरण की वृत्ति-विशेष उत्पन्न होती है । उससे उसी प्रकार से
मन श्नौर मन के वाद इन्द्रियां उत्पन्न होती है। श्रौर उसके वाद श्रहङ्कारसेदही
इन्द्रियों की ही भांति परस्परकार्यंकारणमभावा-रहित पाचों तन्मात्राएं उत्पन्न होती
ह ।१ इन तन्माव्राश्नों को सूष्ष्मतर भूत समभना चाहिए । श्रौर इन , पाचों
तन्मात्रा से स्थूलमहाभूतों के सूक्ष्म परमाणुं उत्पन्न होते है । इसके पदचात्
तैत्तिरीय श्रौर छन्दोग्योपनिषद् में बताए गए क्रम से-- प्रथमतः प्रकाश, फिर
उसमे वायु. उसमे श्रग्नि, प्रग्नि से जल श्रौर जल से पृथ्वी उत्पन्न हुए -पचिों
स्थूल महाभूतो की उत्पत्ति हुई । उसके वाद छान्दोग्योपनिषदिष्ट रीति से त्रिव्-
त्ररण के द्वारा ब्रह्याण्डादि की सृष्टि हुई । भ्राघुनिकाद्रेतवेदान्तियों केद्वारा
माना गया पंचोकरण का सिद्धान्त विज्ञानभिक्षु की दुष्टि में ब्रह्याण्डादि-सृष्टि
के सम्बन्ध में सवथा त्याज्य एव दूषित है क्योकि श्रपञ्चीकृत महाभूतो से
ही ब्रह्माण्डादि कौ सृष्टि सम्भव है । श्रृतियों श्रौर स्मृतियो मँ प्चीकरणप्रक्रिया
का कोई उल्लेख भी नहीं मिलता है । इसलिए उनका कहना है कि पचञ्चीकरण-
प्रक्रिया की व्यवस्था सवथा श्रप्रामारिक श्रौर सव्यभिचार है । उदाहरण के लिए
सुवर्णादिक तैजस पदार्थो में श्रथवा तैलादि पाथिवपदार्थो में क्रमशः पृथ्वी
प्रौर जलादि की मात्रा, श्रन्य भूतों की मात्रा की तुलना में श्रतिलय अ्रधिक
देखने को मिलती हैर । वस्तुतः ब्रह्याण्डादि सृष्टि-पदार्थो में मुख्यतः त्रिवृत्करण
ही होता दै । सामान्यतः उपलब्धि पाचों महाभ्रूतों कौ हो जाया करती है।
इसलिए वस्तुएं पाञ्चभौतिक होतो है । त्रिवृत्करण मुख्य प्रक्रिया दै । गौण
सन्निवेश श्रन्य दो भूतों का भी हो जाता है । यदि इस भ्रथं में पञ्चीकरण
का प्रयोग किया जाय तो त्रिवृत्ररण के द्वारा श्रतिदेश करके यह प्रयोग ग्रहण
किया जा सकता है । उन वेदान्त वों की विशिष्ट व्यवस्थावाले पञ्चीकरण के
लिए तो सूृष्टिप्रक्रिया मेँ कोई गुंजायश नहीं है । वह एक श्रसमीचीन
मान्यता है ।२
पुराण-परायण आचार्यविज्ञानमिष्ु ने सृष्टिक्रमं के परिवतंनों को भी
मानने की इच्छा प्रकट कीरै कि भ्रन्य स्मृतियों मे यदि यहं क्रम ब्युत्करान्त
बत्ताया गया हो तो उसे कल्पभेद के द्वारा समाघेय समभना चाहिए ।* इस
१. तत इन्द्रियवदन्योऽन्यकायंकाररभावरहितानि तदनन्तरं पंचतत्मात्रारिि
सृक्ष्मतरभेतानि ।--वि० भा० पु० ४०२
द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ४०९
द्रष्टव्य, वि० भा० पुर ४०९
, द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ४०३
फा०-र९
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१३० | आचाय विज्ञानभिक्षु
प्रकृति भ्रौर पुरूष के संयोग को करनेवाला ईरवर है । सांख्याचार्यो के मत की
भांति केवल श्रयस्कान्त श्रौर लौह-सदृ प्रकृति पुरुष का संयोग॒नहींहृम्रा
करता 1"
क्या चिन्मात्र पुरुष मे भी संयोग-क्रिया सम्भव है ? इसका उत्तर ग्राचायं
ते इस प्रकार दिया दै कि ईश्वर अथवा परब्रहमृत । रकृति-पुरुष-संयोग स्वभा
|| सम्भव है क्योकि प्रकृति गुणत्रयरूष है श्रतः परिच्छिन्नगुणांशो से उसमें क्षोभ
|| सम्भव दहै श्रौर पुरुष की उपाधि की स्थिति के कारण उसमे भी संयोग हो
| | सकता है । अ्रतः सृष्टि-व्यवस्था सर्गथा उपपन्न है । 7
दस जगत््पंच की सृष्टि मेंब्रह्मसाक्षित्वमान से श्रथवा श्रधिष्ठानरूपसे
कारणं है। उपादान सूप मे ब्रह्म में अरन्तर्लीन प्रकृति नाम- री शक्ति ही
जगसरपंच का कारण बनती है । सृष्टि-कालमें सारे प्रपच्च उसी ब्रह्य से ही विभक्त
होकर स्थित होते है ञ्रोर प्रलयकाल मे सकल प्रपंच उसी मे श्रविभक्त होकर
श्रव्यक्त दशा में रहते ह । यद् श्रन्यक्तदशावाली प्रकृति उस दशा में निर्व्यापार
होने के कारण गत स्थमृतसपेवत् करणकारणविविक्त चिन्मात्र ब्रह्य मे श्रन्तहित
ह । प्रलयकाल में जडवगं ्रकृतिदलापन्न हो जाता है श्नौर चिन्मय श्र पुरूष
रूप रहता है । दोनों प्रकार का जडजङ्खमजगत् प्रलयकाल मे ब्रह्य में ्रविभक्त
होकर श्रवस्थित रहता है1 लय प्रलय, या ग्रत्यन्तोच्छेद या नादा नहीं है श्रपितु
विकारो का श्रपनी प्रकृति में श्नव्यक्त स्प से श्रवस्थिस रहना ही लय कहलाता
=
| है 1 यहाँ तक कि ब्रह्य का विद्व के रूप में श्रवभासित होनेवाला व्यापार भी
्रव्यक्त रूप से प्रलयकाल में ब्रह्म नै अ्रवदय उपस्थित रहता है ।*
१. प्रकृतिस्वातन्त्यवादिम्यां सांख्ययोगिभ्याम् पुरुषाथप्रयक्ता प्रवृत्तिः
स्वयमेव पुरुषेण आद्यजीवेन संयुज्यते इत्यप्युपगम्यते अयस्कान्तेन
लोहवत् 1 अस्माभिस्तु ्रकृतिपुरुषसंयोग ईङवरेरण क्रियत इत्यभ्युपगम्यते ।
--वि०भा० पु० रे
२. द्रष्टव्य, वि० भा० प° ३५
अत्र लयो नात्यन्तोच्छेदः कितु विकाराणां ्रकृताव्यक्ततयावस्थानं
प्रकृतिपुरुषयोर्च ब्रह्मणि सुुप्तवनर्व्यापास्तयावस्थानमिति बोध्यम् ।
--वि० भा० पु ९६
४, ब्रह्मणो विद्वावभासनख्पव्यापारस्य प्रलयेऽपिसत्वात् ईहइवरोपाधेः
विद्वाकारवृक्ते नित्यत्वात् इच्छाङृतिवत् ।-वि० भा० पु० ९६-९७
ष
आचाय विज्ञ(नभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | १३१
भ्रव प्ररन यह् हो सक्ता क्रि विदवावभासनलूप व्यापार के स्थित रहने
पर् प्रलयदशा में ही सृष्टि क्यों नहीं होती रहतौ ? इसका सुन्दर एवं तकंसंगत
उत्तर यह् है कि इस व्यापार के उपस्थित रहन पर भी चकि उस समय प्रकृति
ध्रौर पुरुष नाम्नी शक्तिर्या सृष्टि प्रादि लक्षण वाले स्वकार्यो से उपरत होकर
सोती सी स्थित रहती है ग्रतः पुरुषाथंक्रियाकारिता का उस समय श्रभाव होता
है । फलतः उस समय सृष्ट्यादि नदीं होती ह 1
सृष्टि में कोई नई वस्तु उत्पन्न नहीं होती प्रपितु भ्राचायं विज्ञानमिघ्चुकी
भ्र्थपरम्परा में प्रनभिव्यक्त अ्रथवा प्रव्यक्त दशा मे स्थित वस्तुएं ्रभिव्यक्तया
व्यकवत होती दँ । सत्कार्यवाद की ही पूर्ण स्थापना यहाँपर कौ गयीहै।च्नतो
प्रलयदशा में किसी वस्तु का भ्रत्यन्त उच्छेद ही होता है बल्कि ग्रभिव्यक्त विकार
भ्रन्यक्तावस्था को प्रपि करते हैँ । एक वात इस;प्रसंग में ्रवस्य स्मरणीय है कि
इन विकारो की विकार दशा क परिमित होते रहने के कारण इनकी सत्ता कूटस्थ
नित्य ब्रह्य कौ सत्ता के समान नहीं है। उस तुलना मे जगतप्रप्च की सत्ता
शारवत्तिक होने पर भी कूटस्थ नित्य नहीं ओरनतो माया या गन्धवं नगरके
समान प्रातिभासिक ही है । इसको हम परिणामिनित्यता कट् सकते हँ 1२ अ्रतः
उत्कृष्ट पारमाथिक सत्ता केवल ब्रह्य की ही है प्रकृति श्रौर उसके विकारो की
सत्ता उस रूप की नहीं है ।
परिणशाभबाद
प्रकृति परिणामिनी है । वहो नाना विकारो मे परिणत होतौ रहती ह ।
सारी सृष्टि प्रकृति के विचित्र परिणामों का मेला या प्रदशिनी हे । आचाय
विज्ञान-भिक्षु ने सृष्टि की कारणता में परिणामिनी प्रकृति को ही प्रधानतादो है
श्रतः परिणामवाद के समर्थकों में ही उनकी गणना की जायगौ ४ यह प्रकृति
ईरवरोपाधि नदीं है । हम पूर्व प्रकरण में लिख श्राए हैँ कि ईरवरोपाधिभ्रूतमाया
श्रपरिणामिनी है । उससे सृष्टि सम्भव नहीं है 1 सृष्टि ईइवर की भ्रन्तर्लौनि
१. द्रष्टन्य, वि०भा० बु° १०८
२, एतेनसत्कायवादो््युपपादितः सर्वेषां सदसद्र पत्वात् 1--वि° भा०
पु १०४
३. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० १०२
ब्रह्मणः साक्षात्परिखामवादं विवतंवार्देच तत्रैव निराकरिष्यामः ॥
-वि० भा० पु० ३३
` ` "पक ` "करय
१३२ | आचाय विन्ञानभिश्ष
शवितभूत परिणामिनी प्रकृति से ही संभव है । यह् प्रकृति शुद्धसत्त्वा नदीं है,
प्रत्युत रजस्तमोबहुला है । विज्ञानभिशयु ने इस प्रकृति के दो रूप मनेहै
१-_परसपतमोगुएवालो, २--परविकतमोगुएवाली 1 इन्दं दोनों रूपों से पुरुष के
सान्निष्यवदात् श्रल्पतमोगुणी श्रौर शुद्ध जडात्मक वस्तुश्ो का विशाल संसार
उत्पन्न होता है ग्रौर प्रलयकाल मे उसी म श्रन्वित होकर पुनः बहा मे लीन
होता है 1
श्रत वर्गीकरण की भावना से देखने पर यह सुस्पष्ट प्रतीत होता है कि
विज्ञानभिक्चु न तो पुरातन श्राचायं भतू परपंच प्रादि की भाति त्रह्यपरिणामवादी
| ह नौर न शङ्कुराचायं की भाति माया के विवतं का राग श्रलापनेवाले हैँ ।
ईरवरोपाधिभूत माया को प्रपरिणामिनी मानने के कारण वे श्रौपाधिकपरिणाम-
वादी भो नहीं कहे जा सकते ।
मेदामेदबाद्
सव कु एक ही है या भ्रलग-ग्रलग ग्रनेक है। यह एक एसी समस्या है
जिने संसार के सभी दार्शनिकों को विवज्ञ किया कि उसका समाधान करकेही
वे दार्शानिक-व्याख्या-कषेत्र मेँ श्रागे कदम वढावे । सांख्य, योग, बौद जैन,
न्यायवैरोषिक तथा मीमांसा श्रादि दर्शनों ने तो नानात्व ही माना है । राङ्धुराचायं
ने सव कुछ दुर्मान जगत् को एक वास्तविक तततव के मरन्तगंत मान कर ॒श्रपना
मतवाद उपस्थित किया है । ्रन्य श्रदरत वेदान्तधारा्नों ने भी श्रपने-श्रपने ढंग
| से एकता या श्रद्रैतता प्रतिपादित करने की चेष्टा की है। इस प्रकार किसीने
| दुरयमान जगत् को मिध्या-प्रप्च कहकर उसे चरमतत्व का केवल ॒विवतं या
मरस्थायो बिलास माना है क्रिसी ने एक महान् तत्तव के पराधीन सब कुं स्थित
|
|
।
1
बताया है । श्राचा्यं विज्ञानभिश्चु को ये सभी सिद्धान्त श्रान्त प्रतीत हए भ्रवः
उन्होने मतृप्रपच्, भास्कराचायं श्रौर निम्बाकं की दिशा में भ्रपनी मान्यता को
ढाला । विज्ञानभिक्ु ने इन तीनों श्राचार्यो के मतवादों से प्रकटतः भिलता-
जुलता श्रौर वस्तुतः पर्यासत भिन्न भेदाभेदवाद प्रस्तुतं किया 1 इसी भेदाभेदवादं
कै वल पर उनका क्य श्रथवा श्रद्र॑त प्रावारित है।
ब्रह्म एक है । दुरयमान सकल चराचर जगत् उससे भिन्न है, श्रौर श्रभिन्न
भी । इस भेद का क्या स्वरूप है श्रौर इस ग्रमेद का क्या लक्षण है। इसी एक
रह्म मे अविभक्त रहकर ही उपादान कारण-भूत प्रकृति नाना रूपों में परिणत
होती है । यह् श्रविभक्तता कैसी है ? विभाग का मूल रूप भ्राचायं विज्ञानभिक्षु के
[
आचायं विज्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | १३३
भदेतदरन मे किस प्रकारका है ? इन सब जिज्ञासाग्रों के शान्त होने पर इस
“भेदाभेदवाद' का वास्तविक्र स्वरूप स्पष्ट किया जा सक्ता दँ । हम सवसे पहले
ग्रविभाग का लक्षण लेते हैँ । ्रावारत।-सम्बन्ध की ही भाति एक स्वरूप-सम्बन्व-
विशेष जिसका रूप श्रत्यन्त-सम्मिश्रण हो- विभाग कटलाता है ।१ इसो भ्रवि-
भाग के कारण द्टुग्ध एवं जलैक्य' की प्रतीत होती है। विकारिकारण से यदि
उसके विकार समवाय-सम्बन्ध से सम्बम्धितः हैँ तो उस कारण श्रौर कायंमें
श्रविभाग-सम्बन्ध कहा जाता है वैसे ही प्रधिष्ठानकारण से कायं के विविक्त
न होने पर (्रसम्मिश्रितन होने पर) मी दोनों में श्रविभाग-सम्बन्व कहा जाता
है । ब्रह्य भ्रंश है श्रौर पुरुष उसक्रे अंश ह, साथ ही प्रकृति भी उसकी अ्रन्तरलीनि
शक्ति ह इसलिए पुरुष श्रौर प्रकृति का ब्रा से श्रविभाग-सम्बन्व हुभ्रा। यही
सम्बन्व श्रि ग्रौर स्फुलिङ्खों मे रहता है । क्ोकरि.वे अ्रवयवी श्रौर श्रवयव हँ 1
यह् अविमाग ही ्रभेद हे क्योकि भ्राचायं विन्ञानभि्चु का कयनहै कि भिदि
वातु विदारण।्थक है इसलिए भिदि" धातु का श्रनुशासन विभाग में हौ मानना
चाहिए ।२
इस प्रकार से भिन्नत्वप्रत्यय का नियामक विभाग या भेद हुभ्रा ्रौर एेक्य
सम्मिश्रणरूप--श्राकाशवायुवत्, दुग्घजलवत् या लवणजलवत् प्रत्यय का निया-
सक श्रविभाग श्रथवा अ्रभेद हुभ्रा । शङ्कुराचायं श्रादि का कथन हे कि भ्रभेद सत्य
है, मेद भ्रौपाधिक है । रामानुजाचायं श्रौर वल्लभाचायं रादि का मत हे भेद-सत्य
है किन्तु ब्रह्म के लीला-विलास से सव कुछ होता रहता है श्रतः भेद भी उसीके
श्रधीन है ्रतः ब्रह्य का्रदेतत्व ्रष्ुण्ण हे। श्राचायं विन्ञानभिक्षु का कथन है
कि ब्रह्ममीमांसा मे जीव-्रहम के वीच भ्रभिविस्पुलिङ्खवद् प्रंशांशिभाव ग्रौर ्रवि-
भागलक्षणा वाला ही श्रभेद प्रतिपादित क्रिया गया है । श्रृतियों ने भी ेत-
दात्म्यभिदं स्वम्” के द्वारा न केवल जीवों के साथ श्रपितु सकल जडवगं के साय
भी ब्रह्म का श्रविभागलक्षणभिद ही प्रतिप।दित किया है । अन्यथा श्रद्ध जरतीय-
न्याय का दोष उपस्थित होता 1 °
१. अथवा अस्तु अविभागः संयोगविरोषः, स्वरूपसमभ्बन्धो वा आघेयत्वा-
दिवत् । जलस्योदधिलवबणस्य समुद्र अविभागव्यवहारस्यापलपितुमञ-
यत्वात् ।--वि° भा० पु° ५१
२. द्रष्टव्य, वि० भा० प° ४०
द्रष्टव्य, वि० भाप ४९
द्रष्टव्य, वि० भा० पू० ४७
न
"नवव
१३४ | आचायं विज्ञानभिष्ु
जीव श्रौर ब्रह्य मे श्रखण्डता ब्रथवा प्रतिविम्बवाद, या श्रवच्छेदवाद या
श्राभासवाद मानने का उन्होने कड़ा विरोध किया है ।१ श्रौर वहीं दुढृता के साथ
यह् भी कहा है" कि "तस्माद्भेदाभेदाभ्यां जीवव्रह्मणो रंशांलिभावः एव ब्रह्ममीमांसा-
सिद्धान्तोऽववारणीयः ।° इन भ्रंशो श्रौर प्रंशी का परस्पर विभाग श्रौर भ्रविभाग-
कालभेद से सर्वथा सद्खत है। प्रौर दोनों का परस्पर म्रन्योत्याभाव भी
श्राल्यन्तिक समभना चादहियेर । शक्ति श्रौर शक्तिमान् का नित्य-श्रविभाग मानना
ही चाहिये । दोनों मेँ विभाग याभेद यद्यपि मिथ्या श्रवा श्रौपाधिक नहींहै फिर
भो वह त्रैकालिक नहीं है । उत्पत्ति के पूवं भ्रौर मुक्ति के श्रनन्तर जीव ब्रह्म
भरंशादिभाव से श्रविभक्त हीह) इसीलिए श्रभेद ही दोनों के वीच नित्य एवं
सत्य सम्बन्ध है । यह् श्रभेद एेक्य श्रथवा श्रखण्डत्व से भिन्न श्रविभाग-लक्षण
वाला ही है। इस प्रसङ्घ में किसी को यह शङ्खान करनी चाहिए कि विज्ञान-
भिक्षुका मतश्दधैतही नदींहै, क्योकि श्रदतका सूप उन्होने नानात्व के सत्य
होने पर भी सामान्यपरक या जातिपरक बताकर ही स्थापित किया है।
इस भेदाभेद को विज्ञानभिघयु ने अद्वैत के सचि में ठालना चाहा दै। उनका
मदाभेदवाद श्रद्र तवाद का वशवर्ती है इसीलिए उन्दं भेदाभेदवादौ न कट् कर
श्रद्रंतवादी ही कहना चाहिये । इस प्रभिप्राय को उन्होने एक स्थल पर इस
प्रकार से खष्ट कर दिया है--तस्मात् सिद्धौ जीवेस्वरयोरंशांशिभावेन भेदाभेदौ
विभागाविभागरूपौ । तत्राप्यविभाग एव श्रायन्तयोरनुगतत्वात् स्वाभाविकत्वात्
नित्यत्वाच्च सत्यः । विभागस्तु मध्ये स्वल्पावच्छेदेन नैमित्तिको विकारान्त-
रवद्वाचारम्भणमात्रम् इति विशेषः 1 तदेवमात्पाद्रं तम् व्याख्यातम् ।* २
युक्ति का स्वरूप
भक्ति को मनीषियों ने मानव का चरम पुरायं माना हे। विज्ञानभिश्चु को
भ्रपने गुरु के द्वारा प्राप क्रिए गणएु सक्ति पद की तलाश श्रपते तथा श्रपने शिष्यो
के लिएरटै 1 श्रतः श्रुतिस्मृतिन्यायवचन-रूपी क्षौरसागर का मन्यन करने से
हस्तगत हए ज्ञानामृत को वे विज्ञानामृतभाष्य के रूप मे सभी सुबुद्धि मूमृधप्रों मे
वितरित करते ह ।४ इस भाष्य में उन्होने मुक्ति के शुद्ध-स्वरूप, मूर्ित के प्रकारः
उसक्ते सावन तथा भक्ति श्रौर योग श्रादि पर पर्याप्त प्रकाश डाला है ।
५
वि० भा० प° ५०
द्रष्टव्य वि० भाण्पु° ५१, ३६२, ३६३२, २६४
द्रष्टव्य, वि०भा०पु० ६१
श्रुतिस्पृतिन्यायवचःक्षीराव्धिमथनोदध.तम् ।
ज्ञानामृतयुरोः प्रत्ये भदेवेम्योचुदोयते ॥ ३ ।--वि० ना०प्रु० १
©< «५ ५ ‰
आचार्यं वि्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | १३५
परुषच्छायापन्न-महदादि के भ्रव्यक्त मे लीन हो जाने पर पुरुष को कंवल्य
या मोक्ष हो जातादहै\ विकारविलय कै द्वारा चिन्मात्र रूप से पुरुष का स्थित
रहना ही मोक्ष है 1 जिन पूण्य-पापों के फलखूप कार्यं श्रारम्भ नहीं होते उनका
नाह सम्यगञान से ठो जाता है । श्रौर जिन पुण्य-पापों का फल प्रारम्भ हो जाता
है उनका नाश केवल ज्ञान से नहीं होता । यौगिकविषियो से तुरन्त भोग श्रवा
जीवन्मुक्त के रूप में सामान्य रीति के भोगके द्वारा उनका क्षय करके ही पुरुष
मुक्त हो सकता दै । इस प्रकार से ज्ञान केवल संचित कर्मो तथा क्रियमाण कर्मो
के फल को शान्त कर सकता है । प्रार्य कर्मो का ना केवल ज्ञान से नहीं
होता उसका नार भोगं के द्वारा दी सम्भव है--चाहे वह सावारण रीतिसे
हो श्रथवा योगोक्तरीति से, सांख्य योग॒ की चेतना से श्रनुप्राणित श्राचायं-
विज्ञानभिश्चु चूंकि ब्रह्म को श्रानन्दमय नहीं मानते, श्रतः मोक्ष-दशा मे भी पुरुष
को श्रानन्द-ून्य ही मानते है" । भ्रानन्दमयता का उन्होने प्रवल प्रतिरोच
किया है । निग ब्रह्म को भ्रानन्दगुएयुक्त बताना ग्रौर मोक्ष को आ्रानन्दविशिष्ट
दा मानना उनकी दृष्टि मेँ सर्वेथा श्रसंगत है। आ्रत्मा की चिन्मात्रता या
चिन्मयस्वरूपता पर ही उनका एकमात्र प्रग्रहं च
क्ति के भेद
विज्ञानभिक्षु ने दो प्रकार की मित मानी है । एक है सद्योमूवित श्रीर
दूसरी क्रमिक मुक्ति 1* वस्तुतः ये दोनों भेद मुक्ति के स्वरूप के भेद नहीं हैँ
भ्रपितु मवितलाभ होने मे लगनेवाले समय के लिहाज से है) स्मुक्ति के सम्बन्ध
मं वताते हुए वे लिखते है कि निखिल-वेदान्तों के सारभूत तत्त्व ख मे श्रात्मेति
सोऽहम् 1' का साक्षाक्तार करने वाला शमदमादिसाधन सम्पन्चविद्रान् भ्र्थात्
ब्रहा्ञानी श्रविद्या तथा तज्जन्य कामधर्माघभे के क्षय हो जाने पर विमोक्ष का
लाभ करता है उसके सारे दुःख सदा के लिए विगलित हो जाते ह \ न तस्य
प्राणाः उत्क्रामन्ति" एेसी श्रुति है 1 यह उसकी सद्योमुक्ति कही जायगी 1२ यही
परमामुकिति या एेहिक मुक्ति के नामस भी वणित दै
~~~
९. द्रष्टव्य, वि० भा० प्र ५७६
२. इति विस्तरेण विद्याफलं सोक्षद्रयमेहिककनथुदितूपं विचारएेयस् ।
--वि० भा० प° ५
, द्रष्टव्य, वि० भा० प° ५२६
( ययोक्तसाघनै्निगु एह्यविदयापरिपाकवत एेहिको परममुविर्तावचारिता ।
--वि० भा०पु० ५७९
< ५
[वि -
| १३६ | आचायं विज्ञानभिष्ु
इसके श्रतिरिक्त प्रकार से भी कुछ साधकों को मुविति होती दै । वह
क्रममुक्ति के नाम से बताई गई है । उसका वर्णन करते हुए विज्ञानमिश्चु लिखते
है करि जो साघक माया तथा जीवादि के भ्रविवेक से शबल ब्रहम की उपासना
करता है श्रौर तच्निष्ठ हो जाता है। वह् भ्रचिरादि गुभ-मारगो से सावरण
वहिगंमन करता हुभ्रा कारणब्रह्य मँ रह कर दिरण्यगर्भादिकों का भी ईरवर वन
| | कर परमेश्वरेच्छा से उसके लीलावतार सूप प्रवतार श्रादि लेकर स्वेच्छा से वहीं
| क्रमशः मूकति लाभ करता है 1 श्रयवा कायंब्रह्य के लोक को प्राप्त करके दो
परार्धं के भ्रन्त तक वर्हां ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादि के साथ भोग प्राप्त करता हुप्रा
परिपवव ज्ञान प्राप्त करके ब्रह्मविष्णु रदरादि देवाग्रो के साथ क्रमिक मुत का
लाभ करताहै। यदि यहाँ पर मूक्तिलाभ न कर सका तो भ्रन्य सगे मेब्रह्मा-
विष्ुभ्नादि रूपसे पुनरावि्भूत दोता है जब तकत कि धीरे-धीरे किसी न किसी
सर्गान्त तक मुविति-लाभ नहीं कर लेता । ये स्थिति्यां क्रमिक मुवित की वैकल्पिक
गतिया हैँ । १ इनका नाम सामूहिक रूप से क्रम मुक्ति या क्रमिक मुक्ति हं ।
अरन्य वैष्णाववेदान्तियौं के दवारा मानी गई सायुज्यादि मुक्त्यां इस क्रमिक मुक्ति
के श्रन्तरङ्ध सोपान की ही ददाएं ह । वे भ्राचायं विज्ञानमिष्चु के मत मे शुद्ध
मुक्ति नहीं हँ \२
ब्रह्माविष्पणुरुदरादि देवताग्नों का एेश्वर्यं॒भ्रनित्य है श्रतः उनको भी त्रिविध-
तापों का एकान्तिक तथा श्रात्यन्तिक विनाश करने के लिए क्रम-मुक्ति का
्राश्रय लेना पड़ता है चकि वे पहले के कायेत्रह्मोपासक साधक ही रहं प्रतः उन्हें
प्राप्त होनेवाली मुक्ति क्रमिक मुक्ति के ही श्रन्तगंत मानी जाती हे ।
युक्ति के साधनं
यद्यपि ज्ञान को ही प्रधानतः मुक्ति का साधन अआआचायं विज्ञानभिष्ुने भी
बताया है किन्तु इस ज्ञान को योग के ठचेमं ढाल कर ही मुक्ति के साधन के
योग्य बनाया गया है । साक्षाक्ार-ज्ञान होने के बाद ही साघक को श्रसम्परज्ञात योग
की सिद्ध होती है । श्रसम्प्रज्ञात समाधि के द्वारा चित्त का विलय हो सकतादहै
श्रौर तभी मोक्ष होता है 1 मोक्ष का प्रकृष्टसाधनभरूत यह् ज्ञान किस प्रकार से
मोक्ष को श्रापादित करता है ? इस जिज्ञासा में प्राचां का स्पष्ट उद्घोष हे
किं “तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होती है श्रौर प्रपूवं उत्पन्न होता हे।
इस श्रपूवं के द्वारा कमंनिवृत्ति होती है । इस कमंनिवृत्ति के द्वारा तथा तत्तवज्ञान-
~~ ~~~ ~ -- ---
१. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ६२६
२. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० १२३१-२३२
आचायं विज्ञानभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | १३७
जन्यवैराग्य के द्वारा मुक्ति-लाभ होता है वयोकि स्वयं विद्याया ज्ञान विना
किसी ह्वार के धर्माधमं का नाडा नहीं कर सकता ।"
कभी-कभी परवैराग्य के उदय होने पर परतत्त्वज्ञानजन्य श्रपू्वं के माध्यम
की ्रावर्यकता मुवितिलाम में नदीं भी होती, क्योकि परवेराग्य कर्मानुत्पाद ल्प
दृष्टक्रार मात्रसे ही मोक्ष-सम्पत्त कर देता है । इसमें यह् विशेषता प्रवद्य
होती है कि श्रपूर्वं-रहित मार्ग से मोक्षलाम मे कुछ देर होती.है । इस तत्त्व-ज्ञान
सेवेही धर्म-ग्रधमं क्षयित होते है जिनका कायं श्रथवा फल प्रारम्भ नहीं हत्रा,
प्रारब्धकर्मो का नाश केवल भोग से टी सम्भव है 1२
चूंकि ब्रह्य हौ एक तततव है श्रतः उसी का साक्षात् ज्ञान भर्थात् ब्रह्मज्ञान टी
तत्त्वज्ञान है वही सुवित का हेत्, बताया गया ह । श्राचायं विज्ञानमिक्षु का कहना
है कि चकि जीव श्रौर ब्रह्म मं श्रभेद दै श्रत: केवल जीवात्मा के ही तात्त्विकं ज्ञान
से भी मुक्ति समुपलब्य हो सक्तौ है । किन्तु दोनों मार्गो में ब्रहयज्ञानजन्यमुक्ति
वाला पय ही श्रिक श्रोयस्कर हे। वही मुख्य-कल्प है जैसे केवल गोदान
अघमकल्प तथा स्वश॑मपृद्ध-युक्तगोदान मूख्यकल है 1२
उपर्युक्त निग ण ब्रह्मतत्तवज्ञान से एेहिकी मुक्ति होती दै1 सगुण ब्रह्मएके
कर्मोपासना वालि ज्ञान से क्रम मुक्ति का मा्प्ररस्त होता है 1 भक्तिभाव
उपासना क्म ्रादि के द्वारा इष्टदेवनिष्ठ साधक अ्रचिरादिमागं से अ्रपने इष्ट-
लोक मे पर्वोकित रीति से पहंचता श्रौर ओग करता है । जिस प्रकार का ज्ञान प्राः
उसी के ्रनुसार वहां भोग ओर निवास एव क्रमिक मुक्ति सम्भव होती है ।*
१. द्रष्टव्य, वि० भा० प्रु ४८७
अनारब्धकार्ययोः पुष्यपापयोविद्यया ना इत्युक्तम् । इतरे त्वारव्धफलके
पुण्यपापे भोगेन क्षपयित्वा निरस्य ब्रह्म सम्पद्यते समुद्र नदो-
वदिति ।--वि० भा० पु ५७९
३. यथाप्रकृष्टं दानं स्वरणश्द्धादियुक्तगोदानं भुख्यः कल्पः केवलगोदानं
चाधमः कल्पः एवमेव त्रहयज्ञानं मुख्यः कल्पः केवलजीवतत्वज्ञ।नं
चाधमः कल्प इत्यर्थः, ब्रह्मज्ञाने जीवज्ञानस्याप्यन्तर्भावाद् ृष्टान्त-
साम्यम् !--वि० भा० प° ५११
४. तथा च सगुणविद्यायाः ब्रह्मलोकग्राप्ति-पवंक-मोक्षत्वेन कायता ।
--वि० भा० पु° ५१७
५. द्रष्टव्य, वि० भा० पु ४९७-४९९
"~ ^
१३८ | आचायं विज्ञानभिक्
ज्ञानकम श्रौर उपासना
सगुण ब्रह्म की उपासना करने से तत्त्वज्ञान की क्रमिक प्राप्ति तथा क्रम
मुनित-परा्ि मे उपासना या भविति तथा कर्म की वड़ी उपयोगिता दै । किन्तु
परम-मूवित श्रयवा सदयोमूर्वित में वह् वात नदीं है । वह॒तो निर्गृण-तत्त्वज्ञान से
साक्षात् होती है 1 भ्रव प्रश्न यह उठता है कि क्या सद्योमूक्िति मे तत्त्वज्ञान कर्म-
निरपेक्ष दी साधन है ? प्रथवा कर्मं प्रर ज्ञान दोनों का समुच्चय सद्यो-मूवित का
| साधन है ? या फिर कर्मं प्रान भ्रौर तत्वज्ञान उसका श्रङ्खभरत टो कर सद्यो-मुविति
| सम्पादित करता है । इस विषय में वेदान्त की सभी प्रमुख शाखाभ्रो मे बडा मत-
| भेद है 1 प्राचायं विज्ञानभिष्चु ने यहां पर भो भ्रपनौ समन्वयात्मक प्रवृत्ति का
। पष्करल परिचय दिया दै 1
| उनका कहना है कि श्रविकारी के श्रवस्थाभेद से तीनों स्थितियां होती है ।
भ्रधिकरारी तीन प्रकार के होते है । १-योगारुरु्ु २-युञ्जान श्रौर ३--योगाल्ढ् ।
प्रथम प्रकार की श्रवस्था में कर्मं का श्रद्खभूत तत्त्वज्ञान रहता दै । द्वितीय श्रव
स्था में ज्ञानकमंसमुच्चय होता है । ्रौर वज-प्रधिकारी कौ तीसरी श्रवस्था भ्रा
जाती है तव ज्ञान प्रधान रूप से सद्यामुवित का साधन वन जाता है । मूक्िति-टेतु
के रूप में तत्वज्ञान की स्वतन्त्रशवित रहतो है । गर्डपुराण का उदाहरण भी वे
देते ह१--
श्रारुरुघुयतीनां च कर्मज्ञाने उदाहृते । प्रारुढयोगवृक्षाणां ज्ञानत्यागौ परौ मतौ ॥'
सच्ची परिस्थिति तो यह् है कि क्म का तत्त्वज्ञान से कोई विरोधभीतो
नहीं है । कमे का विरोव तो समाधि सेरहै। ज्ञान के साथ तो केवल कर्माभिमान
का विरोध है 1२ स्वाभाविक कर्मं तो स्वतः होते रहते हँ । चूंकि समुक्ति-सिदधिमें
तत्त्वज्ञान प्रघान है ्रतः वह बाहरी अ्रग्नि एवम् इन्धनादि से निरपेक्ष हौ स्वयं.
स्वतंत्र रूप से मोक्ष-रूप फल देता है ।
भ्रन्ततोगत्वा हम इस निषकरषं पर पहूंचते हँ कि श्रपनो सारी समन्वयात्मकता
के होने पर भी श्राचायं विज्ञानभिश्चु साधना की वास्तविक भूमि प्रर्थात् योगा-
रूढ श्रवस्था में क्मशेषत्व तथा कममंसमुच्चय दोनों का खण्डन करते हैँ श्रौर कमे-
निरपेक्त ज्ञान को परममुक्ति का हेतु मानते हैँ । सगुणोपासना यद्यपि क्रममुवित-
लाभमें एक श्रनिवायं सीद है, तथापि यह् न समना चादिए करि जैमे निर्गुण
१. द्रब्टव्य, वि० भा० पृ ५२०८५२९
२. द्रष्टव्य, वि° भा० पु० ५३०-५३१
३. द्रष्टव्य, वि० मा० प° ५४३
आचायं वित्नानभिक्षु के वेदान्तसिद्धान्त | १३९
ब्रह्मज्ञान से सद्योमुविति हो जाती है वैसे दी सगुणोपासना से क्रममूव्ति प्राप्त
होती है; इसलिए सगुणोपासना भी मोक्ष का हैतु है प्रौर इसीलिए सगुणोपासना
तथा निगएब्रह्यज्ञान दोनों का मोक्ष हेतु रूप से विकल है । विज्ञानभिक्षु स्पष्ट
रूप से कहते हैँ कि सगुणोपासना से ब्रह्मलोकादि की प्राप्तितोहो सकतीहै श्रौर
होती है । उन लोकों मे भोगों की प्राप्ति भी होती है। सगुणोपासना का फल
इन लोकों की प्रापि श्रौर भोग ही है मुक्ति नीं ।+ मुक्ति के लिए निर्गुण
ब्रहाज्ञान या जीवब्रह्माभेदरूपी निरग्एतत्तवन्ञान इन साधकों को उन लोकों में रह-
कर भी प्राप्त करना ही होगा; तभी मुक्ति मिल सकती है; अन्यथा नहीं । भांति-
भति के रेश्यं भले हौ मिलें । इस प्रकार से क्रममुक्ति को प्राप्ति भी ज्ञानसे
ही होगी भले ही वह् ज्ञानं बरह्यादिलोकों में रहकर प्राप्त क्रिया जाए ।२ इस-
लिए उभयविध मुक्ति का हेतु केवल तत्त्वज्ञान ही है । सगुखोपासना जीव के
भोगों को भले ही उक्कृष्ट करती रदे, मोक्षहेतु नहीं वन सकती 1 ग्रतः मोक्ष
हेतुत्वेन निगगःएतत्तवज्ञान श्रौर सगुणत्रह्मोपासना मेँ विकल्प॒कौ कल्पना भीनहीं
की जा सकती 1४ मुक्ति के दोनों भेद साघनभेद के श्राघार पर नहीं किए गए
हँ बल्कि करमिकता मौर क्रमरदितता के कारण किए गए है। न तो दोनों
मुवितयों मेँ स्वरूपभेद है न साघनभेद । केवल प्राति मे लगने वाले समय के
नाधार पर ही मुक्ति केयेदोभेद माने गए है ।
१. विद्यात्व्ञानमेव मोक्षस्य हेवुः न तु जमर्पा सगुणोपासना कुतः निर्धा-
रणात् तमेव विदित्वातिमूत्युमेति' इतिनिर्धारणपत् {दि भार
प° ५९४
२. ब्रह्मलोकत गता हि तन्नैव ज्ञानोपरता हि तत्रैव ्ञानोत्पत्या प्रायलो-
मुच्यन्ते ।-वि० भा° ¶० ४९
३. अधिकारिणः सृष्टि-स्विति-संहारादि हरादयस्तेषाघ्ुपासकूज्चा-
धिकारिक्तस्तेषां तत्तद् वताधिक्ारकालपर्यान्तमेव बरह्मलोक्ता दिषु
स्वोपास्यदेवैः सहावस्थानं फलं न सवदा न वा तदन्ते सोक्षविलय
इत्यर्थः ।-वि० भा० प° ४९०
४, ततस्च भोक्षफले दैवम्यान्त-सगुरतिरग् ए-विचययोविकल्प इति सिद्धम्
--वि० भा० पुर ५१२८
द्रष्य ३
आचाय विज्ञानभिचतु के सांख्यसिद्धान्त
प्रमाण-तितैचन
यद्यपि सांस्य-शास्त्र भी योग ग्रौर वेदान्त की माति प्रमेय-परायण॒ है तथापि
इस शास्त्र के अन्तर्गत श्रा चायं विज्ञानभिष्ु े प्रमाणपरम्बरा का विवेचन बड़
मनोयोग से किया है । प्रमाणो की वास्तविक उपादेयता यदह दै कि वे विवेक-
ज्ञान-लाभ करने के साक्षात् उपाय है । श्रूतियों में भी प्रमाणएत्रय की सहायता
से श्रात्मज्ञान की प्राप्ति का संकेत दै)" शराचायं गोडपाद श्रौ श्रनिरढ श्रादिने
सूत्रों प्नौर कारिकाभ्रों की सी लैली में प्रमाणो कावडा संक्िक्त विवरण दिया
है । वाचस्पति मिश्च भ्रौर विज्ञानभि्चुने करमशः सां० त° कौ ग्रौर सां० प्र
भा० मेँ प्रमाणो का विराद एवं विस्तृत प प्रस्तुत करने की चेष्टाकी है।
विज्ञानभिक्षु ने पूरे पदछृत्य के साथ सा० सूत्र क्रम संख्या १।८७ कौ च्याख्या
करके प्रमाणकी परिभाषा निर्धास्ति की है । श्नौर यह् बताया है कि पातज्जलमाष्य
की ही भांति सांख्यशास्त्र मे भी पुरषनिष्ठ वोवही प्रमा है ।२ इस मान्यता के
ग्राधार पर वुद्धिवृत्ति ही वास्तविक प्रमाण है ! इन्दरियसन्निकषं इत्यादि केवल
परम्परा या प्रमाण कहे जा सक्ते है २ उन्हे साक्षात् प्रमाण मानने .परं प्रमा
केवल बुद्धिनिष्ठ ही रहं जायगी किस्तु यह वात हमें अभीष्ट नदीं है। जोकारण
, फल या कायं को साक्षात् उल्मन्न करे वही करण होता ह 1" इसलिए वबुदिवृत्ति
ही प्रमाकाकास्ण दै । अ्रतः वही प्रमाण है । सांख्यसिद्धान्त में पुरुष-निष्ठ-वोव
क्तोहीप्रभाभ्रौर बुद्धिवृत्ति को ही प्रमाण माना गया है । सांख्य-सूत्रो का संकेत
भी बोघ को पौरुषेय मानने कीहीश्रोर दहै 1९
१. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोत्तग्यो मन्तव्य इति आदिश्रुतिर्भिहि प्रमाण
ज्रयेत्मन्ञानमित्यवगम्यते 1 -सां ० प्र° भा° ९० ४६
२. पातजञ्जलभाष्ये तु व्यासदेवैः पुरुषनिष्ठबोघः रमे्युक्तः--अतोऽतरा प
स एव भल्यः सिद्धान्तः ।--सां० प्र० भा० पु ४६
३. चक्षुरादिषु तु प्रमाणव्यवहारः परम्परयैव सर्वथेति भावः \--सां°प्र°
भा० पु० ४६
, फलायोगन्यवच्छिन्नत्वं करणत्वम्-न्यायमकरन्द १ \ प° २
५. चिदवसानो भोगः--सा° सु° १1 १०४
१४४ | आचायं विज्ञानभिक्षु
प्रमाण प्रक्रिया
प्रमाणो की कार्य-प्रणालो यह् है कि प्रारम्भ मे इन्द्रिय द्वारा, श्रथवा इन्दि
या्थंसन्तिकषं द्वारा भ्रथवा लिङ्खज्ञान भ्रादिके द्वारा बुद्धि की प्र्थाकार वृत्ति
हो जती है श्र्थात् ऊपर बताए गए किसी माघ्यम से वुद्धि भ्र्थाकाराकारित
पर्थात् तद्रूप हो जाती है। यही भ्र्थोपरक्त वुद्धि-वृत्ति प्रतिविम्ब रूपमे
पुरुषारूढ होकर भासती है । यहां पर ध्यान रखने की वात यह् दै कि पुरुष
वुद्धि की भांति परिणमशील तो है नहीं । श्रतः यह् वुद्धिवृत्ति के प्राकार
का नहीं हो सकता । श्र्थाकारता ही श्र्थग्रहण या बोध है । श्रव प्रखन
यह् रै कि यह बोध पुरूष को कंसे होता है? इसका उत्तर बड़ी सूक्ष्मता
से श्राचायं विज्ञानभिक्षु देते हँ कि यहाँ जपाकुसुम कौ भांति उपरक्तता नदीं
होती, पुरुष को केवल प्रमिमान होत। है । योगसूत्र, स्मृतियां ग्रौर योगभाष्यादि
इस विषय में प्रमाण हैँ पुरूष बुद्धि के द्वारा लन्धोपराग भ्र्थो का प्रतिसंवेदन
करता हे । प्रतिसंवेदन कते हँ प्रथम-संवेदन के प्रतिविम्ब को ।२ बुद्धिवृत्ति
का यह प्रतिबिम्ब मिथ्या होता है ग्रतः वबुद्धिवृत्ति ओौर इस में जन्य-जनकर
भाव न समभना चाहिए 1 बल्कि बुद्धि का यह एक विम्बाकार जैसा
परिणाम-विशेष है । जैसे जलादि-गत किसी वस्तु का प्रत्िविम्ब ।9
इसी प्रङ्ख मे विज्ञानभिश्चु ने वाचस्पति मिश्च केमतका खण्डनभी क्रिया
दै । वे कहते हैँ कि कुच लोगों के मत से वुद्धिवृत्ति में प्रतितिम्बित . चैतन्य
हो वृत्ति को प्रकाशित करताहैग्रौर यह प्री ्रिम्बगत चैतन्यत प्रर्थोंकाज्ञन
करता है । यही श्रथज्ञान पौरुषेयवोध है । इस मत के श्रनुसार प्र्थाकारा-
१. वृत्तिसारूष्यमितरत्र-यो० सु १।४
तस्मिरिचिद्पंणे स्फारे समस्ता वस्तुरृष्टयः
इमास्ताः प्रतिविम्बन्ति सरसीव तव्द्र माः । - स्मृतिः
बुध : प्रतिसंवेदी याः पुरुष इत्येवमधिगच्छतीति ! यो० भा० पु० ८७
२. प्रतिध्वनिवत् प्रतिसंवेदः संवेदनप्रतिबिम्बः । तस्याशयः इत्यथः ।
-सां० प्र° भा० पु० ४७
३. न च शन्दजन्यं शब्दान्तरमेव प्रतिध्वनिरिति वाच्यम् !-सां० प्र
भा० पु० ४७
४--प्रतिबिम्बर्च बुद्धे रेव परिणामविरोषो विम्बाकासो जलादिगत इति ।
-सां० प्र० भा० पु० ४७
~+ न~~
आचायं विज्ञानभिक्षु के सास्यसिद्धान्त | १४५
कारित वृद्धिवृत्ति पुरुष में प्रतिविम्वित नहीं होती ।१ इस मत को विज्ञान
भिक्षु श्रसत् श्रौर भ्रान्त कटते हैँ क्योकि यह वात शस्त्र से विष्द्रहै।
केवल तकं के श्राधार पर शास्त्र-विरुद्ध वात नहीं स्वीकार की जा सकती । वृत्ति
श्रौर चैतन्य का भ्रन्योऽन्य-विषयता रूप सम्बन्ध होने से दोनों मे एक दूसरे के प्रति-
विम्ब की सिद्धि होती है । बाह्य-वस्तु मे अर्थाकारता की विषयता सिद्ध हो जानेः
पर श्रव भ्रर्थाकारता में किसी भ्रन्य की ही विषयता माननी चाहिए । इसलिए
वद्धिवृत्ति का प्रतिबिम्ब पुरूष मे मानना समीचीन है ।*
जो नैयायिक लोग ज्ञानवृत्ति का विपय बनना नहीं स्वीकार करते, उनके मत
में ज्ञानांशों मे श्रनुगमकधमं के भ्रभाव में अ्रलग-प्रलग घटज्ञान, पटज्ञान, पुस्तक-
ज्ञान श्रादि अनुबोध व्यवहार के श्रसम्भव हो जाने का अनिष्ट-प्रसङ्घ उपस्थित
हो जाता है 1 नैयायिक लोग इस श्रसम्भवता को देख कर विषयता नामक एक
ग्रलग पदार्थं की कल्पना करते हँ । ° पर भ्रनुभ्रूत होती हुई भर्थाकारता को छोड़
कर विषयता नामक एक श्रौर पदाथं की कल्पना करने में अ्रनावरयक गौरव है ।
ग्रतः यह मतभी हेयहै। ° सच बाततो यहहै कि चैतन्य में वृद्धिवृत्तिकी
प्रतिविम्ब-कल्पना के विना स्वत्व की भी स्थिति नदीं हो सकती ।* इसीलिए यही
सिद्धान्त समीचीन है--
"तस्मादचैतन्यचैतन्ययोरन्योन्यविषयतारूपौऽन्योन्यस्मिन्मन्नयोऽन्यप्र िनिम्बः
सिद्धः।-सां० प्र ° भा० प्र ४७
१. केचित्त. "`न तु चैतन्ये वृत्तिप्रति विम्बोऽस्तीत्याहुः ।--सां० प्र° भा°
पु० ४७ ।
२. अ्थभानं चितावर्थप्रतिविम्बो मतो बुधैः 1
वृत्ते रेव चितो साक्षात्प्रतिविम्बनयोग्यता 1 -सां० प्र° भा० पु० २३
३. केचित्त, ताक्तिका अनयेवानुपपत्या विषयतामतिरिक्तपदायं माहुः 1
--सां० प्र° भा०पु० ४७
४ तदप्यसत् अनुभुयमानामर्थाकारतां विहाय विषयतान्तरकल्पने
गौरवादिति -सां० प्र० भा०पु० ४
५. स्वत्वं हि स्वभुक्तवृत्तिवासनावत्वम् 1 भोगरच ज्ञानम् ।-सां० प्र
11५1 पु० ठ
अ्थभानं चितौ अर्थप्रतिबिम्बोमतो बुधः 1
बृ्ेरेव चितौ साक्षातप्रतिविम्बनयोग्यता ॥\१८।।--सां° सार०प० २३
फा०--१०
"` 1 सि दते -
१४६ | आचाय विज्ञानभिघ
निष्कषं यह निकला कि शुद्ध चेतन पुरुष ही वास्तविक प्रमातादहैभ्रौर
वद्धिवृत्तियां ही प्रमाण है । र्थोपरक्तवृत्तियो का चैतन मे प्रतिबिम्बित होना ही
प्रमा है । पुरुष मेँ प्रतिविम्बित होनेवाली वृद्धिवृतियों के विषय ही प्रमेय है ।
इस प्रकार से पुरुष-गत वुद्धिवृत्तिकमं क साक्षादृ्ंन ही पुरूष का साक्षित्व वताया
गया है 19
प्रमाणो के विशेष लक्तण
रमाण तीन है--प्रवयक्ष, म्रनुमान श्रौर शब्दं 1 जो विज्ञान-वस्तु से सम्बन्वित
हो कर सम्बन्धित वस्तु का श्राकार धारण कर लेता है वह विज्ञान या बुद्धिवृत्ति
| ्रलक्च प्रमाण दहै । श्र्थात् श्रपने प्रथं के सन्निकषं से उद्भूत श्राकार की भ्रा्रय-
। भूत बुद्धिवृत्ति ही प्रव्यक्त प्रमाण कहुलाती है 1 वुद्िवृ्ति श्रौर श्रथं के सन्िकरष
के लिए तमस के प्रतिबन्ध को दूर होना चादिए । तमःप्रतिबन्ध का दूरीकरण
कभी इन्द्रिय भ्नौर भ्रथं के सन्निकषं से श्रौर कभी योगज धमं से होतारै, जैसे
निं श्रञ्जनके संयोग से नेवं का मालिन्य दुर होता है।२ चव्यास्षिकेज्ञानसे
व्यापक का ज्ञान' इस रूप की वुद्धिवृत्ति अनुमान नामक प्रमाण कहलाती है ।
्नुमिति नाम की प्रमा पौरुषेय बोध हुई । भ्रनुमान के तीन भेद र--पूवेवत्,
शेषवत् श्रौर सामान्यतोदृष्ट 1 सामान्यतोदृष्ट श्रनुमान से प्रकृति प्रौर पुरुष का
श्रस्तित्व सिद्ध किया जाता है ।९ योग्यया विदवसनीय के शव्द से उत्पन्न ज्ञान
ही शब्द नामक प्रमाणं कहलाता है । इन वृत्तियो का उपभोग भ्र्थात् बुद्धि
१. प्रमाता चेतनः शुद्धः प्रमाणं वृत्तिरेव नः \
प्रमाचार्थाकारवृत्तीनां चेतने प्रतिबिम्बनम् 1)
प्रतिविम्बितवृत्तीनां वियोमेय उच्यते 1
साक्षाददरनरूपं च साक्षित्वं वक्ष्यतिवं स्वयम् \--सां°प्र°भा०प० ४न
105 सणाल एदतावजवतं शण अर 171611101568 एप्तता1),
(11111, [7लागााल€ा211265 11८ (1-व0ऽत्ातला। उल् 17
गवलया (0 छ्दुगाभप (1९ €ल6 1९1८5 0 (115 111 7 9 णऽ.
1 |€ गप्रा ० कल इत्प्राता$१ 56100] ०। वाालप्हाा.
ए 0. (परापत ऽलो (प, 2. 31.
२. अञ्जन संयोगेन नयनमालिन्यवत् !-- सां ० प्र ° भा० पु° ४९
२. तत्र सामान्यतो हष्टादनुमानाद् दयोः प्रकृतिपुरुषयोः सिद्धिरित्यथः ।
--सां० प्र० भा० पु० ५
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आचायं विज्नानभिक्षु के सांख्य सिद्धान्त | १४७
के कर्मकेफरंकाभोग निष्क्रिय पुरुष को प्रतिविम्बनके द्वारा होता ह ।
उपमान श्रौर एतिह्यादि प्रमाणो का भ्रन्तर्माव भ्रनुमान में श्रौर श्रनुपल-
ज्घ्यादि का श्रन्तर्भाव प्रत्यक्ष में ठो जाता है।२
मोगस्तदकतुं (1
१. इद्धिक्मफलस्यापि वृत्त र्पभोगस्तदकर्तुरपि पुरुषस्य युक्तः
अन्नाद्वत्, यथात्यकृतस्यान्नादेर्पभोगो राज्ञो भवति तद्वदित्यथंः 1
--सां० प्र० भा० पु° ५५
२. उपमानेतिल्यादीनां चानुमानरशब्दयोः प्रवेशः \ ठ रत्यक्षे ,
प्रवेशः इति !- सां ० प्र० भा० पुर ४
|
|
|
|
[८
पुरुष-िचार
श्रस्तित्व
चार्यं विज्ञानभिक्चु की धारणा तो यह हँ कि पुरुष का प्रस्तितव सिद्ध करने
के लिए कोई श्रनुमान श्रादि इस लिए ग्रनिवायं नहीं है किं इस विषय में प्रायः
सभी मतवाद एक है । भ्रत्य श्रास्तिक दशनो का तो कहना ही क्या है भोक्तृरूप
्रहम्पदा्थं तो बौद्ध लोग भी स्वीकार करते हं ।९ तथापि प्रकृति से प्रतिरिक्त पुरूष
की सत्ता सिद्ध करने के लिए सूत्रों श्रौर कारिकतभ्रो के श्राधार पर वे ्रधोलिखित
तकं उपस्थत करते है--
१-- प्रकृति श्रपने से भिन्न स्थित किसी तत्तव के लिए सक्रिय होती है ।
संहत [त्रिगुणरूप में] होकर कायं करने के कारण जो भिन्न अ्रवयवों से संहत
होकर कायं करता या प्रस्तुत होता है वह् किसी ्रन्य केलिये हीएेसा करतादहै
यथा घर, शय्या इत्यादि ।२
२- प्रकृति भोक्तृत्व प्रकृति से भिन्त करिसौ पदार्थं मे होगा वही पुरुष है ।
३-सुल्लादि का भोक्ता सुखादि सेयदि भिन्ननहुम्रा तो कत कम
विरोध होगा 1२
--इस श्रावष्ठेय प्रकृत्यादि का श्रधिष्ठाता तद्भिन्न पुरुष है 1
५ प्रकृति के व्यक्त रूप शरीरादि स्वयं भोक्ता नहीं हो सकते ।
६--यदि शरीरादि विनखवररूप स्वयं भोक्ता हों तो इस नदवरभोक्ता के
कैवल्य के लिए भला किसकी प्रवृत्ति होगी ।
१. चतनापलपि जगदाच्धयप्रसङ्खतो भोक्तरि अहम्पदाथे सामान्यतो
बोद्धानामप्यविवादात् ।--सां० प्र ० भा० पु० ६६
२. तद्ययाप्रधःनं पराथसंहत्यकारत्वाद् गुहादिवदिति ।
-सां० प्र०भा० पु० प
३. चरीरादीनां य : सुखाच्यात्मकत्वं धमं: स सुखादिभोक्तरि न सम्भवति
स्वयम् सुखादिग्रहणं कमं-कवृं -विरोधात् 1-- सां ० प्र°भा० पु ६७
४. शरीरादिकं चेद् भोक्तृ स्यात्तदाभोवतुः कौवल्या्थं दुःखाऽत्यन्तोच्छेदा्थं
कस्यापि-प्वृत्िर्वपिद्यं त ।- सां० प्र° भा० पण ६त
१४८
- <न
क ~
आचार्यं विज्ञानभिक्षु के सांस्यसिद्धान्त | १४९
७-- मे जानता हं या भ्रनुभव करता हूं इस प्रकार को जो वृत्ति होती है
इससे भी सामान्यतः पुरुष-पदा्थं की सिद्धि होती है ।
इस प्रकार के तर्को के बल पर यह स्पष्ट है कि श्रन्यक्तादि २४ तत्त्वों के
प्रतिरिक्त यह पुरुष नाम का २५ वाँ तत्त्व भी सांख्याभिमत एक प्रमुख
पदाथं है ।
पुरूष का स्वरूप
पुरुष विवेक का श्रनुयोगी है । उसे द्रष्टा, नित्य, विभु ्रादि कहाजा सकता
है ।२ परन्तु नित्यत्व भ्रादि उसके गृण नहीं हैँ क्योकि वट् निर्गुण है मौर असर्ग
है 1९ चकि सभी भोगों का भ्रवसान उसी में है श्रतः वहं श्रपव्े के पूवं नित्य
भोक्ता है ० वह् सर्वया निष्क्रिय है । वह॒ चित्सामान्य है 1* उसे मङ्कलाचरण
मे चिदेकरसवस्तु कहा गया है । पुल्ष का गुर प्रकाश नहीं है श्रपितु पुरुष साक्षात्
प्रकाशा स्वरूप है । जैसे सूयं । इस प्रसङ्ग मे भ्राचायं ने यहं स्पष्ट कियाहैकि
तेज श्रौर प्रकाश मे श्रन्तर है । तेज में धरमे-घर्मी का भाव तेजस्वी पदाथं के साथ
्रनुस्यूत रहता है । श्रतः पुरुष केवल प्रकाश-ल्प है । उसमे कोई धमं निर्गुण
होने के कारण नहीं हौ सकते °
पुरुष मे इच्छा श्रादि गुणं कभी नहीं माने जा सकते । इच्छादिषमं तो
अन्वयव्यतिरेक से मनके दी धमं कहेजा सकते है । पुरुष को निगण कह्ने मे
गुण शब्द का श्रथ रामानुज इत्यादि की भांति भ्रच्छे गुर न लेना चाहिए 1 यहाँ
१. तत्र सामान्यतः सिद्धोजानेऽहमितिघीबलात् 1-सां० सा०पु०२०
२. विवेकस्यानुयोग्यात्मा पुरुषाख्यो निरूप्यते 1--सां० सार० पु० २०
३. “साक्षी चेता केवलो निगुंणङ्च । इतिभुतिः- सां ० प्र° भा० प° ६९
पर उद्धत
४. भोक्तानित्यस्तदथत्वात् ।--सां० सा० प° २०
५. ईव रानीरवरत्वादिचिदेकरसवस्तुनि 1--मङ्कलाचरण, सां० प्र
भा० पुण
अत्र सूत्रे पुरुषस्य भोगःस्वीढृतः इति स्मतंव्यम् 1 अपरिएएामिनश्च
पुरुषस्यभोगः चिदवसानो गः इर्यत्र व्याख्यातः \--सां० प्र° भा०
पु० ६७
६. ज्ञानं नैवात्मनोधर्मा न गुणो वाकथञ्चन ! ज्ञानस्वरूप एवात्मा नित्यः
पूणः सदावः । स्मृतिः ।--सां० प्र भा० पु० ६९ पर उद्धत
1)
"न क्वि
|
१५० | आचाय विन्ञानभिक्षु
पर गणा का श्रथं है कोई भी विशेष गुण । किसी भी विशेष गुण केनदहोनेसे
भ्रात्माया पुरुष निर्ण है। विज्ञानभिष्चु कौ दृष्टि में पुरुष शब्द श्रात्माका
शतप्रतिशत पर्यायवाची है । बुद्धिगत भोगों का साक्षाद् द्रष्टा या प्रतिविम्बप्रणाली
से प्रतिसंवेदी होने के कारण उसे साक्षी कहा जाता है। श्रूतियों में 'सवैज्ञः
इत्यादि शब्द तो °रोहीःशिरः' श्रादि की तरह लौकिक विकल्पों की भाति श्राए
हए हैँ । पुरुष को नित्यज्ञान रूप मानने में १--ग्रन्तःकरणः, २-- व्यवसाय, ३--
्रनुव्यवसाय, ४--उनके श्राधार--इन चार पदार्थो की कल्पना से वचने का
लाघव भी होता है, जबकि नैयायिकों को यह कल्पना-गौरव स्वीकार करना
पडता है । हमारे मत में १--ग्रन्तःकरण, २--उसकी वृत्ति, ३-नित्यज्ञानरूप
श्ात्मा-ये तीन ही पदाथं मानने पड़ते है 1१ पुरूष जाग्रत्रवप्न श्रौर सुपि
दशाभ्रों की बुद्धिवृत्ति का श्रविकल साक्षी है । वहं नित्यमुक्त है । प्रकृति के साथ
उसका संयोग भ्रविद्या से होता है 1 यह् संयोग ्राविधिक उपराग या श्रभिमान रूप
होता है । इसीलिए पुरुष में कतृं त्व श्रौर बुद्धि या प्रकृति मे ज्ञातृत्व प्रतीत होता है ।
वस्तुतः वह नित्यदुष्टया ज्ञान-रूप है । चिन्मात्र है । केवल है । कूटस्थनित्य हे ।
नित्यशुद्ध, नित्यवुद्ध, नित्यमुक्त श्रौर निरञ्जन है ।* यह् पुरूष या ्रात्मा कुछ
वेदान्तियों की दृष्टि मे ्रानन्द स्वरूप है । इसका खण्डन श्राचायं ने श्रन्य ग्रन्थो
के साथ-साथ सांख्य सार श्रौर सां० प्र भाण्मेंभीजम कर क्ियाहै। सार
सा० के उत्तर भागका पूरा चतुथं परिच्छेद ही पुरुष की सानन्दता का खण्डन
करनेमेलगादिया गयाहै। सुख श्रौर दुःख से भिन्न प्रकार के श्रानन्द की
कल्पना भ्राचायं विज्ञानभिक्षु की दृष्टि में एक भ्रान्ति श्रौर प्रव्ना के श्रतिरिक्त
कु नहीं है ।२ पुरुष प्रकृति की भाति त्रिगुणात्मक या जड़ नहीं है । उसमें
१. द्रष्टव्य सां० प्र° भा०पु० ७०
२. नित्यशुद्धो नित्यवुद्धो नित्यमुक्तो निरञ्जनः 1
स्वप्रकाशो निराधारः प्रदीपः स्वेवस्तुषु 1--सां० भा० पु° २२
३, आत्मत्वेनात्मनिप्रेमा न सुखत्वाद्पेक्षते 1
अहं स्यामिति चेद् यस्मात् सुखरस्यामिति नेष्यते ॥१३।- सां० सा०
पु २०
नाऽऽनन्दं न निरानंदमित्यादिश्रुतिभिः स्फुटम् ।
आत्मनि आनन्दरूपत्वनिषेधाद् युक्तिसंयुतात् ।५।1--सां °सा०पु° २९
उपासाद्य्थरुन्यत्वान्नेति नेतिभरुतेस्तथः ।
निषेघवादयं वलवद्विधिवावयादिति स्थितिः 11६1--सां°सा०पृ० २९
आचार्यं विचानर्िष्ल् क य्यर्ट्रन्ट
नित्यत्व, ज्ञत्व विभृत्व श्रादि सामान्य वम हद्व वर्मर्मी दिर नं
या विशेष गुण नहीं श्रपितु उसक्रे साक्षात् स्वन्प ६ । 9
पुरूप-बहुत्व
हि ~|
पुरुष के स्वरूपाद्धुन के प्रसद्धंमें एक स्वाभाविक टिदारा टतीदैकि
पुरुष एक दै श्रथवा श्रनेक ? इस स्यल पर वेदान्त कौ ग्द्रंवपरता श्रौर साद्य
योग की पुरूष वहुलता ने प्राचायं विन्नानभिक्ष के सामने उमस्या का जाट्लतम
स्वरूप उपस्थित कर दिया है 1 पुरुष या ब्रात्मा एक ट अवयवा अनेक । रच वात
तो यह् है कि भारतीय चिन्तनधारा का वहं एक स्यावी प्रन द्दादै। किसी
दाश्चनिक वाद ने श्रात्मा कोएक मान करः उपावि मेदये ङ्ख प्रदन को टल
करने की चेष्टा की ग्रौर किसी ने अनेक पुर्प मानकर अ्रटंठका प्रन दी अलग
कर दिया । आचाय विज्ञानर्भिक्षु ने इस सम्बन्ध नं अपनो खमन्ववात्मक चूरू खे
काम लिया हि ग्रौर विषय को इस प्रकार चे प्रस्तुत क्या दै--
“पपुण्यवान् स्वगं मे जाता है पापो नरक मे, पुण्यात्मा ञ्रच्छे स्वानो में जन्म
लेता है पापी वुरे स्थानो मेः इस ्र्थवाली ध् ति-स्मृति-व्यवस्वा के विभाग
की श्रन्यथानुपपत्ति से पुरुष-वहुत्व ही मानना श्रो यस्कर ह 1 जन्न ओर मरण का
र्थं उत्पत्ति श्रौर विनाश नहीं है बल्कि अूर्वदेदेन्दरियादि के विचष्ट संघात
से संयोग श्रौर वियोग है ।* इस प्रकार ता संयोग वियोग चकि स्फटिक में
लौहित्य नीलत्वादिसंयोग वियोग को आति केवल ्रतिविम्दन नोय अौर मोगी
हु; श्रतः पुरूष पे इनका निवेव नहीं है । पुरूष मे केवल परिसासल्पवर्मो का टी
प्रतिषेध है ।* श्रतः जन्मादि की व्यवस्या के आधार पर पुरूप-वहृत्व ही मानना
चाहिए ।
१. नित्यम् क्तस्त्थानित्यनिद : त्वात् पुमान्मतः \
इत्यादिगुरुशस्त्रोक्तदिशा स्वानुभवेन च 1 राा--सां० सा० ९०३५
२. पुण्यवान् स्वगे जायते, पापो नरके, अज्ञोबध्येतं ज्ञानी मुच्यते इत्यादेः
करुतिस्मृतिव्यवस्थाया विभागस्यान्यथाुपपत्या पुरुषा बहुच इत्यायः 1
सां° प्र° भा० पु० ७१
३. जन्ममरणे चात्र नोतत्तिविनालौ, पुरुषनिष्ठत्वाभावात् \ क्न्त्वपुवदे-
हन्द्ियादिसंघात-विशेषेण संोगख्चवियोगङ्चभोगतदभादनियामक-
विति -सा° प्र भा० प° ७१
४. परिणामरूपधर्माएमेव पुरुषे प्रतिषेष स्पोर्तत्वात् -सां० ५०
भा० पु०७ ३
|
१५२ | आचायं विज्ञानभिश्च
यदि यह माना जाय कि पुरुष एक ही दै जन्म मरणकरणादिभेद की
व्यवस्था उपाधियों के कारण होती है । तो प्ररन श्रौर -प्रधिकं जटिल हो जाता है
कि जव पुरुष याश्रात्म। एकहीटै तो नानाप्रकार की उपाधियों सेषएक
वह् श्रवच्छिन्न होगा । इस प्रकार से श्रवच्छेद करनेवाली भिन्त-भिन्न उपाधियो
से भ्रवच्छिन्न एक ही पुरूष मेँ विविध स्थान, काल ओर प्रकार के जन्म-मरण
करणादि मानने पड़गे । एक ही पुरुष के एक ही देश काल में विविध कायन्य
हादि भला कैसे सम्भव हो सकेंगे ? श्रतः व्यवस्थान हो पायेगी । जसा कि हम
देखते हैँ कि एक पुरुष उत्पन्न होता है सव दइकटु ही नहीं । इकटरी मौत भौ नही
होती 1१ उपाधिगत व्यवस्था गाननेसे एक श्रौर बडा दोषमघ्रा जातादहैकि
वन्धमोक्षव्यवस्थापक भ्र तियां मिथ्या हो जाती हँ।२ श्रतः उपाधिभेद से वन्ध
मोक्ष जनन-मरणकरणादि की व्यवस्था नहीं हो सकती ।
इस मत मे एक ्रौर बड़ा दोष है । वह॒ यह् कि ज्ञान श्रादिके द्वारा एक
उपाधि से मुक्त हो जाने पर भी पुरुष के लिए भ्रन्य उपाधियों से फिर भ्रवच्छित्न
हो जाने की पूरी सम्भावना बनी रहतो है । जैसे एक घट से युक्त भ्राकाशाप्रदेशा
भ्रत्य घटादिके योगसे फिर घटाकाडा बन सकता है 1 श्रत: उपाधिभेद के
भ्राघार पर व्यवस्था माननो ठीक नहीं । एक ओर वात ध्यान देन कीरै कि
उपाधियां ही अ्रनेक हैँ उपाघ्यवच्छिन्नतो भ्रनेक हैँ नहीं । यदि उपाधिविरिष्ट भी
भ्रनेक माने जाये तो वह् स्थिति ग्रौर भी भ्रामक हो जाती है।9
पुरुष बहुत्व को सिद्ध करनेवाला एक तकं श्रौर भीहै। जैसे घटके टूट
जाने पर घटाकारा नष्ट हो जातां वैसे ही उपाधिनष्ट हो जानेसे उपाधिमान्
भी नष्ट हो जाना चाहिए परन्तु उपाधि नष्ट होने से जीव का नाश नहीं होता ।
इस सूक्ष्म बात को न समभकर शांकरमतानुयायी वेदान्तियों ने एक श्रात्मा मेँ ही
१. अतोऽवच्छदकभदेनेकस्यैव आत्मनः विविधजन्ममरणाद्यापत्तिः काय
वयुहादाविवेति न सम्भवति व्यवस्था, एक पुरषो जायते नावरः इत्यादिः
-सां० प्र भा० पु० ७१
२. भिथ्यापुरुषार्थ-प्रतिपादेनेन श्रुतेः प्रतारकत्वाद्यायरेक्च ।- सां ०प्र ०भा०
१.
३. यथक ॒घटगुक्तस्याकारप्रदेदस्यान्य घटयोगाद्घटाकाशषव्यवस्था त-
हदिति ।- सां ° प्र° भा० पु० ७२
४. द्रष्टव्य, सां० प्र० भा० पु० ७३
आचाय विन्नानभिन्लु के सांव्यसिद्धान्त | १५३
वन्व घ्नौर मोक्ष की व्यवस्था मानी है । विज्ञान्भिक्षु ने प्रधोलिखित हेतुप्रों के
श्राधार पर उन्हे ्रतीव भ्रान्त कहा है 1
१--जीव श्नौर श्रात्मा के बीच प्रतिविम्बवाद, श्रवच्ेदवाद या श्राभासवाद
ग्रादि के सिद्धान्त? भेद, श्रभेद श्रौर भेदाभेद की विकल्पता नहीं सह सकते है ।
२--वेदान्तसृत्रों में कटीं पर भी श्रात्मा कौ ्रव्यन्त श्रं तता नहीं प्रति.
पादित है ।२
३- प्रत्युत ये तीन वेदान्तसूत्र पुरुष वहुत्व कौ ही स्थापना करते ह--
क~ भेदव्यपदेराच्चान्यः १ । १। २१
ख--भ्रधिकं तु भेदनिर्देशात् २।१।२२
ग~ भ्रंरो नानान्यपदेशात् २1।३।४३
पुरुष-वहुत्व के सिद्ध हो जानि पर विज्ञानभिल्यु ने पुरुष-बहुत्व को श्रदरैत
सिद्धान्त के अनुकूल वनाने के लिए यहं शंका रक्खी कि क्या एकमेवाद्वितीयम्
इत्यादि र् तिर्या निरर्थक हैँ ? इसका समाधान इस प्रकार प्रस्तुत करिया गया कि
मरात्मा एक है एेसा कहने वाली श्रूतियों रौर समृतियों का विरोध पृरुप-वहुत्व
मानने से नहीं होता क्योकि भ्रात्मैवय का प्रयोग जाति ्र्थंमं किया गया है)
एेक्यप्रतिपादिक श्र तिवचनो का तात्पयं जाति, या सामान्य में दै, प्रखण्ड एकं
रूप में कदापि नहीं । ० इस श्रथं के लिए साक्षाद् वेदान्त-सूत्र "सामान्यात्" प्रमां
है ।* जातिपरकता का भ्रथं है विजातीय कोई दूसरी वस्तु न होना है ।९
ते त्वतीवश्नान्ताः ।-सां० प्र° भा० पुण ७३
< उक्तादमेदभेदादिविकल्पासहत्वादिदोषात् । सां० प्र० भा० पु०७३
३. कि च वेदान्तसूत्रे वापि सर्वत्मनामव्यन्तवयं नोक्तमस्ति ।-सां० प्र
भा० पु ७३
४. आत्मेवयभ्न तीनां विरोधस्तु नास्ति, तासां जातिपरत्वात् ॥ जातिः
सामान्यसेकरूपत्वं, तत्रव तशर तीनां तात्पर्यात्, नत्वलण्डत्वे ।
प्रयोजनाभावात् । जातिपरत्वात् _ विजाततीयदरं निषेधपरत्वादित्यरथः ॥
--सां० पर० भा० पू | 11
५. वे° सु०३।२।३२
६. जातिपरत्वाद्--विजातीयद तनिवेधरतवादित्य्ः (--सां० प्र° भा
पु० ७४
[=
१५४ | आचायं विज्ञानभिशच
पुरुषों के चिन्मय रूप म परस्पर वैधम्यं नहीं है बलिक समानता है, जातोयता हे \
इस भावना से साधक का सभी प्रकारका श्रभिमान निवृत्त होता दैप्नौर उसके
मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है । श्रूतियोंके श्रादनैकय प्रतिपादन का यही प्रयोजन
श्रथवा लक्षय है । शङ्कराचायं श्रादि जिन दारको ने इस एकता का श्रथं श्रखण्ड-
रूपता लिया है, उनका द्रभिप्राय श्रान्तिपूणे है । मेदग्राटक श्र तियो के प्राग्रह से
भी श्रदरैत का भ्रं श्रबण्ड एक प्रात्मा नहीं लिया जा सक्रता 1 प्रत्युत सभी पुरुष
एकजातीय श्रनेक तथा श्रनन्त है । वे परस्पर वैम्यलक्षणों से रदित ह । जैसे
शरनेक किरणात्मक तेजोमय श्रादिव्यमण्डल एक प्रकार के ग्रनेक किरणपृंजो से
पिण्डीकृत हए एक स्प मे व्यवहृत होता है वैते ही स्वांशाभूत ग्रनेक श्रसंख्य पुरूषो
वाला विराट् स्पसे एकया ग्रदरेत भ्रात्मा या चित्सामान्य श्र तियो के हारा
प्रतिपादित क्या गया है । अलण्डता का अर्थं लेने पर एकः श्रौर
गरनुपपत्ति भ्राती है किं वामदेव श्रविमुक्त हो चुके है ग्नौर हम लोग श्रभिवद ह
यदि दोनों एक श्रखण्ड भ्राता दै तो वामदेव मुक्त हए कि बद्धर, ग्रपने घ्रात्मा-
खण्डता-विरोव को प्रकट करने के लिए ही कदाचित् विन्ञानभिष्चु ने त्रपने
सांख्य-प्रवचन-भाष्य का मङ्गलाचरण ही इसी श्लोक से प्रारम्भ किया--
एकोऽद्वितीय इतिवेदवचांसि पुसि
सर्वाभिमाननिवतंनतोऽस्यमुक्ट्यै ।।
वैघम्यलक्षणमिदाविरहं वदन्ति
नाखण्डतां ख इव धर्मंशताविरोधात् ॥१॥
उपाधि
श्रलण्डश्नालमवादी मानते ह कि श्रातमा या पुरूष केवल एक् ही दै विभिन्न
3५३ 9
| उषावियों के संयोग से जावगत भेद प्रतीत होता है । इसका लण्डन विज्ञानभिक्.
| इस प्रकार करते दै कि इत मान्यता में प्रथम दोप यह् है किं श्रलण्डश्राटा मानने
| १. अनेकतेजोमयादित्यदित्यमण्डलवदननेकात्मकमयसपि चिदादित्यमण्डलमे-
॥ ५ 3, ५ = संख्यो
| करसमविभकतमेकपिष्डृतय तस्यकिररवत् स्वांगरुभते रसंख्यपुरुष रसख्या-
4 पाधिष्वसंख्यविभाग एव प्रतिविम्बादिदष्टान्तेः प्रतिपाद्यते विभागलक्ष-
रान्यत्वस्य वाचारम्मणमाव्रत्वं बोधयितुं न पुनरखण्डत्वम् ।
--सां० प्र भा० प° ७५
| २. वामदेवादिर्मुक्तोऽस्तितथापि इदानीं बन्धः स्वस्मिन्तनुभवसिद्धः 1
| । अतोनाखण्डात्मा्र तमित्यथः 1--सा० प्र भा० प° ७६
~ ~ ~ अम
ञआचायं विज्ञानभिक्षु के साल्यतिद्ान्त | १५५
से जीव के श्रभिमान कि निवृत्ति नहो हो सक्तो श्रौर भ्रभिमान निवृत्ति के विना
जीव को मोक्षलाम नहीं हो मक्ता 1" दूसरा दोष यह् है कि उपाचियों के संयोग
से श्रनेक जीवता बताने में नीचे लिखे प्रतो का समाधान नदीं हो सक्ता-
१--श्राद्मा श्रौर उपाधियां ये दो प्रकार के तत्त्व रहने से श्रदधैत कौ
कल्पना ही श्रसम्भव हो जाती दै।२
२--यदि यह् कहा जाय कौ उपाविरया भ्राता की भांति सत् नदीं ्रपितु
ग्रविद्याजन्य है इसलिए दरौ तभावना की प्रसवित नीं हो सक्ती - तो
मी उपाधि न सही उपाधि को उत्पनन करनेवाली ग्रविद्या ही सत्
हो गई । श्रव श्रद्ध त कौ मान्यता फिर श्रसम्भव हो गई 1*
३--भ्रात्मा की श्रं तता सिद्ध करने के लिए प्रमाण मानना पड़्गा प्रतः
ञ्रातमा रौर प्रमाण नाम के दो तत्तव सत् हो जायेगे इसलिए फिर
ट्त की प्रसक्ति हो जायगौ ।*
--्रात्मा की स्वप्रकाराता मौ असम्भव रहेगो क्योकि निरवयव वस्तु
ने प्रकादय-प्रकाशकता की स्थिति नहीं हो सकती ।^
हमारे मत में यद अनुपपत्ति नहीं होती क्योकि हम ग्रासा को असंख्य भ्रंशो
के रूप मेँ स्वीकार करते है। इस प्रकार से ्रातमाको एक या ब्रण्ड मानना
निष्प्रमाण हठ्वादिता है । वस्तुतः पुरुष अ्रनेक या प्रसंख्य रहै । श्रूतियो न
१. यदि नर तवादान्यण्डतामानपराएिषाह तेभ्यो नाभिमान-
निवृत्तिः सम्भवति । आका्ञेविविधशब्दवदलण्डेप्यात्यनि बुल
खतदभावादीनामवव्छेदकभेदेख्पपतेः ।--सां० प्र भा० प° ७४
२. उपाधिदचेतस्वीक्रियते तहयुपाचिसियैवधुनद द्ध इत्यथः ।
--सां० प्र० भा० प° १६१
३. पुरुषोऽविद्यं ति ्राभ्यामप्यङ्गकृतभ्याम् अद्ध तप्रमाणस्यशूते्विरोधस्त
इवस्थ एव 1--सा० प्र° भार पु° १६१
४, अह तवादिनामरत्तर सिद्धास्तश्च न घटते, आत्मसाधक प्रमारस्याभावात् 1
तदङ्कोकारे च तेनेवाद तदानिरितिजितं नैरालभ्यवादिमिः ।
_--सां० प्र भा० प्र १६१
५. द्रष्टव्य, सां°प्र०भा° ४० १६२
[क नवः
1
१५६ | आचायं विज्ञानभिशष
सामान्य या जाति के श्राधारपर ही श्रात्मा को एक याश्रदरैत कहादै॥
यही सर्वथा निष्कलङ्क सिद्धान्त है । पुरुषवहुत्व की स्थिति उपाधियों के माघ्यमसे
नहीं काटी जा सकती ।
पुरूष ओर जीव
प्राय; लोग सांख्य में पुरूष का श्रथं जीव करते लगते है; पर यह ठीक नहीं
है 1 विज्ञानभिक्ष् ने पुरुष शब्द का प्रयोग श्रालमाके प्रथं में किया है । जीव के श्रं
मे नहीं । प्रत्येक पुरूष बुद्धि तथा ब्रहङ्कार श्रादिके संयोग होने के वाद जीव कह्-
लाता है । वुद्धि इत्यादि से ्रसंयुक्त प्रात्मा या पुह्ष को हम जीव नहीं कह् सकते ।
सारोदा यह् की सोपाविपुरूष ही जीव हैर श्रौर उपाधिराहित स्थित में जीवको
जीव नहीं कहा जा सकता । उस स्थित मे वह् पुरूष या श्रात्मा कटलाता है।
निरूपाधि श्रात्मा को पुरुष या चित् या परमात्मा या चिति या श्रात्मा कहते है ग्रौर
उपाधिथुक्त श्रात्मा को श्रपरात्मा या जोव संज्ञा दी जाती हैर । जीव राब्द की
सार्थकता इस तरह सिद्ध की गई है कि “जीव' वातु बलत्राणएधार्ण ग्रथंमे
वयुसन्न होती है ।* श्रौर यह् प्राणधारण शुद्ध पुर या भ्रात्म, मे भ्रसम्भव
है । श्रतः यह् प्राणएधारणर्प धं श्रहङ्भारविरिष्ट पुरुष मं सिद्ध हुप्रा 1 इत
रकार से श्रन्तःकरणोपाधि से श्रवच्छित्न पुरुष जीव है ।५ इससे स्पष्ट होता
है कि जीवों का उपलक्षण श्रहद्भार है।
एक शङ्का यह् उती है कि अभी पिचले पृष्ठो प९ विज्ञानसिष्यु कृत उपा-
वियों का खण्डन दिया गया है ग्नौर यहाँ पर जीवों को फिर भी सोपाधि
१, अतोऽ तवाक्धा निनाण्डतापराणि, न्यायानुग्रहेए वलवतीभिभेदग्राहक
श्रुतिस्मृतिर्विरोघा च्च किन््ववेघम्यंलक्षणाभेदपराण्येव 1-- सां० भर
भा० प° ७४-७प्
२. तथान्तकरणौर्योगाज्जीव इत्युच्यते चिति : । २२।--सां० सा०
प° ३३
३. अत आत्मावधित्वेन पर मात्मोच्यते चितिः ।- सां सा० प° ३३
- जीवबलप्राएनयोरिति व्युत्पत्या जीवत्वं भ्राित्वम् 1 तच्चाहंकार विदिष्ट
पुरुषस्यधर्मो । न तु केवलपुख्षस्य । कुतः ! अन्वयन्यतिरेकात्
अहङ्कारवतामेव सामथुयंतिय-प्राणएषारणयोदंशनात् ॥\--सां ०प्र०
भा० पु० १६५
५. तथाचान्तःकरणोपाधिकं जीवस्यपरिच्छिन्नत्वं परमात्माख्पात्केवल-
पुरुषाद्भिन्नत्वम् चेति भावः ।--सां० प्र° भा० पर १६५
+ ~ मि
आचाय विन्ानरिश्ु के यर्व्यिसिद्धान्त ¦ १५७
भ्रात्मा कहा जा रहा है। इसका उत्तरयद् दकि विानरिश्ु न उपावियोंका
खण्डन कहीं नहीं किया, उन्दनि प्रनेक उपाविरयो के संयोगक्े दारा ग्रामाकी
ग्रवण्डता-प्रतिपादन के सिद्धान्त का खण्डन क्रिया द्र1 इनके मत मेचयात्माया
पुरुष भी श्रनेक है रौर उपाचियां भी ग्रनेकर्ट। उनका संयोग दी
सभी जीव उस उपाविसंयोगल्पत्रन्वन मे जक्ट़ दृ र । इन्दर उपावि के वन्धनों
की श्रात्यन्तिकनिवृत्ति दी जीवों का मोक्न दै
गो ¢
पुरूष रार् इश्वर
प्रायः लोग यह् कहते ह कि विज्ञानमिच्रु उेच्वर्ांच्यदादी वे । वास्तविकता
कु श्नौर है । सांख्य म ईश्वर की सत्ता मानौ गई एला वे हगिज नहीं
स्वीकार करते । सांख्य-प्रवचनभाष्य कौ मूमिका मे उन्दने चाद्य का निरीद्वर
होना वताया है 1१ उन्टनि इस निरीद्वरता को साद्य की दूर्वलता कहा है 17
उनकी धारणा है कि (नास्ति सांच्यसमंनानम्' इत्यपदल्ट्रतवक्य सांच्य के
विवेक वाले भाग की दृष्टि से के गए ह 1 ईदवरप्रिषेव वाले अं की दष्टिसे
।
सांस्यास्बर मे ईवर की मान्यता न होने क कार्ण अय विज्ञानभि्ु
को थोडी-सी छिजलाहट भ्व्य थो जो उनके मङ्खलाचरस ङे चटुयं* इलोक मे
भली-्माति भलकती है । चाहे वह॒ परमतत्त्व ईख्वर कहा जाय या सांख्य
कारिका के व्याख्याकार के दाय अनीरवर कहा जाय, आचय वित्ञानभिघयुं कहते
है कि वस्तु तो चिन्मात्र भ्रौर एकरस सिद्ध ही है 1 वही च््सिमान्य है! इसीलिए
१, भ्यं न पद्यन्ति-तरन इत्यादिकोमंवाच्येः सांस्यनामोख्दराज्ञानस्येव ना-
रायरादिनाप्रोक्तत्वाच्च !-सां० प्र० ना ९०३
२. अतः सावकारतथा साद्यनेवेइवरप्रतिषेधा्ञे दुवंलमिति 1-- सा० प्र
भा० पुर ४ क
३. (नास्तिसांस्यसमंज्ञानम् ! इत्यादिवास्य तद्विदेकां ए
दर्शनान्तरेप्यत्प्करषप्रतिपादयति. नत्वीहदर प्रतिषेधांेऽपि 1-- सां०प्र०
भाण पु० २ ४
४, (अक्षपाद-हितो \` इतिपराररोपषुराणादिभ्योऽपि साया
ईदवरांो बलवत्वम् ।--स० प्र° भा° ६. ३
५. ईवरानीरवरत्वादिचिदेकरस वस्तुनि । ।
विूढा यत्न परयन्ति तदस्सि परमं सह्. १४ १- स॑र परऽ ना
मंगलाचरणम्
|
|
|| |
।
१५ | आचायं विज्ञानभिश्
सांख्य मेँ ईश्वर की मान्यता के श्रभाव के कारण (कारणब्रहमा' के रूप में निग्ःण
पुरुष-सामान्य ही स्वीकृत किया जाता है 1 स्वशक्तिभूतप्रकृतिरूप उपाधि को
धारण करके वह॒ जगत् का निमित्तकारण बनता है । यह चित्सामान्य नित्य
है । इससे विर्व के रूप मेँ सत्त्व।दिशक्तियां विकतित होती है । भ्रंश रूप पुरूष
भी भ्रंश होने के कारण चित्सामान्यकी शक्ति ह रौर प्रकृति भी उसकी शक्ति
है । इन दोनो प्रकार की शक्तियों के विकास का निभित्तकारण ईइवरत्यानीय
सामान्यचिति ही है । यह सिद्धान्त सास्यसार के उत्तर भाग पचम परिच्छेद में
इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि चिन्मात्र के भ्रनन्तशक्तिसागर में श्रधिष्ठित
सत्त्वादि-परकृतिशव्ति पुरुषाथं से प्रेरित हो कर विर्व के बुलबुलेके रूपमेँ
विकसित होती है ।२ श्रतः सांख्य मत से स्वीकृत चित्सामान्य ही योग श्रौर
वेदान्त के ईङ्वर का काम देता है। इसलिए सांख्य की निरीइवरता को स्पष्टतः
घोषित करते हृए भी भ्राचायं विज्ञानभि्चु ने नामान्तर मेँ एक ईश्वर [या
चित्सामान्य] सांख्य में भो भ्राविष्कृेत कर ही दिया है ।२ श्रतः सांख्य को कहने
भर के लिए उन्होने निरीइवर माना है परन्तु वस्तुतः उसे सेश्वरता की संभावना
से युक्त कर दिया है । कदाचित् वे सांख्य कौ लुसप्राय सेदवरवादी विचारधारा
से भी परिचित थे ।० परन्तु कापिल सांख्य को वे सदैव निरीश्वर ही कहते
है । इस निरीर्वरता के वावज्रुद उन्होने कापिलसांख्य को ही सांख्यविवेचन का
ग्राधार मानारहै ) इस प्रकारसे स्वयं सेश्वरवादी होने पर भ्रौर साख्य की
एकदेशीसेश्वरधारा से परिचित होने पर भी विज्ञानभिक्ु सेदवर सांख्यवादी नहीं
थे व्यो प्रसिद्ध कापिल सांख्य को वे सर्वत्र निरीद्वर ही घोषित करते रहे हैँ।
ईरवरवादी होना एक वात है किन्तु सेश्वरसांस्यवादी होना उससे स्वंय
भिन्न वात है। विन्ञानभिश्चु स्वयं तो ईदवरवादी ये किन्तु सांख्य को सेश्वर
नहीं मानते थे । फिर भला उन्हँ सेवर सांस्यवादौ कैसे कटा जा सक्ता है ?
त साख्य को सेश्वर न के, प्रत्युत निरीश्वर के, वह् सेश्वरसांख्यवादी
सा?
१. ध यास्व कारण-त्रह्यतु पुरषसामान्यं निर्युरमेवेष्यते, ईङवरानभ्यु-
प्ममात् । तत्र च कारणएशब्दःस्वरक्तिप्कृत्युपाधिको वा निमित्त-
कारणतापरो वा पुरुषा्ंस्य परकृति-प्रव्तकत्वादिति मन्तव्यम् ।--सां °
प्र० भा० पुर १६६
२. द्रष्टव्य, सां० सा० पु० ३२
पुमानेव जगत्कर्ता जगद्भर्ताऽखिलेकववरः 1 - सां० सा० प० ३२
सेड्वरे सांस्यवादेऽपि चितेरेवातुमन्यतेता परेवापरमात्वादिकंतुन जड-
क्चचित् ।।-- सां ० सा० पु० ३६ ।
~
आचायं विज्ञानभि्षु के सांस्यसिद्धान्त | १५९
उन्होनि सांख्य में भ्रनेक कार्येवर स्वीकार किए हँ । प्रकृति लीन जीव दूसरे
सर्गो के श्रारम्भ मे ब्रह्मा, विष्णु, महेद श्रादि नाम से ईरवर होते है 1 परन्तुये
ईङवर नित्येश्वर या वास्तविक ईर्वर नहीं है, प्रत्युत जीव कोटिक दै 1" इनका देड्वयं
परिमित होता है । ये जन्येश्वर हँ । सांख्य सूत्रकार ने इन्दं लौकिकेडवर भी
। कटा है । निर्गः चित्सामान्याधिष्ठान ने प्रक्रति काजो प्रथम विकास होता है
| वही महत् कटलाता है । यही महत् कभी विष्णुः कभी नारायण श्रौर कभी
। हिरण्यगभे रूप से उस सृष्टि के ्रनत तक के लिए लौकरकेडवर रहता है ।
इसका एेदवयं नित्य नहीं होता । ्रहद्धाकारोपायिक ढोनों देव ब्रह्मा ्रौर रिव
भी लौकिकेश्वर माने गए ह ।* किन्तु इन ईरवरो के एश्वयं की भ्रनित्यता के
कारण प्राचां विज्ञानभिष्चु ने सांख्यशास्त्र को निरीदवरवादी ही वताया है1°
१. विष्णावादयोमहैडवरयधुज्जाना अपि नाधिकाः मत्तोऽतोऽतंतदश्वयर-
विवेकिजनप्रियैः -सां० सा० पु० ४१
२. महदाख्यः स्वयम्भु जगद् कुर ईरवरः । सर्वात्मने नमस्तमे विष्एवे-
सर्वजिष्णवे 1- सां ० सा० पु०,९
त. अहेकारोपाधिकः-रह्मसद्योःृष्टिसंहारकतृ तवं भुतिस्मृतिसिद्धम-
पिप्रतिषादितम् '--सां० प्र° सा० १९ १६६
४. अस्मच्छास्त्रे च रहमशब्दभोपाधिकपरिच्छेदमालिन्यादि-रहितपरिपूरण
चेतनसामान्यवाची, न तु रह्ममीमांसायामिवेदवरयोवक्षितपुरुष-
सात्रवसितिविवेत्कव्यम् 11 - सां० प्र° भा° ४० १४८ ।
[क ग्नः
क्रति का स्वरूप
सत्व, रजस् श्रौर तमस् नाम के तीनो गुणों को प्राचार्य विज्ञ(भिश्ु
द्रव्य कहते है ।१ इन तीनों द्रव्यो कौ साम्यावस्था ही भ्रकरृति है । साम्यावस्शं का
रथं है श्रन्यूनतया श्रनधिकावस्था । प्र्थात् तीनों द्रव्यो का भ्रन्यूनाधिक भवे से
रहना ही सन्तुलितसाम्यावस्था है । साम्यावस्था मे तीनों सत्तवादिद्रव्यः की
श्रकार्यावस्था रहती है । सांख्याचार्यो ने सत्त्वादि तीनों गुणों की साम्यतरस्था
कोही प्रकृति कहा हैर । इस परिभाषा से एक र्का उठती है कि यदि सत्त्वादि
की साम्यावस्था ही प्रकृति है तो सृष्ट्यादि काल में जव यह साम्यावस्था नष्ट हो
जाती है तथा गुणो में वैषम्य श्रा जाता है उप्त समय प्रति नष्ट हो जानी
चादिए । इप राद्धा को समाहित करते हुए विज्ञानभिघु ने प्रकृति की यह् परि-
भाषा दी है -(अरकार्यावस्था) साम्यावस्था से उपलक्षित सत्त्वादि तोनो गुण दही
रकृति है 1» श्रकार्यावस्थोपलक्षितं गुणसामान्यं प्रकृतिरित्य्थः ।* सां० प्र° भा°
पु० ३३ । स्मृतियों ने भी गुणो को ही प्रकृति माना हैन कि उनकी
श्रवस्या को 1६
इससे यह सिद्ध हम्मा कि प्रकृति सत्वादिकों को साम्यावस्था न होकर
साम्यावस्था से उपलक्षित सत्तवादिगुणएत्रय ही सामान्यतः प्रकृति हैँ । इस प्रकार
१. सत्त्वादीनि द्रव्याणि न वैशेषिकाःगुणाःसंयोगविभागवत्वात् 1 -- सां०
प्र० भा० पु ३३
२. ('सच्वरजस्तमसां साम्यावस्था, प्रकृतिः ।-- सांख्य सूत्र १।६१
यथाश्रुते रवेषम्यावस्थायां प्रकृतिनारप्रसङद्धात् --सां० प्र०भाण०्पु० ३३
४. सत्तवादीनामनुगमाय सामान्येति । पुरषब्ावतंनाय गुखेति । महदादि
व्यावत्तनाय चोपलक्षिततान्तमिति !- सां ० प्र° भा० पृ०३३
सा च साम्यावस्थयोपलक्षितं सत्वादिद्रव्यत्रयम् ।\- सां ० सा० प° १०
५. द्रष्टव्य, सां०प्र०भा० पृ० ३३
६. सत्वं रजस्तम इति एषेव प्रकृतिः सदा ।
एषैव संसृतिजन्तोरस्याः पारे परं पदम् ॥ सां० प्र° भा० प° ३३ षर
उद्ध.त, स्मृति ।
७. वैषम्यावस्थायामपि प्रक्ृतित्वसिद्धप उपलक्षितमित्युन्तम् -सां० सा०
पु १०
९
५
आचाय विज्ञानभिक्षु"के सांख्यसिद्धान्त | १६१
कहने से प्रकृति-नार का प्रसङ्धः भी नदीं उपस्थित होता क्योकि सत्त्वादित्रय
नष्ठ नहीं होते । स्पष्ट है कि प्रकृति सत्त्वादि से भिन्न कोई प्राधारभूत श्रलग
वस्तु नहीं है । प्रकृति के गुण इस प्रकार के वाक्यों का रथं "वन के वृक्ष इस
प्रकार से समभना चादिए । यहाँ पर षष्ठो विभक्ति भिन्नाथंता कौ दयोतक
नहीं है । योगसूत्र श्रौर योगभाष्य मेंभी गुणों को ही प्रकृति माना गया
है 1१ सां० प्र० भा०के छव्वं प्रध्याय में ३९बें' सूव्रका भष्य करते समय
विज्ञानभिश्षु ने जोरदार शब्दों में कहा है कि यद्यपि श्रूतियों श्रौर स्मृतियो मे दोनों
प्रकार के वाक्य पाएु जाते हैँ तथापि तकंतः सत्त्वादिकों को प्रकृति का स्वरूप ही
मानना चाहिए, घमं नहीं । श्रत: प्रकृति सत्त्वादि मे ्रलग स्थित नहीं है । इसके
लिए एक श्रौर साधक तकँ हैर कि जव महदादि सारे कर्यो की उत्पत्ति सत्त्वादि
गुणोंसे ही हो जाती है तो उत्पत्तिके लिए उनसे ग्रलग स्थित किसी पदार्थं
को कल्पना क्यो की जाय ? प्रतः साम्यावस्थोपलक्षित गुणत्रय ही प्रकृति दै
यह निरिचत हुभ्रा ।
¢
प्रकृति का वणन
दाघ्दी व्युत्पत्ति वतते हुए श्राचायं विज्ञानभिष्ु कहते दँ कि प्रकृष्टाकृतिः
परिणामरूपा भ्रस्या इति प्रकृतिः ।२ यह् श्रजशाक्ति है । इसे श्रधीयतेऽस्मिन् हि
कार्यजातमितिप्रधानमुच्यते' इस श्राधार पर श्रधान' भी कहते ह । महत्
इत्यादि तत्वों के सुखादि रूप गुणएत्रयों का साक्षत्कार होता है इसलिए इन्दे
व्यक्त कहा जाता है श्रौर इसी तुलना। मे मूलप्रकृति को साक्षक्छत न होने के
कारण "ग्रव्यक्त' भी कहते हँ । पुरूष से भिन्न होने के कारण इसे श्रनात्मतत्तव'
भी कहते है । सभी महदादि विशेषो का उपादान कारण यह मूल प्रकृति है ॥
पुरूष कूटस्थनित्य तथा श्रपरिणमी है इसलिए वह॒ महदादि पदार्थो का मूल
कारण नहीं बन सकता५ 1 यदि यह प्रन क्रिया जाय कि जैसे महदादि पदार्थो
१. योगसुत्रतद्भाष्यास्यामपि गुणानामेव प्रकृतित्वचनाच्च ।--सां० सा०
पु० १०
२. गुणेभ्य एष का्येत्पतौ तदन्यप्रकृति-कल्पनावेयर््याच्च \--सां० सा०
पु० १०
३. द्रष्टव्य, सां० सा० प° १०
४. द्रष्टव्य, सां० सा० पु ६२
५, पुरुषस्यापरिणामित्वात् 1 -सां० प्र ° भा० प° ४०
फा०--१९१
श्नुमान से होता है श्रौर उसकी विशेषताए
१६९ | आचायं विज्ञानभिन्षु
करा कोई श्रन्य कारण मानते है वैसे दी प्रकृति का भी कोई भ्रन्य कारण क्यों
नहं मानते ? इसका उत्तर देते हुए भ्राचायं ने स्पष्ट कियादहै कि इस कारणता
नं श्ननवस्था होगी इसलिए जहाँ प्राप ईस कारणता का पर्यवसानं मानें वही
वारा सिद्धान्तित प्रकृति है । १ प्रकृति का सामान्य ज्ञान हमे सामान्यतोदृष्ट
" शास्त्र, श्रतिस्मृति श्रौर योग-
जप्रत्यक्ष से जाननी चादिए ।* प्रकृति के विषय में इस प्रकार) से भ्रनुमान का
-प्रयोग। होगा--
सुखदुःखमोहात्मकमहदादिव्यकतकायं किसी सुखदुःखमोहात्मकद्रव्य के
हमारे
काये है|
सुखदुःखमोहात्मक होने के कारण)
व्स्जादि से बने हुए विस्तरो की तरट्} ४
ट्स प्रकार से सामान्यतः श्नुमित द्रव्य प्रकृति ही है । एसा श्रुतियोने
कहा है । इसी को माया भो कहा गया है ।* परन्तु दंकरानुयायी वेदान्तो के
द्वारा प्रतिपादित माया भ्रौर श्रवि्या की एका्थंता पर प्राचार्य को भारो
आपत्ति है । क्योकि ग्रविद्या तो ज्ञान के द्वारा नष्ट हो जाती है, परमायाया
अरति तो नित्य है 1 श्रतः रविद्या गनौर माया श्रलग-प्रलग ईह। वस्तुग्रों कौ
मूलकारण भूत माया या प्रकृति है । वह् नित्य है 1 पर यह् नित्यता पुरुष कोटि
की नहीं है । पुरूष कूटस्थ निय दहै, एकरस है, उसमें कभी भी रूप~परिव्त॑न
नहं हो सकता । यदी उसकी कूटस्थनित्यता हे । प्रकृति एकरस नहीं रहं सकती
उसकी साम्यावस्था मेँ वैषम्य भ्राता हे । इसी से गुणत्रय महदादि रूपों में
अनवरत रूप से परिणत या व्यक्त होते रहते है 1 इस प्रकार से प्रकृति में सदा
परिवितेन या परिणमन होता रहता है फिर भी वह सदा रहती है। कभी नष्ट
नहीं होती । परिणाम के साय-साय प्रकृति मे ,सर्व॑दा स्थायित्व है श्रत: प्रकृति मे
१. अतो यत्र प्यवान सैव नित्याप्रकृतिः । प्रकृतिरिह मूलकारणस्य
सज्ञामात्रम् इत्यथ : ।-सां० प्र° भा० पु ४९
२. एवं सामान्यदतोऽतुमितायाः, प्रकृतेविशेषः शासाद् योगाच्चावगन्तव्याः
अनुमानस्य सामान्यमात्रविषयकत्वात् 1 - सां० सा० प° १२
३. द्रष्टव्य, सां० सा० पु० १३ ओर सां०प्र° भा०प० २७
४. मायां तु परकृतिं विद्यात् । शवेताश्वतरोपनिषद् का उद्धरण,
प्र० भा० पु ४१
मायाशब्देन च प्रकृतिरेवोच्यते !-सां० प्र ° भा० प° ४१
_--वां०
च ण मी
आचायं विज्ञानभिक्षु के सांख्यसिद्धान्त | १६३
परिणामिनित्यता मानी गई है । मायावादियों के द्वारा प्रस्तावित किए गएु उरग
श्रौर रज्जु के दृष्टान्त से श्राचा्ं वरिजञानमिष्ु ने माया या ्रकृति की नित्यता
हीसिद्धकीन है कि अनित्यता । उनका कथन है कि प्रकृति सपं तुल्य ह श्रौर
पुरुष रज्जु तुल्य ।१ रज्जु रूपी पुटप भी सत् है ्रौर सपंरूपो प्रकृति भी ।
सत् या श्रनिरवंचनीय दोनों मेसेएकभी नहीं है । दोनों की ्रलग-श्रलग
सत्ता है । श्रसत् है केवल सपं रूपी प्रकृति का रज्जु रूपी परुष पर भ्रारोपणा ।
यदी भिथ्या श्रारोप ही श्रहुङ्कार श्रौर ममकार उत्पन्न करता है श्रौर इस प्रकार
से यही दुःख का कारण है, बन्वनजनक है श्रौर विवेकख्याति के द्वारा सवेदा
निवारणीय है । यदी एक का दूसरे पर समारोप ही ग्रविद्या है, श्रविवेक है,
तुच्छ है, भ्रौर सदा हिय है। श्रतः प्रहि-खज्जु के दृष्टान्त से श्रादि को तुच्छं
समभना जिल्करुल भ्रान्त धारणा दै। दो अलग-ग्रलग स्थित वस्तुप्रोमेंसे
एक के दूसरे पर किए गए आरोप को तुच्छ या मिथ्या समभना चाहिए 1२
इस प्रकार प्रकृति भी पुरुष की भांति सत् श्रौर नित्य है। भले ही यह्
नित्यता पुरुष की भांति कूटस्यता स्प न हो कर केवल परिणामिनित्यता ही
हो 1 "वाचारम्भणं धिकारोनामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्'२ इस श्र. ति से परिवर्तेन
से व्यक्त होते हृए विकारो कौ नाम मात्र सत्ता होने पर भो उषादानभूत मद्रूप
अ्रङृति की नित्यता ही वताई गई है 1*
चूंकि प्रकृति सकल पदार्थो की उपादान दै श्रतः हम उक्ष परिच्छिन्न नदी
कह् सकते । यह व्यापकं है, विभु है\ इस कथन पर एक स्वाभाविक शंका होती
है कि गुणत्रय ही प्रकृति है, नौर् ये गुरात्रय लघुता, गुरुता, चंचनता भ्रादिसे
युक्त होने के कारण परिच्छिन्न ही होते है, तो फिर प्रकृति को विभूति कसे माना
जा सकता है चार्थं ने इस शद्धा का समाधान यह् दिया कि परिच्छिन्न होने का
~.
श्रथं है--दैशिक अनुपस्थिति की प्रतियोगिता के अवच्छेदक से अनवच्छिन्न
१. उरगतुल्यत्वं चाप्रघानस्य रज्जुतुल्ये पुरुषे समारोपणादिति ॥ एवं-
ध विधरज्जुसर्वादि-दष्टान्तानामाज्ञयमद्द्ष्वेवाऽदुवाः केचिद् वेदान्तिन्वाः
्रद्तेरत्यन्तवुच्छत्वं मनोमात्रत्वं॑वा तुलयन्ति ।-सां० प्र° भा०
पु ९१०
२. द्रष्टव्य, सां० प्र भा० ५९ ११०
३. द्रष्टव्य, छान्दोग्यपनिषद् ६।१।४
४. एतेन रकृतिसत्यतावादिसांस्योक्तदृष्टान्तेन श्ुतिस्सूत्यर्था बोधनीया:
न केवलं हृष्टान्तवत्वेनायमथेः सिद्धयति -सां० प्र० भा० पु० ११०
पि
---नष्डङररक््
१६४ | आचायं विज्ञानभिक्षु
होना । दैशिक ग्रनुपस्थिति रथात् किसी देशा ा स्थान के श्रभाव का
प्रतियोगी है । उस देश या स्थान का भाव भ्र्थात् तदेश की उपस्थिति,
उकाः ्रवच्छेदक हृग्रा तदेशभावत्वः उससे श्रवच्छिन्न होना भ्रर्थात् तदशीय
होना । केवल तदेशीय (1,०08) ही होना परिच्छिच होना है ।१ ्रौररेसान
होना श्र्थात् तदेशौय होने के साथ साथ तदिभन्तदेलीय होना विभु होना
है । प्रकृति सारे जगत् का उपादान कारण है, इसलिए वह् सव स्थानों पर
उपस्थित रहने की सामथ्यं से युक्त है, श्रतः प्रकृति में विभुत्व या व्यापकत्व
सष्टतः सिद्ध है । यद्यपि कृति से स्व तः सृष्टि होती दै तय।पि उसका प्रयोजन
पुरुष का भोगां वग हीह, जैसे उट श्रपने स्वामी के लिए केसरका
दो ले जाया करता है श्रपने लिए नहीं; क्योकि प्रकृति स्वयम् श्रचेतन श्रौर
अ्रभोक्ती है श्रतः उसकी क्रिया श्रपने लिए नदीं हो सकती । फिर भी यदि प्रकृति
का कुछ स्वार्थं कहा जाय तो वह केवल पुरूष का भोगापवगं रूपी पराथ ही
1 इसी पराथं या पुरूपाथं को हौ उका स्वार्थं समना चाहिए ।*
न्य साख्याचार्यो की भांति सत्कार्यवाद के सिद्धान्त को मानते हए ्राचायं
विज्ञानभिधषु ने भी महदादि सभी व्यक्त पदार्थो की उत्पत्ति श्रव्यक्त प्रकृति से
मानी है क्योकि भावात्मक तत्त्व से ही भावात्मक वस्तुश्रों को सृष्टि सम्भव दै1
नेति नेति" वाले श्र तिवाक्य जगसप्रपच्च की तुच्छता तहीं वताते बल्कि परषततव
की उससे विविक्तता प्रतिपादित करते ह ९ कर्म॑शत्यादि से भी महदादि संघार
की सृष्टि नहीं हो सकती, वयोकि कर्मादि केवल निमित्त कारण हौ सकते है ।
उपादान कारणं नहीं ।° कर्माराय धर्माधर्मरूपं होते दै द्रव्यात्मक वस्तुपरो का
उपादान बन सकना उनके लिए सम्भव नहीं । अ्रविया भो द्रव्य को उत्पन्न नहीं
१. परिच्छिस्तत्वमन्र दशिकाभावप्रतियोगितावच्छेदकाऽवच्छिततत्वम्
तदभावश्च व्यापकत्वम् !--सां० प्र० भा० पु० ४३
स्वार्था हि प्रधानस्य कृतभोगापवर्गात् पुरुषादात्मविमोक्षणम् इति ।
-सा० प्र भा० पुऽ १०८
३. नेति नेति इत्येवं विधवाक्यानि च विवेकपराण्येव, न तु स्वरूपतः
प्रपञ्चनिषेधपराण्येव 1- सां० प्र° भा० प° ४४
कमणोऽपि न वस्तुसिद्धिनिमित्तकारस्य कर्मणो न मूलकारण
गुणानां द्रव्योपादानत्वयोगात् 1--सा० प्र० भ० पु० ४४
स भ ~
=
~ -----===~~~-------- ~ ---
आचायं विज्ञानभिश्षु के सांख्यसिद्धान्त | १६५
कर सकती क्योक्रि वह् भी तो केवल घर्माधर्मल्प ही है, द्रव्य रूप नहीं ।१ पुरुष
केवल चिन्नमात्र है । भ्रचित् वस्तुश्नों की उत्णत्ति उससे भला कहां सम्भव है?
भ्रतः निरचय ही महदादि का मूल कारण द्रव्यात्मक प्रकृति ही हो सकती है।
जिस प्रकार से वैशेषिक मत में परमारुघ्रों को घटादि कार्यो का कारण केवल
दूयरणुकादि के माध्यम से कहा जाताहै वैते हौ समस्त स्थूल जगत् का कारण
प्रकृति महदादि की परम्परा के माध्यम से कही गई है । इसीलिए प्रकृति को
समस्त पदार्थो का मूल कारण भी कहते हैँ ।
कृति एक है श्रथवा पुरुष कौ भांति न्रनेक ? विज्ञानभिष्चु का कहना है कि
जितनी सृष्ट्यां हुई हँ या होगी उन सवके मूल में मूलप्रकृति होनी चाहिए 1 इस
प्रकार से अ्रनेक य। ग्रनन्त सृष्ट्यां के मूल मेँ श्रनेक या श्रनन्त प्रकृतियां हई । र
इस विचारणा के प्रसंग में ईइवर कृष्ण की कारिका में प्रतिपादित प्रकृतिकी
एक संख्या कते मानी जा सकत है ? दोनों स्थितियों का समन्वय करते हृए
श्राचायं ने स्पष्टक्रियाहिकि--
सभी सृष्टियों की मूल प्रकृतियां भिन्न-मिन्न नहीं हँ । वस्तुतः वे म्रभिन्न हं ।
किन्तु उस मूल प्रकृति की व्यक्तां हर सगं में श्रलग रहती हैँ । जैसे एक ही वृक्ष
ऋतुभेद से भिन्-भिन्न सा व्यक्तित्व ग्रहण करने पर भी स्वयम् श्रभिन्न रहता हे ।
वैते ही प्रकृति भी भिन्त-भिन्न प्रतीत होने पर भौ स्वयम् अभिन्न रहती है ।
इस प्रकार स प्रकृति के अ्रनेक व्यक्तित्व को स्वीकार करने परभी प्रकृति के
एकत्व सिद्धान्त कौ क्षति न समनी चादिए । ७ प्रकृति का यह् अनेक-व्यक्तित्व
पुरुष-बहुत्व के सिद्धान्त से सर्वंया भिन्त प्रकार का है क्योकि प्रत्येक पुरुष ग्न्य
१. अन्न क्मशन्दोऽविद्यादीनामप्युपलक्षकःगुणत्वाऽविरोषेण तेबामप्युपा
दानत्वायोगत् ।-सां० प्र० भा० पु० ४४
२. महान्तं च समावृत्य प्रधानं समवस्थितम् ।
अनन्तस्य न तस्यान्तःसंख्यानं चापि न विदयते 1। विष्णुपुराणम् ।
३. हेव॒मदनित्यमन्यापि सक्रियमतेकमाधितं लिङ्घम् 1
सावयवं परतसत्रं व्यक्तं विपरीतमन्यक्तम् 1-- साङ्ख्यकारिका १०
४. अत्ृतेरनेकव्यवितिकत्वेऽपिनेकत्वक्षतिः ।--सा० भ्र ° भा० ० ६३
गणड
^
|
{
| १६६ | भचायं विज्ञान भिकषु
| पुरुषों से भिन्न है जसे पृथ्वी का एक खण्ड दूसरे से भिन्न होता है । किन्तु एक
सगं कौ प्रकृति दूसरे सर्गो की प्रकृति से भिन्न नटीं है। इस प्रकार प्रकृति वहुत्व
| न होक प्रकृति व्यक्तित्व बहुत्व ही माना जाता है ।१ श्रनेक पुरुषों के बीच सजा-
तीय भेद होता है जबकि प्रकृति सर्वथा श्रभिन्न प्रौर एक होती हई नाना
| व्यक्तित्वो वाली होती है 1२ ,.
| |
|
१. विष्णुपुराणेनासंख्येयतावचनात् तु प्रधानस्य व्यक्तिबहुत्वसिद्धिरिति !
-सां० प्र०भा० पु० ६३
२ अनेकत्वं सगभेदेप्यभिन्नत्वम् 1--सां० प्र भ० प° ६३
गुण-स्तरूप
प्रकृति त्रिगुणो का ही समवेत नाम है। इन गुणों के स्वरूप का विवेचन भी
ग्रावर्यक है । इस ॒ विषय पर विज्ञानमिष्चु का मत है कि सत्त्वादि तीनों गृण
वैरोपिकमताभिमत शब्दसपर्शादि गुणों से सर्वथा भिन्न ह । सत्त्वादिगुरणए नाम
माव्रके लिए गुण ह । वस्तुतः इन्दे द्रव्य कहना चा्िए । गुण शब्द का प्रयोग
सत्त्वादि के लिए भ्रामक दै] इनकी द्रव्यता के लिए येप्रामाण दै
१- सत्त्वादि में संयोग श्रौर विभाग नामक धमं है, संयोगादि घर्मो को घारण्
} करना द्रव्य के लिए ही सम्भव दै, गुणों के लिए नहीं 1 श्रतः सत्त्वादि द्रव्य ही है
गुण नहीं 1१
२- वैशेषिक गुण किसी द्रव्य के उपादान कार्ण नहीं वन सकते 1
। ३-- ये सत्त्वादि वस्तुएँ लघुत्तव चलतत्व तथा गुरुत्व ञ्रादि धर्मो से युक्तधर्मी
ह । घमं होने के कार्ण भी इनं द्रत्य समभना चाहिए । 2
यह् स्पष्ट हो जाते पर कि सत्त्व, रजस् श्रौर तमस. तीनों द्रव्य हीर, यह्
शंका स्वाभाविक रीति से उठती है कि इहं द्रव्य संज्ञानदे कर सांख्याचार्योँ ने
गुण क्यों कहा है ? इसका समाधान इस प्रकार किया गया हे कि
१--चूकि ये तीनों द्रव्य पुरुष का बन्वः मोक्ष या भोगापवगं रूपी उपकार
. करते है इसलिए पुरुष के उपकरण होने के कारण इन्हे गुण कटा गया है ।२
। २--गुण का ्रथं रज्जु भो होता है 1 पुरुष रूपौ पशु को बाधने के लिए
त्रिगुणात्मक महदादि रूप रज्जु प्रवृत्त होती है । इसलिए मी इन द्रव्यो की गुण
संज्ञा अन्वर्थं होती है 1४ महदादि रूप ्रकृति-रज्जु हई ओर तोनों गुण उसके तीन
व 0
१. सत्वादोनि द्रव्याणि न वेजेषिका गुणाः संयोगाभिवगवत्वात् \
--सों० प्र० भा०पु० ३२
1 २. लघुत्वोज्वलत्वगुरत्वादिध्मकत्वाच्च (-सां०प्र०भा०्पु ३३
। ३. तेष्वत्र शास्त्रे भरुत्यादो च ' गुरणशब्दःपुरुषोपकर णतवात् ।--सां० प्रण
} | भा० पृ० ३३
४. गुरकान्दः -- ुल्षपशुवन्धकतिगुणात्मकमहदादिरज्छुनिितृत्वाच्च
प्रयुज्यते !-सां० प्र° भा० प° ३३ ।
१६७
क न `
ल
|
|
।
॥
|
।
|
१६८ | आचाय विज्ञानभिशच
डर है जिनके मिलने से मह ्कृतिःरजयु वनी हुई ह । इल प्रकार स जितना जङ्
जगत् है वह् यही तीन गु है । तीनो गुण प्रन्य्तावस्ा में प्रकृति कटलाते हँ
रर व्यक्त दशा मे स्थूलता के त्रम से मरत्, प्रहंकार, तन्मात्राः भरतः | इन्द्रिय
रादि नाम से कटे जाते है । गुण अव्यक्त दशा में कारणावस्था या भ्कार्यावस्था १
म रहते है रौर व्यक्त दशान मे कार्यावस्था में । वरस इतना ही त्रन्तर दोनो दशाश्रा
के वीच समना चाहिए ।
ये तीनों गुण शब्द-स्पद-रूप-रस-गन्व श्रादि से रहित होते हँ । स्वाभाविक
शङ्का यह् उठती है कि जव ये शन्दस्प्शा श्रादि घमं कारणभूतसत्त्वादि गृणो मे
हीं हतो विकारं द्रव्यो मे क्से भ्रा जाते है 1 पुरुष चिन्मय श्रौर प्रविकारी
है । इसलिए उसके सम्पकं से भीये नए धर्मं नहीं श्रा सकते । इसका समाधान
ह् है कि इन तीनों द्रव्यो के विशिष्ट प्रकार के संयोग होनिसे हीये नाना घमं
उतपन्न हो जाते है ।२ उदाहरण के लिए हम हल्दौ ग्रौर चन्दन लं । नतो
हल्दी लाल होती है श्रौर न चूना या चन्दन । फिर+उन दोनो के विशेष-संयोग से
लालिमा उत्पन्न हो जातो है! इस प्रकार संयोग कोटी रूपादि का कारण
मानने में प्रत्यक्ष शौर प्रनुमान से भी सहायता मिलती है । वैशेषिक मतवालों
ने इस महत््वपूणा वात को न समभ कर यह माना है कि मूल तत्त्व परमागुभ्रो
मे रूपादि घमं होते है ।० सच वात तोयह है कि श्रनजाने मेवेलोग भौ
सांख्य सिद्धान्त ही श्रपनाते हँ । वे भी त्रसरेगुभ्रों मे महत् परिमाण का कारण
भ्रवयववहुत्वरूपी संयोग ही मानते हैँ । वस्तुतः मूलतत्तवभूत परमाणु मे रूपादि
कौ कल्पना तकं को कमी।की ही योतक है ।
सत्त्वादि गुणो मे गुरुत्व, लघुत्व, चलत्वादि की मान्यता देखकर श्रापाततः
यह् प्रतीत होता है किये गुं विभु नहीं है बल्कि परिच्छि्ति ही है । परन्तु
जैसा कि हम सिद्ध करभ्राए है कर परिच्छित्त होना, स्थान पर श्रनुपस्थिति
१. अकार्यावस्थोपलक्षितं गुएासमान्यं प्रकृतिरित्यथः-- सां०प्र०भा० प०३३
२. स्वकारणद्रव्याणां न्मुनाधिकभावेनान्योज््यं संयोगविज्ञेष एव ।
--सां० प्र० भा० पु० ३५
३. हरिद्रादरीनां संयोगस्य
-- सां० प्रं भा० प° ३५
४. दष्टानुलारेण स्वा्रयहेतुसंयोगानामेव रपादिहेतुत्वसम्भवे ताक्िकाणां
परमाणुषु रूपकल्पनं तु हेयम् । ्रसरेण्सहत्वादावैवयवदहुत्वादेरवतैरपि
हेवुत्वाभ्युषगमादिति दिक् --सां० प्र भा० पु० ३५
तडभयारग्धद्रव्येरब्तरूपादिष्ेतुदर्शनात् 1
आचार्य विन्ञानभिक्षु के सांव्यसिद्धान्त | १६९
की प्रतियोगिता के ग्रवच्छैदक से श्रवच्छि्त होना दै" श्रौर वैसा न होना
विभु होना है सत्त्वादि द्रव्य चूंकि संसार की सभी वस्तुग्रों के उपादान कारण है
ग्रतः उने स्थानीय श्रभाव की प्रतियोगिता के श्रवच्छेदक से श्रवच्छित्तता
नहीं है । इसलिए सत्वादि-तय विभुया व्यापक सिद्ध होते दै । उन्द परिच्छिन्न
समना ठीक नहीं ।
इन तीनों गुणों मे पारस्परिक वैयम्यं भीदहै। इन्दं बिल्कुल एक प्रकार
कान समभ लेना चाहिए । इनकी यह् भिन्नता इनके कार्या मे स्पष्ट दोख
पडती है ।२ ये कायं सुखात्मक दुःखात्मक तथा मोहात्मक होते दै । यही सत्व,
रजस् ग्रौर तमस् की ग्रलग-म्रलग विशेषताएं या वैधर्म्य है । सत्त्व गण प्रषादः
लाघव, प्रमिष्वङ्खः प्रीति, तितिक्षा श्रौर' सन्तोषादिरूप वाला तथा भ्ननन्त भेद
# वाला है । प्रतः संक्षेपतः हम इसे सुख।त्मक कहते है । इसी प्रकार शोकादिक
नाना भेदों से युक्त रजोगुण सक्षेपतः दुःखाल्क कट्लाता है श्रौर निद्रादि
ग्रनेक भेदो बाला तमोगुण संक्षेपतः मोहात्मकं कटलाता ल
४ एक बात इन गुण के विषयमे श्रीर जानने योग्य हे कि ये तीनों गुण
संख्या मे केवल तीन ही नदीं है। अपितु व्यक्ति-भेद से ्रनन्त है ।९ इन्हें
ग्रनन्तव्यवित वाला न मानने से यहं सिद्धान्त कभो उतन्न नहीं हौ सकता कि
गुणों के परस्पर मिश्रण वैचिव्य से कार्यवैचित्य होता है] ये गुण विभु
ग्रवदय माने ही गए है, किन्तु केवल विभु मानने से कायं वैचित्र्य की सिद्धि
नि
१. अत्रोच्यते परिच्छिन्तत्वसत्र
त्वम् !--सां० प्र्भा° प° ४२
२. गुखानां सत्त्वादिद्रव्यत्रयाणामत्योऽन्यं सुखदुःलादयवेधम्यं, कार्येषु
तदूर्गानात् 1- सां ० प्र° भा० ६० ६२
३. यथासत्त्वं नाम प्रसादलाघवाभिष्वद्धप्रीतितिति क्षा
अदं समासतः सुखात्मकम् 1--सां० भ्र° भा पु० ६३
४. एवं रजोऽपि जो कादिनानाभेदं समासतो दुःखात्मकमिति 1--सां° प्र°
ददिकामादप्रतियोगितावयेदकावच्छिन्न-
सस्तोषादिरूपानन्त-
। भा० पु० ६३
| ५. एवं तमोऽपि निद्रादिनानामेदं समासतो मोहात्मकमिति !--सा° प्र०
भा० पु० ६३
४. सस्वादिवरथमपि व्यक्तिमेदादनन्तम् 1. अन्यथाहि = विथुमात्रत्व
गुरएविमरदेतरचिश्यात् कायवेचिन्यमितिसिदधान्तो नोपपद्य त । विमरदऽ-
वान्तरभेदासम्भवात् ।-- सां० प्र ° भा° ५० ६३
गग र उ
क
१७० | आचाय विन्ञानभिष्ु
नहीं हो सकती, श्रनन्त इकार्बले गुणो का मिश्रण-विशेष न॒ मानने पर
कारयवैचिव्य का कारण नहीं खोजा जा सकता । यहं मिश्रण-विरोष या विमरदं-
वैचिव्य किसी चौथे प्रकार के श्रवान्तर गुण को नहीं उन्न करता । गुण तो
तीन ही प्रकार के रहते दै क्योकि यह विमर्दं तीन प्रकार के गुणों का
भिच्-भिन्न मात्राश्रों मे मिलन ही तो है । गणो के असंख्य व्यवितत्ववाले होने
पर भी उन्हँ तीन ही कहना जाति या सामान्य को दुष्टि से सगतदहे।
इन गुणों की भ्रनन्तता की सिद्धि के लिए एक ुदृढ् युक्ति य् है कि यदि
सत्त्वादि तीनों क्रमशः एक ही एक ह तो इनको वृद्धि या इनका हास कैसे
सम्भव ह ?१ साथ व्यक्तित्रय होने के कारण ये परिच्छिचरस्वरूप वाले गण
रकरृति को भी परिच्छिन्न कर देगे । एेसी दा में प्रनन्त ब्रह्माण्डों की स्थिति,
उत्पत्ति श्रौर लय एक ही साथ कैमे वन पडे । ग्रतः ये अ्रसंष्य व्यक्तियों वाले
है यही निर्चित सिद्धन्त दै ।
परव-पृष्ठ पर कहा गया है क श्रसंख्य होने पर भी “जातावेकवचनम् के
भ्रनुसार उन्दे तीन वताया गया है । ्रसंख्य सत्त्वगुणो में, लधुत्वादिधरमं को
दुष्ट से साधम्यं श्रौर रजोगुण तथा तमोगुणो से वैवरम्यं है ।वैप ही रजोगुण
श्रौर तमोगुण की व्यवितयों मेँ भो श्रलग-्रलग भ्रगने-श्रपने वगं में परस्पर
साधम्यं तथा भिन्न जातीय व्यविततियों सेवैधरम्यं है) प्रव समस्या यह्भ्राती है
क्रि मूल कारण को परिच्छिन्न संख्या से प्रतीत श्रौर भ्रनन्त व्यक्तियों वाला
मानने पर वैशेषिकों के हारा माने गए परमशुप्रों से इनमें भेद ही क्या रह
गया ? इस समस्या का हल विज्ञानभिध्ुने इस प्रकार क्रिया है कि सत्त्वादि
तीनों गुण शब्दस्पर्शं इत्यादि धर्मों से रहित हँ जव कि परमागुश्रोंमेये
घमं विशेष के माध्यम से उपस्थित माने गए है।२
१. गुणानां सतत्वादीनामेकंकव्यदितमात्रत्वे वुद्धिहासादिकं नोपपद्यते ।--
सां० प्र०भा० पु० ६३
२. नन्वेवं मुलकारणस्य परिच्छि्लापरिच्छिन्नासंडमव्यवितत्वे वैशषिक-
मतादत्र को विशेष इति चत् 1 कारणद्रव्यस्य शब्दस्पर्ादि राहित्य-
मेव 1\--सां० प्र° भा० पु० द
"५
अत्िद्या
सृष्टि का निमित्त कारण न तो पुरष है न प्रकृति, क्योकि पुख्प सर्वथा
शरसद्ध श्रौर श्रविकारी है तथा प्रकृति स्वतः जड हं। फिर श्राखिर कैसे पुरूष
को बन्ध होता दै प्रौर वह क्यों मोक्षके हारा शुद्ध स्वरूप मे श्रविष्ठिति होता
ह ? इन सवं॑प्रदनों का एक उत्तर दकि श्रविद्या के कारण पुरुष प्रकृति के
बन्धनो मे फंसता नौर उस श्रवि्या के दूर टोने पर वह भ्रपने शाद्व मुक्त
तथा ब्रसङ् रूप में श्रासीन होता है। श्राचायं विज्ञानभिक्षु ने इस श्रविद्याके
साख्थसम्मत स्वरूप को भलीरभाति प्रस्तुत क्या हे । बौद्धो तथा मायावादी
वेदान्तियों के श्रविद्यासम्बन्धी मत का खण्डन करते हुए उन्होने प्रपते सिद्धान्त
को वक्ष्यमाण रीति से प्रस्तुत क्रिया है}
मायावादीवेदान्तियों ने श्रवि्या को तुच्छं बताया है किन्तु यह् वात विल्कुल
निराधार है१ क्योकि श्द्ैतजञान होने के वाद भी वन्वन की निवृत्ति नदीं होती ।
श्रान्त ज्ञान शुद्ध ज्ञान हने पर तुरन्त तष्ट हो जाता !है परन्तु ग्रद्धैत ज्ञतनक
वाद भी विना योगाभ्यास किए अविद्या की निवृत्ति नदीं होती 1२ इसमे यह्
स्पष्ट है कि श्रवि्या तुच्छ नहीं है म्रपितु यौगिक चेष्टा्रोसे दूरकीजा सक्ती है
यह् स्मरणीय है कि यह दुर कीजा सकती है किन्तु इसका श्रात्यन्तिक लोप
नहीं किया जा सकता यदि केवल ॒भ्रातम-विज्ञान से श्रदिद्या दुर हो जाती तो
अला कौन कठोर योगाभ्यास करने का वृथा श्राया; करता । प्रतः श्र्तज्ञान
के साथ योगाभ्यास की सहकारिता आओ उसमे अनिवायं है। इस कार्ण से
भ्रविद्या को तुच्छं नहीं माना जा सकता ।
मायावादियों ने अविद्या श्रौर माया कौ एकता को स्वीकार करते हुए
श्रविद्ा को सत् श्रौर अ्रसत् से परे अर्थात् श्ननिवचनीय बताया है 1 यद् बात
बिल्कुल भ्रसंगत दै 1 किसी भी वस्तु को एक ही समय सत् नौर असत् से त
भ्र्थात् भावात्मकता तथा शरभावाटमकता से भिन्न कहना सवथा युक्तिविरुढ द ।
यह तो स्ववचोविरोषरहै । |
१. तस्मादयोगदर्शनोक्तादन्पा . न ८ भ इद्धिधमं एव न
\ 2 र
व 1
भा० पू० ३२ व
३. न तुज्ञानराशइ्या अविदयामायाशन्दाथः 1--सा९
` ` ` ` ` (जि । |
\
१७२ | आचाय विज्ञानभिक्षु
| रविद्या को यदि बिल्कुल सत् माना जायतो फिर श्रेत की मान्यताका
खण्डन होता है । यदिब्रह्म की ही भति श्रविद्या भी सत् है तोफिरदो
पारमार्थिक सत्ताए हुई । श्रदेत कहाँ रहं गया ? इन प्ररनों का समाधान करते
इए विज्ञानभिकषु ने भ्रविद्या के विषय में यह् सिद्धान्त प्रस्तुत क्ियादहै कि ्रविद्या
| ममात्मा या पुरूष की भाति कूटस्थ नहीं है किन्तु फिर भी घटपटमठ श्रादि की
| भांति वास्तविक है । इस प्रकार से प्रकृति की भांति वास्तविकता अ्रविद्यामे
माननी ही चाहिए, श्रतः यह अविद्या ग्रभ(वरूप नदीं है । श्रपितु विद्या-विरोधी
भावात्मक सत्ता है १ श्रविवेक श्रौर श्रविद्या एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।
यह् श्रविवेक वृत्ति रूप नहीं होता श्रपितु बीज-रूप या वासना-ल्पका होता
है ।२ योगभाष्यकरार् व्यास का भी यही मत है । इसको परिभाषा विन्ञानभि्ष
ने व्यतिरेक वियिसे इस प्रकारको है कि यह् श्रविवेक अ्रसंसगं कोन ग्रहण करने
वाला प्रकृतिपुरुष का श्रशुदध ज्ञान है ।९ प्रकृति श्रौर पुरूष की विविक्ताको न
ग्रहण करनेवाला ज्ञान ही अ्रविद्या है ।*
| ग्रविद्या पुरुष के बन्य का कारण है, यह चर्चा हो चुकी है। परन्तु
भ्रविद्यता कौ कारणता का स्वरूप स्पष्ट नहीं हुभ्रा। वन्य का साक्षात् कारण
॥ तो पुरुष श्रौर प्रकृति का संधोग है ।* यह् पुरुषप्रकृतिसंयोग स्वयं स्वाभाविक
तो है नहीं। इस संयोग काकारण भ्रविद्याहै । इस प्रकार से रविद्या वन्ध
का परम्परासे कारण वनी साक्षात् कारण नहीं। श्रविद्या से संयोग श्रौर
संयोग से बन्ध हुए 1 मुक्त पुरुषों मे श्रविया की प्रसक्ति नहीं होती इसलिए
वहाँ प्रकृति-पुरुषसंयोग नहीं होता ओर इसोलिए उन फिर कभी बन्ध नहीं
१- अत एव चाविद्या नाभावोऽपितु विधाबिरोधिज्ञानान्तरम् ।1--सां°
प्र भा पु 1 †
२. अस्मन्मते च बासनारूपस्थैवाविवेकस्य संयोगाट्यजन्महेतुतया तमोवदा-
वरकत्ववृदधल्ञासादिकमज्जसेवोपषद्यते (सां प्र ° भा० पु० रण
३. अयं चाविवेकोऽगहीतासंसगंकम्ुमन्नानमविदास्थलाभिषिक्त एव विव-
क्षितः ।--सां° प्र० भा० पु० २७
४. अविद्या हिं अन्यस्मिस्तदाकारता ! सा च विकारविह्ोषोऽधिकार-हेतु-
संयोगरूप-सद्ग विना न सम्भवतीत्य्थः ।-सां० प्र ° भा० पु० १२५
अविद्या च मिथ्याज्ञानङ्पा बुद्धं इतिसुत्रितमतो न तत्वाचिकयम् । ।
-सा० षण०्भाण पुण ४४9
५. अव्िवेकइच संयोग्वारेव वन्धकारणम्--सां० प्र० भा० प° २७
आचाय विज्ञानभिश्ु के सांख्यसिद्ानत | १७३
होता । इस संयोग का दूसरा नाम है जन्म ।"^ वरयोकि जन्भ ही स्वस्ववुद्धिभाव
मे श्रापन्न प्रकृति का पुरुष से संयोग दै । यह् श्रविद्या जन्म नामक प्रकृति-
पुरुष-संयोग का कारण तीन प्रकार से बनती है--
१-- साक्षात्
२--धर्माधर्मोत्पत्ति द्वारा
३--रागादिदृष्ट द्वारा
श्रविद्या इन तीनमेंसे किसी एक प्रकार से जन्म का कारण बनती दै
श्रौर जन्मनामक संयोग साक्षात् रीति से बन्ध का कारण होता है । जैत प्रन्वकार
श्रालोक रूपी नियतकारण से दूर दोत। हवस ही श्रविद्या विद्यारूपी नियत
कारणसे दुर होती दै। योगाभ्यास रादि कमं सहकारो कारण ह । विवेक-
ख्याति लाभ करते के लिए योगाभ्यास श्रादि कमं सतत्वशुद्धि के द्वारा सहायता
प्हुचाते दँ । यदहं भ्रवि्या प्रकृति ओरौर माया से सर्वथा भिन्न दै । प्रकृति ्रौर
माया एक हैँ श्रौर इस जगतप्रपञ्च का उपादान कार्ण है|
१. अयञचाविवेकस्निधासंयोगाख्यजममहैतुः ।-सां० प्र भा पु०२८.
"णि
- "7 (तुङ्न ठ
विज्ञानभिक्ु संघार को तुच्छ या मिथ्या नहीं मानते । इसलिए इस संसार
की उत्पत्ति, स्थिति श्रौर लय के रूपों कौ व्याख्या करनी उनके लिए प्रनिवायं
है । श्न्य सांख्याचारयो की भाति विज्ञानभिष्चु के मत मे भी श्रभिव्यक्ति रूपिणी
सच्ची सृष्टि होती है ।१ परस्तु यह सृष्टि किसी कौ निर्मिति नहीं है प्रत्युत प्रकृति
। के परिणाम-रूप होतो है । चिन्मय पुरुष ग्रौर जड प्रकृति के सान्निध्य से प्रकृति
॥ म क्षोभ होता है।२ इस क्षोभ से प्रकृति में रजोगुण प्रमुख हो जातादहैश्रौर
महत्त्व का प्राविर्भाव होता है । यह प्ररन उठता है कि प्रकृति श्रौर पुरुष का
साच्निध्यया संयोग श्राखिर क्यां होता है? इसका उत्तर यह् है क्रि पुरुषके
भगापवरगर की सिद्धि के लिए प्रकृति स्वयं पुरुष से संयुक्त होती है जैसे श्रय-
। स्कान्त से प्रेरित लोह उससे संयुक्त दोता है । तव सारा संसार भ्राविर्भूत होता
है । वेदान्त-सिद्धान्त मे यद् संयोग ईद्वर की इच्छा से होता है ।
|
| | सुष्टि अर्थात तिक्रास
|
।
| स्कायंवाद के सिद्धान्त से सृष्टिक्रम को कारण की श्रभिव्यक्तावस्था श्रीर्
| लयक्रम को कायं की भ्रनभिव्यक्तावस्था समनी चाहिए 1 इसलिए कोई वस्तु
तई निर्नित नहीं होती श्रपितु श्रभिव्यक्त होती है श्रथत् विकसित होती है 1 अ्रतः
्आाचायं विज्ञानभिक्षु को भी कृटुर सृष्टिवादी न मान कर परिणामवादी या
| विकासवादी ही मानना चादिए । इस विकास का क्रम इन्होने भी श्रन्थ साख्या
| | चार्यो की ही भांति बताया है । श्रन्तर केवल यह् है कि यह् विकास होता तो
|| - प्रकृति से हौ है किन्तु स्वतन्व्र नीं, ्रपितु परमेहवर की इच्छासे। इस प्रंरामें
| १. कार्याणामथेक्रियाक्ारितया वास्तवत्वेन कांत एव घमिग्राहक प्रमान
| । प्रकृतर्वास्तवसृष्टत्वसिद्ध रित्यर्थः । स्वप्नादितुल्यताश्रुतयस्त्वं नित्यता-
| रूपासत्वाशे मात्रे पुरषाध्यस्तत्वांशे वा वोध्याः, अन्यथा सृष्टिप्रतिपादक-
|
॥
भरुतिविरोधात् । स्वप्नपदार्थनामपिमनःपरिणामित्वेन अत्यन्तासत्ता-
विरहाच्चेति 1-सां० प्र° भा०पु० ८०
| २. प्रकृति स्वातंन्यवादिभ्या साख्ययोगिभ्यापुरुषाथ-प्रयुक्ता-प्रकृत्तिः स्वयमेव
| पुरुषेण आद्यजीवेने संयुज्यते इत्यम्युपगम्यते अयस्कान्तेन लोहवत् ।
| अस्माभिस्तु प्रकृतिपुरुषसंयोगः ईउवरेण क्रियते इत्यभ्य॒पगम्ते 1
-वि० भा० पु० ३४
१७४
आचायं विज्ञानभिक्षु के सांख्यसिद्धान्त | १७५
वे सांख्यजास्त्र को दुर्वेल मानकर वेदान्त का सिद्धान्त स्वीकार करते ई श्नौर
कटूते हैँ कि प्रकृति भ्रौर पुरुष ईइ्वर को शक्त्यां हैँ । ईरवर की इच्छाते ही
प्रकृति ग्रौर पुरुप दोनों का संयोग होता है 1 उस संयोग से महत्तत्व कौ उत्पत्ति
होवी द यही महत्तत्व हिरण्यगभं कहलाता है । इसी से पूरी सृष्टि का विकास
होता है । इस मान्यता के फलस्वल्प प्रकृति को स्वतन्त्र कारणता 'के जो
मौलिक दोष हवे दूर हो जाते हँ 1 सांखथयोग केवल इपी मान्यता के प्रसद्ध मे
प्रामाणिक है 1१ पुरुष चेतन किन्तु निष्क्रिय है श्रौर प्रकृति सक्रिय किन्तु जड़
है । दोनों का संयोग, भले ही वह् पड्ग्वन्वत् माना जाय, कंसे सम्भव हो सकता
ह? इस प्रन का समाघान भी विज्ञानमिष्षु के मतवाद में हौ जातादै। इस
विकास क्रम के लिए उन्होने भ्र ति-स्मृतियो को दही प्रमाण माना है।२
यदी महत्तत्त्व भ्रपने सत्त्वादि तीनों ब्रंगों से ब्रह्मा, विष्य शरोर महेश की
उपाधि बनता है । श्रौर इन उपाधियों सहित वे इन नामों से प्रसिद्ध होते है।
इन तीनों देवताभ्नों मे भो महान् या विष्णु वाला श्र पहले प्रादुभूत होता
है 19 यदी महत्त्व तीनों गुणों से संभिन्न होते हए परिणत होकर व्यष्टि
जीवों की उपाधियों से युक्त होता है 1 इस प्रकार विशाल सृष्टि होती रहती
५ है । महत्, अ्रहंकार श्रौर मन-वे तीनो मिल कर अन्तःकरण वनते है । प्रतीक
की दृष्टि से महत् इन तीनो कौ वीजावस्था है । जैसे, वृक्षों के भरकर से राखाएं
१. स्वतनतरघरधानकारणतावादिन्याङ्च कपिलस्मतेरपरामण्यं प्रसज्यते...
तथा च तुल्यबलस्ूत्यन्तरविरोधेन ङुण्ठितया कपिलत्मूत्या वेयासिक-
स्तकंगणो नाभासीकतृं ज्ञक्यते--इतरचेदवरप्रतिषेधांगो कपिलस्मृतेदुबल-
त्वम् । --वि०भा० पु० २६५ |
एतेनान्स्मृत्यनवकारदोषभ्रसगेन मूलधरुतशाखातुपलब्ध्याच योगःपातं
जलभाष्यं प्रकृतिस्वातन्त्यमात्रांशे प्रत्यक्तः प्रत्याद्यातः इत्यथः ॥
-- वि० भा० प° २७१
२. अत्र सत्वा श्त्रयेण महतो देवतात्रयो पाधित्वात् तदविवेकेन ब्रह्म
विष्णुिवत्ववचनम् 1 -- सां° सा ‰० १५
अत्र प्रक्तमंहान् महतोऽहेकार इत्यादि सृष्टिक्रमे शास्त्रमेव्रमाएम् \ ~
सांख्यसार पु०° १६
चैणेव विभ ष्य-
३. ब्रह्मशंकरपक्षयाऽप्यादौ विष्णु महानाविर्भवति
रेवेत्यद्धे नोक्तम् अनुगीतायाम्- . विष्णरेवादिसगेषु स्वयम् तश्रथुः
सां० सा० पु १६
१७८ | आचाय वित्तानभिष्षु
्नौर ब्रह्मा तथा ख को उत्पच्च करते ।ये दोनों
ह| यही विष्णु
होते है भौर क्रमश सृष्टि तथा सहारक्राय करते है।२
श्रहङ्कारतत्वौप
करी क्रिया कोई नरद घटना न हीं दै श्रपितु काय का कारणं दशा
संहार दै। इस श्रनादि-संयोगपरम्पराजन्य सृष्टि
न ला परिणत होना ही
प्रतिपुरूषविभोक्ष' मात है ।२
स्थिति श्रौर लय का प्रयोजन
2 व स्वयम्पू्यो जगदङ्कः र ईङ्वरः ।
२. अनेन नमस्तसमे विष्णवे सवेलिष्एवे 1\--सां° सा०, ५. १
रि ति अहङ्कारोपाधिकं त्रह्यस्रयोः सृष्टिसंहारकव् त्व तिरि
३, ` धच # -सां० प्र० भा० प° १६६
क वद् भोगोऽपिसष्टप्योजनम् तथापि यवन
: 1-सा० प्र०भा० पु० ७९
ति
=
कतल्ण
विज्ञानभिश्चु ने कंवल्य, मोक्ष श्रौर श्रपवर्ग-तीनों शब्दों का प्रयोग पूणं
पर्यायवाची मान कर किया है। उनके लिए तीनों पदां काश्र्थंएकदहीदहै।
सांख्यगास्व को भी उन्होने योग श्रौर वेदान्त की भांति "तदिदं मोक्षगास्तरम्
चिकित्साशास्तरवच्चतुव्यूहम्"१ कहा है । तरिविष दुःखों की भ्राव्यन्तिक निवृत्ति ही
कैवल्य है । ्रात्यन्तिक शब्द का प्रथं है स्थुल श्रौर सूक्ष्म दोनो रूप से । इस प्रकार
रथात् पूर्णतया जो निवृत्ति है वही भ्रात्यन्तिक निवृत्ति है । केवल
दुःखकान होना अ्रपवगं नहीं है) स्थूल का श्रयं है वर्तमान अ्रवस्थावाला।
वह् तो दूसरे क्षण श्रापसे श्रापनष्ट हो जायगा । अ्रतीतावस्था कादुख तो
नष्टहीहो गया है । इसलिए पारिशेष्यात् भ्रनागत श्रवस्या वलि दुःख की
निवृत्ति ही पुरुषार्थं है ।२ यह वात स्पष्ट है क्रिजव तक चित की स्थिति है .
तव तक श्ननागत दुःख की सत्ता कौ भ्रविकल सम्भावना बनी हई है । इसलिए
दूसरे शब्दों मे यह भी कहा जा सकता है किं चित्त की निवृत्ति दी कंवल्य ह 1
थोडी-सी बात श्रौर कह् देने योग्य है कि जीवन्मुक्ति कौ दशा मँ यद्यपि चित्त कौ
पूणं निवृत्ति नहीं होती तथापि वह् कैवल्य कही दादै। इस दशा में म्रना-
गत-ग्रवस्था वाले दुःखों के वीजं का दाह हो जाता है । इसलिए चित्त रहने पर
भी श्रनागत दुःखों कौ सम्भावना नहीं रह् जाती । विदेहुकैवल्य मे भ्रलवत्ता
चित्त के साथ-साथ दुःखों की निवृति होती है । विदेहकैवल्य ही तो रारवतिक
कौवल्य है । जीवन्मुक्ति तो कैवल्य का एेिक स्वरूप है 1
क्या यह दुःखनिवृत्ति पुरुष मेँ सम्भव है ? नहीं । क्योकि पुरुष तो नित्य
शुद्ध-बद्ध-मष्त बताया गया है । इस दृष्टि से विचार करने पर तो उसको दुःख
कभी था ही नहीं उसकी निवृति का प्रश्न ही नहीं उठता । वस्तुतः सुख भ्रौर
दुःख पुरुष में प्रतित्रिम्ब-रूप से सम्भव दै वास्तविक रूप से नहीं । तत्तद् उपा-
धियो मे विम्बाकार चित्तपरिणाम दही प्रतिबिम्ब है 19 इस प्रतिबिम्ब-स्वरूप
१. द्रष्टव्य, सां० प्र भा० पु०६
२. द्रष्टव्य, सां० प्र° भा० पु० ७
३. अतो यावच्चित्तसत्ता तावदेवानागतदूःखसत्तानुमीयते तन्निवृत्तिक्च
पुरुषार्थं इति !-सां० प्र° भा० पुर ७
प्रतिबिम्बङ्च तत्तदुपाधिषु विम्बाकाररिचित्तपरिणाम इति \-सां० प्र
भाण पु? (1
%
१७९
१ ^ _ गग्गरी -
१८० | आचाय विज्ञानभिक्षु
दुःख की निवृति ही कैवल्य है । योगमाष्य म बताया गया कैवल्य का स्वरूप ही
श्राचायं विज्ञानभिष्चु को प्रभीष्ट है ।' ्रकृति श्रर पुरूष दोनों की पारस्परिक
उदासीनता शर्थात् दोनों का एकाकी होना या लौकिक शब्दों मे दोनोका
परस्पर वियोग ही कैवल्य है । इस प्रकार से प्रकृति का एकाकी होना भी वैसे
ही कैवल्य कटलायेगा जैसे कि पुरुष का एकाकी होना । परन्तु साधक की दृष्टि
स प्राप्य कौवल्य तो पुरुष की ही केवलता है । इसलिए विज्ञानमिष्चु ने इसी प्रसंग
मे कह दिया है किं श्रवा पुरुषस्यैव कैवल्यम् ।*२ जीवन्ुक्ति भी मुक्तिका दी
एक स्वरूप है । लास््ों मे विवेकप्राप्षि के विषय मे गुरुशिष्यभाव प्रतिपादित
किया गया है 1 जीवन्मुक्त ही गुरु हो सकता है श्रूतियों का भी भ्राग्रह
जीवन्मुक्ति मानने मे दी दै 18 जीवन्मुक्त ९ श्रपने रीर को कालसातूकर के
विदेहमुक्त हो जाता है जैसे कि पवन निस्पन्द हो जाता है। मुक्तदशा म पुरुष-
चिन्मात्र ओर शान्त रहता टै वहां पर भ्रानन्दादि की कल्पना न करनी
चाहिए ।६
१. अविवेकनिमित्तात् प्रकृतिपुखषयोः संयोगः ! तस्माच्च संयोगादुत्पयमा-
नस्य प्राकृतदुःखस्य पुरुषे यः प्रतिविम्बः स एव दुःखभोगो दुश्सम्बन्ध-
स्तनिवत्तिरेव च मोक्षाख्यः पुरुषाथं इति \--सां० भ° भा० ध० ११२
२. द्रयो.प्रधानपुरुषयोरेवौदासीन्यमेकाक्तिता । परस्परवियोग इतियावत् ।
सोऽपवर्गः 1 भथवा पुरुषस्यैव कंवल्यम् 11--सां° भ्र ° पु० भा० १०९
जीवन्युक्तस्यैवोपदेष्टत्वसम्भवादिति \--सां० प्र ° भा० १० ११३
४. यो जागत्िचुषुप्तस्थो यस्य जाग्रञ्च विद्यते ।
यस्य निर्वासनो बोधः स॒ जीवन्युक्त उच्यते 1)--सां० सा० प्रु ४
न मोक्षो नभसःघृष्ठे न पाताले न भुतले 1
सर्वाश्षासंक्षये चतःक्षयो मोक्षतिशरुतेः \-सां० सा० पण य
५. जीवन्युवतपदं त्यकत्वा स्वदेहे कालसात्छृते
विशत्यदेहभुत्तत्वं पवनोऽस्पन्दतामिव ॥1--सां० सा० पु० ४८
६. चिन्म।त्रं चेत्यरहितभनन्तमजरं क्लिवम्
अनादिमध्यनिचयं यदनाधिनिरामयम् -सां० सा० पु०४ण
न शुन्यं नापि चाकारं न हृद्यं न च दर्वानम् 1
अनाख्यमनभिन्यक्तं तत्कि चिदवशिष्यते 1\--सां० सा० प° ४८
आचायं विज्ञानभिक्षु के सांव्यसिद्धान्त | १८१
कंवल्य-लाभ के लिए एकमात्र साघन है विवेकख्याति 1१ इस विवेकख्याति
की प्रात्तिके लिए भ्राचा्यं विज्ञानभिक्षु की दृष्टि में योग-मागंकादही प्राश्य
लेना पड़ता है । इसलिए योग-सिद्धान्तो मे बताए गए सारे मोक्ष-साघन सांख्य-
सिद्धान्त मे भी उन्दोनि निर्दिष्ट किए हैँ । उत्तम, मच्यम श्रौर मन्द तीन प्रकार
के श्रधिकारी सांख्य मे भी वताए गए हँ । योगमागं से टी विवेकनिष्पत्ति
भ्रौर तद्द्वारा जीवन्मुक्ति ग्रौर विदेहमुक्ति उन्हें भ्रभीष्ट है।२
१. द्रष्टव्य, सां०प्र० भा०पु० १९२
२. इति पातञ्जलोक्तप्रक्रियया तन्िरोध उपरागनिरोधो भवति चित्त-
वृतिनिरोधास्ख्ययोगदवारेत्यथः -सां० प्र भा०, ध २५७
अध्याय ऽ
आचायं विज्ञानभिक्लु के योग-सिद्धान्त
गोग-स्तरूप
श्राचायं विन्ञानभिक्षुयोगवातिक् का प्रारम्भ करते हुए कहते हँ कि योग दो
प्रकार का होता है--
१--ज्ञान का साघन-रूपः योग भ्र्थात् सम्प्ज्ञातयोग
२--ज्ञानजन्य योग भ्र्थात् असम्प्ज्ञातयोग
इन दोनों प्रकार के योगों का सविस्तर वणंन भगवान् पतञ्जलि ने योग-
सूरो मे श्रौर व्यास नेयो० भाण्मे क्रयाह। व्यत्पत्तिनिमित्तक ग्रथं करते हुए
विज्ञानमिष्चु ने भी तत्त्ववैशारदोकार की हौ भांति योग शब्द को "युज्" -समाघौ
घातु से निष्पन्न मानाहै। चित्त की क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र श्रौर निर्ध
ये पाच भूमियां१ मानी गई हैँ थोड़ी वहुत समाधि इन पचो भूमिय मं सम्भव ह|
इसीलिए समाधि को चित्त कासावेभौम घमं कहते है ।२ इनमे से एकाग्र
रौर निरुद्ध भूमि में रहने वाली समाधि योग कहलाती है रेष तीन भूमियों क्षित,
मूढ श्रौर विक्षिप्त में संभव समाधि को योग नहीं कहते 1* योगरिवित्तवृत्तिनिरोघः
सूत्र का लक्षण करते हए उन्दने वातिक मे कहा है कि श्रन्तःकरण-सामान्य
को ही चित्त कहा गया है। चित्त की पाच" वृत्तियां होती ह १* प्रमण
२. विपर्यय ३. विकल्ष ४. निद्रा श्नौर ५ स्मृति । इन वत्तियों का निरोध ही योग
कहूलाता है । निरोध काश्रथं है श्रधि-करणं म लीन हो जाना यहं लय
` १. क्षिप्तं, मूढ, विक्षिप्तम्, एकाग्रं निरुद्धमिति चित्तभुमयः ।- यो
भाष्य पु० ७
२. समाधिः चित्तवृत्तिनिरोध, स च सा्वंभोमः सर्वाय वक्ष्यमारणासु
क्षिप्ताद्यवस्थासु साधारररिचत्तस्य ध्मः स्वाभाविको जलस्य द्रवत्ववत् ।
-यो० वाण्पु० प ।
३. तत्र तासु पञ्चसु मध्ये विक्षिप्ते चेतसि वतमानः समाधिरल्पो बहुल
विक्षपशोषोभ्तत्वान्न योगपक्षे योगमध्य ्रविक्षति क्लेशहान्यहेतुत्वात,
सुतरां तु ्षिप्तभूढयोदिचत्तयोवतंमानो समाघ्यभ्यासावित्याश्यः ।
-यो० वा० पु०ण
४. यो० सू० १।२
५. चित्तमन्तःकररणसामान्यम् (--यो० वा० पु० १२
१८५
[क ~ `
`
१८६ | आचायं विज्ञानभिक्ष
शरधिकरणा की ही एक विशेष श्रवस्या है । इस प्रकार से वृत्तियों का श्रपने
श्रधिकरणभूत चित्त मे लय ही इन चित्तवृत्ति का निरोध है 1 इस
लावस्था मँ वृत्तियो की संस्कारशेषावस्था रहती है 1२ निरोध का श्रं नाश
या श्रभाव नहीं है ।* इसलिये योगकाल में चितवृत्तियों का सर्वथा नाश या
। श्रभाव नहीं होता ।
|, श्रव इस परिमाषा की संगति बैठाने मे दो शङ्कां उठती है 1४ पहली शङ्का
तो यह होती दै कि चित्त.वत्तियों का निरोध तो प्रलयकाल में भी रहता है क्या
। प्रलयकाल मे समी प्राणियों को योग की सिद्धि होती रहती है । भर्थात् क्या
। रलय-वेला मँ योग की ही स्ति रहती है । बात स्पष्ट है कि प्रलयकाल योग
की स्थिति नहीं है । रतः इस परिभाषा ने अरतिव्यास्षि-दोष कौ प्रसिक्त होती
है । दूसरी शङ्का यह दै कि यदि चित्तवृत्तिनिरोव ही योग है तो थोड़ा वहत
चित्तवृत्तिनिरोध चित्त की क्षिस, मूढ श्रौर विक्षिप्त भूमियो में भी रहता है फिर
व्यो न उन भूमिय मेँ भौ योग कौ सत्ता स्वीकार की जाय--किन्तु इन तीनो
| भूमियों की समाधि भ्र्थात् चित्तवृत्तिनिरोध को योगसूप मे स्वीकार करना योग-
|, ॥ डात्र को श्रभीष्ट नहीं है 1 श्रतः इस दृष्टिसे भी ग्रतिव्यास्ति-दोष दुनिवार हौ
जाता है । इसलिए विज्ञानभिक्ु इस दोष का परिमार्जन करने के लिए योगः
की परिभाषा यह करते है-
“पुरुषस्यासयन्तिकस्वरूपावस्थितेहेतस्वित्वृत्तिनिरोवो योगः ।
इति योगद्रयसाधारणं लक्षणम् ।९
इस परिभाषा का श्र्थं यह हैकि पुरुष की भ्रात्यन्तिकी स्वरूपावस्थिति
र्थात् कैवल्य का हेतुभूत चित्तवृत्तियों का निरोष ही योग है) इस परिभाषा
नं ऊपर निर्दिष्ट दोनों दोषों का परिहार हो जाता है श्राव्यन्तिक पद के प्रयोग से
प्रलयकालीनावस्था में श्रतिव्या्ति नहीं होती श्रौर स्वरूपावस्थिति का हितुभूत-
१. वृत्तयः पञ्चतय्यः दिलष्टादिलष्टाः 1--यो० सु° १।५
प्रमाणविपय्ययविकल्पनिदरास्मृतयः \!-यो० सू० १1६
२. तासां निसेधस्तासां लयाख्योऽधिकरणस्यैवावस्थाविदोषः \-- यो ° वा
पृ० १२
३. वृत्तिनिरोघश्च चित्तस्य वृत्तिसंस्कारशेषावस्था ।--यो० वा० प° १०
निसेधो न नाञओोऽभावसामान्यं वानङ्खौकारात् वक्ष्यमाणसंस्कारजनका-
नुपपत्ते श्च ।-यो० सा० सं° पु० ६
प. द्रष्टव्य, यो० सा० सं०पृ०र्
आचायं विज्ञानभिषु के योगसिद्धान्त | १८७
पद से चित्त की क्षिप्तादि ्रवस्थाश्रो मे योग कौ भ्रति-व्या्ति मिट जाती है\
इनके ूर्मवर्ती योगज्ञास्त्र के अन्य श्राचार्योने इस प्रकार की विशृद्ध परिभाषा
देने के प्रयास में कोई रुचि नहीं दिखाई थी 1
खभ्प्रज्ञात योग
योग दो प्रकार के होते ह--सम्प्ज्ञात शरोर श्रसम्प्रत्तात । सम््रज्ञात योगका
वर्णन करते हुए भाष्यकार ने लिखा है कि यह् योग एकाग्र-चित्त मेँ सद्भूत भ्रं
को प्र्योतित करता है, क्लेशो को नष्ट करता है, कमं के वन्धनों को शिथिल
करता है, निरोधरूप श्रसम्भरज्ञातसमायि को श्रभिमुख करता है। इस वंन
को श्रौर अधिक स्पष्ट करते हुए विज्ञानमिश्ु लिखते है कि जो योग एकाग्रचित्त
मे वतमान होता है, ष्येय वस्तु के परमार्थतः सत्यस्वरूप का साक्षाक्तार कराता
है श्नौर तदद्वारा प्रविद्यादि पचि क्लेशो को नष्ट कर देता हैसाथ ही धर्माघमं
रूप कर्मादयो को जो कि वुद्धि एवं पुरुष को एक वन्वन मे वाघते ह-भदृष्टो
त्वादन मेँ श्रसमर्थं कर देता है, रौर फिर वैराग्यजनन के दवारा श्रसम्प्ज्ञात योग
को प्रतासन्न या सन्तिकट करने की क्षमता से युक्त होता है वहं सम्ब्रन्ञात
कहलाता है । सम्प्रज्ञात ।पद की व्युसत्ति इस प्रकार है सम्प्र्ञायते साक्षा-
च्करियते ध्येयमस्मिननिरोधविशेषरूपे योगे इति सम्प्रलातो योग इति ।* भरथात् जिस
चित्तवत्तिनिरोधरूष विशेष योग मे च्येय को सम्यग् रूप से जाना जाता है ध्येय
का साक्षात्कार किया जाता दहै, उसे सम्बरा योग॒ कते दँ । इस प्रकरण
म श्राएु हुए सत् पद का र्थं वाचस्पति मिश्र ने केवल रोमन
या सतत्वप्रकार्य लिया है परन्तु किसी वस्तु का स्वा रूप केवल शोभन दी हो
ेसा सर्वथा सम्भव तो नहीं
है । श्रतः इत पदं का श्रथं "परमार्थभूतः प्रवा
वास्तविक" करके विकज्ञानभिष्षु ने शअरपनी ततत्व-निवद्ध-दृष्टि का "पस्विय
दिया है।२
श्मसम्प्रज्ञात योग
्रावस्था रहती है ओर उक्तम रलस्तमोमयी-
सम्भज्ञात योग म चित्त की एका
त -त्काररूपिणी
प्रमाणादिवृत्तियों का निरोध होता रहता है । इसमें चित्त की साक्ष
त जाता
सास््विक वृत्ति बनी रहती है । जिस योग मे इस वृत्तिका भी निरोष हो
१. द्रष्टव्य, योऽ वा० प° ९
२. द्रष्टव्य, यो° वा० पु० ९
[ता ~ `
[= ।
॥
१८८ | आचाय विज्ञानभिष्य
है वह योग श्रसम्प्रज्ञात कटलाता है । १ श्रसम्भ्रज्ञात योग मे सभी चित्तवृत्तियो का
पूं निरोध होता है । संस्का रमात्रानुसारी चित्त संस्कारमात्र रूप से प्रशान्त-
वाही होता है । यदी पृरप्रशान्तवाहिता ही श्रसम््रज्ञातयोग॒ कहलाती है।२ इस
योग भूमि पर न कोई श्रालम्बन होताहै ग्नौर न कुछ ज्ञान । इसीलिए कहा जाता
है कि न किच्ित्तत्र योगे ज्ञायते इति विग्रहेणासम्परज्ञातनामा चेति ।'‡ यही निर्बीज
समाधि कहलाती है । तत्त्वज्ञानजन्यसंस्का रपय्यंन्त चित्त के सारे संस्कार ही चित
के बीज है! इन सभी सस्कारों का पृंखूपेण दाह हो जाने के कारण इस समाधि
मं ये संस्कार भी नदीं रह जाते। इसलिये इस ,योग को निर्वीज समावि कहते
ह । इस समावि में केवल निरोध-संस्कार रहते हैँ । किन्तु निरोध संस्कारो के
कारण समाधि की निर्बीजता की क्षति नहीं होती क्योकि ये संस्कार चित्तके
बीज नहीं माने जाते । तत्त्वज्ञानजन्यसंस्कारपर्यन्त संस्कारों की ही चित्तबोज
संज्ञाहै 1
भ्राचायं वाचस्पतिमिश्च के भ्रनुसार क्लेशसहित कर्मारिय श्रौर जात्यायुर्भोग
ही बीज हैँ ।* असम्प्रज्ञात समाचि में इनका राहित्य होता है, ्रतः इसका नाम
निर्बीज समाधि है । मिश्रजौ की मान्यता की भ्रान्ति को कोई भो श्रष्येता सरलता
से आकलित कर सकता है कि क्लेश सहित कर्माशय तथा जात्यायुर्भोग का दाह
तो सम्प्ज्ञात से भीटहो जाताहै। फिर उसे निर्वीज समाधि क्यो नहीं
कहते ?
राङ्करमतावलम्बी वेदान्ती लोग इसी श्रसम्परज्ञात को निविकल्प समाधि
नाम देना चाहते हैँ । इस धारणा का खण्डन विज्ञानभिष्चु इस प्रकार करते हैँ
किं निविकल्प श्रा्मन्ञान तो सम्प्रज्ञान की निविचारा-समापत्ति-दशा मेँदहीहो
१. सम्प्रज्ञातकालोना साक्षात्काररूपिणी या वृत्तिः तस्या अपि वक्ष्यमारप-
रवेराग्येण निरोधे जायमाने त्वसम्प्र्नातयोग इत्यथः !-यो०वा० पु०३
निरोघावस्थं चित्त संस्कारोपगं संस्कारमात्ररूपेण प्रशान्तवाहि
भवति, सेयं प्रगान्तवाहिता स पूर्वोक्तो निर्बीजः समाधिः !-यो० वा०
पु० १७
~ द्रष्टन्य, यो वा० पु० १७
=+
० ~
असम्प्रज्ञातयोगे चित्तवीजस्य संस्कारस्य तत्त्वज्ञानजन्यप्यन्तस्याशेषतो-
दाहारिर्वीजसंज्ञा तस्येति भावः ।-यो० वा० पु० १७
५. वलेदसहितः कर्माशयो जात्यायुर्भोगिा बीजं तरमान्निगंत इति निर्बीजः \
-तण० वै० पु° १७ ॥
आचायं विज्ञानभिक्षुके योगसिदधान्त | १८९
जाता है 1१ श्रसम्प्ज्ञात काल में निविक्पक श्रातमज्ञान
उस समय कोई ज्ञान होना श्रसम्मव है, क्योकि साक्षाकारि ६ कैसे हो सकता है ?
उस ~ ~ ४ १ (५ र्ः |]
भी उसमें पूणं निरोध हौ जाता है इसलिये यह 1 का
है ९ ९ ॥।
तथां श्रप्रामासिक है ।२ प्रतः ग्रसम्पर्ञात को निधिकल्पक कहना ५८५ दै,
है = ६ ४ ९ वथा श्रचुपयु पय॒कव्त
६ ५ व मं सम्पूणं निरोव न होकर एक विरिष्ट प्रकार
का किचित् सीमित निरोध दही होता है । कीं घारणाः
= ट हतां । कटी वारणा-व्यान प्रौर समाधि नाम
; तीन योगाद्धां ग्नौर सम्प्रज्ञत योग के यथां स्वल्पां मं कोई भ्रान्तिन हो
इसके लिए उन्होने स्पष्ट कर दिया हैर कि सभ्भर्ञातयोग का निरोघ 6९,
साक्षात्कार नामक फल से युक्त या उपहित होता है जब कि यहु वात ऊपर कह
गए तीनों योगाङ्गं म नहीं होती । ४:
दोनों प्रकार के योगों का भेद इस प्रकार से भी समना चाहिए कि यद्यपि
निरोध दोनों योगों मे है तथापि सम्भ्रजञात में व्येव वस्तु साक्षाक्तारिणी सात्तविक-
वृत्ति के १ स्वकीय चित्तवृतियों का निरोष होता है जव कि प्रसम्भर्ञात में
सकल चित्तवृतियों का श्रौर निरोष संस्कारा कं श्रतिरिक्त सकलचित्तसंस्कारों का
निरोध हा जाता है।
दोनो का प्रयोजन
वृत्तियां कटने को तो सुखदुःखमोह्।त्मक टं परन्तु विवेकी के लिए दुःख-
सम्पकं के कारण वस्तुतः दुःखदायिनी ही ह । इन वृत्तियों के निरोव का दृष्ट फल
दुःखभोग-निवृति ही हे । अरसम्भज्ञातयोग मे सवंवृत्ति-निरोष होता है । भ्रतः वह्
सकल वृत्युतयदुःखभोग की निवृत्ति नामक दष्ट्फल देने वाला है । सम्प्रज्ञात
योग मे भी चूंकि रजस्तमोमयौ वृत्तियों का निरोध हो जाता है । इसलिए केवल
सात्त्विक वृत्ति रहती है श्नौर वह् प्रधिकांशतः सुखात्मक है । फलतः दुःख ग्रोर
मोह् के विशेष सम्पकं से विहीन रहती है 1 सम्परज्ञातयोग का भी दुष्टफल
१. निधिकल्पं त्वात्मजञानं सम्ध्रज्ञातकाल एव दति \--योग्वा° प° १७
२. तद्रामारषकत्वेनैतडूएष्यविरोषेन चपक्षणीयम् ।-यो०वा० ४० ९७
३. ध्येयसाक्चात्काराख्यफलोपहितनि रोधलव सम्भञातच्वम् ।--यो° सार
सं० पु १७
६ ते - ७
४. सम्पर्तातो धयेयातिसि्तवृत्तिनिरोधविशेषः । = 4 ५.५
तस्य॒ [असम्भक्तातस्य] च लक्षणम् ततत्वज्ञानसस्क सतिसवं
वत्तिनिरोधत्वम् 1--थो° सा° सं° पु० ९
[क ~ `
| आचायं विज्ञानभिश्ष
वृतयुत्थदुःख-मोग की निवृत्ति ही है। इस प्रकार दोनों योगों का दुष्टफल
तृतिजन्य~दुःखभोगनिवृत्ति ही दै । ।
दोनों योगों का श्रदृष्टफल भिन्न-भिन्न दै। सम्प्रज्लातयोग मेंध्येयका
शद्ध साक्षाक्रार होता है ओरौर अन्त मँ विवेकख्ाति टोती दै जिससे श्रविद्या-
दि क्लेदो की दग्धवीजभावता हो जाती है । इस प्रकार मोक्ष का मागे प्रशस्त
होता है । यदि श्रेष्ठ भोगों की कामना हुई तो सम्प्जञारयाग से भूतेन्धियप्रकृति
जय से सम्पादित स्वेच्छाभोग सम्पन्न हो सकता दै ।* सम्प्रज्ञातयोग से
विवेकख्याति होता है पर जिसे प्रसंख्यान भी कहते हैँ ।२ इस विवेक्याति के सुदृढ
तथा निर्बाध हो जाने की स्थिति का नाम धर्मेमेघसमाधि भी है ।४इस
-निषिप्लव विवेकट्याति से केवल्य प्राप्त होता है ^ विवेकख्याति या तत्त्वज्ञान हो
जाने पर भी प्रारब्यकर्मभोग के लिए कुछ काल तक शरीर धारण किए रहना
"पड़ता है । यह प्रारब्धकर्म भोगकाल जीवन्मुक्ति की दशा कहलाती है । इस
काल मे कोई नया कर्माराय नहीं वनता । इस प्रकार सम्प्रजञातयोग से विवेक
ख्याति होती है जिसे तत्त्वज्ञान भी कहा जा सक्ता है 1 इस ॒विवेकड्यात से
कैवल्य की सिद्धि दोती दै । इसलिए सम्प्रज्ञातयोग तेत्तवज्ञान या विवेकल्यान्ति
के माघ्यम से कैवल्य का हेतु बनता है। श्रसम्प्रज्ञातयोग कंवल्य कां चाक्ाद्
हेतु रैर क्योकि पूणार्प ।से ्रसम्मरज्ञातयोग सिद्ध, हो, पर तः ६
की प्राति हो जाती है 1
इस सन्दर्भ मे विज्ञानभिक्चु कौ एकं मान्यता यदै है कि
माण कर्माशयो का क्षय तो
आचार्यं विज्ञानभिक्षु के योगसिद्धान्त | १९१
| व प्रारन्धकर्माहय का क्षय करने में तत्त्वज्ञान या विवेकख्याति श्रसमर्थं दै / \
| तस्थ तावदेव चिरम्” इत्यादि श्रुति तथा जीवन्मुक्ति की स्थिति प्रतिपादित
। करनेवाली श्रन्य श्र तियं एवं स्मृतियां तत्व-तान के प्रारव्व-कर्मक्षयकक्तिराटित्य
॥ कोही सिद्धान्तिति करती दै) प्रसम्प्रज्ञतयोग कर्मविपाकोक्तप्रायदिचत्तादि की
| भाति प्रारव्यकर्मं को भी सहता नष्ट कर के शीघ्र टी मोक्षदेता ट ।* दग्ध
। कर्मचयोऽचिराद्"? इत्यादि स्मृतियां इस वात कौ पोपक द ।* श्रसम्म्रज्ञातवोग क
। द्वारा श्रखिल संस्कारो के क्षय हो जने से भोगहेदुवासनाद्प संस्करारनामक सर्द
| कारी की प्रनुपस्थिति के कारण फल देने में प्रारन्ध-कमं भी सर्वथा श्रसमथंदो
जाता हे ) मोक्ष-वम मेँ जो योग को सवे्छरष्ट-बल कहा गया दै वह् प्रारव्धकर्मं
। के श्रतिक्तमण के द्वारा स्वेच्छा से बीघ्रतम मोक्षप्रदान करने कीशक्तिकदी
कारणा से कहा गया है 1४ इस प्रकार श्रुतिः स्मृति तथा युक्ति हर प्रकार स
। ञ्रसम्भज्ञात में प्रारव्धकर्मनारकत्व का वैशिष्ट्य सिद्ध होता दै; श्रतः श्रसम्प्रजञात-
| पोग कैवल्य का साक्षाद् देतु वनता है ।
दोनो का पारस्परिक सम्बन्ध
स्पष्ट है कि सम्ब्रज्ञातयोग भ्रसमम्रज्ञात के लिए एक सोपान वनता है 1
नरसम्भज्ञातयोग, योग॒ की अन्तिम कंडी या चरम सीमा ह 1 सम्प्ज्ञातयोग की
परिपववता का फल है विवेकख्याति । विवेकख्याति कौ उक्ृष्टावस्था दही योग
ऋ पदावली मे घर्ममेषरमाधिर है । उसमे भी परवैराग्य उत्पन्न होने पर्
१, द्रष्टव्य, योऽ साऽ सस पु० १०
२. अतः प्रारब्बसदि रसं रूमंविपाकोक्तप्रायरिचत्तादिवदेवातिक्रम्य कटि-
तिभोचनमेव सोस्य रुलस् ।।--यो० वा० प° ११, यो° सा० संर
पु० ११
३. विनिष्षस्तसमिस्यु भसत तैव जन्मना प्राप्नोति योगी योगाग्नि-
दग्धक्चपोऽविरःर् \-~े० सा० सं° १० ११ पर उद्धत
4, इदमपि योगस्स. सदसस सोकषषमे -
"तास्ति सोरधखसे सद सरसे भोगसमं बलम्, "इति वलं प्रारन्वस्या-
प्यतिक्रतेण स्वेच्छं शरोष््ोशहेतुः । -यो० वा० प° ११
५, अस्यैव चार्षः स हवितातुगतसम्प्रज्ञाते ] पराकाव्ठा घमं-
मेघ-समाधि।र६८५३े ६दतेदयेज्षानेश्यलंग्रत्ययस्पेण परवेराग्येण
असम्धरलात-पोभोलखःदरेदते } ~ धर सा० सं° पूर २१
१९२ | आचाय विज्ञानभिश्षु
| ्रसम्भ्ञातयोग की श्रवस्था प्रात है । इस प्रकार से सम्प्रज्ञातयोग श्रसम्म्रजञात-
योग का श्राधार है 1 सम्प्रज्ञात श्रवस्था मे रजस्तमोमयी वृत्तियों का निरोध हो
जाता है केवल सात्त्विकी वृत्ति रह॒ जाती है भ्र्थात् सम्पूणं वृत्तियों का निरोध
नहीं होता हे । गरसम्भ्रज्ञातयोग मेँ इस सात्विकी वृति का भी निरोधहो जानेसे
वत्तिनिरोध पूणं हौ जाता है । श्रतः सम्प्रज्ञातयोग सीमितवृतिनिरोघ है जव कि
शरसम्भरज्ञातयोग पूर्णवृत्ति निरोध दै । इस प्रकार श्रसम्प्रज्ञातयोग योगचास्त्र का
| पार्यन्तिक प्रतिपाद्य है श्रौर सम्प्रज्ञातयोग महत्त्वपूर्णं होने पर भी ग्रानूपङ्जिक
प्रतिपाद्य है ।
| किन्तु सम्भ्रज्ञातयोग का महत्व इस बात से कमनं समना चाहिए ।
| माना कि असम्भज्ञात स्यः मोक्षदायक है श्रौर रपत श्राप में पूर्णं है किन्तु सम्प्र
॥ ्ञात मे दोनों गुण विद्यमान ह । एक भ्रोर जहां सम्भरज्ञात के विना अ्रसम्प्रज्ञात की
सिद्धि की चर्चा ही दुष्कर दै वहीं दूसरी श्रौर सम्परज्ञात स्वथं ही विना ग्रसम्प्रज्ञात
की सहायता के टी-- मोक्ष देने मे भी सवथा समर्थं हे । विवेकख्याति के पश्चात्
सश्वित श्रौर क्रियमाण कर्माशय फल देने मे-- सर्वथा श्रक्षम हो जाते हैँ । केवल
प्रारन्धकर्मो का ही भोग श्रवरिष्ट रह् जाता है 1 जिसके कारण जीवन्मुक्ति की
स्थित्ति में रह् कर शरीरपात के श्रनन्तर मोक्षलाभ किया जा सक्ता है । इसी-
लिए सांख्यलास् में विवेकख्याति से ही जो केवल सम्प्ज्ञातयोग का ही फल है
कंवल्य-फल-लाम बताया गया है 1 वेदान्त मरे प्रतिपादित निदिध्यासन का
\ १. असम्प्रत्तातयोग से तात्पर्यं उपाय-प्नत्यय असम्प्रज्ञात से ही है क्योकि
भवघ्रत्ययासम्प्र्ात तो असम्भज्ञाताभास ही है उसे योग कहना ही
ठीक नहं है । उसकी उपयोगिता मानव साधको के लिए साक्षाद् रूप
से नहीं के बरावर है।
२. एतेनासम्ब्ज्ञाताभावेऽपिप्रारब्वभोगानन्तरं ज्ञानिनां मोक्षो भवत्येवेति
सिद्धान्तो न विरुष्यते !--यो० सा० सं° प° ११
अविद्याविनिवृत्तो बीजाभावात्पुनजंन्मातरुपपत्तिक्च \--यो° सा० सं०
पु० ११
३. सम्यग््ानाधिगमाद् धर्मादीनासन्तारणप्राप्तौ ।
तिष्ठति संस्कारवकाच्चक्तश्रमिवद्वृतशरीरः । ६७1
्रप्तेश्चरी रभेदे चरि तार्थत्वात्प्रधानविनिवृतो 1
एेकान्तिकमात्न्तिकमुभयं कौवत्यमाप्नो ति ।। ६८ 1- सांख्यकारिका ।
आचायं विक्ञानभिश्ु के योगसिद्धान्त | १९३
पवेवसान भी सम्प्ज्ञात-भूमि में ही हो जाता दै । इस रीति में सांख्य-योग-वेदान्तादि
सभी शास्त्रों ने सम्प्रज्ञातयोग के इस श्रप्रतिम महत्व को स्वीकार किया है।
सरल शब्दों मेँ इन दोनों के भेदों को प्रकट करते हुए प्राचायं विन्ञानभि्ु
ने कहा है कि सम्प्रज्ञात-योग ते शुद्धतत्त्वज्ञान उत्पन्न होता दै । जिसे विवेकख्याति
शादि नाम दिया जाता है क्योकि भ्रप्रतिरुदसात्विक-वृि इस दशा में प्रकारित
होती रहती दै । इस तत्वज्ञान से प्रारब्य कर्मों तथा तत्त्वज्ञानजन्य संस्कारो को
छोड कर शेष सभी कर्मो के संस्कार नष्ट हौ जाते ह । श्रसमप्रजञातयोग, जोकि
इस परमतत्त्वज्ञान का भी निरोध हो जाने पर उत्पन्न होता है, इन दोनों प्रकार
के संस्कारो को मी नष्ट कर देता है 1 क्योकि सात्त्विकी वृत्तिका भी यहाँ निरो
हो चुकता है । इस रीति से श्रसम्रज्ञात केद्वारा शीघ्र ही मोक्ष सम्पन्न हो
जाता है! सम्भ्रज्ञातयोग यदि तत्वज्ञान का जनक है ठो अ्रसम्प्ज्ञातयोग
तक्त्वन्ञान-जन्य है \* यद्यपि शास्त भर मे सम्प्रज्ञात को श्रसम्प्रज्ञात की ्रपेक्षा
व्युत्था्नः कटने तथा श्रसम्प्रज्ञात को सम्भ्ज्ञात की श्रपक्षा निरोव कह्ने को
प्रणाली अ्रपनाई गई है, तथापि दोनों को समान रूप से "मोक्षप्रद' होने का गौरव
प्रदान किया गया है ।२
यह स्पष्ट हो चुका है कि समाधि श्रर योग शब्द पुरतः पर्यायवाची नहीं
है । समाधि चित्त कीसभी भूमियोंमें क्सीन किसी मात्रा में सम्भव है किन्तु
्रवयेक भूमि की समाधि को योग नहीं कहा जा सकता । केवल "एकाग्र" श्रौर
"निरुद्ध" नामक चित्त की भूमियों म होनेवाली समाधि को योग नाम दिया
जाता है । इसीलिए समाचि चित्त का सावभौम घमं कहा जाता है ।४ योग चित्त
का सार्वभौम धर्मं नहीं है 1 चित्त की एकाग्रभूमि की समाचि को सम्परज्ञातसमावि
शरीर निरुद्र भूमि की समाधि को श्रसम्भरजञात समाचि कते ई । ये दोनों समाधियां
१, ब्रह्ममीमांसासांख्यादिषु च ज्ञानमेव विचारितं बाहुल्येन ज्ञानसाघनमा-
स्तु योगः संक्षेपतः. ज्ञानजन्ययोगस्तु संक्षेपतोऽपि तेषु नोक्तोऽतोऽति-
विस्तरेण द्िविधं योगं प्रतिपिपादयिषु्भगवान् पतञ्जलिः. ..प्रति-
ज्ञातवान् ।--यो० वा० प° ५.६
२. असम्परज्ञातपिक्षयासमाधिप्रज्ञाऽपि त्त्युयानम् [--यो० वा० पु० १३४
च. ्रकृतिपुरुषविवेकसाक्षात्कारो दुःखहानोपायो मोक्षोपाय इत्यथः 1
असम्प्र्ञातयोगस्त्वान्रुतरमोक्षाथमेवापक््यते इत्यायः !--यो० वा०
पु० १८६
४. योगः समाधिः, स च सावंभोमदिचत्तस्यघमः (--यो० भा० १०७
१३
१९४ | आचाय विन्नानभिक्ष
-क्रमदाः सम्प्रज्ञातयोग भ्नौर श्रसम्परज्ञातयोग कौ संज्ञा प्राप्त करती हैँ ।१ इस प्रकार
हम देखते हैँ कि यद्यपि ्रलयेक योग॒ समाधि है तथापि प्रत्येक समावि योग
नहीं है।
श्रसम्प्ज्ञात समाधिके दो भेद किए जाते है--(१) उपायप्रत्यय भ्रसम्ब्र
ज्ञात समाधि श्रौर (२) भवप्रत्यय श्रसम्प्रज्ञात समाचि । भ्राचायं विज्ञानमिघ्ु'प्रसम्प्र-
ज्ञात समाधि क इन दोनों भेदो को श्रसम्प्रज्ञातयोगके रूप मे स्वीकार करते हुए
श्रसम्परजञातयोग केदो भेद प्रतिपादित करते द (१) उपायप्रत्यय प्रसम्प्रज्ञात-
योग श्रौर (२) भवग्रत्यय ्रसम््रजञातयोग । किन्तु इस ॒सम्बन्व में श्नन्य योग-
व्याख्याताग्रों का मत इससे भिन्न है 1 भ्राचायं वाचस्पतिमिश्च रौर स्वामी हरि-
हरानन्द श्रारण्य दोनों ने केवल उपायप्रत्यय भ्रसम्प्र्ञात समाधिः कोहीयोग
माना है श्रौर विदेह-कैवल्य का हतु बताया है) ये लोग “भवप्रत्यय श्रसम्प्रज्ञात
समाधिः को योग नहीं मानते ।- ओ्रौर इसीलिए ॒विदेह-कंवल्य के हतु के रूप मे
भी नहीं स्वीकार करते । योगभाष्यकार ग्यास ने यद्यपि स्पष्टतः एेसौ कोई बात
नहीं कही है फिर भी उनका स्वारस्य भवप्रत्यय ्॒रसम्भ्र्ञात समाधि कोयोगन
मानने के पक्ष मे ही प्रतीत होता है क्योकि उनका यह् कथनं कि ““तत्रोपायप्रव्ययो
योगिनां भवति ।'२--भवप्रत्यय को योगिजनभिन्नप्राणियो के लिए ही सिद्ध करता
है । श्रवाचीन योगच्चास््री म० म० डां० गोपीनाथ कविराज भी इष समाधिको
योग-कोटि में नहीं स्वीकार करते ।५ भोजराज ने भी इस समाधि कोयोगन
मानकर योगाभासमात्र ही कठा दै 1"
ञ्रसम्बज्ञातयोग के भेद श्रौर उनका स्वरूप
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चायं विज्ञानभिक्षु की दुष्टि में भ्रसम्प्रजञातयोग
के दो भेद है १-भवप्रत्यय श्रौर २--उपायप्रत्यय । सूचीकटाहन्याय से पहले
'मववप्रत्यय भ्रसम्परज्ञातयोग' का वर्णन प्रस्तुत किया गथा है । भव" काश्रथं है
जन्म, श्रौर श्रत्यय' पद कारणवाची है । पूवजन्मों में किए गए साधनो के फल-
स्वरूप वैदेह्य एवं प्रकृतिलयत्व` को प्रास्त प्राणियों को तत्तद् योनि के सादुगुण्य
द्िविघः स योग्ठिचत्तवृत्तिनिरोघ इति ।--यो० भा० पु° १७
द्रष्टव्य, त० वै° पु° ५७-५९ भौर भास्वती पु० ५६-५८
द्रष्टव्य, यो० भा० पु०९५६-५७
द्रष्टव्य, सूर्योदयः अङ्कः १
५. तेषां परतत्त्वोदर्हानाद्योगाभासोऽयम् ।--रा० मा० व° पु० १२
= 2 ~
आचार्यं विज्ञानभिष्चु के योगसिद्धान्त | १९५
से प्र्थात् इस नए एवं विशिष्ट जन्म करो प्राप्त करने के निमित्त से स्वतःसिद्ध
भ्रसम््रज्ञातसमाधि को जन्ममात्रनिमित्तक होने के कारण (भवप्रत्यय प्रसम्प्रज्ञातयोग'
कहते हैँ 1१ जसे हिरण्यगर्भ" इत्यादि को जन्मसिद्ध “योगनिद्रा सुलभ होती है
वैसे ही विदेहों श्रौर प्रकृतिलीनों को यह् ॒प्रसम्प्रज्ञतयोग जन्मसिद्ध रूपमे प्राप्त
होता है । विदेह लोग दैनन्दिन प्रलय में ग्रौर कभी-कभी सर्गेकाल में भी संस्कार-
मात्रोपगत अर्थात् नि रोधावस्थसंस्कार-शेष-चित्त से कैवल्य पद का सा प्रनुभव
करते रहते है । जव ब्युत्थान होता दहै तव श्रपने देवपदप्रापक संस्कारों के
फलस्वरूप सू्ष्ेश्वर्यभोग को प्रारन्घकम॑यन्वित होकर भोगते हैः श्रौर इस
भोग के द्वारा इन संस्कारों को समाप्त करते हैँ । इनके समाप्त हो जाने पर मुक्त
हो जाते है । यह ब्ु्यानावस्था मनुष्य साधनों की जीवन्मुक्तावस्था के समान
होती है । इसी प्रकार प्रकृतिलीन जीव भी--जो कि सावरण ब्रह्माण्ड को त्याग
कर लिङ्ग शरीर से प्रकृति मेँ लीन रहते है--साधिकार रहते हुए भी संस्कार
मात्रावरिष्ट चित्त से कैवल्य पद का-सा श्रनुभव करते हँ, श्रौर व्युत्थान होने
पर श्रपने सूष्षमातिसूक्ष्म भोग के द्वारा तादृश संस्कारो को समाप्त करते है । चित्त
का श्रिकार समाप्त हो जाने परये भी कैवल्य प्रास्त कर लेते ह° ।
इसी सन्दभं में विज्ञानभिक्चु ने वाचस्पतिमिश्र के भवमप्रत्ययसमाधिविषयक
सिद्धान्त को खण्डित करने का भी उपक्रम किया है। खण्डन इस प्रकार है--
“वु लोगों ते '(भवत्यस्थामिति भवोऽविद्या--"इस व्युत्पत्ति के भ्राघार पर
भव का अयं रविद्या लिया है भ्रौर “भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्° यो°
सू० १।१९- ईप सूत्र को एतदनुसार व्याख्यात किया है कि इन्द्रिय से लेकर
्रव्यक्तप्रकृतिपर्॑न्त तत्वों के चिन्तको को भ्रविद्याकारणक यह् श्रसम्परज्ञातसमाधि-
सिद्ध होती है । किन्तु यह धारणा निम्नलिखित कारणों से सर्वेथा अनुपयुक्त है--
(१) भ्रसम््ज्ञात योग का दैतु-मूत परवैराग्य जैसा उच्चतम ज्ञान भ्रविद्यायुक्त
प्राणी में श्रसंभव है; रतः अविद्या से श्रसम्परजञात की सिद्धि नहीं हो सकती
१, ते च महदादयो देवास्तेषां साधना नुष्ठानं विनैवासम्प्रज्ञातयोगो
जल्ममात्रनिमित्तको भवति योनिसादगुण्येनोत्पत्तिकज्ञानात् \--यो०वा०
पुर ५८ प
२, यथा हिरण्यगर्भादीनां योगनिद्रादिकम् !--यो० सा० सं° प० ३२
३, द्रष्टव्य, यो० वा० पु० ५८
, द्रष्टव्य, यो० वा० पु० ५८ ५९
१९६ | आचायं विज्ञानभिक्षु
(र) वायुपुराण में इन चिन्तकों काजो समय दिया गया दहै वह् इनके
तत्तत्पदों पर श्रारूढ रहने को श्रवधि को निद्चित करता रहै; इनके श्रसम्प्रज्ञात-
समाधि के प्रथवा इनके चित्तो की वृत्ति-रून्यता के काल का निर्धारण
नहीं करता ।
(३) इन्दरियादिचिन्तन से प्रसम्भ्रज्ञात की सिद्धि सर्वेथा श्रसम्भव हे ।
(४) कुछ समय ऊ लिए होनेवाले वृत्यभाव को श्रसम्प्रज्ञात नहीं कहा
जा सकता । श्रन्यथा प्रलय एवं मरण कौ वेला मे सभी को श्रसम्परज्ञात की
सिद्धि माननी पड़गी ।
(५) इन्द्रियादि को उपासना का सूर्यादिपद-प्राततिरूप भिन्न॒ फल शास्त्रों मे
बताया गया है । इद्दियादुपासना से श्रसम्प्रज्ञात-लाभ नहीं बताया गया है 1
उपायप्रत्यय असम््ज्ञातयोगं
उपायप्रत्यय श्रसम्भज्ञात योग॒वह है जो शास्त्रोक्त उपायों के भ्रनुष्ठान से
इसी लोक में सिद्ध होता है । इसके उपाय श्रद्धा, वीय, स्मृति, समाधि प्रौर
रज्ञा ह? । योग में प्रीति श्रद्धा कहलाती है, चित्त की घारणा दही वीयं है, घ्यान
ही स्मृति है, योग का चरम श्रङ्गं समाधि कहलाता है श्रौर सम्परज्ञातयोगजन्य
साक्षात्कार ही प्रज्ञा है 1 ये चारों परवैराग्य के द्वारा उपाय-प्रत्यय-म्रसम्ब्रज्ञत के
उपाय वनते हैर । इन उपायों के अतिशीघ्र तथा तीन्रतर भ्रनुष्ठान से भ्रसम्प्रज्ञात-
पर्यन्त योग तथा उनका फल मोक्ष बिल्कुल निकट हो जाते हैँ । उपायों के
्नुष्ठान मे यदि श्रतिरीघ्रता श्रौर तीत्रतरता न भी हो उसके उत्थान पर ईरवर-
प्रणिधान की सहायता ली जाय तो भी ्रसम्प्रज्ञातपयंन्त योग श्रौर तत्फल
कैवल्य बिल्कुल निकट हो सकते दै ५
भ्रसम्भज्ञातयोग की सदयःसिद्धि के लिए सुलभ इन दो प्रकारो कौ अ्रपिक्षिक
उपादेयता के विषय में श्राचायं विज्ञानभिक्षु ने भक्तिभाव से प्रेरित होकर ईश्वर
१. श्रद्धावोयस्मृतिसमाधिप्रजञापर्वक इतरेषाम् 1-यो° सु° १।२०
२. तत्र श्रद्धा योगे प्रीतिः बीय॑म्....एतानि क्रमेर वक््यमारएपरवेराग्यदवारेण
असम्प्र्ञातस्योपाया भवन्ति !--यो° सा० सं० पु° ३०-३१
३. प्ररणवपुरवंकं च तदनुचिन्तनं साक्षात्कारपयंवसायि प्रणिघानमिति ।
--यो० सा० सं° पु० ३२
४. उपायानुष्ठानमान्द्य पि चेशवरप्रणिधानादासन्नतरो तौ भवतः, पर-
मेहवरध्रणिधानेन तदनुग्रहादिति ।-यो० सा० सं° पु० ३१
आचाय विज्ञानभिक्षु के योगसिद्धान्त | १९७
प्रणिधान को ही श्रेयस्कर बताया श्रौर मुख्यकल्प समा है 1 उपायानुष्ठान मे
तीव्रतरता श्रौर शीघ्रता न होने पर भी ईदवर-प्रणिधान की सहायता से
| ्रसम््र्लातयोग की सिद्धि की ्रासन्नतरता सुसम्पा्य ठोती हँ । ईर्वर-प्रणि षान
स योग के श्रन्तरायों काभी प्रलमन हो जाता है । इसकी श्रेणष्ठतामें उन्होने
स्मृति का भी उद्धरण दिया है 1"
1
| सम्प्रज्ञातयोग कै मेद्
सम्प्रज्ञातसमाधि को दही सम्प्रजञातयोग कहते द । सम्प्रज्ञात-समाचि
तत्तवसाक्षात्कारपरक है । साक्षात्कार की श्रनेकल्पता के भ्रावार पर इस योग के
चार भेद माने गए है--
| १--वितर्कानुगत स० यो
२--विचारानुगत स° यो°
३. --भ्रानन्दानुगत स° यो
( ४--श्रस्मितानुगत स° यो०
वितर्कानुगत सम्भ्ज्ञातयोग में स्थूलपदाथं में--चाहै वह् योनिज हो चाहे
विराट् या चतुभु जादि रूप.समाधि लगती है 1 इसके परचात् चित्त क्रमशःसुष्ष्म तथा
सृक्ष्मतर साक्षात्कार करने मे समथं होता जाता है ।० वस्तुतः इन चारों योग-
भूमियों में एकाग्रचित के साक्षात्कार की सूक्ष्मता कौ विकासपरस्परा देखने को
मिलती है 1 सम्भरज्ञातयोग की ये चारों दशाँ क्रमशः एक ही भ्रालम्बन में
१. एवं च सति मुर्यकरल्पालुकल्पभेदेन परमाटमजीवात्मप्र्तयोमक्षहेतुत्वम्
। बोध्यम् 1--यो० वा० पु° ६३
। २. तस्मान्मरुक्षोःसुसुखो मागंःभीविष्णुसंश्रयः ।
चित्ते न चिन्तयन्नेव वञ्च्यते घ्र. बमन्यया 1--इति स्मृतिः
२. वितकंविचारानन्दास्मितातुगमात् सम्प्रा ।--यो° सु° ११७
स सम््रजञातो योग इत्याख्यायते स च वितर्कानुगतो, विचाराचुगतः
आनन्दानुगतोऽस्मितानुगत इत्युपरिष्टाद् प्रवेदपिष्यामः 1--यो०
॥ भा० ¶० ९-१०
४, एकदा चित्तस्य परमसूकषम्रवेशस्य प्रायल्ोऽसम्भवात् ।--यो° सा० सं°
पु०१५
॥ ५. वितर्कादिकं क्रमिक भुमिका-चतुष्टयगुच्चारो हि-क्रमिकसोपानपरम्प-
रावत् !-यो° सा० सं° पु° १५
१९८ | आचाय विज्ञानभिश्च
साधी जानी चाहिए.।१ किसी विराट् चतुमुंजादिस्वल्प भ्रथवा घटादि या
समष्टिव्यष्टूयात्मक २६ तत्त्वों के किसी भी संघात को लेकर पहले समाधि-
भावना करनी चाहिए । इसी श्रालम्बन मेँ पहले रस्थूलाकार धारणा, च्यान श्रोर
समाधि के दारा स्थूल रूपगत भ्रभी तक श्रश्न् त, श्रदृष्ट श्रौर भ्रमत सकल विशेषो
का साक्षाकार वितर्कानुगत सम्भ्ज्ञातयोग मेँ होता है ।* इस भूमिगत श्रालम्बन में
चित्त का स्थूल श्राभोग होता है । भ्राभोग शब्द का भ्रथं है परिपूणंता या चित्त
की तदाकारता । ध्येयवस्तु के श्ररोषविशेषों के स्थूल रूप से चित्त का परिपूरित
हो जाना श्रर्थात् तदाकार हो जाना ही चित्त कै द्वारा उनका रक्षाक्छेत होना
है । चित्तके द्वारा किया गया एवम्भूत साक्षाक्तार ही वितर्कानुगत-सम्प्रज्ञात-
योग का लक्षण हि।
इस स्थूलघाक्षात्कार से सूक्ष्मसाक्षात्कतार की श्रोर उन्मुखता होती है ।
उसी आलम्बन मे कारणत्वानुगत प्र कृतिमहदहद्कारतन्माव्ररूपी जो भूतेन्द्रियो के
सूक्ष्म श्रथ है उनमें पहले की हौ भांति धारणादि तीनों की सहायता से ग्रशेष-
विशेषतः उन सभी सूक्ष्म भ्र्थो का साक्षात्कार करने से चित्त को जो सूष््मरूप
की परिपूणंता या सृक्ष्माकाराकारितता होती है उसे ही विचारानुगत-सम्प्रन्ञात-
योग कहते है । २
उसी श्रालम्बन मे विचारानुगतभूमिलाभजन्य सत्वभ्रकषं से उत्पन्न हए
हलाद-नामक सुखविशेष में चित कौ परिपूणंता या उस सुखविशेष का साक्षा्तार
होता है 1 उससे श्रनुगत निरोघ को भ्रानन्दानुगतसम््रजञात समाधि कहते हैँ ।
उस समय में सुखी हं इस प्रकार की चितवृत्ति भ्रानन्दगोचर५ ज्ञान मे ही होती
है किसी भी ज्ञे यभूत सूक्ष्म वस्तु में नही, इस"दशा में भ्रानन्दगोचर ज्ञान ही
१. एतच्च भुभिकाचतुष्टयमेकस्मिन्नेवावलम्बने कमात्कर्तव्यम्, अन्यथा
पुर्वपुर्वोपासगत्यागदोषापत्त : । चितचाञ्चल्यदोषप्रसङद्धाच्च 1--यो०
सा० सु° पु० १६
२. द्रष्टव्य, यो० वा० पु० ५२
३. द्रष्टव्य, यो० वा० पु०५२
४. तत्रैवालस्बने सृष्ष्माकारसाक्षात्कारानन्तरं तामपि हृष्टि त्यक्त्वा चतु-
विंशतितत्त्वानुगते सुखरूपपुरुषार्थे धारणादित्रयेण यः पुरवंवदशेषविशेषतः
सुखाकारसाक्षात्कारः स आनन्द इत्युच्यते, ज्ञानज्ञे ययोरभेदोपचारात् ।
-यो० सा० सं० पु० २०
आचायं विज्ञानभिक्षु के योगसिदान्त | १९९
ज्ञेय बन जाता है । विचारानुगत खमाधि से इसका विद भेद है १ श्रानन्दानुगत
सम्रज्ञात के लक्षण के भसद्धं भे विज्ञानभिश्चु ने श्री वाचस्पति मिश्र को श्राडे
॑ हाथों लियादहै श्रौर उसे श्रप्रामाणिक सिद्ध किया है । वाचस्पतिमिश्च के भ्रनुसार
सत्त्वप्रधान श्रहङ्कार से उत्पन्न ज्ञानेन्दरियां ही सुखरूप ह इसलिए ज्ञानेन्दियों में
चित्त का श्राभोग या तदाकाराकारित होना ही भ्रानन्दानुगत सम््ज्ञातयोग हैर ।
विज्ञानभिश्चु ने इस मान्यता का खण्डन इस प्रकार किया है--
(१) श्रानन्दानुगत सम्प्रज्ञातयोग का एसा लक्षण करने में कोई प्रमाण
नहीं है ।
(र) इन्द्र्यां स्थूल है इसलिए इन्दरियाभोग तो वितर्कानुगत कोटिमेंदही
भ्रा जाएगा ।
। (३) सानन्द श्रौर निरानन्द खूप ॒भ्रवान्तर भेद करना इस मान्यता्मे
्रनिवा्ं हो जायगा । किन्तु सूत्रश्रौर भाष्य में इस समाधि का इस प्रकार से
श्रवान्तर भेद नहीं किया गया है । इसलिए यहं मत स्वीकृत करने पर भ्रागामी
सूत्र श्नौर भाष्य मेँ नयूनतापत्ति का दोष उपस्थित होगा ।
(४) हमारे मत में सानन्द भ्रौर निरानन्द रूप अ्वान्तरभेद की कल्पना
ही श्रसम्भव होगी । इसलिए श्रवान्तरभेद न॒ बताने पर सूत्र भ्रौर
भाष्य मे न्यूनतापत्ति का कोई दोष नहीं भ्राता ।
इस भूमिजन्य के श्रनन्तर, एकात्मिका संविद्रूपिणी भ्रस्मिता मे चित्त की
। केवल पुरुषाकारवृत्ति होती है।* उससे भ्रनुगतयोग श्रस्मितानुगत-सम्ब्रज्ञात
कटूलाता है । इस योग में घ्येय रूप से “एक आत्मा ही रहती है 1 इस ्रनुभूति
करा स्वरूप “श््मस्मि" प्रकारक होता है 1४ जिस ॒श्रालम्बन में स्थूल, सुक्ष्म
| ~
१, आनन्दगोचर एवाहं सुखीति चित्तवृतिर्भवति न सष्ष्मवस्तुष्वपि इति-
विचारानरुगताद्विशेषः (--यो० वा० पु० ५३
२. सत््वपरधानादहद्कारादिन्द्ियाणयु्यन्नानि सत्त्वं सुखमिति तान्यपि सुखा-
नीति तस्मिनआभोग आह्वाद इति ।-- त° वै° पु० ५३
५ ३. द्रष्टव्य, यो० वा प° ५३
| ४, एक एवात्माऽस्यां विषयत्वे नास्ति इत्येकात्मिका तथा चोक्तम् ।
एकालम्बने या चित्तस्य केवलपुरुषाकारा संवित्
} इत्येतावन्मात्राकारत्वादस्मतेत्यथः सा च जीवात्मविषया
चेति द्विधा वक्ष्यते, तेनातुगतो युक्तो निरोधोऽस्मिता अनुगतनामा योग
इति भावः (-यो० वा° प° ५३ 4
कक --- ज
, २०० | आचार्यं विज्ञानभिक्षु
नौर श्रानन्द कौ भूमिकाशरों के क्रम से वितकं, विचार श्रौर भ्रानन्द स भ्रनुगत-
सम्प्रज्ञातयोग का अ्रभ्यास किया गया उसी घटादि भ्रचेतन म्रालम्बन म भ्रस्मिता-
नुगतयोग भी सवथा सम्भव है । क्योकि कारण सूप से जीवेरवररूप श्रस्मिता
सर्वर श्रनुगत है ।१ इस चौये प्रकार के सम्भ्रज्ञात मेँ कूटस्थविभुचिन्मात्रल्प से
अ्रचेतन विविक्त श्रात्माकार साक्षात्कार होता है । इस प्रकार से प्रस्मितानुगत-
सम्प्रज्ञात में चित ग्रहीतृपुरुषाकाराकारित होता हे ।
इस श्रात्मज्ञान के परचात् ओर कु ज्ञातन्य तो बचता नहीं, श्रत: श्रस्मितानु-
गत-योग को ही सम्प्ज्ञात की चरम भूमिका माना जाता है 1 इस ्रस्मितानुगत
सम्भ्ज्ञात के भ्रात्मत्वेनाभ्युपगत दो विषय हैँ । एक श्रात्म-सामान्य या जीवात्मा
मरौर दूसरा परमात्मा ।* इन दोनों मेँ चूंकि परमात्मा सूक्ष्मतम है इसलिए भूमिका
क्रम में पहले भ्रातमसामान्य का सम्प्ज्ञान श्रौर तवर परमात्म-ततत्व में चित्त का
पुं सन्िवेश होता है 1 इस प्रकार सम्प्ज्ञातयोग के क्रम में पारमेखर योग
सर्वोच्च एवं श्रेष्ठ है 1० इस सम्बन्ध मे यह् ज्ञात्य है कि श्रस्मिता के विषयभूत
जीवातमा भ्रौर ईश्वर के उपाधिरहितलू्प का हौ साक्षात्कार इस भूमिमें किया
जाता है सोपाघिकरूप का साक्षाक्तार तो वितर्कानुगत श्रौर विचारानुगत में ही
हो जाता है 1“ इसी भ्रस्मितानुगत समाधि में ही विवेकल्याति होती दै।
सम्प्रज्ञातयोग के इन चारों भेदों के सन्द में यह भी ज्ञातव्य है कि ये भेद सम्प्र्नात-
योग के चार क्रमिक सोपान हैँ । पूववर्ती सोपानों मेँ उत्तरवर्तीं सभी सोपानों के
विषयों का भी भ्रस्पष्ट चिन्तन उपस्थित रहता है; श्रौर उत्तरवर्ती सोपानों मे
पूवेवर्ती सोपानों के विषय भूतचिन्तन का सर्वेथा परित्याग हो जाता है ।६ कहने
१ कारणल्पेणजीवेश्वरयोःसर्वत्राचुगमात् ।--यो ° सा० सं० पु० २५
२. सा च जीवात्मविषया परमात्मविषया चेति द्विधावक्ष्यते ।--यो० वा०
पु० ५३
जीवपेक्षयापि परमात्मनः सुक्ष्मत्वाच्च । "चतुविंशति--सोऽनुपश्यती-
ति स्मृतेश्च ।-- यो° सा० सं० पु २२
४. अतः सर्वेषु सम्पज्ञातेषु मध्ये पारमेरवरयोग एवकेष्ठः ।--यो० सा०
सं० पु० २३
५. अत्र॒ चास्मिताशब्दो विविक्तचेतनाकारताभात्रोपलक्षकस्तेनोदासीन-
भावेन य॒ ईइवरचेतनतत्त्वसाक्षात्कारस्तस्यापि संग्रहःसोपाधिकेदवर-
सम्भ्ज्ञातस्य च विचारानुगते प्रवेशः ।--यो० वा० पू० ५३
६. पूपुवभमिकासूत्तरोत्तरभुमिविषयस्यचिन्तनयुत्तरोत्तरुमिषु च पूरवेयुवे-
विषयस्य परित्यागं विदधाति -यो० वा० पु० ५३
६
आचायं विन्ञानभिलु के योगसिद्धान्त | २०१
का स्पष्ट श्रभिभ्राय यह् है कि वितर्कानुगत सं०यो० में विचारानन्दास्मिता
नाम की तीनों भूमिकां का भ्रस्पष्ट चिन्तन उपस्थित रहता है; विचारानुगत
सं° यो० मेँ श्रानन्दानुगत एवम् भ्रस्मितानुगत के विषय का चिन्तन श्रस्पष्टरूप में
उपस्थित रहता है; श्रानन्दानुगत सं० यो° में रस्मितानुगत का भी विषय गौणरूप
मे उपस्थित रहता है । श्रस्मितानुगत-काल मे श्रानन्द, विचार तथा वितकं का
म्रानन्दानुगत मे विचार तथा वितकं का श्रौर विचारान्गत में वितकं के विषयों
का स्वधा प्रभाव रहता है ।
धसंमेध-समापि
योग केदो ही प्रघान शास्त्रीय भेद वताए गए है, सम्परजञात श्रौर भ्रसम्प्रज्ञात ।
धर्ममेघसमाधि को किसी के अन्तर्गत यथा किस दशा या भूमि में माना जाय ?
॥ इस समस्या पर विज्ञानभिष्षु ने सूत्र एवं भाष्य कै प्राधार पर यह ' विचार प्रस्तुत
किया है कि घर्ममेषसमाधि विवेकख्याति की ही पराकाष्ठा है ।* विवेकख्याति
सिद्ध हो जाने पर उससे स्वतः प्राप्त स्वं भावाविष्ठातृत्वादि किसी भी सिद्धिकी
कामनान करने से, योगविष्नाभाव के कार निरन्तर प्रवाहित होनेवाली
विवेकख्याति उदित होती है । उससे धर्ममेष नाम कौ सम्प्र्ञातयोग कौ परा
काष्ठा प्राक्च होती दै, यह घर्ममेषसमापि क्लेशकर्मादि के निःशेषेणोन्मूलकघमं
की वर्षा करनेवाली होती है यही जीवन्मुक्ति की स्थिति रहै । इसके उदित
होने से क्लेशकर्मं की निवृति हो जाने पर साधक जीवित रहते हुए मुत हो जाता
र है 1४ जव घर्ममेघसमाधि श्रपनी पराकाष्ठा पर पहुंचती ह तव तत्त्व-जञान के प्रति
१. तत्र प्रथमल्चतुष्टय।नुगतः समाधिः सवितकं :, द्वितीयो विततक विकलः
। सविचारः, तृतीयो विचारविक्लःसानन्दः› चतुथेस्तद्विकलोऽस्मितामात्र
इति, सर्व एते सालम्बनाःसमाघयः ।-यो° भा० पु० ५४
२. तद्धर्ममेघाल्यं ध्यानं परमं प्रसंख्यानम् तत्त्वज्ञानं विवेकख्यातेरेव परा-
काष्ठेति 1 --यो० वा० पु १४
३. धममेधनाम्नो सं्रतताततयोगस्य पराकाष्ठा भवति ।--योग्वा णपु ०४४५
५ अस्यैव चात्मसाक्षात्कारस्य पराकाष्ठाधर्ममेघसमाधिरित्युच्यते ।--यो°
५ वा० पु० २१
४, कलेशकर्मादीनां निःशेषेरणेन्मुलक धर्म॑ मेहति वर्षतोति धममेधः 1
4 --यो० बा० पु० ४४६
३. वलेशकमनिवृत्तो जीवल्ञे व विद्वान् विमुक्तो भवति !--यो० वा° १०
४६
गव ----
२०२ | आचाय विज्ञानभिक्षु
परवैराग्य कहलाता है । यह वैराग्य
भी वैराग्य उत्पन्न होता है । यह वैराग्य वै
है 1 परवैराग्य के उदित होने
विवेकख्याति के प्रति भ्रलं्रत्ययरूप का होता
पर ही भ्रसम्म्ज्ञात योग की सिद्धि होती है।*
१. धमममेघस्य पराकाष्ठा ज्ञानप्रसादमात्रं परवेराग्यम् ! --त० वै° पु०
॥.2.1-1 ।
यस्योदये ज्ञानेऽप्यलं प्रत्ययरूपे परवैराग्येण असम्प्रज्ञातयोगो जन्यते ।
-यो० वा० प° ६१
समापतरिर्णौं
वाची शव्द नहीं ह । वस्तुतः चारों प्रकार के सम्प्रज्ञातयोगों
की स्थिति मे चत्त की जो साक्षात्रारल्पता होतो है वदी समापत्तिः
कटौ जातो है। समाधि चित्तवृत्तिं का निरोध दै ग्रौर समापत्तिः
निरुद्धवत्तिकचिरा कौ सम्यक् ्रालम्बनाकारापतति ्र्थात् चित्त कौ
भ्रालभ्बनाकारखूपता है । वस्तुतः साधनतत्पर चित्तकतृं क, भ्रालम्बनसाक्षात्तार”
फलक, समापननचित्तकर्मक, प्रत्यक ही समापत्ति दै; जवकि समाधि चिद्दवृत्ति-
निरोधरूप होती है । समाधि होने पर॒ समापत्ति होती है 1१ विषयता के आघार
पर समापत्ति के तीन भेद माने गए ह ।
१--ग्राह्यविषयकसमापत्ति
२--ग्रहण-विषयक-समापत्ति
३--ग्रहीतृविषयक-समापत्ति
चित्त श्रालम्बन का प्रत्यक्ष किस खूप मेँ कर रहा है इस श्राघार पर विभक्त
करने से समापत्तियों को १-सरवितर्का, र्-निवितर्का, ३-सविचारा रौर ४-निवि-
चारानाम दिया जावाहै। इस प्रकार से विभाजित करने पर कुल
समापत्तियां होती ह । सवितर्कादि करम सं समापत्तियों की संख्या कितनी है इस
विषय पर हास्त्रकारों मे बड़ा मतभेद है । भाष्यकार ने स्पष्टतः सवितर्कादि चार
ही प्रकार की समापत्तियां मानी है ।२ तत्त्ववैशारदीकार श्राचा्यंवाचस्पतिमिश्न
तथा उनके श्रनुयायियो के अनुसार यह् संख्या श्राठ है९ । इस मत का खण्डन
करते हुए आचाये विज्ञानभिचु ने भ्रपने योगवांतिक मे ५ प्रकार कौ समापत्तियां
बताई है । सवितर्कादि ४ समापत्तियों के भ्रतिरिक्त ग्रहीतृविषयक समापत्ति
क
१. समापत्तिङूपसाक्षात्कारहेतुत्वाचयोगस्य समापत्तित्वमुक्तम् !-यो° वा०
पु० १२४
२. ताः चतस्रः समापत्तयः 1--यो० भा०पु० श्र
३. तेन ग्राह्ये चतलः समापत्तयो ग्रहीतृ परहुरएयोश्चचतस्ः इत्यष्टौ ते भवन्ति
इति निगदव्याख्यातं भाष्यम् ।-- तत्त्ववैशारदी पु० १२४
तेनाष्टौ सिद्धा भवन्ति इति भाष्यहदयभ्रकटीकृतम् 1--पातंजलमाष्य
[| ध
२०३
२०४ | आचाय विज्ञानभि्षु
उन्होने श्रलग से मानी दै ।" ग्रहणविषयक समापत्ति को स्थ् लत्व, सूक्ष्मत्व,
सविकल्पत्व एवं निधिकल्पत्व के क्रम से विकल्पयुक्तत्व श्रौर विकल्परटितत्व की
दुष्टि से सविचारा एवं निविचारा समापत्तियों में ही श्रन्तर्मावित कर दिया है ।
निविचारा समापत्ति का क्षेत्र प्रृतितत्तवप्॑न्त दी है । रतः उसी में श्रानन्दानुगत-
समप्रज्ञातकालिक ग्रहणएविषयासमापति का भ्रन्तर्भावित करना समीचीन दही दहै।२
किन्तु गरीतृविषयक समापत्ति उसमें श्रन्तर्भावित नदीं की जा सकती । क्योकि
उसका विषय पुरुष है 1 निविचारा सम।पत्ति का क्षेत्र प्रकृतिपर्यन्त ही है ; पुरुष
उस क्षेत्र से परे है । २ समापत्तियों कौ संख्या के सम्बन्ध में वाचस्पतिमिभ्
के मत का खण्डन करते हुए विज्ञानमिक्ु कहते है कि जो लोग श्राठ समापत्तियां
मानते हँ उनका मत समीचीन नहीं है 1 श्राठ समापत्तियां मानने के लिये कोई
प्रमाण नहीं मिलता क्योकि भ्रानन्दानुगत श्रौर मरस्मितानुगत समाधि की दशा
मे सानन्द, निरानन्द श्रौर सास्मितः निरस्मित सरवे दो-दो विकल्प श्रसम्भव
है 1 श्रानन्द तो ह्ञादमात्र है ्रौर श्रस्मिता चैतन्यमात्रसंवित् है--एेसा भाष्यकार
ने स्वयं कहा है। न तो “ल्लाद' शब्द से इन्द्रिय का श्रथ ग्रहण किया जा सकता
है श्नौर न श्रस्मिता' शब्द से श्रह्धारोपर्चैतन्य को ग्रहण किया जा सकता है।
जहाँ मख्यायं सम्भव एवम् उपनत है, वरहा लक्षणा का ्राश्रय लेना श्रौर लक्ष्याथं
का ग्रहण करना उचित नदीं कटा जा सकता । इसलिए ॒ह्लादानुगत सम्प्रज्ञात
समाधि में ल्लादशन्यत्व का विकल्प तथा शरस्मितानुगत सम््रजञात मे निरस्मिता
का विकल्प मानना श्रौर इन विकल्पों को स्वीकार करके इन समाधियों की स्थिति
मे दो-दो समापत्तियां स्वीकार करना सर्वथा सदोष एवम् भ्रनुचित है 1°
शाव्दाशज्ञानविकल्पमिश्रितभूतेन्दरियरूप स्थूल भ्रालम्बनाकार होना चित्त की
सवितर्का तथा उस प्रकार के विकल्प से रहित भूतेन्द्रियरूप स्थूल श्रालम्बनसमापन्न
होने मे चित्त कौ निवितर्का समापत्ति होती दै । तन्मात्रा से लेकर प्रकृतिपरयंन्त
स्वविकार तथा देशकाल भ्रौर निमित्त के भ्रनुभव से युक्त सूक्ष्मसाक्षात्कार होने
पर चित्त की सविचारा तथा इस प्रकार के प्रनुभव से शून्य शुद्ध-साक्षाक्तार
निधिचांरासमापत्ति कही जाती है 1५
१. ग्राह्यग्रहरयोः स्थुलसूक्ष्मभेदेन सवितर्कादाचतस्रः पंचमी च ग्रहीतू-
ष्विति 1 -यो० वा० पु० १२५ ॥
२. ततच करमेशर्निवचारसमापतिनिष्ठया प्रकतिपर्थन्तजयी वृत्तीयः 1
अस्यामेव च भुमिकायामानन्दानुगतस्य प्रवेशः । ततदचास्मितातरुगत-
योगपर्यन्तङ्चतुथैः !-यो° सा० स० पृ० २७
३. द्रष्टव्य, यो सा० सं० पु० २४; २५) २६
सु्षमविषयत्वञ्चालिद्धपयंवसानम् ।--यो० स्० १।४५
छ, द्रष्टव्य, यो० वा० पृ० १२५
५, द्रष्टव्य, यो० सा० सं° प° २४--२६
| गोग-सखाधना के सोपान
| योग के साधनों का विवरण योगूतरो के पाद-नाम-क्रम से द्वितीय पाद में
ही होना चाहिय था, परन्तु वात रेसी नहीं है । समाविषाद मेँ भी योग-साघन कै
उपाय वताए गए हँ । सूत्रकार एवं भाष्यकार के लेखो मे यत्र-तत्र साधना कै प्रकारो
के उल्लेख प्रायः चारो पादों मे मिलते ह । कभी तो यहं संशय उठने लगता है
कि क्या एक ही साधक को इन सभी साधनो को क्रियात्मक ङ्प देना चाहिये श्रथवा
वह् स्वेच्छानुसार इनमें से किपी भी एक साचन को श्रपन्। कर योग सिद्ध कर
सकता है । तत्त्ववैशारदीकार ने भी केवल यद् संकेत करके संतोष कर लिया है
कि समाधिपाद में बताए गए साधना के मागं उत्तमाधिकारियों के लिए ह जव कि
साधनपाद में व्युत्थितचित्तसाधकों की सत्तवशुद्धि के ढंग वताए गए है । जिनकी
सहायता से वे लोग भी विगलित-चयुत्यान हो कर भ्रम्यासवैराग्य नामक प्रथमपाद
विवेचित योगसाधनों को ग्रपनाने मे समथं हो सकते है 1१ भोज ने भी भ्रपनी राज-
मार्तण्डवृत्ति मे साधनपाद का प्रारम्भ करते समय केवल इतना ही निदिष्ट किया है
कि श्रव व्युत्थित-चित्तवालों को किस भकार से उपायाभ्यासपूरवंक योग सुलभ हौ
सकता है-- यह् प्रतिपादित किया जायगा । २ ईरवर-प्रणिघान को श्रलवत्ता उन्होनि
श्रलग से एक सुगमोपाय बताकर योग-साघन माना है 1२
| योग-साधना के क्षेत्र में इस विषय को सुला कर क्रमवद्ध एवं उतम् रीतिसे
| संजो कर प्रस्तुत करने का श्रेय निस्संदेहं चायं विज्ञानभिश्ु को है । उन्होने साघकों
मरं फैली हुई इस रकार कौ संशयात्मक् स्थिति को निर्मूल करने का प्रयास किया
है । साघना के समग्र सोपानों का उन्होने श्रलग-्रलग भ्रामक विश्लेषण किया
है ताकि हर प्रकार कै साधक अपनी मानसिक योग्यता के श्रनुसार साघना के
१. अभ्यासवैराण्ये हि योग्तेपायौ प्रथमे पादे उक्तौ न च तौ व्युत्यितचितस्य
भ्रागित्येव संभवत इति द्वितीयपाद या सतत्वगुदधय्थम्
ततोहि विलरुसत्वःकृतरक्षासंविघानोऽभ्या ्रत्यहं भावयति ।
॥ -त० वे० पु° १३७
| तदेवं प्रथमे पादे समाहितचित्तस्य सोपायं योगमभिधाय वयुत्यितचित्त-
स्यापिकथमुपाया्यासपूवंको योगः 1-रा० मा० वृ° पु० २९
॥ ३. सुगमोपायपर्लंनपरतयेकवरस्य स्वरूपा
तत्फलानि च निर्णय इत्यादि 1--रा० मा० वृ० पुण्र
२०५
| ।
| ५
|
। ङ्ङ - त
४
२५६ | चायं विज्ञानशिष्षु
सभक सोपान पर उतरं भ्रौर तदयुकूल सिद्धि पाकर धीरे धीरे सम्परज्ञात एवम्
्षम्मक्ञात योग मे पारङ्घत होकर कैवल्य-लाभ कर ।
स् कि सम्परज्ञातसमाधि भसम्भरजञात से पूर्ववर्ती है श्रतः उस स्थिति का लाभ
करते ऊ पस्चात् ही असम्प्रज्ञात के लिये भूमिका प्रस्तुत होती दै । साधनाक्रम-प्रति-
दादन मे इसीलिये प्रथमतः सम्प्रज्ञात के साधनों का ही विचार प्रस्तुत किया गया
३1 सम्परज्ञातयोग के त्रिविध साधन वता गए द क्योकि मन्दः मध्यम श्रौर
उत्तम भेद से साधक तीन प्रकार के टोते दै । इन्हीं तीनों करो करमशः प्रारुरुघ्ु,
युञ्जान ओर योगारूढ नाम दिया गया दै।१ इन तीनों प्रकार के साधकोंकौ
उयेश्ला से तीन प्रकार के योग॒ साधन बताए गए है। सूत्रोंके क्रमसे प्रभावित
लोक्तर विज्ञानभि्चु ने भी पहले उत्तमसाधकों का लक्षण ग्रौर उनको सावना का
.स्वङ्प विवेचित किया है ।
उत्तम साधका की साधना का स्वरूप
उन साधको क) उत्तम कहा जाता है जिन्होने पूर्वजन्म मं ही सम्प्ज्ञात के
-वहिरङ्घर साघनोका भ्रनुष्ठान कर लिया होता है । यम, नियम, भ्रासन, प्राणा-
याम श्रौर प्रत्याहार ये र्पाच सम्प्ज्ञातयोग के वहिरद्ध साधन माने जाते है; ओर
धारणा, ध्यान तथा समाधि ये तीन सम्प्रज्ञातयोग के भ्रन्तरङ्ग साधन कहे जाते हैँ ।
उत्तम सावकों को इस जन्म में इन पांच बहिरङ्ग साधनों के श्रनुष्ठानों कौ श्रपेक्षा
नहीं रहती । ये योग-माग पर भ्रारूढ-प्राय रहते है । उदाह्रणाथं जडभरत भ्रादि
लोग इसी कोटि के साघक थे। इन लोगों की सम्प्रज्ञात-सिद्धि में प्रभ्यास ्रौर
वैराग्य ही प्रमुख साधन बनते है । इन्दं न तो क्रियायोग करने की भ्रावद्यकता
हेती हैग्रौरन ही योग के बहिरङ्गं का श्रनुष्ठान ही । योगारूढो का वास्तविक
१, तत्र मन्दमध्यमोत्तम मेदेन त्रिविधा योगाधिकारिणो भवन्त्यारुरकषुयुञ्जा~
नयोगारूढरूपाः 1-यो° सा० सं° पु° ३७
२. त्रयमन्तरङ्ः पूर्वेभ्यः !-यो० सु° २।७
यमनियमासनश्राणायाम ओर प्रत्याहार ये पांच सम्प्र्ातयोगं के
सम्बन्ध मे बहिरद्ध ओर धारणा, ध्यान तथा समाषि ये तोन अन्तरद्ख
कटे जाते ह 1-यो० सा०.सं° ८६
-३. पूर्वपादे ह्य .त्माधिकारिणामभ्यासवेराण्ये एव योगयोः साघनय्क्तम् ।
-यो० वा० पु०.२४२
माचायं ¡ वज्ञानभिन्षु के योगसिद्धान्त | २०७
रूप प्रदशित करने के लिये भ्राचायं ने गीता का इलोक उद्धृत किया है । योगा-
रूढ साधक इन्द्रियों श्रौर कर्मं में श्रनासक्त रहता है तथा सभी कामसंकल्पों को
त्याग देता है ।* श्रभ्ास श्रौर वैराग्य के रूप स्पष्ट करनेकी चेष्टाकी गई है।
चित्त की “स्थिति के लिये यल करना श्रम्यास है । भ्र्थात् च्येय से बाह्र जाते हुए
चित्त का वार वार उसी ध्येय में सत्निवेशित करना ही भ्रभ्यास है । इस ^स्थिति'
दाव्द को श्राचायं ने योग का चरम श्रङ्खभूत समाधि वताया हैर जवकि भ्रन्य टीका
कारोंने एेसा नहीं वताया । वैराग्ध श्रलम्भावना को कहते हँ । रागादिके श्राव
को वैराग्य नहीं कहते । वैराग्य दो प्रकार का होता है--श्रपरवैराग्य श्रौर पर-
वैराग्य । उपार्जन, रक्षण, क्षय तथा हिसादि क्रियाश्नौं मे श्रनन्तदोषदर्शाननिमित्तक
एेहिक तथा श्रामुष्मिक विषयों मेँ सम्पकं रहने पर भी चित्त मँ अ्ननाभोगात्मक
वितृष्णा का भाव भ्रपरवैराग्य है । यतमानः व्यतिरेक, एकेद्धिय तथा वशीकार्
नामक चार सोपानों में श्रपरवैराग्य का क्रमिकविकास होता है । इसीलिये वशीकार-
संज्ञा श्रपरवैराग्य काही योगारूढ साधक के द्वारा प्रनुष्ठान किया जाना है।९
तत््ज्ञानपर्यन्त सभी दुर्यो में पहले ही उत्पन्न दोषदर्शन से दोषान्तर देखने की
श्रपेषा न होने से तथा श्रात्मसाक्षात्कार के कारण सभी श्रनात्म-तत्वों मे- यहां तक
कि वुद्धिसत्त श्रौर विवेकख्याति मं भी--जो श्रलम्भाव होता है वही परवैराग्य है ।
यह वैराग्य सम्प्रज्ञात को साघना करनेवाले उत्तम, मध्यम या मन्द किसी प्रकार के
साघक के श्रनुष्ठान का विषय नहीं है । वह् तो श्रसम्परज्ञातयोग का साघन है श्रौर
सम्भ्ज्ञातयोग की सिद्धि के वाद ही सम्भव होता है।
योगारूढ साधक को केवल श्रम्यास" भ्रौर वशीकार संज्ञा भ्रपरवैराग्यका ही
सम्यग् श्रनुष्ठान करना पडता है । वैराग्य से उसकी विषयवृत्ति कुण्ठित हो जाती
है तथा च्येय-विषयक-ग्रभ्यास* से ध्येयरूपवृत्ति का प्रवाह बलवान् तथा सुदृढ हो
१, यदाहि नेन्दियार्ेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
स्वंसंकल्पसेन्यासी योगारूढदस्तदोच्यते 11 श्रीमद्भगवद्गोता ६।४
२, स्थितिश्चयोगचरमाद्धसमाधिनिश्चलंकाग्रताधारारूपः । यो० सा०
सं० पु ४१
३. एतेषु चर्तुविधवेराग्ेषुवशी कारसंज्ञं व योगारूढस्यानुष्ठेया --यो ° सा०
सं० पु ४३
४, पूर्वपादे ह्य.तमाधिकारिरणम् अभ्यासवैराग्ये एव योगयोःसाधनमुक्तम् ।
-यो० वा० प° २४२
५. अभ्यासस्यान्तरङ्ग' साधनं परिकर्मादिकमुच्यते ! परिकमंशन्देन स्थिति
हेवुदिचि्तसंस्कार उच्यते 1--यो° सा० स° ५० ४४ 1
२०८ ] आचायं विज्ञानभिष्ु
जाता है । ये व्येयविषयक् अरारम्मिक शअ्रम्यास चित्त के परिकर्म कहलाते हँ ।
-निरोधरूप सम्प्ज्ञात की सिद्धि योगारूढ साधक के लिये
इर्टीं दोनों साधनं से सम्पन्न हौ जाती है ।१
मध्यम साधको की साधना का स्वरूप
जो सावक इस जन्ममें ही योगमागं मे रत होते हैँ वे मध्यमाधिकारी कहलाते
है । योगारूढ श्रधिकारी पूर्वजन्म मेँ की गई बहिर ङ्घ साधना के बल पर इन लोगो
से बढ कर होते है । इसीलिये वै उत्तम कहलाते ह। मध्यम श्रधिकारियों को
युञ्जान योगी भी कहते है । ये श्रारुरष्चु नामक तीसरे प्रकार के योगियों से ऊचे
होते ह । विज्ञानभिष्यु ने वर्णाश्चमघर्म की निष्ठा के कारणं ईन तीनों प्रकार के
साधको को श्राश्रमों के ्रन्तगेत विभाजित करने कीभी चेष्टाकी है) इस विभा-
जन के श्रनुसार परमहंस संन्यासी लोग योगारूढ या उत्तमाधिकारी हैँ । मध्यम या
युञ्जान साधक । वानप्रस्थ ्नाश्रमवाले होते है श्रौर प्रारुरुधु साधक टस्थ-प्राश्नम
सें रह कर साधना करते है । स
मध्यमाधिकारी के लिये क्रियायोग नामक साधन प्रघान ल्प से निरिचत किया
गया है । कतिपय श्र्ृष्ट क्रियाश्रों के द्वारा की जानेवाली साघना को क्रियायोग
नाम दिया गया है । क्रियायोग के तीन भ्रं है--१. तपः २. स्वाध्याय श्रौर
३. ईश्वरप्रणिधान । शास्त्रोक्त व्रतो के दारा शीतोष्णादि दन्दो का सहन करना
तप है । वानप्रस्थाश्रम मं विहित यज्ञ दानाव्किं का तपमें ही भ्रन्तर्भाव है 1
मोक्षप्रासि में सहायक शास्त्रों का श्रघ्ययन करना अथवा प्रणवादि का जप करना
स्वाध्याय कहलाता है । ईउवरप्रणिधान का तात्पयं है सभी कर्मो का ईद्वर मं
रपत करना श्रथवा कर्मफलों का संन्यास । कर्मफलों का भोक्ता परमेरवर है" इस
प्रकार का चिन्तन कर्मफलापंण कहलाता ह । इस चिन्तन का श्राधार (ऋतंपिवन्तौ
इत्यादि श्र तियो के दवारा प्रतिपादित परगेरवर का भोक्तृत्व है 1 यद्यपि परमेर्वर
म साक्षाद् भोग का प्रतिषेव है 1 जीवों को कमेफल-भोग कराता हप्र जो प्रसन्नता-
लाभ-परमेदवर करता है वही ईश्वर का कर्मफल भोग है 1 जैसे याचकों को घन
देता हुश्रा दाता उस धन का भोक्ता कहलाता है 1°
१. तत्र च वैराग्ये साक्षादेव वृत्तिनिरोघकारणम् 1 अभ्यासस्तु समाधि-
रूपाङ्खदारा -यो० सा० सं° पृ० ४९
२. युञ्जानस्य वानप्रस्थादेः प्रकृष्टक्रिया... !--यो० सा० सं° पु० ५०
३. यज्ञदानादीनाम् तु तत्रेवान्तर्भावः ! यो० सा० संख पु° ५०
. यथा्थिभ्यो घनानि प्रयच्छन्दाता तद्धनभोक्ता तद्वत् \--यो° सा
सं० पु० ५१ 2
आचायं विज्ञानभिक्षु के योगसिद्धान्त | २०९
इन मघ्यमाधिकारियों के लिए भी भ्रम्यास ्रौर वैराग्य श्रनिवायं 1.
क्रियायोगो कै श्रनुष्ठान द्वारा ये लोग श्रम्यास श्रौर वैराग्य में सक्षमता प्राप्त
करते है । क्रियायोग, श्रद्धरूप की समाधि तथा श्रद्धीरूप की सम्प्रज्ञात
समाघि प्राप्त करानेवाला श्रौर क्लेशो को क्षीण करनेवाला होता है।
इस क्षीणता का भ्रथं है विवेकख्याति का प्रतिरोध करने की सामथ्यं का
भ्रभाव हो जाना ।२ क्रियायोग श्रपने दोनों फलों को दृष्ट एवं श्रदृष्ट
दासं से सिद्ध करता है । समावि-लाभ करना तथा क्लेशो के तनरुकरण इन दोनों
कार्यो को दृष्ट एवम् श्रदृष्ट द्वारो से क्रियायोग पूरा करता है । क्लेगों के
तत्रुकरण मे चित्त-शुद्धि श्रदष्ट द्वार दर क्योकि क्रियायोग से चित्तशुद्धि श्रौर
चित्तशुद्धि से श्रम की तनुता श्रौर भ्रवमे कौ तनुता से भ्रविद्यादि क्लेगों का
तत्कर होता है । पूरं क्रियायोग चूंकि विना क्लेशों के तनु हुए सम्भव
नहीं, श्रतः क्रियायोग स्वनिष्पत्ति के लिए साक्नात् क्लेशो को तनु करता है।
यह उसका दृष्ट दवार हुप्रा । इसी प्रकार से समाधिनामक फल के लिए सत्तवशुद्धि
अ्दृष्टद्वार है ्रौर कमं के हारा चित्त का नियमन इत्यादि दष्टद्वार है ।४ इन
दोनों कार्यो से विवेकसख्याति का मागं प्रशस्त होता है । फिर साघक असम्प्रज्ञात
कै द्वारा कर्मना करके श्रथवा जीवन्मुक्तावस्था में रहकर प्रारब्ध कर्मो का भोग
करके मोक्षलाम करता है 1
मन्दाधिकारियों की योगसाधना का स्वरूप
योगसाध ना के लिए तत्पर हस्थ साधकों को विज्ञानरभि्चु ने मन्दाधिकारी
माना है ।* उनकी साधना श्रष्टा्ग योग-मागं की होती है । यम, नियम, भ्रासन,
प्राणायाम, प्रत्याहारः धारणा, व्यान ग्रौर समाधि ये भ्राठ योगाङ्ख बनाए गये
` टू अस्पासवैराग्यादिकं तु यथाङव्तितोऽनष्ठ्यम् ।-यो° सा० सं
पु० ५०
२. एतेषां तनुत्वं च विवेकद्यातिभ्रतिबन्घाक्षमता (यो सा० संण
पु०५३
३. तच्च क्ियायोगस्य ुष्टाृष्टद्राराफलं भवति ।--यो० सा० सं°
पु० ५३
9 एवं योगोऽपि क्ियायोगस्य हष्टाष्टोभयद्ाराफलं भवति -यो० सा०
सं० पु० ५४
५. अथ मन्दाधिकारिणो योगमाररक्षोग हस्यादेरयोगसाघनान्युच्यन्ते 1
-यो० सा० सं० पु० ६०
फा०-१४
२१० | चां वितान
हा उत्तमाधिकारियो के लिए बताया गया भ्रभ्यसि, धारणादि मे श्रौर वैराग्य
यम तथा प्रत्याहार मे अन्तर्भूत है । मघ्यमाधिकारिमो क लिए प्रतिपादित त्प,
सवाघ्याय शौर ईदवर-्ररिधान का भी इन्दं श्रष्टाज्खों मे भ्रन्वर्भाव है 1: इसलिए
मन्दाधिकारियों के लिए पिष्डीत करके सब साधन उपदिष्ट किए गए ह]
यम, नियम, श्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान ग्रौर समाधि इन
आरौ को विज्ञानभिश्चु ने कर्मयोग भी कहा है। इस प्रकार से उत्तमा-
चिकारियों के लिए मुख्यतः ज्ञान-योग का उपदेश किया गया है । मवघ्यमाधिका-
सियो के लिए कमं रौर योग के समुच्चय का उपदेश किया गया है रौर मन्दाधि-
कारियों के लिए कर्मयोग प्रतिपादित किया गया है ।
विज्ञानमिष्य ने श्रहिसा को स्पष्ट करते हए उसमे से याज्ञिक हिसा काभी
बहिष्कार करके पुं रश्रहुसा को ही योगसाधनरूपं एक महान्रत माना है।
हिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं श्रौर अ्रपरिग्रह ये पांच यम कहलाते हँ ।९ यम
निवृत्तिपरक हने स सार्वत्रिक है । इसीलिए सावं भौम महात्रत कहे गए हैँ ।* शौच,
सन्तोष, तवः, स्वाध्याय श्रौर ईदवर-प्ररिधान ये पांच नियम कहलाते हँ । † नियम
्रृत्तिमूलक होने से देशकालादि नियन्त्रण के ्रनुस।र॒सावंभौम महाव्रत नहीं
कटे जा सकते । जितने प्रकार के जीव ह उनके बैठने की जितनी रीतियां है
वे सभी आपन है । किन्तु योगसाघन-रूप से तीन श्रेष्ठ है :-- स्वस्तिकासन,
पद्मासन श्रौर श्र्धासिन 1 यम से लेकर प्रत्याहार पर्यस्त पाचों साधन देर, प्रण
ञ्लौर इन्द्रियों के निग्रह करनेवाले हैँ श्रौर धारणा, ध्यान तथा समाधि चित्त-निग्रहु-
परक हैँ । इपीलिए पहले के पांच योग-साधन मे बहिरद्ध श्रौरभ्रन्तिम तीन
्रन्तर्ध तथा श्र्याहित माने जाते हैँ ७ जिस देश में ध्येय हो वहां चित्त का
( यमनियमासनप्राणायामप्त्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ॥
--यो० सु० २।९
२. द्रष्टव्य, यो° सा० सं° पुर ६०
आहिसासत्यास्तेयत्रह्मचर्यापरिग्रहाःयमाः !-यो० सू० २।३०
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभोमा महात्रतम् 1-थो ०सू° २३१
शोचसम्तोषतपःस्वाध्यापेदवरप्राणिधानानि !--यो ° सू° २।३९
तेषु मल्यानि चरीण्यासनानि-
मासनं स्वस्तिक प्रोक्तं पद्मभध सिनं तथा ।
आसनानां तु सर्वेषामेतदासनमुत्तयम् \
= ० सण
७. द्रष्टव्य, यो० सा० सं पु० ठष्-८६ पः
क,
पु ६५
आचाय विज्ञानभिक्षु के योगसिद्धान्त | २११
स्थिर करना धारणा है । उसी दे मे ध्येय के प्राकार की सत्ववृत्ति का एसा
भ्रवाहु जो भ्रन्य वृत्तियों से व्यवदित न हो ध्यान कहलाता है । वही ध्यान जव
ध्येय के भ्रावेश से व्यान-व्येय-घ्यातूभाव की दृष्टि से चून्य होकर केवल ॒व्येय-
मात्राकार रह् जाता है वही समाधिदहै। समायि नामक यह् श्राठ्वां योगाङ्ध
सम्मरन्ञात समाधि से भिन्न श्रौर उससे पूर्वर्ती है । दोनों मेँ वया श्रन्तर दै?
इसे स्पष्ट करते हुए विज्ञानभि्चु कहते है फ श्रद्धभूत समाधि श्रौर शरद्धिभूत
सम्परज्ञात समाधि के स्वरूप एवं स्वभाव में पर्या भेद दै । मुख्य भेदयह दहैकि
प्रङ्गसमाचिमें व्येयका केवल ध्यायमान स्वरूप दी भासित होता दै जवकि
्रङ्गिसमाधि मे अर्थात् सम्भज्ञात समावि में च्येय के व्यायमान स्वरूप के
भासित होने के साथ-साथ च्येय का श्रव्याय-मानस्व्ूप भी साकल्येन भासित हो
जाता है । तात्पयं यह है कि सम्प्रज्ञातकालिक साक्षात्कारोदय हो जाने पर व्येय
का पूणं स्वरूप भासित होता है । किन्तु यहाँ पर एक वात श्रौर स्मरणीय हैकि
ध्येय का पूंस्वरूप भासन भी सम्प्रज्ञातसमाधि के सोपानानुसार ही होता है
र्थान् वितकनुगत सम्प्रज्ञातसमाधि में व्येय के स्थुलरूप का ही पूर्णोस्वरूप
भासित होता है सूक्ष्मकारूप नहीं। वैसे ही विचारानुगत सम्प्ज्ञात समावि
मे घ्येय के सूष्ष्मस्वरूप का ही पूणंतः भासन होता है, ध्येय के स्थूलरूपका
नहीं । इसलिए चित्त की एकाग्रभूमि मे जब व्येयके पृणंल्प को उद्धासित
करनेवाले साक्षात्कार का उदय हो जाता है तव वह् समाधि श्रद्धी या
सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है भ्रौर जब तकं तादा साक्षात्कार का उदय
नहीं होता, केवल ध्यायमानरूप मे ही ध्येयाकार चित्तवृत्ति वनी रहती है तव
उसे भरंगभूत समाधि ही मानना च्हिए ।
जव एक ही श्रालम्बन में धारण, घ्यान श्रौर समाधि तीनों निष्पन्न किए
जाते है तो इन्द संयम कहत हैँ । स्थुलादि के क्रम से विविक्त परमात्मा प्यंन्त इस
संयम का विनियोग करना चाहिए२ । उत्तमाधिकारियो को पूर्वं जन्म के संस्कार
कै बल पर केवल संयमसे ही योग सिद्ध हो जाताहे। सलिए योगसावना में
ये तीनों श्रद्ध भ्रत्यन्तावश्यक दँ । तीनो प्रकार के साधको के लिए धारणा-ध्यान-
समायि तीनों का ्रम्यास अ्रनिवायं है ।
१, अस्य समाधिरूपस्याङ्खस्याद्धियोगसम्परज्ञातयोगादयं भदो यदत्र चिन्ता-
++ विशेषतो ध्येयस्वरूप न भासते; अङ्धिनि तु सम्प्र्ञाते साक्षा-
त्कारोदये समाध्यविषया अपि विषया भासन्त् इति, तथा च साक्षात्कार
यक्तेकाग्रयकाले सम्भ्रज्ञातयोगोऽन्यदा तु समाधिमात्रसिति विभागः 1
4 -यो० वा० प° रण
२, द्रष्टव्य, यो० सा० सं° प° ७८
२१२ | आचार वित्तानभिघ
च्रसम्प्रह्ञात योग की साधना के सोषान
विज्ञानभिष्षु “भवप्रत्मय शरसम्प्ज्ञात समाधि! कोभी योगकोटि में स्वीकार
करते ह । इसलिए उनकी दृष्टि मे श्रसम्प्रज्ात योग॒ की साधना स्पष्टतः दो
प्रकार की होती है 1 'भवप्रत्यय परसम्भज्ञात' की साधना के परविकारी केवल
विदेह शौर प्रकृतिलीन 2 । उनकी साघना मे किन्दीं ्रन्य उपायों की भ्रेष
नहीं है । उनकी योगसिद्धि ्रकृतिलीन श्रौर विदेह रूप से जन्म लेने मात्र से
हो जाती दै। इसलिए इस प्रकार के श्रसम्भ्रयात योगं की साघना का स्वरूप
श्रलग से नहीं बताया गया है । इसमें उपाय-निर्देश का कई ्रवसर दीनहीं था
इसीलिए दूसरे प्रकार के श्रसम्प्रज्ञात-योग का नाम ही ““उपायप्रत्यय-श्रसम्प्रज्ञात'"
पड़ा है।
इसी उपाय-प्रत्यय-्रसम्प्रज्ञात की साधना मनुष्यों के लिए बताई गईहै।
विज्ञानभिष्षु ने बड़ी सुलभी हुई जञैली मे इस साधना के सभी स्वरूपो पर प्रकादा
डाला है । श्रभ्यास श्रौर वैराग्य तीनों प्रकार की सम्भ्रजञातसाधघना में जिस तरह्
्रनिवायं श्रद्ध ह उसी तरह ष्टपाय-प्रत्यय श्रसम्प्ज्ञात' की साधना में भी
शरभ्यास श्रौर वैराग्य ही श्रनिवार्यं श्रंग है । क्योकि योगद्रय के साधारण
कारण के रूप में सूत्र श्रौर भाष्य ने भी अ्रभ्यास श्रौर वैराग्य ही बताए
गए ह 1९ वस्तुतः सम्प्रज्ञात कौ सिद्धि के श्रनन्तर ही श्रसम्प्रज्ञात की साधनां
का क्षेत्र उपस्थित होता है। इललिए सम्प्रज्ञात की चरमावस्था मे सिद्ध
विवेकख्याति की दशा मँ शुद्ध-पुरष-दशेनलग्धनुद्धिशुदधि के कारण साधक को
सत्वगुण श्रौर विवेक-ख्याति से भी वैराग्य होने लगता है 1 यहं विवेक्याति
भ गुणात्मक होने के कारण दुःखात्मक है भ्रतः यह् भी शान्त टो--इस प्रकार
का श्रलम्प्रत्यय या वैराग्य ही परवैराग्य कहलाता है 1 यह ज्ञान की पराकाष्ठा है।
यह अरसम्म्रात का साक्षात्कारण है ।२ इसी पर वैराग्य के निरालम्बनं प्रभ्याष
से भ्रसम्प्ज्ञात योग कौ सिद्धि होती है।२ यह् श्रम्यास सर्वथा निरालम्बन
होता है।
इसी वात को सम्ट करते ए श्राय विजञानमिषचु न शरदधावीयसमृतिसमापि
्र्ञापू्ंक इतरेषाम्" वलि सूवर की व्याख्या करते समय कहा है कि श्रद्धमूरतक
१. अभ्यासवेराग्याभ्यां तल्निरोघः !--यो° सु° १।१२
२. द्रष्टव्य, यो० सा० सं० पु० ४९
३. द्रष्टव्य; यो० सा० सं० पु० ४९
आचायं विज्ञानभिश्चु के योगसिद्धन्त | २१३
घारणा, घ्यान प्रौर माचि खूप श्रन्तरगों से उत्पन्न भ्रात्मतत्तवसाक्षात्काररूपी
विवेकख्याति फी सिद्धि के द्वारा तद्विषयक परवैराग्य से श्रसम्प्रज्ञतयोगसिद्ध
होता है ।१ चकि पूरं-निरोधरूप श्रसम्प्रजञात व्येया्थ-ुन्य होता दै । इसीलिए
इसका हेतु भी ्रखिलघ्येयवैराग्य रूप परवैराग्य ही हो सकता है। श्रौर चूंकि
परवैराग्य के श्रम्यास श्रथवा पौनःपुन्य श्रौर नैरन्तयं से ही श्रसम्प्रज्ञात योगनिष्पन्न
होता है इसलिए इस प्रकार का निर्वंस्तुक ग्रभ्यास भी इसकाटैतुहुप्रा 1२
निष्कषरूप से यह् कहाजा सकता है कि अ्रपरवैराग्य ्रौर सालम्बन श्रभ्यास
सम्प्रज्ञातयोग के साक्षात् साधन हँ जवकरि परैराग्य तथा निरालम्बन श्रम्यास
उपायप्रत्यय श्रसम्प्रज्ञात योग ॒के साक्षात् सोपान है| चूँकि परवैराग्य तथा
निरालम्बन भ्रभ्यास सम्प्रज्ञातसिद्धिजन्य ही होते है इसलिए परम्परा से सङ्गत
साधन भी उपायप्रत्यय-प्रसम्प्रज्ञात योग के हेतु हुए 1
त ^
१. द्रष्टव्य, योऽ बा० प° ५९
२. द्रष्टव्य, यो० वा० प्र # १ »#
३. अष्टानाज्चाङ्खानां फलद्रयं सम्पज्ञातयोगस्तद्द्वाराऽसम्परत्ातयोगर्चेति \
-यो० वाण ०२४
इंषृतर
ईदवर का स्वरूप विज्ञानभिश्चु ने भलीर्भांति विवेचित किया है। ईरवर-
प्रणिधान से अ्रसम्प्रज्ञातयोग की सिद्धि श्रासन्नतम हो जाती हे 1" क्रियायोग के
साधनों मे भी ईवरप्रणिधान मुख्य है । मन्दाधिकारियों के लिए प्रतिपादित
यमनियमादि श्रष्टाद्धमोग मेँ भी नियमों के भ्रन्तगत ही ईर्वरःप्रणिधान
विहित है । समस्या यह है कि सांख्य-सिद्धान्त तो प्रकृति श्रौर पुरुष नामक दोही
निल मौलिक तत्तव मानता दहै। क्या यह ईरवर नामक तत्त्व इन दोनों
से भिन्न है? या फिर इन्दं दोनों मेँ से किसी एक में भ्रन्तर्भावित
किया जा सकता है? ईश्वर को प्रकृतितत्त्व के अ्रन्तगंत माना नहीं जा सकता
क्योकि प्रकृति भ्रचेतन है । ईङवर को इन दोनों तत्त्वों से भिन्न एक तीसरे
प्रकार का मौलिक तत्त्व मानने पर सांख्य श्रौर योग शास्त्र एक दूसरे से बिल्कुल
भिन्न प्रकार के शास्त्र हो जायेगे । यह स्थिति “एक साख्यं च योगञ्च यः परयति
स पदयति' एवं सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः' इत्यादि स्मृत्तियों
को सर्वथा श्रनभीष्ट होगी । इसीलिए योगसूत्रकार पतजञ्जलिने भी ईस्वर को
एक प्रकार का पुरूष ही माना है । “क्लेशकमंविपाकारयैरपरामृष्टः पुरूषविशेद-
ईङवरः, यो० सू० १।२४ । माना कि ईरवर एक सामान्य पुरुष नहीं है फिर
भी है वह एक पुरुष ही, भले ही वह एक विशेष प्रकार का पुर हो। इसी
मान्यता कै भ्रनुसार विज्ञानभिष्चु ने ईर्वर का भ्रन्तर्भाव पुरूष में श्रौर उसकी
उपाधि का भ्रन्तर्भाव प्रकृति में माना है ।२
, ईश्वर को कलेहाकर्मादि से श्रपरामृष्ट माना गया है । भ्र द्का यह् उठती
है किये क्लेशकर्मादि तो बुद्धि में रहनेवाने घमं हैँ । वस्तुतः सभी बद्ध श्रौर मुक्त
पुरुष इन क्लेशकर्मादि से श्रपरामृष्ट ही होते हँ । श्रुतियां भी श्रसद्धो ह्ययं
१. भरमलक्षणाद् भव्तिरूपा्वकष्यमाणात्रणिधानादावजितोऽभिमुखीकृत
ईइवरः तं ध्यायिनमभिध्यानमात्रेण' अस्य समाधिमोक्षो आसन्नतमौ
भवेताम् इति इच्छामात्रेण रोगााक्त्यादिभिरुपायानुष्ठानमान्दे पयुनु-
गृहु.राति आनुकूल्यं भजते !--यो० वा० पु० ६४
२. तथा चदवरस्य पुरषेऽन्तर्भवन्तदुपाधेः प्रधाने इति भावः ।--यो० वा०
पु० ६५
२१४
भाचायं विज्ञानभिक्षु के योगसिद्धान्त | २१५
दर्षः' कटती दै । तो फिर ईदवर नामक पुरुष विशेष मे कौन सा वैरिष्ट्य
हुम्रा जिसके वल पर उसे विशिष्ट पुरुष माना जाय? इस शंका का
निराकरण यह् है क्रि परामशं शब्द का श्रं यहाँ पर वास्तविक भोग नहीं है ।
ईर्वरातिरिष्त ्रन्य पुरुषो में क्लेरकर्मादि न रहते हुए भी तत्तद्वुद्धिगत होने के
कारण पुरुषों में रहते हुए कटे जाते है भर्थात् क्लेशकर्मादि का व्यपदेश इन
पुरूषो मे होता है । पुरुषों मेँ इन क्लेशकर्मादि की यह् व्यपदिश्यमाना ही
पुरुषों का भोग कहा जाता है । इसी व्यपदिश्यमान भोग के बल पर पुरुष को
सांख्य योगशास्त्र मँ भोक्ता कहते हँ ।१ यही व्यपदिश्यमान भोग ही यहाँ पर
परामशं शब्द से प्रभीष्ट है । इस प्रकार का परामशं सभी वद्ध पुरुषो में रहता
है; परन्तु ईश्वर में इस प्रकार का भी क्लेराकर्मादि परामशं नहीं रहता । सामान्य
॥ पुरुषो से ईङवर का यही वैरिष्ट्य है ।२
इस प्रकार की क्लेशादि परामंशुन्यता यद्यपि केवली सिद्धो को भी वाद
मेहो जाती है; किन्तु वे ईर्वर नहीं कहे जा सकते , क्योकि ईरवर में त्रैकालिक-
परामशंगन्यता है जवकि कंवल्यप्राप्त करनेवाले इन सिद्धो में पूवंकालिक पराम
तो निङ्चित ही रहता है ।९ ये केवलीग्रनेक श्रौर्षुद्र एे्वयंवाले होते ह जब
कि ईदवर एक है श्रौर सर्वाति्ायी एेश्वय॑वाला है । वह् सदेव अ्रप्रतिह्त इच्छा
से युक्त उपाधिवाला है । ईइवर की उपाधि प्रकृष्ट कोटि की है, शुद्धसत्त्वा है;
नित्य तथा शावत है । ईख्वरोपापि की ज्ञानलक्षणावृत्ति प्रलयकाल में भी व्यक्त-
। रूप से स्थित रहती है ।वि ना उपाधिवृत्ति के परमेरवर का उस समय अथं
कंसे सम्भव हो सकता है १४ सृष्टि के प्रयोजन से प्रकृति की साम्यावस्था मे सृष्टि
कै प्रसोजन से क्षोभ उत्पन्न करने की इच्छा भी तो ई्वरोपावि मेँ उपस्थित
| रहती है । वह स्वयं पूर््॑ञानशक्ति है । ईश्वर की उपाधि मेँ किसी प्रकारका
संस्कार नहीं सम्भव है ।
१. ते च मनसि वतमानाः पुरुषे व्यपिदिद्यन्ते स हि तत्फलस्य भोक्तेति 1
--यो० भा० प्रु° ६५
२. यो ह्यनेन भोगेनापरामृष्टः स पुरुषविरोषः ईइवरः --यो० भा०
त पुवस्थितानि चछत्वेव
३. ते हि हिरण्यगर्भादयः प्राकृतकानि बन्धनानि स्य
॥ मुक्ताः ; न तु क्लेशादिपरामरशरन्याः , ईइवरस्तु सर्वदेव क्लेशात्मक-
वन्धनत्रयश्ून्यतया शरुत्यादिसिद्ध इत्यर्थः 1--यो° वा० पू ९७
४, द्रष्टव्य, यो० वाण पु० €
२१६ | आचायं विन्नानभिश्षु
प्रलयकाल मे महदादि देवों की श्र्थत् ब्रह्मादिकों कौ उपाधि ही निरूढ होकर
बोजाभावापन्न होती है ईदवर की नहीं, वह तो शादवत है! उसमें स्व्तता का
निरतिशय रूप है 1 ईरवर का साक्षात् कोई लीला-प्रवतार नहीं होता । श्रवता-
रादितो विष्ण्वादि देवताग्रोंके होते दँ जो ईखवरको कृता से प्रयमतः सृष्ट हुए
है।२ ईडवर के प्रनेक शरीरादि श्रसम्भव ह । ईद्वर वैषम्य श्रौर नैुण्यसे परे
ह । ईदवर एडवयं ।साम्य तथा प्रतिशय की सम्भावनाग्रो से परे है वह ब्रह्माः
विष्णु श्रौर शंकर ्रादिकाभी गुरुहै। अ्न्तर्यामि विधि से वेदादिके हारा यहं
जञानदष्टि देनेवाला है । इसका नाम प्रणव या श्रोकार माना गया है । प्रत्येक
सृष्टि के पूवं में प्रधान कौ साम्यावस्था को संश्ुन्ध करते के कारण वहं सृष्टिकर्ता
भी कहा जा सकता है यद्यपि योग्ास्त्र के अरन्य "्याख्याताग्नों ने ईखवर को सृष्टि-
कर्ता नहीं माना है । श्रसम्म्रज्ञात की सिद्धि के लिये उसमें संयम करना मृल्यकल है
श्रौर जीवात्मा में संयम करना केवल श्ननुकल्प है 1
१. द्रष्टव्य, यो० वा० पु° ६८-६९
२. द्रष्टव्य, यो० बा० प° ७७
३. परमेक्वरे संयमो सस्प्र्ातपयन्तयोगे मोक्षे च मुख्यक्तत्पः आसन्नतर-
तासंपादनात्जवात्मकरसयमस्ु तत्रानुकल्प इति सिद्धम् -यो० सा०
स० प° ३२
~~ --
ण ऽ @> _ €> ५
प्रन सिद्धा
योगसाधनों के भ्रनुष्ठान करते समय पूरवेवतीं भूमिका का जय र्यात् सिद्धि
होने पर ही अरन्य भूमि की साधना को जाती है । एकं साघन सिद्ध होने पर उसके
वादके लिये वताये गए साघन का सम्पादन करना चाहिए । इस प्रकार प्रत्येक
साधन भलीभांति श्रभ्यस्त होने पर ही सिद्ध होता है । इसलिये समी भ्रवान्तर
साधन-जो कि सिद्धहो चुकते है--क्रमशः सिद्धिकारूप धारण करते हूं ।
# परन्तु उन सव सिद्ध साधनों के श्रथ मँ यहां पर सिद्धि ब्द का प्रयोग किया गया
# हो, एेसी बात नहीं है । इन सिद्धियों का तात्पर्यं उन शक्त्यां से है जो उन-उन
साधनों के सिद्ध होने से साधक कोप्राप्त होतीर्है। इन सिद्धियों से सावक को
ग्रलौकिक चमत्कार प्राप्त होते ह, असाधारण कार्यो के करने कौ राक्ति मिलती हे ।
सृक्ष्म, व्यवहित, विप्रकृष्ट, !तिरोहित या जन्मान्तर की सभी बातों के जानने की
श्रसामान्य सामथ्यं सुलभ होती है । यही शक्ति इन साधक योगियों का एडवयं या
विभूति या सिद्धिहै।) इन सिद्धयो की प्रा्ि योगजघर्मोतपति के द्वारा होती है 1
जैसे यज्ञादि करने से श्रपूर्वोत्पति के दारा स्वर्गादिफलं की सिद्धि होती है ।
ये श्रलौकिक चमत्कारपूणंसिद्धिथां योगसाधना के श्रतिरिक्त जन्मजात, श्रौष-
धिजन्य, मन्त्रकृत श्रौर तपः सुलभ भी होती ह । जैसे देवताभ्रों को जन्मजात अणि-
मादि की सिद्धि, श्रसुरों को श्रौषधिजन्य महाबलदालिता या सुवणनिरमित मन्त्रवेत्ता
लोगं को मन्त्रकृत आ्राकारागमन, विषनाशादि रौर तपोवललन्व मनोवाच्छित की
पूति प्रादि सिद्धियां प्रात होती है । परन्तु इन सव सिद्धियों में श्रौर समाधिजन्य
सिद्धियो मे अन्तर यह है किये सव एकदेशीय होती ह जवकि समाधिजसिद्धियां
सर्वाद्धीण भ्रौर सवतोमुखी होती द । सबसे महत्वपूं भेद यह होता है कि जन्मा-
दिजसिद्धियां विवेक दृष्टि के अ्रभावसे जीव को कर्मंबन्वनों म फंसाकर उसके
जीवन को भ्रन्ततः भोगासक् म्रौर दुःखमय करती है, किन्तु योगज सिद्धियो मे
† विवेकख्यातिलाभ का साध्य रूप भ्रकुशा रगा रहता है 1 रतः य एेश्वयं उस साधक
0
१, कितु त्वविषयसाक्षात्कारपयंन्तस्य संयमस्य विषयान्तरजञानादिरेव
' सिद्धतया कथ्यत इति मन्तव्यम् ।-यो० सा० स० प° तन
२, अन्यविषयकसंयमस्य परतिनियतान्यपदा यं्ञानादिकं योगजघमद्वारा भवति
यत्ञविशेषात् स्वगं विशेषवदिति --यो° सा० सं° पुर न्न
२९१७
2
२१८ | आचायं विज्ञानभिक्षु
को योगमागं परं श्रीर् भ्रधिक आरूढ करते हैँ जैसे अध्ययन करते समय प्राप्त होने
वाले पारितोषिक पदक छात्रवृति इत्यादि छात्र को श्रव्पयन के प्रति श्रधिक रुचि
उत्पन्न करते हँ । अरन्य सिद्धियों का प्राघारभरूत चित्त मोक्षपरा्त करने सें प्रसमं
रहता है जबकि समाधि ज एेखर्य से श्रनुहोत 'चित्त समाधिसंस्कृत हौ कर प्राल-
साक्षात्तार हारा साक्षान्मोक्ष-हेतु बनता है 1१
यद्यपि कैवल्य श्रादि योग की चरम श्रवाप्ति हँ फिर भी जिस श्रथं में सिद्धियों
का प्रयोग इस शास्त्र मे किया गथा है उसके श्रनुसार भ्राचायं विनज्ञानभिक्षु ने योगज
सिद्धियों को दो रूपों में बंटने का प्रयास किया है--
१--वहिरङद्धसाघनजन्य सिद्धियाँ
२--संयमजन्यसिद्धियां
इनमें दूसरे प्रकार की सिद्धिं भ्रनेक, श्रसख्य, उच्चकोटि की तथा प्रथम
प्रकार की सिद्धियां स्वल्प, हल्की भ्रौर द्वितीय प्रकार की सिद्धियों में ही प्रन्तर्भा-
वित हो जनेवाली प्रतः गौण है । कदाचित् इसी कारण से योगसारसंग्रह जैसे
संक्षिपप्रकरण में वहिरङ्ध साधनजन्यसिद्धियों का उल्लेख भी नहीं किया गया । २
योगवात्तिक में व्याख्या करते समय दोनों प्रकार कौ सिद्धियां गिनायौ गई हैं ।
यमनियमादिजन्य सिद्धियां १० प्रकारकीरहँ। वैसे हौ भ्रासन, प्राणायाम भ्नौर
प्रत्याहारो से भी रीतोष्णादिद्वन्धविजय, अ्रावरणक्षीणता शओ्रौर इन्द्रियों की परम-
वश्यता श्रादि सिद्धियां प्रप्त हो जाती हैँ 1
किन्तु उच्चकोटि की तथा श्रतिशय चमत्कृत करनेवाली सिद्धियां संयमजन्य १
ही होती है । सूत्र भ्रौर भाष्य के अ्नुसार° विन्ञानभिक्चु ने संयमजन्य इन सभी
सिद्धियों का वर्गीकरण करने का प्रयास क्रिया है । जिन-जिन विषयों पर संयम
१. व्यानसिद्ध चित्तमेवानातयं भवति योगेनैव ज्ञानोत्पत्या वासनोच्छेदसंभ-
वाद् न मन्त्रादिभिरित्य्थः !--यो० वा० पु० ३९९
समाधिसंस्छृतं चित्तमेवात्मसाक्षात्कारदारासाक्ान्मोक्षहेवुनं जन्मादिसिद्ध-
मिति ।-यो० सा० सं० पु० १०५
२. द्रष्टव्य, यो० सा० सं० पु० ८७
द्रष्टव्य, यो° सा० सं° प° ठठ
४. अत्र विषयभेदेन संयमानामनन्ताः सिद्धयः । तायु कियत्य एवसूुत्र-
भष्याम्यामुक्ताः !-यो० सा० सं पु० ८७
आचाय विज्ञानभिकषु के योगसिद्धान्त | २१९.
किया जायेगा उतने प्रकार की संयमसिद्धियां होगी श्रौर चकि विपयभेद से संयम
परसंख्य ग्रौर प्रनन्त हँ इसलिये सिद्धिथां भौ श्रसंख्य श्र श्रनन्त ह्ई' । इनके वर्गी-
करण का स्वल्प यह् है--
१--ग्रात्मसाक्षात्कारल्पा सिद्धि
२-- ग्राह्यसंयमजात-सिद्धियां
३-- ग्रहण संयमजात-सिदधियां
४--प्रदीतृसंयमजात-सिद्धियां
१-- प्रथम प्रकार कौ सिद्धि भोगदा में बौद्ध प्रत्यय से विविक्तं पुरुष
प्रत्यय में संयम करने से प्राप्त होती है ।१ भोगदजापन्न परार्थावुद्धि से श्रलग
स्वार्थपुरुष मे संयम करने से (दोनों के विवेकसाक्षात्तार पयंन्त) पुरुष का ज्ञान
| कूटस्थ, विभु, नित्य, शुद्धादि खूप से होता है ।* विवेकब्याति क पूं अ्रनिवायं भूत
भ्रात्मसक्षात्कार करने का इस संयम के अतिरिक्त श्रौर कोई उपाय नहीं है । इस
लिये सच्चे जिज्ञासुभ्रों को भ्रिमादि सिद्धिपरक अन्य संयमों को छोडकर यही
संयम करना चाहिये । श्राचायं भिश्चु का यह् स्वानुभवसिद्ध तथ्य है ।* इत संयम
के करने पर पुरुष ज्ञान की सूचक अरन्य प्रातिम-भावशादि सिद्ियां श्रापसे श्राप
प्राप्त हो जाती ह । ।
२--इसके पदात् सम्प्ज्ञातसमाधि के हतुभूत ग्राह्य, ग्रहण ग्रौर ग्रहीतृ
विषयक संयमो की सिद्धिं का वंन करगे । उत्तरोतरसृक्ष्मता के क्रम-नियम
होने से पहले ग्राह्यसंयमजात सिदधियां प्रत्त होती ६ । पाचों त हो ध
है । इनके स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, मरन्वय गौर अर्थवत्त्वं नामक पांच रूपा" म सयम
करने पर “भूतजयः नामक सिद्धि होती है । जिससे श्रणिमादि' का प्रादुर्भाव
“कायसम्भति' श्रौर “भूतधर्मानमिघात' ये तीन सिदियां फलित हती हँ 1
अनिम्न ०
पौरुषप्रत्यये -.---~--- इः यारायेन भोगो +
१. भोगमध्येबोद्धपत्ययविवेकेन त्यये संयमकर्तव्य इत्यायेन भोगो
ऽप्यत्रलक्षयते 1--यो० सा० सं° पु० ८९
२. तयोः भरत्ययोमध्ये संहत्यकारित्वात्परार्था यः सन्दा्याकार न
्रत्ययस्तस्माद्भेदेन स्वार्थे ज्ञानर्पे पुरषस्य प्रत्यये संयमात् =
विवेकसाक्षातकारपरयन्तात् पुरषनञानं दुटस्थविरुनित्यग्रुढयुक्त्वा
ततर ति
ऽऽत्मसाक्षात्ासो भवति । अखिलप्रप॑चातपुरुषस्य विवेक्तोऽचुभुयतं इ
| साचतत् {--यो० सा० सं° पु० ९०
॥ ३. द्रष्टव्य, यो० सा० सं° पु० ९१ यो° वा० पृ ३१९ 3
रूपाणि च सथूलस्वरूपसूहमान्वया्थवत्वसं्ानि -यो० सा
पु० ९४
२२० | आचायं विज्ञानभिक्षु
३--ग्यारह इन्द्रयां ही ग्रहण हैँ । इनमे भी ग्रहण, रूप, श्रस्मिता, श्रन्वय
नौर श्रथंवत्व नामक पिं रूपों में संयम करने पर “इन्द्रिय-जय' नामक सिद्धि
सुलभ होती है। जिससे मनोजवित्व, विकरणभाव श्रौर प्रकृतिजय नामक
सिद्ध्यां भी हासिल हो जाती दँ । इन्द्रियजयः से स्फुरित होनेवाली ये
। मनोजवित्व श्रादि तीनों सिद्ध्यां "मधुप्रतीका कहलःती हैँ ।२
४-- ग्रहीता कार्यकारण से विलक्षण है श्रतः उसमें रूप भेद नहीं है । इस
लिए पुरुषसामान्य मेँ उपाधि की सत्ता से भेद करके साक्षात्कारपर्यन्त संयम करने
से 'स्व॑भावाधिष्ठातृत्व श्नौर ससर्वजञत्व' सिद्ध होता है । इस सिद्धि को "विशोका"
भी कहते है । यही सार्वे्य विवेकज ज्ञान है । इसे तारक भो कहते हँ । प्रहीतृ-
संयमजन्य इन दोनों सिद्धियों से श्रतिरिक्त सवंसिद्धमूर्घन्य एक परमसिद्धि भी
परम्परया प्राप्न होती है । जिसे "कंवल्य' कते हैँ ।° सार्वज्ञयादि सिद्धयो मेमभी
भरलंप्रत्यय होने से परवैराग्य के माध्यम से ही कैवल्यनाम्नी परमसिद्धि होती है।
भ्रात्मसाक्षात्काररूपा सिद्धि श्नौर गदहीतृसंयमजात सिद्धि के भ्रन्तगंत भेद यह है
कि पटली सिद्धि में परारथप्रत्यय से भेद करके स्वाथे प्रत्यय में संयम करना पडता
है जव कि द्वितीय के लिए वुद्धिसत्तव से भिन्न पुरुष मे साक्षात् संयम करना पडता
है । पहली ्रवस्था भोगप्रधानद्ा मेँ संयम करने की है जवकि दूसरी उनके
अरस्तित्वविषयकसंयम की है ।५
प्रकृति सव परिणामसमथं है । इसलिए शरीर परिवतंन भ्रादि सिद्धियो को
| प्रापनि के लिए प्रकृति का प्रापुरण होता है । प्रकृतिकृत भ्रापूरण मे योगिसद्धुल
भ्नौर योगजधमं निमित्तमात्र होते है रौर श्रर्मादिप्रतिवन्धौं की निवृत्ति कर देते
॥ १. रूपाणि च ग्रहुणरूपास्मितान्वयार्थवत्वसंज्ञानि \-यो° सा० सं० पु
९७
| २. एतास्ति्लः सिद्रयो मधुप्रतीका उच्यन्ते ।--यो० भा० प° ३७५
| ३. एषा विज्ञोका नाम सिद्धिः !-यो० भा० पु° ३७७
| ४. तदिदं ग्रहीवृसंयमस्य सिदिद्वयमुक्त्वा सूत्रकारेण तस्यैवान्या सर्वसिद्ध-
| । मूर्धन्या परमासिद्धिरुदतास्ति स्त्रे राग्यादपि दोषबीजक्षये कंवल्यम्'
यो° सु° २।५ ०।)-यो° सा०संण पुऽ १०१
५. पूरवंपराथप्रत्ययाद्भेदेन स्वाथंप्रत्यये संयमस्य तत्साक्षाल्कौरप्न्तस्य
पुरुषसाक्षात्काररूपा सिदधिरक्ता । अत्र तु विवेकख्यातिप्रसङ्खः : इद्धिस-
त्वाद्भेदेन पुरुषे संयमस्य पुरुषसाक्षातकारपयंन्तस्य सार्व्ञयादिसिदि-
रुच्यते इति भेदः 1--यो° सा० सं० पु° १००--१०१ ५
आचायं विज्ञानभिक्षु के योगसिद्धान्त | २२१
है । उसके वाद प्रकृति स्वतः तदनुकूल प्रसृत हो जाती है 1 संकल्प श्रौर योग-
| जघरम श्रवर्मादि-दूरीकर्णरूप निमित बनते हैँ । प्रकृति के प्रेरक या प्रयोजक
# नहीं वनते । श्रत प्रकृति की स्वतन्त्रता में. कोई वाधा नहीं पड़ती ।
कैवल्य श्रौर श्रात्मसाक्षात्तार को छोड कर ये सभो सिद्धिां सांसारिक
चमत्कार, राग, देष श्रौर प्रभावप्रदर्ान श्रादि पर श्राधारित ह । इसलिए
व्युत्थित चित्तवाले वहिर्मुख प्रवृ्तिपरायण प्राशियों कौ दृष्टि से ही इन्दं सिद्धि
या विभूति या रेश्वयं कहा जाता है एतज्जन्यविषयभोगादि से तो समाविका
श्रश ही सम्भव होगा । ग्रतः समाविसाधन की दृष्टि सेतो ये विक्षेप, विघ्न
या श्रन्तराय-स्वरूप ही ई 1१ इसलिए श्रात्मजिज्ञासुप्रों को इनको कामनान
करनी चाहिए यदि श्रकामतःये प्राप्त भीटो जायें तो इनकी उपेक्षा ही करनी
चादिए । प्रस्न यह् उठता है कि इतनी त्याज्य वस्त्रो का फिर उल्लेख ही योग-
जास््रकाों ने क्यों क्रिया ? इसका उतर देते हए विज्ञानभिष्षु कहते ह कि
। साधक मनुष्य ही तो ह । इसलिए ज्ञान के प्रतिवन्यक तृष्णादि की शान्ति के
लिए श्रौर तत्तत्संयम की पूरणंता की सूचना प्रास करने के लिए तथा मुमृष्ुमरो
| के लिए हेय वस्तुभ्रों का प्रतिपादन करते के लिए ही ये सविवरण बताई
गई है 1
~
~~
१. द्रष्टव्य, यो० सा० सं° पु० ९२ न
२. सिद्धिकामानां ज्ानादि-परत्तिबन्धकतवृष्एोपशमाय ~
। धारणाय च, तथा मुमुक्षूणां हेयत्वप्रतिपादनाय !
_-यो० सा० सं०पु° ९७
। ` रि््तङ्धङ्धस् ५ ह
कंठल्य-मीमांसां
पुरूष कौ ्रात्यन्तिक स्वरूपावस्थिति ही केवल्य है । श्रौपाधिक रूप की शाश्व-
तिक निवृत्ति म्र्थात् पुरुषस्वरूप की भ्रात्यन्तिक निरुपाधिता ही कंवल्य है ।१ पुरुष
की केवलता या एकाकिता ही कंवत्य है । स्वादि गुणत्रय ही उपावि हैँ । इनसे
भ्ररञ्जित रहना ही केवलता की दशा है । यही कैवल्य या मोक्ष या श्रपवर्गे नाम
से प्रसिद्ध है । सत्त्वादिगुणरूप उपाधियों से पुरुष इस दला मेँ श्रतयन्त वियुक्त रहता
है ।* सतत्वादिरूप उपाधियों का मूल श्रभिव्यक्त रूप चित्त है । चित्तावच्छिन्त्व की
सी स्थिति पुरुष का भोध या पुरुष का संसार या उसका प्रकरवल्य है । यह् चित्त-
रूप उपाधि श्रसम्भरज्ञातयोग को सिद्धि होने पर श्रवसिताधिकार होकर प्रारब्ध
कर्मोके श्राय प्रौर उसकी वासनाभ्रों के ग्रवरिष्ट संस्कारों तथा निरोध
संस्कारो के साथ श्रपने कारणभूतग्नवयक्त-प्रकृति मे लीन हो जाता है।२ पुरुष-
स्वरूप तदुपाध्यनवच्छिन्न पर्थात् स्वेथा निरुपाधि हो जाता है । पौराणिक-
भाषा में श्राचायं विज्ञानभिक्षु इस ददा का वंन इस प्रकार करते हैँ कि यहजो
चित्त को महानिद्रा है यही पुरुष के दुःखात्मक भ्रखिलदुर्यों का भ्रात्यन्तिक वियोग
दै । उसका कैवल्य है । केवत्य दशा मेँ यद्यपि उस पुरुष के सत्त्वादिगुणएत्रय उससे
मरत्यन्त वियुक्त हो जाते हँ तथापि वे नष्ट नहीं होते, भ्रन्य संसारी पुरुषों के लिये
उनक्रौ उपाधिरूपेण पुर्णाभिन्यक्त उपस्थिति बनी रहती है । यद्यपि यह् वियोग भोग-
कालम भी रहता है, तथापि श्रविदया के कारण उस काल में पुरुष भ्रौर उपाधि का
संयोग प्रतीत होता रहता है । कैवल्य दशा मेँ एक प्रकार से उपायि रूप गुणों की
स
९* वृत्यात्मकढुःखाभावः पुरुषार्थः । - यो० वा० पु० १८
स्वरूपावस्थितिश्चोपाधिकरूपनिवृत्तः ।-यो° सा० सं०
९ तस्मात्पुरुषात्यन्तवियोग इति यावत्, न तु नाः
पु० १०८
३. ततश््चरिताधिकारं चित्तमप्रारन्धक्मणानिरोधसंस्का रश्च सह स्वकार-
खन्त्यन्त लीयते । या चेयं चित्तस्य महानिद्रा, इयमेव पुरुषस्य
कंवल्यम् ।--यो० सा० सं पु०३५
चिरेन सहवृत्तीनामात्यन्तिकनिरोघं सत्यात्यन्तिकं स्वरूपावस्थानं-
मोक्षास्यमिति ।-यो० वा० पु० १९
२२२
पु०२
। यो० सा० सं
आचायं विज्ञानभिकषु के योगसिद्धान्त | २२३
भा केवलता हो जाती दै श्रौर एक सिक्के के दो पहलुप्नं की भाति दूसरी तरह से
पुरुष का भौ कैवल्य कहा जाता है । वात एक ही है 19
कैवल्य की स्थिति स्पष्ट करते हुये विज्ञानभिक्ष ने ग्रन्य दर्शनों के द्वारा निर्वा
पित कंवल्व-स्वलूप का तुलनात्मक समन्वय भी किया है ग्रौर बताया है कि सांख्यः
ददान मेंभी त्रिविधतापों की श्रात्यन्तिक निवृत्तिं ही कैवल्य है ।२ वेदान्तियों के
सिद्धान्त मेँ भी परमात्मा मेँ जीवात्मा कालयहीमोक्षहै।* इसमतसे हमारे
मत का प्रविरोध इसलिये है कि जीवों की उपाधियोंका लय हो गया ग्रौर जीव
शुद्ध परमात्मा हो गया । लय होना जीव का परमात्मा में प्रविभक्त रूप से होना
हीतोदहै। यह् ्रात्माकी शुद्ध स्वल्प मेंस्थितिदही हई । वैशेषिक्तोंने सभी
विशेष गुणों के उच्छैद को मोक्ष माना दै ।* यह् सिद्धान्त भी हमारा ही है । विशेष
गुणो काही तो नाम उपाधि है । नैयायिको ने तो बिल्कुल वही पदावलि भी प्रयुक्त
कीरै कि भ्रात्यन्तिकी दुःखनिवृत्ति ही मोक्ष है ।* नवीनवेदातितन्रूवोंने जो मोक्षमें
परमानन्द की मान्यता की है, यह् ग्रलवत्ता हमें श्रमान्य है । क्योकि ब्रह्ममीमांसादि
सभी दशनो में इस प्रकारका कोईसूव्रही नहीं है । -साथ ही यह कल्पना श्रुति
स्मृति श्रौर सभी युक्तियों के विरुढ है । प्रत्युत मोक्ष में सुख की प्रतिवेवक श्र तियां
तथा स्मृतिर्या उपलब्ध होती है ।९ ब्रह्मलोक मे जो भ्रानन्द पुराणो में बताया
१. उभयपक्षेऽपि पुरुषस्य दुःखभोगनिवृकत्तिरूपपुरुषार्थ पर्यवसानं भवति 1
-यो सा० सण पु० १०८
२. त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषायः ।-सां° सु° १।१
३. वेदान्तिनस्तु “परमात्मनो जीवात्मलयो मोक्ष : ।'--यो० सा० सं०
पु० १०८
४. वेशेषिकास्तु अशेषविशेषगुणोच्छेदो मोक्षः इत्याहुः 1--यो० सा० सं°
पु० १०९ |
५. नैयायिकास्त्वात्यन्तिकीदुःखनिवत्तिमेक्षि इतीच्छति ।--यो० सा° सं°
५
६. यत्त नवीना वेदान्तित्र् बा नित्यानन्दावाप्तिं परममोक्षं कल्पयन्ति तदेव
च वयं न भृष्यामहे । भरुतयः-- विद्वान् हषशोकौ जहाति ।--क्ठे°
| न १२
अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पशत }
--छा० ८ १२७ १
ति :-- परमात्मनि संलीनो विद्याकमवलान्तरः
५ न सुतेन न दुःखेन कदाचिदपि युज्यते 1-यो० सा०
सं° पु० ११०
णण
२२४ | आचाय विज्ञानभिक्षु
गया है वह् मुख्यतः मोक्ष की दशा ही नदीं हैः वह तो गौरमोक्ष है, सच्चा मोक्ष
नहीं 1१
विज्ञानभिष्षु नै कंवल्य कोही परम मुक्ति वतायादहै। विवेकख्याति या शुद्ध
तच्वज्ञान से जीवस्मृक्ति होती है । जीवन्मुक्ति की दशा में व्लेशों का दश्बरूपत्व तो
हो जाता है किन्तु प्रारन्व कर्म के ग्रनूसार भोग ॒टोते रहते है । क्रियमाणकर्मो का
विपाक नदीं होता न तो कर्माशय ही संचित होता हे। क्योफिं ये कमं अ्रशुक्ला-
कृष्ण होते ह ।२, वासनाएटं भी दग्वबौजभावापन्न हो जाती हैँ । जीवन्मुक्ति की दशा
का भोग वस्तुतः भोगाभास हीदै। शांकर वैदान्तियों ने जीवन्मुक्ति कौ दशामे जो
क्लेशवृत्ति मानी है वह विज्ञानभिक्षु की दुष्टि में नितान्त भ्रामक मत श्रवा घोर
श्रपसिद्धान्त है । ९ धर्ममेवसमाधि की ही स्थिति जीवन्मुक्ति है । यह दशा साधक
की कर्तव्यसमाति या कायंमुक्ति है 1* धर्मसमाधि में स्थित साधक जीवन्मुक्त कह-
लाता है ।* पञ्चरिखाचाय-निदिष्ट श्राय तथा दवितीय दोनों मोक्ष इसी जीवन्मुक्ति
की स्थिति में अरन्तभूत है ।£ इस क्रम में केवल तृतीय या मुख्य मोक्ष टै ।* ततत्वस-
मास मेँ गिनाए गए तीनों प्रकारके मोक्षो को श्राचायं विज्ञानभि्ु ने श्रपनी जीव-
मुक्ति श्रौर कंवल्य नामक मोक्षावस्था मे ग्रन्तर्भावित करके प्रस्तुत किया है 1
मोक्ष के दो रूप स्वीकार करने पर भी विज्ञानभिक्ु कौ दृष्टि में कैवल्य ही परम-
मुक्ति है, मुख्य मोक्ष है, क्योकि इसी दशा में चित्तरूपी उपाधि की श्रात्यन्तिक
निवृत्ति होती है । इसी स्थिति मे उपाधि से प्रतिबिम्बित दुःखादि की एकान्तिक
तथा भ्रात्यन्तिक निवृति होती है 1
१. आनन्दावाप्तस्तु गौणो मोक्षो ब्रह्मलोके भवतीति दिक् !-यो० सा०
सं० पु° ११२
२. कर्माडुक्लाङ्ष्णं योगिनस्तरिविघमितरेषाम् !--यो० सु° ४।७
३. जीवन्मुक्तस्य सवासनव्लेशात्यन्तदाहनिरणंवाद् आधुनिकवेदान्तिनाम-
विघाक्लेशस्वीकारोऽविच्यामुलक एवेति स्मत्त व्यस् \--यो०वा०पु०४४७
४, पुंसा कारयमुवितः कार्यदविुद्तिः कतंन्यसमाप्तिः जीवन्मुदितिरित्यर्थः 1
-यो० वा० प° २३९
५. अस्यामेवास्थायां जीवन्मुक्त इत्युच्यते \--यों० सा० सं० पु० २८
६. आद्यस्तु मोक्षो ज्ञानेनेति, अयमपि मोक्षःपंचशिखाचारयेरक्तों द्वितीयो
रागक्षयादिति' !--यो० वा० पुं० ४४१, ४४६
७. इयमपि तृतीया मुदितः पंचलिखाचारयैरक्तो कर्मक्षयात् तृतीयं व्याख्यातं
२ सोक्षलक्षणम् ।--यो० वा० पुर ४४९
आचायं विज्ञानभिक्ु के योगसिद्धान्त ¦! २२५
कैवत्य का साक्षात् हेतु क्या है ? तत्वज्ञान ग्रथवा श्रसम्ब्र्ञात योग । इसका
विधिषत् समाधान इस प्रकार से । किया गय। है कि तत्तव्ञान या विवेकख्याति या
भ्रात्मसाक्षात्कतार से जीवन्मुक्ति दशा अ्राती है किन्तु प्रारन्धकर्मो का क्षय इस दशा
न नदीं होता । या तो जीवन्मुक्ति दशा में प्रारव्व कर्मो का ग्ररेष भोग करके
कर्मो काक्षय होता है, श्रथवा सम्परजञात योग केद्वारा प्रारन्ब कर्मो काना
होता है । इस प्रकार से प्रारव्व कर्मो का क्षय जीवन्मुक्तिगत मोग या परवैराग्य-
सस्पादित-गरसम्प्रजञात योग से सम्भव दै । पहली श्रवस्या मं प्रारव्य कर्मक्षय दानः
शनैः होता है, श्रौर दूरौ दशा में प्रारज्कमेक्षय स्वेच्छा से श्रागुतर सम्भा होत 1
है ।२ इसीलिए (नास्ति योगसमं वलम्' की स्मृति है । परन्तु जीवन्मुक्तावस्या या
परवैराग्जन्यासम्प्रज्ञातवस्था दोनों हौ स्थितियां तत्त्वज्ञान के वाद टी सम्भव दहं।
इस प्रकार तत्त्वज्ञान को ही मोक्ष का या कैवल्य का मूलभूत कार्ण समना
चाहिये । जीवन्मुक्ति के लिए तत्वज्ञान साक्षाक्तर्ण है । विदेहमुक्तिं के लिये तत्त्व-
ज्ञान के वाद प्रारव्यकर्मभोग हो जाना एक श्रनिवारयं श्रवान्तरप्रसङ्ख स्वीकार करना
पडता है ।
पर विचारणीय बात तो यह है कि क्या तत्वज्ञान स्वतः उत्पन्न हो जाता है
या उसके लिये भी सावना करनी पडती है । विज्ञानभिश्चु का सिद्धान्त है कि सम्प्र-
ज्ञात योग से शुद्ध भ्रात्मविवेक या तत्त्वज्ञानं होता है जिसके पञ्चात् ऊपर बतायी
गई दोसे से किसी रीतिसे मी कैवल्य प्राप्त किया जा सकता दहै) श्रे ष्ठमागं तो
श्रसम्प्ज्ञात के द्वारा शीघ्रतर कैवल्य लाभकरनेकाहीरहै। इसप्रकार से सम्प्रज्नात
योग भी परम्परया कंवल्य का कारण हन्ना जव कि श्रसम्परज्ञातं योग कंवल्य का
साक्षात् दतु रै । सम्भरज्ञात योगको तत्त्वज्ञानोतत्ति का कारणंन माननेवाले
दार्शनिक भी तत्त्वज्ञान के लिये श्रवणः मनन श्नौर निदिव्यासन कौ परम्परा स्वीकारः
करते ही ह । यह निदि्यासन विज्ञानभिक्चु के मत में संक्षि सम्भज्ञात ही है 13
दस प्रकार से कंवल्य लाभ के लिए कारणपरम्परा का सूत्र विज्ञानरभिष्चु के मत
~ यहे होगा किं सम्प्ज्ञात योग से तत्त्वज्ञान की प्राति श्रौर उससे परवैराग्य दारा
्रसम्भर्ञात योग की सिद्धि ग्नौर तब तज्जन्य कवल्य या परममुक्ति का लाभ होता है ।
१. इयं जोवन्मुक्तावस्या--तथिवृत्तो पुनजंन्मकारणाभावात्पर्वः पुनरिदं
-खं न भुडयते इति परमसुच्तिरिति ।(--यो० सा० सं० ५४-५५
२. असम्प्र्ञतयोगस्तु अरिवलवासनाक्षयेर प्रारन्वातिक्रमद्वाराफटिति-
स्वेच्छामोक्ष एव उपयुज्यते न तु नियमेन ति प्रागेवोक्तम् \--यो०
सा० सं० पृ०. ३०
३. अतः केवलज्ञानेन सोपि जनयितन्येऽभिमाननिवर्तकात्यन्तसाक्ात्कारपर्यन्त
एवसस्प्रत्तातोपेक्ष्यते, ल तु वृत्यन्तरवासनाक्षया्थं पुनःसम्भज्ञातपरस्प-
रापि !-यो० सा० सं° प° ३६
फा०--१५
@> र
स्गह-विचचार
कुछ एसे भी विषय हँ जिनके दार्शनिक महत्व की स्वतल्पता के कारण श्रौर
मोक्ष-मागं मे श्रनुपादेयता के कारण श्राचायं विज्ञानभिश्ु ने योगसार-सुगरह के
्रन्तिमर भाग मेँ उनकी हल्की चर्चा करके ही संतोष कर लिया है । उनमें स्फोट.
विचार श्रौर क्षण-मीमांसा श्रपेक्षकरृत महत्तवराली प्रतीत होते है । इन विषयों प्र
उनके संक्विप्त तथा स्फुट विचारों का संकलन हम इस प्रकार कर सक्ते है--
स्फोट
शब्द तीन प्रकार के होते है--१--वागिन्द्रियविषयक २-करं न्द्ियविषयक
भ्रोर ३-युद्धिमात्रविषयक । पहले प्रकार का शब्द उच्चारणस्थानावच्छित्नव।री
से उत्मन होनेवाला होता है । यहं केवल वणंरूप होता है 1१ दुसरे प्रकारका
शब्द वह है जो पहले प्रकार के शाब्द से उत्पन्न होता हुभ्रा कान में स्थित होता
है । यह केवल शब्दन शब्द है । तीसरे प्रकार का शब्द घटादि पद है जो सदा वुद्धि
म स्थित रहते ह । य बदधिस्य-पद ही स्फोट कहलाते हँ वयोकि श्रथं का स्फुयीकरण
इ 1 से होता है । रयात् यदी शब्द वाचक कहलाते हँ । ये वर्णो तथा शब्दज
्दोसेभिन्न ह 1२ स्फोट रूपम सदैव बद्धस्य रहनेवाले ये शब्द श्रनुपर्वी
विशिष्टता से अ्रविच्छित अरन्या प्रत्यय केद्वारा व्यंजित होते हैँ श्रौर भ्रात
कराते है । स्फोट न तो उच्चारित हो सक्तारहै श्रौर न कानों से सुनाजा
सकता है ।
स्फोट की प्रामाणिकता
प्रामाशिकता 0 0 को नहीं स्वीकार किया जाता ।० श्रतः उसकी
ल ल (शतिधा कहना है कि स्फोट न मानने से
१ 9 वागिन्दियजन्यः हाड ५
।- यो 24 ४ न तु भगद्खादिशन्दो नापि वाचकं पदमि-
" तद्धि पदं वागिन्द्योच्चायभरयेक
पृण ६ ज्वाणपतयकव्ोभ्योऽतिरिक्तम् ।--यो० सा० सं”
३ अत एव स्फोटः क्न
५
रतत चे होतु न शक्यते ।!-यो० सा० सं° पु० ६९
न स्फोटात्मकः शब्दः" सांख्यसुत्रम् ५।५७
२२६
~=
। _ययन्यके
आचाय विन्नानभिक्षु के योगसिद्धान्त | २२७
केवल श्रन्त्य वणं के द्वारा प्रत्यायन मानना पडेगा जो किं पूरे शव्द का केवल एक
भ्रवयव है । इस प्रकार श्रवयवी की मान्यता का उच्छेद हो जायगा । जवकि वृक्ष
रूपी श्रवयवों से वन श्रादि भ्रवयवी का ज्ञान होना सभौ पूवपक्षी स्वीकार करते हैँ
तो स्फोट मानने में क्यों भिभकते है ।
२-जैमे परमारणु श्रौर उनके संयोगो के श्रतीन्दरिय होने के कारण तद्रूप
भ्रवयवी कौ प्रतयक्षानुपपत्ति श्रादि से ्रवयवी की.सिद्धि मानो जाती दह । वैसेही
स्फोट के विषय मेँ भी समभना चाहिये ।
३--प्रौर सवसे महत्वपूरण प्रमाण स्फोट के पक्ष मेँ श्रूतिहै। इसलिये यदि
प्रवल लौकिक प्रमाणका श्रभावभी होतो भी कोई हानि नहींहै। श्रूतिका
कहना है कि प्रणव में चतुथं मात्रा है।१ वह् चौथी मात्रा वणं-त्रय के भ्रतिरिक्त
स्फोटहीदहो सकती है भ्रौर कुच नहीं । स्मृतियों मे उसे ही श्रद्धेमात्रार कहा
गया है ।
इस प्रकार से जैसे भअ्रवयवों से भिन्न श्रवयवी सिद्ध होता हैवैसेहीवर्णोसे
परतिरिक्त पद होता है जो फ सदा वुद्धिस्य रहता है श्रौर ्रानुपूर्वी विशेषविरिष्टा-
न्त्यवरंप्रत्यय से व्यंजित होकर रथं का वाचक बनता है एसे ही पद-स्फोट की
भाति वाक्य-स्फोटर भी मान लेना चाहिये क्योकि एेसा मानने में भी कोई वाघा
तहीं हो सकती ।
काल ्षण के रूपमे ही रहता है
काल के विषय स न्यायवशेषिकों का सिद्धान्त है कि भ्नात्मा की ही भांति काल
भी ्रखण्ड श्रौर नित्य है तथा मुहूतं दिन भ्मौर रात्रि श्रादि उपाधियों से भ्रवच्छित्न
काल से लोक-व्यवहार चलता ह इसलिये क्षण नामक कोई पृथक् पदाथं वस्तुतः
(५ प्रणवस्याकारोकारमकाररूपमातरात्रयं ब्रह्मादिदेवतात्रयात्मक्मुक्त्वा
प्रणवदेवतात्रयातिरिक्तपरब्रह्यात्मकचतुथेमात्रा श्र्.तय आमनन्ति । साच
चतुर्थीमात्राव णं त्रयादिरिक्तः स्फोट एव सम्भवति ।--यो० सा० सं°
पु० ११६
२. अधंमात्रास्थितानित्या याश्ुच्चार्या विशेषतः ।--इति यो० सा० सं°
पु०१ १७ र
३. नन्वेवं वाक्यमपि स्फोटः स्यादिति चेत्, बाघकाभावे सतीष्यतामिति ।
_ यो० सा० सं० पु० ७१, द्रष्टव्य, यो° वा० पु० ३२५
२२८ | आचार्यं विज्ञानभिक्षु
स्थित नहीं है ।† इन लोगों के प्रतिकूल सांख्यश्चास्तियो की मान्यता हैर किन तो
कोई काल नाम का पदाथं सत् है अआौरनदही क्षण नामक पदार्थं सत् है श्रपितु
राका ही भिन्न उपाधियों से विरिष्ट हो कर कभी क्षण कहलाता हि; श्रौर कभी
महाकाल । भ्राचायं विज्ञानभिक्ु ने योग-सिद्धान्त के साथ ग्रपने मन्तव्य का तादा-
त्म्य करते हुए ऊपर के दोनों मतों को भ्रान्त कटा है 1
त्तशसिद्धि में प्रमाण
विज्ञानभिष्चु की दुष्टि में एेसी कोई स्थिर उपाधि दही सम्भव नहीं है जिसके
दवारा महाकाल श्रथवा च्राकालसे क्षण की उत्पत्ति संभव हो 1 परमाण्वादि,
उत्तर देश संयोग श्रौर क्रिया इन तीनों स्थिर वस्तुग्रों से भिन्न यदि कोई पदार्थं है
तो बही हम लोगों के दारा क्षण नामक पदाथं कहा जाता है । क्योकि यह विशेषण
न होकर केवल विरिष्ट ही तोहै।५ वहन ठो श्राकाश टै श्रौर न महाकाल क्योकि
इसे उपाधि मानकर तदवच्छिन्न महाकाल मानने मे व्यर्थं कल्पना-गौरव है । वह्
्रस्थिर विशिष्ट वस्तु प्रकृति का भ्रतिभंगुर परिणाम-विशेष है। उसक्षणके
श्रवयवों के विरिष्टप्रचयों को ही मुहूर्तं, दिन, रात, मास, वषं श्रादि कटा जाता
है।*४ श्रत्यों मेँ जो काल को कटी-कहीं नित्य कठा गया है वह क्षणो की
्रवाह्-रूपी परिणामिनित्यता की दृष्टि से हौ कहा गया है; कूटस्य नित्यरूप से
नहीं । इसलिये काल क्षणात्मक हौ सिद्ध होता है, श्रखण्ड महाकाल नहीं ।
१. न पुनः क्षणनामायुथक्यपदार्थोऽस्त इति !-यो° सा० सं° प° १२३
२. दिक्कालावाकाशादिभ्यः।-सां० सु° २।१२
३. तदेतन्मतद्वयमपि असमञ्जसम् । स्थिरेरौनाप्युपाधिना महाकालाका-
काम्यां क्षरव्यवहारस्परासंभवात् 1-यो० सा० सं० पु० १२३
४. चयदि च तत्तेभ्योऽतिरिक्तमिष्यते तर्हि तस्य विशिष्टसंञामात्रम् ।
तदेव चास्माभिः सर्वेभ्यः स्थिरपदार्थेभ्योऽतिरिक्तः। क्षणाख्यः काल
इष्यते !-यो० सा० सं° पु० १२४
४. तस्येव च क्षणस्याकयवविरोषेमुहूर्ताहोरात्रादिद्धिपराधीन्तव्यवहारो
भवति 1....इदानौमचच त्यादिक्षणब्यवहारारणां क्षणभ्रचयेनैबोपपत्त : ।
-यो० सा०सं° पु ७४
६. कालनित्यता श्रुतिस्मृतयस्तु प्रवाहनित्यतापरा इति (-यो० सा० सं°
पुऽ १२४
तृतीय वटल
स्थान-निधौरण
रघ्याय १
आचाय विज्ञानभिु के दशन की तुलनारमक समीक्ता
ग्ट
समन्तय-समीक्षा
विज्ञानमिष्ठ का समन्वयवाद सांख्य, योग॒ श्रौर वेदान्त का नसिंहावतार नही
1 न सांख्य कटा जा सके श्रौर न योग श्रयवा वेदान्त ।
ह तीनों दशनो के अ्रलग-प्रलगं श्रस्तित्व को भी सूर्ततव प्रदान करने कौ
वास्तविकं क्षमता रखता है । उनके सिद्धान्तो के श्रनुखार सांख्य शास्त्र की भी
पूरी व्याख्या हो जाती है, योग का भी समग्र स्वरूप सामने श्राता है ग्रौर वेदान्त
की भी निविचिकित्सित श्राति दृष्टिगोचर होती है। उनका समन्वित दर्शन
एक एेसा वीज-पन््र है जिसने आस्तिक दर्शनों के अरविरोव का यथाथ श्रौर
्रनिवायं पाठ पाया है । इसके पूवं श्रनक दार्शनिकों की ब्रहम्मन्यता श्रौर परषक्ष-
नि्जयाभियान ने दर्शनों को तर्को का श्रलाड़ा वना रखा था । भ्रधिकांश॒दाशेनिक
केवल एकमत को चाहे वह सांख्य हो श्रथवा मीमांसा श्रथवा वेदान्त ॒या फिर
ञ्नन्य कोई शास्त्र ्रौर वह् भी भ्रपने ठंग से व्याख्यात मत को ही समीचीन बताते
नौर तदतिरिक्त मतो का तदतिरिक्तशास्तरों तक का विधिवत् खण्डन करते थे । इस
प्रक्रिया के कारण जनमानस मे प्रणाद होते हए म्रनाख्वास पर विन्ञानभिष्षु के
पूर्वं भी करई दाशेनिकों ने दृष्टिपात किया था ।
्नाचायं वाचस्पति मिध ने भी इसी एकीकरण की प्राथमिक पृष्ठभूमि बनाई
थी । उन्होने भी इसीलिए न्याय, मीमांसा, सांख्य, योग श्रौर वेदान्त पर टीकां
लिखीं रौर इन श्रास्तिक दर्शनों कौ तत्त्वज्ञान गरिमा का भव्य प्रतिविम्बन
किया । किन्तु इन सभी दर्शनों कै पारस्परिक भेदभाव कोवेकमकरनेका
किञ्चित् भी प्रयास नहीं कर सके । प्रत्युत ्रव्येक दर्होन के व्याख्यान करते समय
्नन्य दर्शनों का खण्डन करने मँ निरन्तर दत्तचित रहै 1 फल यह् हरा कि इस
भेदवाद की खाई श्रौर गहरी हो गई । डा° हसरकर के मतानुसार यदि इन दर्शनों
की श्रान्तरिकं एकता करो स्वीकार करते हृए वाचस्पति मिश्र ने इन्हें भारतीय
चिन्तनधारा के विभिन्न स्तयो का प्रतिनिधि समा हो तो भी इनके बीच
सामंजस्य की पटरी विच्ठाने मे वाचस्पति मिश्च श्रसम्थं ही रहै । उन्दोने जिस
ददन की व्याख्या लिखी है, कहा जाता है कि वहां उन्दने श्रपने सिद्धान्तो का
रक्तप न करके उसी सिद्धान्त का सच्चा रूप प्रस्तुत किया हे ।
यह् कथन ठीक है किन्तु इससे उन श्रास्तिक दर्शनों की उपयोगिता प्रकारित
करने का श्रेय भल मिले, समन्वय कायं में कृतकृत्यता नहीं मिल पाई । सच बात
२३१
।
२३२ | आचाय विज्ञानभिक्षु
तो यह् है कि वाचस्पति मिश्र प्रन्म सभी श्रास्तिक दानो ¢ ( श्रदरौत वेदान्तकी
तुलना में हतक स्तर का ग्रौर प्रारम्भिक सोपानगत मानते टं । _ जबकि निज्ञान-
भिक्ष की ष्टि मे सांख्ययोगवेदान्त तीनो एक विराट् १ क भिन्न-भिन्न श्र
की प्रधानताग्रों के प्रकाशक ह 1 दोनों व्यक्तियों की ज्ञैली श्रौर रस्चिमें यही
मौलिक्र-भेद है 1 वस्तुतः वाचस्थति मिश्र एकान्वयवादी वेदान्ती ह, जवकि विज्ञान-
भिश्चु सच्चे समन्वयवादी, सांख्याचायं, योगी श्रौर श्रद्रौ तवेदान्ती सब कछ एक
साथ है । यद्यपि वाचस्पति मिश्च केलिए सभी श्रास्तिकदर्शनों की ्रप्रतिम उषा-
देयता श्नौर श्रविरोधिता है तथपि ्रद्र तवेदान्त ही उनकी दृष्ट मे पूणं दर्शन है,
सांख्य योगादि दशनो का महत्व केवल सोपान ल्प का है। जव कि वि्ञानभिक्ष
सभी प्ास्तिक दर्तों मे ध्रविरोध श्रौर समन्वय देखते रै । सांख्य, याग श्रौर
वेदान्त तीनों को वे पारमाथिक भूमि पर बरावर महृत्वपूरं मानते ह । ये तीनो
दशन समवेत रूप से पूरणा दशन हँ 1 इन सभी दर्शनों का प्रधान प्रतिपाद्य प्रलग-
श्रलग है । इस प्रकार इन दर्लनों का क्षे ही श्रलग-प्रलग है। संक्षेप में यह्
कहा जाता सकता कि वाचस्पति मिश्च समन्वय की भ्रोर भ्रस्पष्ट संकेत मात्र
करते ह जवकि विज्ञानभिष्चु का साक्षात् सं देश ही समन्वय हे ।
उनके ईषत्परवर्ती मधुसूदन सरस्वती भी श्रास्तिक दर्शनों के इस श्रविरोध को
प्रकट करते हैर किन्तु उनकी समन्वयवादिता भी वाचस्पति मिश्रकीदहीकोटिकी
है जिनमें श्रद्ं तवेदान्त प्रवान तथा ग्न्य दर्शन गौर श्रौर वैचारिक सोषान के खूप
मे ही प्रतिष्ठित कि गये है । विन्ञानभिश्चु का समन्वय स्फुट ग्रीर व्यापक है।
साख्य श्नौर योग के श्रभेद का प्रतिपादन तो स्मृतिग्रन्थ श्रौर महाभारत ्रादि ने
पहले से मान रखा था किन्तु वेदान्त का समन्वय साख्य श्रौर योग के साथ स्पष्ट
खूप मेँ कभी नहीं किया गया था । वेदान्तशाला के विद्वानों ने यद्यपि पातज्जल
योग से श्रष्टङ्ख मागं को साधनचतुष्टय की विवक्षा मे भ्ङ्गीकृत कर लिया था
विन्तु पारमाथिक सिद्धान्तं की दृष्टि से वेदान्त श्नौर योग को एक धरातल पर
देखने का किसी ने प्रयास नहीं किया था । इस प्रकार तीनों दशंनों के वीच समन्वय
की प्रतिष्ठा करने का श्रेय निस्संदेह विज्ञानभिष्चु को प्रसहे ।
१. /261125704॥1 ऽत्लााऽ 0 701 पातौ 7 15 €€8 "16 01066
38165 ० एकाक एोपराज्गृा$ 2८ गालः वा्टिष्ला 512९8 9
1700789 रपः हुप्व्वप्ताक €स्णणंण्हु+, पल्ण्लनगणड 2४
00211 (प फ्ाप्पपहु 70 € ऽप०प्ह ०१०७ 211 ©070016110081५९
01050 ग &^१५३९ ४८०२११६.
२/2004808त 1150072. 0 १९२०९0०8
छ 707. 9. 8. प्रप्य 2. 148.
२. द्रष्टव्य, महिम्नः- स्तोत्र कौ मधसुदनी टीका, ० २२
आचार्यं विज्ञानभिशनु के द्वन की तुलनात्मक ससीक्षा | २२२३
किन्तु इस तथ्य से 'यह् वारणा नहीं वना लेनी चाहिये कि विज्ञानभिक्षु ने
एक विल्करुल नई रौर परम्पराविहीन दि्ा का उद्धाटन क्रिया है । इस समन्वय के
मूल भँ पुराणों का विपुल कलेवर स्वयं सक्रिय है । पुराणों मेँ सभी श्रास्तिक
दर्शनों के चिन्तन का मिश्रण उपस्थित है साख्य, योग ॒श्रौर वेदान्त श्रादि
सभी विचारघाराग्नों का धार्मिक घोल उनमें प्रस्तुत किया गयां है किन्तु मननात्मक
दौली से समन्वय उनमें नहीं किया गया है । परमां भूमि पर तीनों दर्शनों के
सम्माननीय-सह् श्रस्तित्व की विद्या का स्फट निदर्शन उनमें नहीं है । वस्तुतः
वित्नानभिक्षु ने पुराणों के धामिक एकीकरण की श्रान्तरिक भावना को दार्शनिक
स्तर की महता प्रदान की है 1 उन्होने पुराणों कौ सूकसाधना को ताकिक संबल
देकर चिन्तन-जगत् में मुखर कर धिया ह । भरतीय-सस्छृति के प्रति दर्शनों के
ठेक्य का विधान करक विज्ञानभिष्चु ने एक श्रक्षुण्ण योगदान का प्रशस्त परिचय
दिया है।
इस समन्वय की प्रक्रिया से सांख्य, योग श्रौर् वेदान्त के सेद्धान्तिक एेक्य पर
दृष्टि रखने पर भी इनमें कु एसे मत पडे रहं जाते दै जिनका परिहार विन्नान-
भिक्षु के लिये भी कठिन हो जाता हे। एेसी स्थिति में विज्ञानभिश्चु की व्यग्रता
स्वाभाविक है श्नौर उनकी एकीकरणभावना की तीव्रता का उद्रेक होना स्मनिवायं
है । इस मतभेदो को वे दष्टि से श्रोकल करे का यत्न कदापि नहीं करते । पलयुत
पूरी ईैमानदारी के साथ उसका विवेचन कसते हैँ । उस मतभेद का कारण दुं ढते
है श्रौर ग्राह्यमत का निर्देश करते है, तथा वांछनीय समाधान उपस्थित करते ह ।
एेसे स्थल क्म है किन्तु जोह, उन पर दृष्टिपात करना नितान्त भ्रावदयक हे 1
दन श्रसमल्वीयमान मतो मे प्रमुखतस् येर्है-
१-- सांख्य की निरीरवर्ता
२--सांख्य का काल-सिद्धान्त
३--योग का स्फोट-सिद्धान्त"
--योग का मनोवैभव-सिद्धान्त
५-- सांख्ययोग का स्वतन्त्रभ्रवानकारणतावाद
इन दर्शनो का स्थातिसिद्धान्त इत्यादि ˆ
१ तेनाप्यसाधितः स्फोटशूब्ो धोवेभवं तथा 1
स्पातसाच्यतेऽस्माभिःसास्पदोषनिरासरतः 1-
२. अत्रच जञासत्रेन्ययाख्यातिः सिद्धान्तः न
यो० सा० सं० प° €
तु सांख्यवद् विवेकमात्रस् 1
--यो० वा० पु० ३३
२३४ | आचार्यं विज्ञानभिक्षु
सांख्यशास्त्र मेँ ईइवर के प्रस्तित्व का दर्शन नहीं होता विज्ञानभिश्चु ने इस
इस श्रंश मेँ सांख्य का दौवल्य स्पष्टतः स्वीकार किया है । किन्तु इससे भी साख्य का
प्रामाण्य नहीं होता क्योकि यह् उसका प्रवान विषय नहीं । सांख्य में सेश्वरवाद
की कहीं निन्दा भी नहीं की गई", ईर्वर का अ्रभाव सांख्य मेँ कटीं नहीं कहा
"गया । सांख्य में केवल “ईइवरासिद्धः"२ सूत्र भ्राया है ईङवराभावात् नहीं, जिसका
र्थ उनकी दृष्टि में केवल यह दै कि ईइवर की सिद्धि नहींकीजा सकती 1 पा
फिर बहुत सम्भव है कि वैराग्य कौ भावना के जागरण के लिये सांख्यगास्व ने
ईदवर का प्रतिपादन न क्याहो।९ जो भौ हो सांख्य को इस कमी का पुरा
भान विज्ञानभिष्यु को था। इसोलिये ईर्वर के विचार के प्रसङ्ख॒में उन्होने
सांख्य की प्रामाणिकता को स्वीकारन करने काही प्राग्रह् स्यि है श्रौर
पारमाथिक ईश्वर की मान्यता के कारण योग श्रौर वेदान्त की कत ह उन्होने
इस प्रसङ्ख में प्रादशं वतायीदहै। फिर भी यदि कोई उन्हं सेश्बरतांख्यवादी
कटे तो यह अल्ुक्तिमात्र होगी । क्योकि भले ही विज्ञानभिक्षु सेद्वर दशेनधारा
के श्रनुयायी ह श्रौर भले ही वे सांख्य में ईश्वर की सत्ता का खण्डन होना
्रसयुपगम भ्रौर प्रौढि से ही स्वीकार करते है किन्तु सांख्य को वे निरीश्वरवादी
ही मानते ह । यौर इस भ्रंश मे सांख्य की श्रप्रामाणिकता या दूवैलता कौ घोषणा
भी करते हँ यह निविवाद है 1४ प्रतः उन्हँ सेश्वरसांख्यवादी कहना तथ्य कीश्रोरसे
श्ांख मदना मात्र है । वें स्वयं ईर्वरवादी हँ श्रौर साख्य के विषय में निरीडइवरः
सांख्यवादी है 1
इसी मान्यता पर श्राश्रित जगत्कारणता का प्रर्न है। इस प्रन पर भी
विज्ञानभिष्षु ने स्पष्ट रूपसे यह निर्णय दियादहै कि सांख्य का स्वतन्त्रप्रवान-
कारणतावाद श्रनुचित है४ । योग भी स्वतन्त्रप्रधानकारणतावादी है क्योकि
१. सेडवरवादस्य न क्वापि निन्दादिकमस्ति -सां० प्रं° भा० पुर
२. सूत्र १।९२ का भाष्य-- "अयं चेश्वरप्रतिषेध॒एकदेशिनां प्रोढिवादेने-
वेति प्रागेव प्रतिपादितम् 1 अन्यथा हीदवराभावादित्येवोच्येत !-सां०
प्र° भा० पुण ५०
३. अस्मिन्नेव शान्त्रे व्यावहारिकस्यरवयवेराग्यादय्थमनुवादत्वोचित्यात् ।
ल | ५ --सां० प्र° भा०पु० र
ध व साख्यज्ञानस्य भ्य उत्कर्षं प्रतिपादयति, न
त्वीरवरप्रतिषेधाशेऽपि ।-सां० प्र० सा०३
[4 ोक्ततर्कौः
५. अतो यथोक्ततरकरीदवरपरत्वेनावधारिता श्रुतिः (ता) सृति बाधिष्यति
इति भावः ।--वि° भा० पु० २६५
६. योगः पातञ्जलशस्त्रं प्रकृतिस्वातन्त्यमात्रांशे प्रयुक्तः प्रत्याख्यातः ।
--वि० भा० पु° २७१
आचाय विज्ञानभिक्षु के दर्शन कौ तुलनात्मक समीक्षा | २३५.
ईरवर की सत्ता स्वीकार करने पर भी योग प्रकृति की प्रवृत्ति मेँ उसका प्रति-
वन्धनिवतंकत्वमात्र स्वीकार किया गया है । किन्तु इससे सांख्य श्रौर योग का
प्रामाण्य नहीं है इस भ्रंश मे ये दोनों शास्त्र दुबल है । किन्तु यह् विषय सांख्य
भ्रौर योग॒ का प्रधानप्रतिपा्य नहीं है; इसीलिए इस विषय के कारण
समन्वय में कोई श्रन्तर नहीं पड़ता । इस सिद्धान्त को समन्वय के लिये छोड
दिया जाना चाहिए । इसीलिए उन्होने ।सांख्ययोग के स्वतन्त्र प्ररकृतिकारणतावादं
का खण्डन श्रौर ईश्वर या ब्रह्य के ्रधिष्ठान-कारण रूप उपादानकारणत्व का
सिद्धान्त स्वीकृत किया है ।
सांख्यादि से विरुद स्फोट श्रौर मनोवैभव तथा काल के श्रवथव-भूत क्षणादि
को उन्होने सिद्धान्तित किया है भ्रौर इस प्रसङ्ख मे साख्य का जम कर खण्डन भी
किया है 1 तीनों दशनो के हैयांशों को छोड़कर तथा तीनों दशंनों के प्रधानप्रति-
पाद्यभूत विषयों को सत्य नौर प्रामाणिक मान कर ही उन्दनि समन्वयवाद कीं
नीव जमाई है । इस प्रकार उनके सिद्धान्तो मे न कहीं स्व-वचो-व्याघात टै भ्ौरन
ही वैचारिक दुरूढता । समन्वय की सिद्धि मे समानतन््सिद्धन्तों के अन्तगे
्राप्य मतों को स्वीकार करके उन्ोन विरुद्वाशो के विरोध का सहन परिमाजनं
किया है । वस्तुतः दशंनजगत् मे यह् समन्वय उनको एक मरत्वपूणं देन है,
जिससे ममुं फ एक निर्रान्त मागं का दर्शन होता दै भ्नौर बौद्धिक व्याकुलतां
की शान्ति होती दै ।
तेदाव-खमीक्षा
त्र्य
भ्राचार्यं विज्ञानभिष्चु ने भास्कर, रामानुज तथा निम्बाकं भ्रादि की माति
ब्रह्म को ईरवर, परमेखवर श्रौर परमात्मा कहा है1१ शङ्कुर की भाति ब्रह्म भ्रौर
इरवर को भिन्न नहीं माना हैर निम्बाकं वल्लभ श्रादि, वैष्णव वेदाम्तियों की भाति
विष्णु, कृष्ण प्रादि को वे ब्रह्म या इश्वर नहीं कहते ।२ उनकी दृष्टि में विष्ु-
कृष्ण-नारायण-रामादि ईङवर के भ्रंशावतार या भ्रावेशावतार मात्र है साक्षात्
ईदवर या ब्रह्म नहीं । रामानुजप्रभृति वैष्णाववेदान्ती श्रौर भास्कर भी ब्रह्म को
सविरेष या विशेषणविशिष्ट मानते हैँ किन्तु विज्ञानभिश्चु शंकर के समान ब्रह्य
को निविशेष मानते है ।० शंकर श्रौर भास्कर कीटही भति वेनब्रह्यको ज्ञानरूप
ही मानते है ।* रामानुज इत्यादि कौ भाति ज्ञान को वेत्रह्य का गुण नहीं
मानते । उनके लिए ब्रह्य ज्ञाता है, ज्ञान हैश्रौर ज्ञेय भी । ब्रह्म कीज्ञेयतामें
भी उन्दँ कतूःकर्मविरोधादि की ्रापत्ति सर्वथा श्रनुचित लयती है। रामानुज को
भिये भी ब्रह्य की स्वप्रकाशता स्वीकार कसते हँ । इससे ब्रह्म की ज्ञेयरूपता
मे कोई श्रन्तर नहीं भ्राता । सभी वेदान्तियों को भ्रभीष्ट ब्रह्म की श्रुतिमात्रप्रमाएता
मे विदवास नहीं करते श्रपितु श्रुति के श्रतिरिक्त श्रनुमान ओर योगज प्रत्यक्ष को
भी ब्रह्म की सत्ता-सिद्धि मे पृष्ट प्रमाण मोनते है 1 वे ब्रह्मको श्रनुमेय मानने में
श्रीहुषं के समानधर्मा है ।६ निम्बाकं श्रादि की भाति वे जीव को ब्रह्म कारश
१. द्रष्टव्य, भास्करभाष्य वे° सू० १।१।१२ पर पु० २४ इत्यादि।
श्रीभाष्य, वेदान्त-पारिजातसोरभ तथा वि० भा० १।१।२ सुत्र का
भाष्य
द्रष्टव्य, ब्रह्यपूत्रशाङ्कुरभाष्य को चतुःसूत्री }
द्रष्टव्य, वि० भा० पु १३३, १३५; १३७
न धममार्धमिभेदेन स्वरूपभेदाः !--भा० भा० पु० १६९
दरब्टव्य, चि० भा०पु० ६२
खण्डनखण्डखाद्य का मद्धलाचर्ए--
अविकट्पविषय एकः स्थाणुः पुरुषः श्रुतोऽस्ति यः भुतिषु \
ईइवरम्मया न परं बन्देऽनुमयापि तमधिगतस् \\१॥
२३६
< ~ % ‰ °
आचाय विज्ञानभिक्ष्, के दर्शेन को तुलनात्मक समीक्षा | २३७
मानते है, रामानुज को भाति विशेषण नहीं । शङ्कुराचायं की श्रखण्डात्मा का
सिद्धान्त उनकी तीव्र श्रालोचना का विषय इसीलिए वना है । राक्तिरूप से पुरुप
ब्रह्म का भ्रंश है 1 ईर्वर, शक्तिमान् श्रौर इसीलिए प्रंशी हृश्रा । दोनों का सम्बन्व
न तो वैभ्णव वेदान्तियों की भांति ्रलगाव स्प प्रौरन ही शङ्कर श्रादि
ग्रहतियों की भाति जीवब्रह्यं क्य तथा श्रखण्डल्प का है। श्रपितु शक्ति भ्रौर
शक्तिमान् का ्रभेद होने के कारण वे श्रभिन्तरहै। इसी न्याय सेश्रकृति भी
इदवरांश या उसकी शक्ति टोने के कारण उससे श्रभिन्त है । इस प्रकार सर्वथा
प्रभिन्न श्रदैत की ही स्थिति विज्ञानभिक्षु ने मानी दै। इस सिद्धान्त को श्रौर
परिः स्पष्ट करने के लिए पुरुषवहुत्व शौर प्रकृति के भ्रनकत् विविव र्पोकी
समस्या का समाधान भी विज्ञानभिक्ु ने कर दिया है । उनके मतानुसार पुख्ष
नामक अनन्त भ्रंशो के होने पर भी श्रेत मे वावा नहीं होती वयोकि उनमें साधम्यं
श्रवैधर्म्यं, या सजातीयत्व श्रथवा साजात्य है1 इस सामान्य या साजात्य के
कारण वे एक दही हुए ग्रौर ई्वर से प्रभिन्न हुए । इस प्रकार से श्रदरेत सिद्धान्त
स कोई भी क्षति नदीं हुई ।* इसी प्रकार सत्कार्यं वादसिद्धान्त के ्रनुसार प्रकृति
श्नौर उसके विकसित सकल रूप प्रविभक्ता के कारण ईवर की अभिन्न शङ्ि
ही हुए । इस प्रकार ईरवर या ब्रह्य का सवते ग्रभेद है । श्रौर वस्तुतः एकमात्र
वही अविरुद्ध सत्ता है । तकं से अरनुप्राणित विज्ञानमिष्चु का यह् अदैत सिद्धान्त
भरत्यन्त भ्रावर्षक है । सभी वैष्णाववेदान्ती ब्रह्म को आआनन्दरूप मानते ह । आचायं
दाकर श्र भास्कर भी ब्रह्य को सच्चिदानन्द खूप में टी सिदधान्तित करते है ।
इस प्रदन पर विज्ञानभिष्चु इन सवसे विरूढ हैँ 1 ब्रह्म को वे प्रानन्दरप नहीं
मानते । वैष्णव या हव भक्त वेदान्तियो क द्वार माने गए ब्रह्म के लिए कोई
देदाकालावच्छिन्न लोक इत्यादि कौ कल्पना उनके लिए श्रसह्य दै । इस मान्यता
क ्राधार पर वे कु भास्कर क निकट मतीत होते ह । ब्रह्म के सोपावि ल्य
को भास्कर कार्यरूप श्रौर निरपाधिरूप को कारण-रूम मानते है" किन्तु व
बरह्म के कारण श्नौर कायं दोनो रूपों को सोपाधि मानते है । ब्रह्म के शुढध चैतन्य-
रूप सें उन्हं किसी प्रकार की कारणता वा कांता श्रयवा सविशेषता ग्राह्य नही
है । शंकरमत में ब्रह्म सदा निरपाि है किन्तु विज्ञानभिधु ृष्टूयादि दाम्नो म
ब्रह्म को सोपाधि ही मानते टं । तय की उपाधि ब्रह्म की शकत १ ॥
यह् बात सर्वथा स्मरणीय है। सायही ही कि यह उपाधि भी म्पि निल
~ --~--
१. यतो भिन्नं क्िसपि त भवति [-वि० मा० ६२४
२, द्रष्टव्य, बेदान्तसूत्र ९। १।१२-१९ का भास्करभष्य
-जगत्कारणता का प्रन दै मध्व" से भिन्न श्रन्य सभी वैष्एवेदान्तियों तथा
अभिन्न निमित्तोपादान कारण सिद्ध किया है 12
-२३८ | आचाय विज्ञानभिक्षु
है परन्तु श्रात्मनिष्ठ सी होकर ही तत्संयोग लाभ करती है । जर्हां तक ब्रह्य कौ
भगवान् शंकराचायं की ही भाति उन्होने भी अ्रपने ढंग से ब्रह्यको जगत् का
र `
---- र नतः =-=
१. द्रष्टव्य , ब्रह्मसूत्रो के वेष्णवभाष्यों का तुलनात्मक अध्ययन पु° ३३
, २. द्रष्टव्यः वि० भा० पु० ३४
तीत
भ्राचायं विज्ञानभिष्षु ने जीव को ब्रह्य की शक्तिया ब्रह्म काश्रंश मानाहै।
भ्रंरात्व की मान्यताश्रों में वे सामान्यतः भास्कर, निम्बाकं, रामानुज, मध्व श्नौर वल्लभ
कीकोटिमे ही श्राते है । परन्तु इन सव की भ्रंशत्व की कल्पना में बडा भेद है।
भास्कर की दृष्टि में श्रंशतत्तव केवल श्रौपाधिक है ।* निम्बाकं श्रादि तीनों वैष्णव
वेदान्ती जीव को परत्रह्य के स्वरूप का कोई भाग या खण्ड नहीं मानते है
इन लोगों के मत में जीव भ्रपने स्वरूप, स्थिति तथा प्रवृत्ति के लिएब्रह्म के
भ्रधीन है । यहु ब्रह्माधीनता या 'ब्रह्मायत्तता ही जीव का ्रंशत्व है।२ वल्लभ
ने जीवको इसरूपमें ब्रह्म काञ्रंरा माना है जैसे स्फलिङ्ध ग्रप्िके भ्रंश होते
है । वल्लभ ने "सच्िदानन्द' ब्रह्य के ्ानन्दांश रहित (सच्चिद् भ्रंश को जीव
माना है । परन्तु विज्ञानमिश्चु ब्रह्य जीव को प्रग्निस्फुलिग के समान भ्रंशांशिभाव
से सजातीय मानते है । श्रचायं शंकर की भ्रखण्डता कातो वे खुल कर खण्डन
करते है 1
रामानुज रादि सभी वेदान्ती जीव को श्रणुपरिमाण वाला मानते है । परन्तु
विज्ञानमिष्ु जीव को शंकर के ही समान श्रन्य वैदान्तियो से विरुद्ध विभु मानते
है ।* जीव अनेक ह--इस मान्यता के दवारा वे शङ्कुर का खण्डन भ्रौर भ्रन्य वेदा-
न्तियो के मत का खण्डन करते हैँ । भ्रन्य वेदान्ती श्रण्डत्व को जीवकालिङ्खया
पहचान मानते है । भास्कर जीव के कतृ तव भ्रौर भोक्तृत्व को श्रौपाधिक मानते हैँ ।
शकर भ्रौर विजञानभिक्ु भी इसी मत के पोषक हँ । जवकि अन्य लोग जीव के
कत्व श्रौर भोक्तृत्व को स्वाभाविक भ्रौर ब्रह्य के भ्रघीन सममे है । जहां १
दस् ब्रह्माधीनता का प्ररन है इस विषय म विज्ञानभिष्षु का भी मत इष्हीं र की
भति शङ्कुर श्रौर भास्कर के विरुद ब्रहमधीनतावादी ही समभना चाहिए ।
जीव के ब्रह्ांश्त्व शौर ब्र्मशक्तिवाद मे व प भ्रौर (= के साथ
ह । वेजीव को बरह्म का कायं नहीं मानते पुरातन वेदान्ती ब्रह्मदत्त" इषौ मत के
द्रष्टव्य, २।३।४२ भा० भा० पुर १४०, २३।२।३० पु° १७०
द्रष्टग्य, ब्र० केवै° भा० का तु ज° प° २३६
द्रष्टव्य, वे० सू० २।३।४२ पर अरएभाव्य
द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ३४३ तथा शाङ्करभाष्य सु° १२७
द्रष्टव्य, वि० भा० परं ३५२
२३९
२४० | आचाय विन्नानभिकषु
पोषक थे । रामानुज की भाति वे जीव को ब्रह्य का विरोषण भी नहीं स्वीकार
करते १ जीव श्रौर ब्रह्य न यद्यपि भ्रविभागलक्षणाभेद वे मानते दै परन्तु एेसी
भी दला में--वृद्धावस्था या मुक्तावस्था- मे वें जीवब्रहय क्य नहीं मानते है ।
यहां पर शङ्कुर से उनका तीत्र मतभेद है। अ्रखण्डत्व या दोनों का क्य उनके
लिये शरस्य रौर श्रग्राह्य हैर स्मरणीय कि वैष्णव या शैव वेदान्तियो की
मति जीव का ब्रह्म के प्रति मोक्षावस्था नरं दास-भाव श्रादि श्रथवा चतुब्युं ह प्रादि
से युवत लोकों की सायुज्यादि मोक्ष की कल्पना से भी घोर उपेक्षा है । उनका जीव
न किसी ब्रह्य का नकली प्रतिबिम्ब या्राभास दै नदी एक श्रसीम का ससीम
प्रतिनिचि श्नौर नही किसी प्रकार की भी दासता का पुरातन प्रतीक । वह् विभु
न, ज्ञ है परमेरवर की शवित है, श्रौर उसका सजातीय [मरं है 1 उसकी महत्ता
को वदा कर उसे शङ्कुर कौ भाति ब्रह्य खूप कर देना भ्रथवा रामानुजादि भक्त-
वेदान्तियों की भाति उसे श्रनुचित रौति से कम करके ब्रह्य का सेवक बना देना-ये
दोनों ही प्रवृतियां उनकी दृष्टि मे आन्ति से पूणं एवं उपेक्षणीय दै ।
१. द्रष्टव्य, श्रीभाष्य १।१।१ सूत्र
२. इदमेव खण्डेकतम्यमनुद्ध वा आघुनिका अलेण्डेकालम्योपपत्तये जीवानां
प्रतिविम्बावच्छेदादिरूषेः कुकल्पनां कुर्वन्ति !-वि° भा० प° ५७
©
प्रक
भ्राचायं विज्ञानमिष्चु का प्रकृति श्रौर माया विषयक सिद्धान्त बड़ा ही भ्रनोख
शरीर विचित्र है । सांस्यमतानुसार सत्त्वरजस्तमोमयी त्रिगुणात्मिका प्रकृति जड़ है ।
यहः प्रकृति का स्वरूप इन्दं भी यद्यपि प्रभीष्ट है किन्तु वे प्रकृति को सर्वेतन््र-
स्वतन्त्र नहीं मानते बल्कि उपसे परमेदवर की भ्रन्तर्लीनि शक्तिके रूप में स्वीकार
करते है । यहां तक तो वे रामानुज श्रौर निम्बाकं से सहमत हैँ किन्तु वे रामानुज
की भाति प्रकृति को श्रविद्या, माया या श्रक्षर १ नहीं मानते । प्रकृति कौ नित्य-
परिणामिशालिता के कारण उसे श्रक्षर कट्ना ठीक नहीं है । उन्होने माया नाम की
श्रपरिणामिनी प्रकृति को इस प्रकृति के सामान्य रूप से भिन्न ईरवर की उपाधि
खूप मेँ स्वीकार किया है । प्राचां शङ्कुर की भाति प्रकृति को माया भ्रौर श्रव्या
कट् कर स्वया तुच्छ श्रथवा श्रसत् या अ्रनिवच॑नीय मानने के वे विरोधी है|
वैष्णव वेदान्तियों श्रौर सांख्यशास्त्रियो की भाति उनकी प्रकृति सत् है । एक पार
माथिक सत्ता है। भले ही इस पारमार्थिक सत्ता का ्रहण उन्होने एकमात्र परम
सत्ता ईर्वर कौ शक्ति के रूपमे ही संशोधित करके स्वीकार किया हो; ग्रौर इस
प्रकार से अपने श्रदेत-सिद्धान्त की रक्षा की हो
प्रकृति का दूसरा रूप जीवोपाधि है । परन्तु इस सूप कोभीवे भास्करया
शङ्कुर की भति श्विद्या के रूप में मानने के विरोधी है । ° अ्रविद्या तो एक प्रकार
का वुद्धिगत क्लेश है 1९ जैसे जीव की उपाचि मूल-कारण-प्रकृति का एक भ्रलग
रूपै वैसे दी ईशवर की उपायि माया भी प्रकृति का एकं श्रलग स्प है । विष्णुः
पुराणाभिमत ्रकृति ओर माया के वास्तविक भेद को भी उन्होने नही माना, बल्कि
यह् कह कर इस कथन का परिमार्नन किया है कि जइत्वादिसाघम्यं से सा को
ओ प्रकृति के ्रन्त्गंत उसके एक विशिष्ट रूप म॑ स्वौकार करना चाहपि 1० मूल
प्रकृति के स्वाभाविक सूप ्नौर माया के स्वाभाविक रूप में स्पष्ट ब्न्तर कवल यहं
है कि प्रकृति परिणामिनी है शौर माया श्रपरिणामिनी है । माया कवल शुद्धसत्त्वा
१. प्रघाने च परिणामिनिःत्ये धर्मस्पेण क्षयिखि अक्षरलब्दस्यापेक्षिकत्वा्त-
` स्याक्षरस्याधीनेति {--वि० भा० पु० ५००
द्रष्टव्य वि० भा० पु० ८२) एप्, ८६
| य पिनि पर्चक्लेशाः !-यो० सू° २३
४, द्रष्टव्य, विर भार प २५८; २६१
ह क
फा०--१६
२४२ | आचाय विज्ञानभिक्षु
होने के कारण नित्य भ्रानन्द वाली है । उसमें रजोगुणादि-रादित्य के कारण
दुःखादि की सम्भावना नहीं रहती ।१ प्रकृति के इस प्रकार के तीन रूपो की
श्रलग-ग्रलग कल्पना विज्ञानभिश्चु का श्रपना वैशिष्स्य है 1
शङ्कुर क द्वारा माने गए श्रालमनिष्ड-प्रविद्यार के सिद्धान्त का इन्दने प्रत्याख्यान
कियाहैग्रौर माया के विषय मे यह् कहा है किइस ईहवरापाचि की ईङवरनिष्ठता
नहीं है प्रपितु नित्यसंयोगमात्र है । जीवकी ही भांति प्रकृतिकरृत पदार्थो कीमभी
उत्पत्ति गौर ही समभनी चाहिये । वैष्णववेदान्तियों की भांति वास्तविक उत्पत्ति
नहीं माननी चाहिये वत्लभाभिमत प्रकृति की चिदानन्दरहित ब्रह्मरूपता भी उन्हें
ग्राह्य दै । वह ब्रह्म की एक शक्ति है ¦ वह ब्रह्मलप नहीं दै । निम्बाकं श्रादि कौ
भति उन्होने भो काल शौर ब्रदृष्टादि को प्रकृति से भिन्न किन्तु जड़ रूप से ईरवर-
शक्तिकेरूप मेही स्वीकार कियाहै प्रतः ब्रहाराक्ति के ग्रन्तर्गत ही कालादि का
समावेश है 1
यह संसार वास्तविक परिणाम है ब्रह्म की शक्तिभूत प्रकृति का ओर वह् भी
पुरुष के संयोग के फलस्वल्प । इस संसार की निरन्तर प्रवहमान स्थितिका
श्रधिष्ठानकारण ब्रह्य है । चु कि ब्रह्माधिष्ठित बरह्मशक्तिप्रकृति का ही विविध परि-
णाम यह व्याकृत जगत् है अ्रतः ब्रह्य इस सकर प्रपंच का उपादान कारण कहा जा
सकता है । चूकि प्रकृति-परिणाम कौ सारी प्रेरणा ब्रह्मोपाचिभूत अपरिणामिनी
माया से सुलभ होती है इसलिये ब्रह्म को हम जगत् का श्रभिन्न-निमित्तोपादान-
कारण मानते ह । ्राचायं विज्ञानभिश्चु इस प्रकार की कारणता मान कर इस
रंश मे शङ्कर, रामानुज, वल्लभ श्रौर निम्त्राकं की हीश्रेणीमेंभ्राते हैँ । इन
श्राचार्यो ने भी अपने-म्पने ठंग से ब्रह्य को जगत् का ्रभिन्ननिमितोपादानकारण
माना है ।
१. द्रष्टव्य, वि० भा० पु ३१९
२. एतेनाविद्याया आत्मनिष्ठत्वमप्यफास्तम् ।--वि० भा० प° ८४
३. एतेन प्रधानग्राणादीनां ब्रह्मशक्तित्वप्रतिपादनेन येऽप्यानुमानिकाः काला-
हृष्टादयो ब्रह्मशव्तितया व्याख्याता वेदितव्याः, न तु स्वतन्त्रं किमघ्यन्य-
दस्ति ।-- वि० भा० २६२
समस्तशबितः परमेदवरात्मा \--वि० भा० पु० ४७२
भेदाभेदवाद
राङ्कुर की दुष्टिमें संसार मिथ्याहै। एकमात्र ब्रह्य ही सता है 1 श्रतः उन्दैँ
प्रभेद प्रद्शित करने की कोई श्रावदयकता ही नदीं है । भास्कर, निम्बराकं श्रौर
वलदेव भेदामेदवादी कहे जते हैँ । उनकी दृष्टि में संसार ' ्रौर ब्रह्म सत्र्है फिर
भी न्दं दैत नहीं स्वीकार है । श्रतः वे श्रपने श्रपने ढंग से श्रभेद सिद्ध करते हुए
श्र्रंत की सिद्धि करते हँ । भ्राचायं विज्ञानभिष्चु भी एसे ही भ्रभेदवादी है।
इन सवक्रे मतवाद को संक्षिप्त निर्देश के रूपमे इस प्रकारसे प्रकटकिय्राजा
सकता है--
१-भास्कर --्रौपाधिकभेदाभेदवाद
२-निम्बाकं --स्वाभ।विक्भेदाभेदवाद
३--विज्ञानभिश्चु -भ्रविभक्तमेदाभेदवादः
४--बलदेव --प्रचिन्त्यभेदाभेदवाद
इस प्रकार से विज्ञानभिष्चु को भी गणना भास्कर, निम्वाकं एवं बलदेव श्रादि
की भाति भेदाभेदवादी दाशंनिकों में कीजातीहै। उन्दँभौ ब्रह्य रौर संसार
करी श्रमिन्नता अ्ौर भिन्नता दोनों भ्रभीष्ट है ।२ उनका कथन दहै कि संसार ्रसत्
नहीं है; पुरुष प्रौर प्रति भी श्रत् नहीं है 1 प्रतः इनका श्रस्तित्व या व्यक्तित्व
एक दृष्टि से ब्रह्म से प्रलग भी है। इस भेद को परिभाषा वे इस प्रकार करते हँ
कि--श्रन्योन्याभावलक्षणः भेदः, तस्य भ्रविभागलक्षणेनाभेदेनावि रोधात् ॥* २ इस
भेद के साय ही ब्रह्य के सायसकल संघार का भ्रविभागलक्षणाभेद भी है। इस
प्रकार से ब्रह्म का सकल जगत् के साथ भेदाभेद दोनों सम्बन्व स्वीकार क्या
गया है ।
१. यह् नामकरण मेरी हृष्टि मे सभी प्रकार से उनके मतवाद का पुरणं-
प्रकाशक है ।
२, अतच ब्रह्यप्रपञ्चयोर्भदाभेदाभेदावेव वेदान्तसिद्धान्तः । न च भेदाभेद-
योधिशेषः शङ्कनीयः भेदस्यान्योऽन्याभावरूपत्वाद्, अभेदस्य चाविभागावे-
घर््यरूपत्वादिति -वि० भा० पु० ४६५
३, द्रष्टव्य, वि भा० प° ३६३; ३६४
२४३
-------------~-=------ ~
२४४ | आचायं विज्ञानभि्ु
भास्कर मत में यह सेदामेद केवल श्रौपाधिक है। उपाधि रहने तक भेद
श्रौर उपाधि विगलन हो जाने पर श्रमेद रहता है 1 इस प्रकार से लौकिक दृष्टि
से भले ही यह् सम्बन्व भेदवाला प्रतीत हो किन्तु वस्तुतः यह सम्बन्ध प्रभेद का
ही है। भेदाभेद का नहीं 1 स्वाभाविक भेदामेदवादी निम्बाक के मत मेब्रह्
तथा जीवजगत् का यह भेदाभेद सम्बन्य स्वाभाविक है । दोनों पक्षों का स्वभाव
ही भेद भ्रौर भ्रभेद दोनों परक है । बलदेव का भेदाभेदवाद भ्रचिन्त्य भिन्नता भरौर
गरभिन्नता का प्रतिपादक है किन्तु भेद ग्रौर श्रभेद दोनों ही वहाँ पर भी शाश्वत ही है ।
विज्ञानभिश्ु का भेदाभेदवाद व्यावहारिक स्थिति के सम्बन्ध मात्र का द्योतक
है । उनका श्रमेद तो शारवत है । सवैकालिक है ग्नौर नित्य है किन्तु भेद--च्यपि
मिथ्या नहीं है फिर भी-केवल श्रमुक्त दशा तक ही है । इस प्रकार भेदाभेदवादी
होने पर भी वे वस्तुतः अ्रभेदवादी रथात् श्रद्रं तवादी दिशा की श्रोर उन्मुख है ।
उनका भेदाभेदवाद एक श्राशिक काल के लिए सत्य हे । भ्रौर श्रभेदवाद ही उनका
वास्तविक सिद्धान्त है । उन्होने ग्रखण्डत्व ग्रौर द्वं त दोनों उग्र तात्त्विक कोटियो
का परिहार करने के लिए भेदाभेद का सिद्धान्त स्वीकार किया है ।१ किन्तु यह्
ेसा भेदाभेद है जो श्रन्ततोगत्वा म्रभेदमें ही पर्यवसित होता है । इसलिए उन्हें
बलदेव या निम्बाकं की माति पक्का मेदामेदवादी मानना समीचीन नहीं है । वे
जीव की बद्धावस्था तक के लिए भेदवाद का ग्रहण करते दहै किन्तु भ्रन्ततः
मुक्तावस्था मे श्रभेद को ही पारमार्थिक मानते हँ 1 इस प्रकार प्रन्ततोगत्वा वे
श्रमेदवादी ही है 1
शङ्कुर श्रौर रामानुज की श्रभीष्ट पञ्चौकरणप्रतरिया को मानने के भ्राचायं
विज्ञानभि्चु विरोधी है । छन्दोग्योपनिषद्-सम्मतःत्रिवृत्करणभ्रक्रिया, ही सृष्टिप्रक्रिया
के प्रसंग में उन्हे स्वीकृत है 1 पञ्चीकरणप्रक्रिया को वे श्रुति-विमत श्रौर मनमानी
वताते है ।२ उन्हे ब्रह्यविवतंवाद श्रौर ब्रहापरिणामवाद दोनों ्ररुचिकर हँ ।४ वे
१. एतदक्तं भवति भेदाभेदाभ्यामंरत्वमेव शास्त्रार्थो नालण्डत्वम् ।--वि०
भा० पु २३६२
२. तस्मात् सिद्धो जीवेक्वरयोरंशांदिभावेन भेदाभेदौ विभागाविभागर्पौ ।
तत्राप्यविभाग एव आयन्तयोरनुगतत्वात् स्वाभाविकत्वात् नित्यत्वाच्च
सत्यः । विभागस्तु मध्ये स्वल्पावच्छेदेन नैमित्तिको विक्ारान्तरवद् वा
चारम्भरमात्रम् इत्ति विदोषः । तदेवमात्मादं तंन्याख्यात्तम् 1।--वि०
भा० पु० ६१
३. द्रष्टव्य, वि० भा० पु० ४०९
४. द्रष्टव्य; वि९ भा० पु० ३३
कन
आचार्यं विज्ञानभिष्चु के दरशंन की तुलनात्मक समोक्षा | २४५
ब्रह्मशक्तिभूतप्रकृति-परिणामवादी है । पुरुष की श्रसङ्गता श्रौर चिन्मात्रता पर इस
मतवाद से कोर श्रांच नहीं श्राती श्रौर नही जगत् के मिथ्यात्व काप्रलापदही
करना पड़ता है ।
रामानुज श्रादि वैष्णव वेदान्तियों के ईश्वर की भाति उनके ईदवर को
लीलाविलास भ्रादि करके वैषम्य श्रौर नै्ृण्य का शिकार नहीं बनना पडता ।
उनका दिव्य ईङ्वर मानवीय रूप मेँ नहीं उतरता । उसका सर्वोत्तम चिन्मात्र
स्वरूप सर्वथा श्रषयुण्ण रहता है । लोकदशा में भले ही जीव ब्रह्य प्ररि हो .
परन्तु मोक्ष दशा में वहु सर्व॑या स्वतन्त्र है । इस स्थान पर वे शंकर श्रौर भास्कर
की राति मोक्ष की उक्कृष्टता सिद्ध कसे मेँ समर्थं हँ । भले ही जीवत्रहयं क्य में
उनका संरम्भ शंकर भ्रौर भास्कर कौ भाति न हो । परन्तु भक्तिमारगी वैष्णव
शरीर हेव वेदान्तियों की भाति जीव की सार्वकालिक ईरवर परतन्त्रता उनके मत
मे बिल्कुल नहीं है 1
युक्ति
मुक्ति-दशा मेँ जीव के स्वल्प के सम्बन्व मे शंकर, भास्कर, रामानुजः
निम्बाकं, वल्लभ, मध्व, श्रीकण्ठ, बलदेव श्रादि सभी वेदान्ियो से विज्ञानभिष्चु
का मतभेद है। ये लोग किष न किसी रूप मँ मुक्तिको निरतिशय श्रानन्द की
ग्रवस्था मानते है, परन्तु विज्ञानमिष्षु ने इस दशा मं पुरूष को केवल चिन्मात्र ही
माना है । इस दशा में दुःख की मरात्यन्तिक रौर एकान्तिक निवृत्ति तो अ्रवर्य
होती है किन्तु पानन्दरूपता का कोई भौ सम्पक नहीं होता ।° मुक्ति नित्य
है । इस दशा के पदचात् फिर किकी प्रकार की श्रावृत्ति नहीं होती । इस
मान्यता में वे सब के साथरहै।
शङ्कर श्नौर भास्कर के समान वेभी सारूप्यादि को मुक्ति नहीं मानते। न ही
उद पुरुष के सम्बन्ध मँ ब्रह का दासत्व या नित्य कंड्यं ही ग्राह्य है । इस कल्पना
का वे खण्डन करते है । शङ्कर भ्रौर भास्कर को श्रभिमत जीवब्रह्ं क्य सिद्धान्त
मानना उनके लिए भ्रग्राह्य है। २ मुक्ति दशा में भी पुरुष ईश्वर नहीं हो जाता
भ्रपितु सिन्धुसमापन्नसरिता की भाति उपसे भ्रभिन्त अर्थात् श्रविभक्ताभिन्त भ्रंश
रूप से हो रहता है । निम्बाकं श्रौर भास्कर भादि वेदान्ती मुक्ति को एक वास्तविक
प्रापि मानते है किन्तु विज्ञानभिश्चु शङ्कर की भाति मुक्ति को प्राप्य नहीं मानते ।
शङ्कुर की भांति वे मी स्योभूक्ति श्रौर क्रमभुक्ि स्वीकार करते हैँ ।
न
१. द्रष्टव्य वि० भा० प° ६४
२. द्रष्टव्य, वि० भा° ¶० ८५०
३. द्रष्टव्य, भास्कर-भा० प° १. ४. २१
२४६ | आचाय विज्ञानभिक्षु
निम्बाकं केवल सद्मोमुक्ति मानते रह ।* श्रीकण्ठ के श्रतिरि्त कोई भी भक्त-
वेदान्तिसम्परदाय क्रममुक्ति नहीं मानता । इस प्रकार से वेदान्तियों मे विज्ञानभिक्ु,
शंकर श्रौर श्रीकण्ठ ही दो प्रकार की मुक्ति मानते है। शंकर भी सगुणोपासना
के द्वारा ब्रह्मलोक-प्राति भ्रौर उपकर पर्चात् लग्चात्मज्ञानतया नित्यमुक्ति के क्रम
को स्वीकार करते है । भक्त वेदान्तियों कौ दृष्ट में मुक्ति के क्रम की यह् ्रवान्तर
भूमि हो मुक्ति वन जाती है । करथोकि इसके परे कोई निर्गुण, निविरोष तत्त्व
उनकी दृष्टि में रहता ही नहीं ।
सद्योमुक्तिलाभमें भी दो संभावनाएं हो सकती हैँ । एक तो इसी जीवन में
जीवित रहते हुए मुक्तिप्रासि श्रौर दूसरी, इसी जीवन मेँ पूर्णाट्मज्ञान से सकल
कर्मक्षय हो जाने से शरीरपात के बाद । पहली स्थिति जीवन्मुक्ति कहलाती है ।
रौर दूसरी विदेहमुक्तिं । दोनों स्थितिं सयोमृक्ति या एेहिक मुक्ति मे दी संभव
ह । विज्ञानभिशषु जीवन्ूक्ि रौर विदेहमुक्ति दोनों प्रकार की सद्योमुक्ति मानते है ।
दाकर भी दोनों को मानते हँ । रामानुज, भास्कर, वल्लभ, निम्बाकं, मध्व तथा
न्य भक्त वेदान्ती जीवन्मुक्ति नहीं मानते ।२ विज्ञानमिष्चु न तो शंकर श्रौर
भास्कर की भांति जीवब्रह्म क्य मानते दै रोर न तो रामानुजादि भक्त वेदान्तिथो
की भांति पुरूष का मोक्षदशा में ब्रह्मविविक्त श्रहम्भाव ही 1
१. द्रष्टव्य, वे० पा० सो० ३. १.१७, ४.३.१४
२, द्रष्टव्य, ३।३।३३ सभी वेऽएवभाष्य ।
©> साधना
मुक्ति फी साधना
भास्कर के अतिरिक्त श्करादि सभी वेदान्तियों की भाति विज्ञानभि्षु भी
तत्त्वज्ञान की साधना से मुक्ति लाभ वताते दै । इस मान्यता मे वे शद्धुर के
ग्रथिक निकट ह । निगुं एतत्छज्ञान से ही वे शुद्ध मुक्ति मानते ईः सगुणोपासना
से सद्यो-मुक्ति नदीं होती श्रपितु मुक्ति-लाभ का क्रम प्राप्त होता है । इस क्रमिक
उत्कषं मे भी जब तक निगुण चरमततत्व का नान नहीं होता मुक्तिलाभ भ्रसम्भव'
है । भक्त वेदान्तियों से यह् उनका मौलिक भरन्तर है! शङ्कुर से इस विषय मे
उनका श्रन्तर यह् है कि शङ्कुर जीवत्रहयं क्य ज्ञान को ही तच्ज्ञान कहते र श्नौर
उसके दारा मूव्ति मानते है । जवकि विज्ञानमिष्षु के मत में जीव प्रौर ब्रह्म
ग्रभिन्न श्रवद्य है, किन्तु एक ही नहीं है । रतः मोक्ष के लिए एक्यज्ञान नहीं
प्रत्युत पुरुष-ततवज्ञान भ्रावरयक है । पुरुषततत्वज्ञान मोक्षप्रदता मँ उतना ही समर्थं
ह जितना ब्रहाविषयक तत्त्वज्ञान । इस प्रकार से ब्रह्मनिरपेक्ष केवल जीव के
तात्त्विक ज्ञान को भी मुक्तिलाभ का हेतु, मानने वाले वे श्रकेले वेदान्ती ह ।
इस प्रकार से त््ज्ञान क ये दोनों रूप श्रलग-ग्रलग मूविति क सफल साघन है1
ज्ञान श्रौर कमं की साधनरूपता
स्कर के ज्ञानकम॑समुच्चयवाद का इन्टोने भी बाङ्कर-वेदान्तियों की भांति
खण्डन किया है 1 तत्त्वज्ञान न तो कर्मरोष ओरन कर्मसपक्
मे साधन बनता है 1 तत्त्वज्ञान स्वतंत्र रूप से मुक्ति का एकमात्र साघन है 1
क्म की महत्ता मुक्ति साधना में उन्होने प्रवय स्वोकारकीहै। साधकं
का योगारुरु, युञ्जान ओर योगारूढ नाम से तीन भेद करके ज्ञान श्रौर कमं के
आदिक समन्वय को इस प्रकार से स्वोकार क्रिया है कि योगारुरुघु भ्रवस्था में
तत्त्वज्ञान कमे-रेष रहता है, युञ्जानावस्था नें ज्ञानक का समुच्चय रहता है श्रौर
योगारूढावस्था में तत्त्वज्ञान स्वतत्त्र रूप
स्पष्ट है कि क्म उपासना की ही भाति तत्वज्ञान के पूर्णोदय के पहले श्रावश्यक
है ूरणकतञान उदि ही जानि
१. द्रष्टव्यः वि० भा० पु० ४९७) ४९८, ५१४
, द्रष्टव्य, वि° भा० १० ५१०, ५११
३, द्रष्टव्य, वि° भा० ५० ५४३
४, द्रष्टव्य, वि० भा० प° ५२८, ५२९
२४७
पक्ष होकर मुक्तिलाभ .
२४८ | आचाय विज्ञानभिशु
कोई श्रावदयकता नहीं स्वीकार की गई है। समी श ह, स दः
रखते हए सगुणोपासना को वे मुवितिलाभ का हेतु नहीं क) उस
मुक्ति का द्वार भ्रवदय खुल जातां है किन्तु यह निरिचत नह्य रहता न
प्रस्य ही होगा 12 शांकर मत मं सगुणोपासना के फलस्वरूप प्रात ब्रह्मलाका ि
से इस संसार में पुनरावृत्ति नहीं मानी जाती 1 किन्तु विज्ञानभिष्षु के मत ॥
वे साघक ब्रह्मलोकादि मे भोग समाप्त करके फिर स्थूल शरीर धारण कर न
रह। इस प्रकार सगुण विद्या का निगुण तत्त्वज्ञान के साथ १ नहीं हो
सकता 1९ निगु विद्या भुक्तिलाभ के लिए एकमात्र मुय मागेदहै।
१. विद्या तच्वज्ञानमेव मोक्षस्य हेतुः न तु भरमरूपासगुणोपासना कुतः निर्धा-
रणात् (तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति इति' निर्धारणात् अत्र ह्यं वकारेण
मोक्षहेतुक्ञानकमंि अनात्मसंभेदो निषिध्यते इति सगुरोपासनाथां चोपा-
धितद्मसंभेदोऽस्तीत्यर्थः !--वि° भा० पु० ५१४
२. ब्रह्मलोकसाधनभरुतानां सर्वासां विद्यानामयं नियमों नास्ति आत्यन्तिक-
मोक्षमवरयं ददातित्वेवंरूपः ।--वि० भा० प° ४९८
३. तथा च सगुणविद्यायाःब्रह्मलोकगप्राप्तिपूवंकमोक्षत्वेन कायंतानिगुएविद्या-
यास्तुमोक्षत्वेनैव कायंतेतिकायंतावच्छेदकभेदान्न विकल्प इत्यथः 1
--वि० भा० पुर ५९१७
सांस्य-समीक्षा
प्रघाण
विज्ञानभिक्षु ने प्रमाण का स्वरूप निरिचित करने कौ चेष्टाकीरै क्योकि
तभी प्रमेयो का शुद्ध स्वरूप जाना जा सकता है । इस विषय मे जयमङ्गलाकार,
माठरवृत्तिकार श्रौर गौडपाद १ इत्यादि ने कोई वैरिष्य्य प्रदर्शित करने की चेष्टा
नहीं की है । वाचस्पति मिश्च ने श्रवश्य इस दिशा मे प्रयास किया है श्रौर यह्
सिद्धान्तित किया है कि वुद्धिवृत्ति मेँ प्रतिबिम्बित पुरुष को हीजो बोव होतार
वही प्रमा? है । यही पौरषेयवोध कहलाता है । श्रनिरुटढ की दुष्ट मे पुरुष न
कर्ता है प्रौर न भोक्ता* 1 इसलिए उनके मत मं बुद्धिगत ज्ञान ही परमा है।
पुरुष को महत्त्वो म प्रतिविम्बित होने के कारण ही भोग का वृथाभिमान होता
है । इस प्रकार से पौरुषेय बो माना जा सकता है । विज्ञानभिकच ने इन दोनों
मतों का खण्डन किया है ।° १ ४ ४
इन्टोने वुद्धिगत चैतन्य के प्रतिविम्ब में स्थित ज्ञान को प्रमा नह मानाट।
1 बुद्धि श्रपने र्थाकाराकारित रूप से पुरुष में रिविम्बित
होती है । पुरुष मे परतिविम्बित होनेवाला ज्ञान ही प्रमा है । यही पौरुषेय बोब
हे । यही सच्चा सिद्धान्त है 1 इस सिद्धान्त के भरनुसार सकलज्ञान-परक्रिया मे
दुहरे-प्रतिविम्बवाद को मानना पडता है*। पहले चितिच्छायापत्ति रूप पुरुष- -
१. ये गौडपाद सांख्यकारिका के भाष्यकार है, ओर साण्डक्यकारिकाकार
गोडपाद से सवेथा भिन्न है।
२. अनेन यर्चेतनाशव्तेरनुग्रहस्तत्फल
` ख ष कर्ता न भोक्ता, किन्तु मह्त्वग्रतिविम्बिततवात्कतृ त्वानि
मानः--तत्सदधेः कतुः फलोपभोगाभिमानसिद्धरिति (--अ० व° सांस्य-
भ्रमाबोधः !-सां० त° कौ
सत्र १११०६ पर ५
६ ५ त ध ध्यासदेवेः सिद्धान्तितः ।--योग-
वातिके --चेतदवस्तरतोऽस्माभिः प्रतिपादितम् 1-सा० १० भ०
पु० ५२
२४९
|
॥
२५० | आचायं विज्ञानभिष्च
परतिविम्बप्रभाव से ्रचेतन वुद्धि चेतनवद् होती दै श्रौर भ्र्थाकारों में परिणत
होती दै उपकर पश्चात् श्रपने श्र्थाकाराकारित रूप की प्रकृति का प्रतिविम्ब
पुरुष मे पड़ता है । वहौ प्रतिविम्ब या प्रतिघ्वनिरूप ज्ञान ही प्रमा दहै ।* यह्
्राचायं विज्ञानभिष्षु का साख्यप्रक्रिया मे एक विशिष्ट योगदान है । “
इतना निरिचत हो जाने पर यह स्पष्ट दै कि बुद्धवृत्ति ही प्रमाण वनती
है । इसीलिए श्रतयक्ष' श्रनुमान' श्रौर श्राप््रृति' नामक वुद्धिवृत्तियो को उन्टोने
रन्ध सांख्य-दास्तरियो की भाति प्रमाण कटा है सांख्यशास्त्र मे केवल तीन ही प्रमाण
क्यों माने गए हैँ ? उपमान, एेतिह्य ग्रौर श्र्थापत्ति प्रादि को प्रमाणकर्प मे क्यों
नहीं स्वीकृत किया गया है ? गौडपाद, वाचस्पतिमिश्र ग्रौर जयमङ्खलःकार
दाकराचार्यं इस का कारण यह् वताते दँ कि श्रन्य सव प्रमाण इन्हीं तीन प्रमारो में
्रन्तर्भावित हो जाते है । भ्रनिरुद भ्रोर विज्ञानभिक्चु के अनुसार तीन ही प्रमाण
सांख्य में स्वीकृत किए जाने का कारण यह है कि केवल इन्दं तीन प्रमाणो से
सभी प्रमेयो कौ सिद्धि हो जातो है इसलिए भ्न्य प्रमाण मानने की कोई श्रावश्यकता
ही नहीं थी ।
वाचस्पति, गौडपाद, जयमङ्गलाकार, माठर श्रौर श्रनिरुदके ही समान
विज्ञानभिश्ु ने सामान्यतोदृष्ट भ्नुमान से प्रकृति श्रौर पुरूष रूपौ भ्रतीन्द्िय
प्रमेयो कौ सिद्धि मानी है । योग्य-शब्दजन्यज्ञान हौ शब्दः नाम काप्रमाणदै।
परिभाषा मँ वाचस्पति मिश्च से उनका पृण मतैक्य है । सामान्यतोदृष्टानुमान की
परिभाषा मे भी उन्होने वाचस्पति मिश्र का सुन्दर प्रनूसरण किया है।
जयमङ्खलाकार को भांति अनुमान का लक्षण उन्होने नहीं किया दै वल्कि भ्रनिरुदध
की भांति व्यासिज्ञान से (व्याप्यज्ञान से--प्ननिणद्ध) व्यापक के ज्ञान को ही श्रनुमान
१. अतोऽ्थोपरक्तवृत्तिप्रतिविम्बावच्छिन्नं स्वरूपचेतन्यमेव भानं पुरुषस्य
भोगः प्रमाणस्य च फलमिति --सा० प्र० भा० पु० ५५
2. णड फणाल छद्ना282४ 482 अप्पा प पाल्7ह56 एतवा),
४7901180 प 2180 एल प्ला217268 ध16 ध्2086600€0121
811 ०पल ० जशरभ्निण प1€ लएल€०८68 ग प्ल 178 70 8800
327."--1106 एएणृप्ण०प ग पाल ऽक्पाका० 80000 ग वकणह,
8४ 7. &पापा2 §€ा12, पध . 31,
३. ञप्तश्रुति = आप्त के शब्द अर्थात् शब्दप्रमार 1 सास्य-सुत्रों ने शब्द-
प्रमाण का यही नाम स्वीकार किया है । 'आप्तोपदेह्ञः शब्दः ।'
-सां० सूत्र १।१०१
क कक
ति
आचायं विज्ञानभिकषु के दर्शन को तुलनात्मक समीक्षा | २५१
१ ( 1] [3
मानादहै।) भ्रनिख्दधकौ ही भाति वेद को विज्ञानभिष्षु भी श्रपौरुषेय ओर श्रेष्ठ
शब्दप्रमाण मानते हैँ । स्मृतियों, पुराणों श्रौर योग्यवचनवाने उपदेष्टारो
कोभी वे भ्राप्तप्रमाण या शब्दप्रमाण मानते है।
पुरूष-बिचार
ग्रनिरुदर के ही समान विज्ञानभि्षु भी भ्रात्मा या पुरुष के श्रस्तित्व के विषय
मे सभी दार्शनिका कं एकमत्य के कारण उसके प्रस्तित्व को सिद्ध करनेवाले
प्रमाणो कौ अविक प्रावक्यकता नदीं समभते ।२ तथापि सांख्यसूत्रका राभिमत तर्को
का युक्तियुक्त सद्धुलन उन्दने श्रपते भाष्य मे क्रिया है। पुषुषास्तितप्रमाण में
उन्होने भत्रं हरिसम्मत स्वानुभूति* का भी।संनिवेश किया है । पार्चात्य दार्शनिक
डेकाटं को पद्धति^ की ही भांति उन्होने इस श्रनुभूति प्रमाण को जानेऽहमिति-
धीबलात्'६ इस रूप मे प्रस्तुत किया है । अथवा “जानामीव्येवं प्रतीयमानतया
पुरुषः सामान्यतः सिद्धःएवास्ति,'”‡ इस प्रकार की युक्ति का प्रदर्शन किया है ।
पुरुष को प्रसङ्खता, नित्यता, शुद्धता, कूटस्यता, गुक्तल्पत) साक्षित्वः
दरष्टत्व, श्रकतृं त्व, चेतनरूपता, भ्रनादित्व श्रौर॒निगएता मे उनका सभी सांख्य-
शास्त्रों से एकमत्य है । पुरुष मे भोक्तृत्व को वे स्वीकार करते ह--जव तक कि
मुक्तिलाभ की दशा नहीं रहती भ्र्थात् जव तक पुरूष जीवरूप से रहता है तव
तक । उन्होने इस मान्यता मेँ वाचस्पति मिश्रकाही अनुसरण किया है।८ भले
१. प्रतिबन्धो व्याप्तिः 1 व्याप्तदर्लनादि व्यापकज्ञानं वृत्तिरूपमनुमानं
प्रमाणम् इत्यथः 1 अनुमितिस्तु पौरुषेयो बोधः !-सां० प्र° भा
पु० ५३
जयमङ्घलाकार का अनुमान का लक्षण यह है--कदाचि-
त्लिङ्धपु्वंकम् कदाचित्लिङ्किुवंकं लोके द्द्यते ॥ ज० म० ¶० ०
सामान्येनात्मनि अविप्रतिपत्त: विेषनिरूपणाय आह ।- सा ° सु°
६।१ पर अ० व°
३. चेतनापलापे जगदान्च्यप्रसङ्धतो
नाप्यविवादः--सा० प्र भा० ९० ६६
४. स्वानुभरत्येकमानाय नमद्चिन्मात्ररूपिणो 1 न° श० १
-तो भोक्तरि अहम्पदायें सामान्यतोवोदघा-
५. (10810; ०, &71.--1268081068.
६. द्रष्टव्य, सां० सा० उत्तरभागः
७, द्रष्टव्य, सां० प्र° भार ६1१
च, द्रष्टन्य, सां० त° कौ० पु० ११८
प्रथम् परिच्छद ।
"क च्चै
२५२ | आचाय विज्ञानभिक्षु
ही भोग का स्वरूप दोनों श्रचार्यो के मत मे यत्किख्ित् भिन्न हो ।‹ वाचस्पति मिश्र
के मत मे वुदधिस्थ पुरुष-प्रतिविम्ब मे सारा भोग होता है। किन्तु विज्ञानभिष्षु
कहते है कि इस प्रकार का भोग प्रतिविम्बगत होने से तुच्छ होगा; र मतमें
पुरुषस्थबुद्धिप्रतिनिम्ब ही भाग है । भोग चाहे प्रतिबिम्ब रूप ही क्योंन हो परन्तु
पुरुष का भोक्तृत्व तो निरिचत रहता है। अनिरुद्ध ने पुरूष मे भोक्तृत्व नहीं माना,
कदाचित् वे भोग ॒को क्रिया समक वैठे थे, श्रनेक साधारण कुताकिकों कौ भांति ।
इस प्रकार से तो पुरुष का साक्षित्व, द्रष्टुत्व सव भ्रनुपपन्न हो जायगा जिसके ,
विषय मेँ कारिकाएं श्रौर सूत्रः दोनों एक ही स्थिति की घोषणा करते हँ । इसीलिए
विज्ञानभिक्ु ने इस मतवाद के खोखलेपन को सममकर इसका तिरस्कार क्रिया
है । भोग श्रौर कंवल्य यही तो पुरुषां हैँ । इनका श्रपलाप सांख्य कहीं नहीं करता ।
शून्यवादियों की बात भ्रौर है ।
माठर की मान्यता मे पुरुष को श्रानन्दरूप बताया गया है ।२ यह मान्यता
भ्राचायं विज्ञानभिक्षु को वैसे ही प्रसह्य श्रौर भग्राह्यहै जैसे अरन्य सांख्याचार्यो
को । (सांख्यसार' में उन्होने इस प्रकार के मत का जोरदार खण्डन कियाहै।
सांख्य-सम्मत पुरुष-बहुत्व को स्वीकोर करते हुये भी वे सामान्य रूप से भ्र्थात्
जातिरूप से पुरूष का एकत्व मानते हँ ।७ उनका पुरुषेक्य माठर श्रौर गौडपाद कौ
भांति नहीं है । व्योकि वे श्रखण्डात्मवादी नहीं हैँ।* इस सजातीय एकत्व के
कारण उनका .सिद्धान्त वाचस्पति मिश्र, अनिरुद्धः श्रौर जयसङ्खलाकार तथा
परमां से भिन्न है । ये लोग सांख्य में पुरुष की किसी प्रकार की एकताको
स्वीकार नहीं करते । पुरुष भोग-दशा में हौ जीव है, कंवल्य दशा में केवल पुरुष
है, जीव नहीं । इस मत में यद्यपि सभी सांख्यशास्वियों का एेकमत्य है किन्तु इसका
स्पष्ट प्रकारन विज्ञानभिष्षुने ही किया है ७ ईस्वर को विज्ञानभि्षु मे सांख्य
१. द्रष्टव्य, सां० का० सं° १९ इत्यादि ।
२. द्रष्टव्य, सां० सू° १।१४८, १६१, १६२; १६३ इत्यादि
३. द्रष्टव्य, माठरवृत्ति कारिका ३९
४. द्रष्टव्य, सा० प्र भा० पु० ७५
५. जातिः सामान्यमेकरूपत्वं, ततरेवाद्रं तभरुतोनां तात्पर्यात्, -न तु अखण्डक्तवे-
जाति-परत्वात्-विजातीयनिषेघपरत्वात् ! सां° प्र० भा० प° ७४
माप्रृत् सजातीया तम्-सजातीयविजातीयाद्रे तं भविष्यतीत्यत्राहं
नोभाभ्यातेनेव अबाघितप्रत्ययेनैव भेददर्शनम् !--अनिरुद्ध की सां०सू°
व° पु १८०
७. व्रष्टव्य, सां० सा० प° ३३ भर सां० प्र° भा० पु० १६५
59
आचायं विज्ञानभिन्ु के दन कौ तुलनात्सक समीक्षा | २५३
स्वीकृत नहीं मानते वल्कि इसे सांस्यशास्त्रियो का प्रौढिवाद मात्र मानते ह ।
सांख्य को श्रन्य व्याख्याताभ्रो की भांति निरीश्वर समभे हुए भी,२ सेरवरता र
खण्डन या सेश्वरता की संभावना का निराकरण सांख्य में किया ५ हो, एसा वे
नहीं मानते 1 स
्रकति श्रौर गुण विचार
यद्यपि सांख्यकारिकाकार ने प्रकृति की कोई परिभाषा नहीं दी दहै, उसे केवल मूल
्रङरति, श्रविक्रृति श्रौर त्रिगुण कहा है । उत श्रव्यक्त श्रौर प्रधान कौ संज स
भी श्रभिहित किया गया है । फिर भी केदाचित् कापिलसूत्र ११६२ के श्रावार पर
ग्रथवा किसी भी श्रप्रकट कारण से गौडपादर श्रौर वाचस्पति मिश्र^ ने सत्त्व,
रजस् श्रौर तमस् इन तीनों गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा है । जयमङ्खला-
कारने भी प्रकृति का श्रपर पर्याय गुणसाम्य माना है । किन्तु परमायं ने प्रकृति
को त्रिगुण रूप न कर्टकर त्रिगुयुक्त बताया है ।९ शारीरक-भाष्य में शङ्कुर
भी प्रकृति की इसी परिभाषा को साख्य-पम्मत मान कर सांख्य के खण्डन-मण्डन
म प्रवृत्त हुए है ।७ अनिरुढ अपनी वृत्ति में प्रकृति कौ इस परिभाषा कोज्योंका
त्यों स्वीकार करते हए यह सुफाव भी देते ह कि तीनों सें से प्रत्येक गुणको भी
प्रकृति कहने की शास्त्रीय परम्परा (1
१. द्रष्टव्य, सां० प्र° भा० पृण 1
अतः सावकाशतया सांस्यमेवेशवरप्रतिषेधांशे द्वलमिति ।--सा० भ्र”
41९ ६ ५ कस्येवेरवरप्रतिषेधस्यशवयवराग्या = (क ५
३. अस्मिन्नेव शास्त व्याबहारिकस्यवेशवरमतिषेधस्यस्वयंवरप्यायमवुवाय-
त्वौचित्यात् सेदवरवादस्य न क्वापि निन्दादिकमस्ति ।-सां० प्र° भा°
६ ६
४. सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था कृतिः 1-गोडपाद-भाष्य प° ९९, २५
प्रकरोति इति प्रकृतिः प्रधानं सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था ।--सा° त°
५.
कौ० पु० २३
६. प्रघानं त्रिगुख-गुक्तत्वाद् । सु° २० पु० २२ प्रकृतिरेव त्रगुएुक्ता
सुर स० पुर ८९
७. शं० भा० २।१।२९ उद्योतकर ने भी न्या० सण ४।१।२१ के वातिक
अपनी संहिता मे प्रकृति की सांद्य-
मे यही किया है सुशुत नेभी
्हृतिस्याप्येकंकस्मि्पि रकृतिशाब्दप्रयोगः
सम्मत यही परिभाषा मानौ है।
८. यद्यपि त्रयारं साम्यावस्था प्रकृतिस्थ
सकितिकः । अनि० वृ° प° ४१
२५४ | आचायं विन्ञानभिष्च
श्राचायं विज्ञानमिष्चु ने इस परिभाषा को संशोधित श्रौर परिमाजित करने
कीचेष्टाकीह। उनकी दृष्टि मेँ सूत्रस्य यह् परिभाषा उपलक्षणमाव्र ह परशं
लक्षणा नहीं । भ्र्थात् साम्यावस्था से उपलक्षित गुणत्रय ही प्रकृति है । यदि
साम्यावस्था को ही प्रकृति मानें तो गुणत्रय की-वैषम्यावस्था में प्रक्रति काना
या श्रभाव हो जायगा । साथ ही उन्होने यह भो स्पष्ट किया कि प्रति गुणोंकी
एक अवस्था-मात्र नहीं है, बल्कि वह स्वयं गुरत्रय टी है ।१ प्रन्यथा गुात्रय प्रौर
प्रकृति भिन्न-भिन्न पदां हो जा्येगे । अ्रवस्था तो क्षणभेगुर स्थिति है।२ इस
प्रकार गुणत्रय श्रौर प्रकृति श्रलग-प्रलग नहीं है । इसलिए उन्होने प्रकृति को
भ्रवस्था की श्रवस्या से ऊपर उठाकर शाश्वत, स्थायी गुरात्रयके रूप में प्रतिष्ठित
क्ियाहै।
यहीं पर उन्होने गुणो का स्वरूप भी स्पष्टरूप से निर्धारित क्ियादहैकिये
गुण वैशेषिक गुणों की हैसियत के न समभने चाहिये क्योकि ये तो स्वयं गुणी रहै,
गुणवान् हैँ भ्र्थात् द्रग्य हँ) द्रव्य होने पर भी गुण कह जाने के सम्भावित
कारणों काभी उन्होने बड़ी युक्तिमत्तासे निर्देश किया है। साम्यावस्था का
उन्होने पणं विवेचन किया है 'श्रौर प्रकृति की एकमात्र सर्वाङ्गपुणं परिभाषा
उन्होने यह् स्थापित की है--्रकार्यावस्थोपलक्षितं गुणसामान्यं प्रकृतिरित्यथः ५
गुरो की सुख-दुःख-मोहात्मकता ग्रौर पारस्परिक साधम्यं ग्रौर वैघम्यं उन्होने
सभी श्राचार्यो कौ माति ही स्वीकार कियादहै। उनकी विभुता भी उन्हे ग्राह्य
है । उनकी संख्या के विषय में श्राचायं विज्ञानभिक्चु का कहना है करि सत्त्वादि गुण
केवल तीन नहीं ह, ्रपितु भ्रसंख्य हँ । उनका त्रित्व त्रिप्रकारत्व का बोधक है,
त्रिव्यक्तित्व का बोधक नहीं । सत्त्व, रजस् श्रौर तमस् तीनों प्रकार के गुण भ्र्थात्
कारणद्रव्य श्रलग श्रलग , भ्रनेक व्यक्तिवाले हैँ भ्र्थात् भ्रनेक सत्तवगुरा, श्रनेक
रजोगुण श्रौर अ्रनेक तमोगुण हैँ ।९ वैशेषिक परमाशुग्रों से इन प्रसंख्य गुरात्रय
मे उन्होने श्रन्तर भी स्पष्ट कर दिया है कि इन सत्त्वादिकों मे शब्दस्पर्शादि गुण
१ सरवादीनामतद्धमं्तवं तद्र.पत्वात् । सां० सू० ६।३९
२. वेषम्यावस्थायामपि प्रकृतित्वसिद्धय उपलक्षितमिल्युक्तम् !--सा० सा०
० ११
क स, द्रष्टव्य, सां० भ्र° भा० प° ३२; ३३, ६३, ६५
४. द्रष्टव्य, सां० प्र° भा० पृ० ३३।
रष्टन्य, सां० प्र° भा० पु० ३३।
वरष्टव्य, सां० प्र° भा० पु० ६४
0 ~€
आाचायं विज्ञानभिकषु के दर्शेन को तुलनात्मक समीक्षा | २५५
नहीं रहते जव करि परमाणु मे शब्दादि का अस्तित्व “विष के माघ्यम से सदा
माना जाता है।?
परिणाम-सिद्वान्त ओर पुरुष का बन्ध
सृष्टि श्रनादि है फिर भी कल्पभेद से सृष्टि श्रौर प्रलय की उपस्थिति करमशः
होतो रहती दहै । ग्रतः इस सृष्ट्यादि के क्रम का सविस्तार वरशंन उन्होने दिया
है । सृष्ट्यादि का हेतु प्रकृति-पुरुष-संयोग है एेसा वाचस्पति मिश्च, परमार्थ, गौड-
पाद श्रौर भ्रनिरुद्ध प्रादि सभी सांख्यशास्त्र मानते हँ । किन्तु विज्ञानभिष्षुका
विचार सूत्रों के ्राधार पर यह् है कि यह् प्रकृति-पुरुष -संयोग सगं का मूल हेतु नहीं
है । उनको दुष्टिमेंइस संयोगकादहेतु श्रविद्या है जो कि विषयतासम्बन्वसे
पुरुषगत मानी गयी है ।* यह् श्रभ वात्मक नहीं है,९ तुच्छ भी नहीं है ।४ इससे
संयोग होता है श्रौर संयोग से सृष्टि होती है । यह् तो रही व्यम्टि-सृष्ट की वात ।
समष्टि-सृष्टिके लिये विज्ञानमिक्षु ने यद्यपि अ्रविवेक को स्फुट रीति से प्रकृति-
पुरुष-संयोग का निमित्त नहीं कहा तथापि ईर्वर या परस्मेदवर की इच्छाका भी
ग्रहण उन्होने सांख्य-पक्रिया में नहीं किया । श्रतः समष्टिमृष्टि के लिए
चित्सामान्य का प्रकृति से संयोग ही हेतु ूप से स्वीकृत समना चाहिये । दोनों
दला मेँ सृष्टि का प्रयोजन प्रकृति के द्वारा साधित पुरुष का भोगापवरगं हौ
समभना चाहिये ।
प्रथम सृष्ट पदार्थं महत्त्व है जो व्यष्टि खूप से वुद्धि रौर समष्टिरूपसे
जगद्बीजभूत हिरण्यगभे श्रथवा विष्णु है । वेदान्तादि शस्त्रो मेजो श्राकाशादि
की उदयन्ति सवसे पटले बताई गई है उसके भ्राधार पर सांख्यसूष्टि-प्क्रिया को
श्र तिसम्मत न समभनेवालौं को विज्ञानभिश्चु का सबल उतर यह् है कि श्राका-
शादि श्रादिभूत सृष्टि की विरोधिनी श्रू तियां भी ह “स प्राणमसृजत् अआणा-
च्छं एवं वायुमित्यादि९ प्रौर प्राण चि भ्न्तःकर्ण का वृतिभेद ही है, इस-
१. कारणद्रन्यस्य शब्दस्पर्शराहित्यमेव । सां° प्र° भा० पृ ६४
२. तदेवं संयोगाख्यजन्मदवारा बन्धास्यहेयस्य मुलकारणमविवेक इति हेयहेतुः
प्रतिपादितः -सां० प्र० भा० २८
३. अतएव चाविद्यानाभावोऽपि तु विद्याविरोधिज्ञानान्तरम् (-सां० प्र
भा० पुर २८
, द्रष्टव्य, सां० प्र° भा० पु० १७
५. द्रष्टव्य, सां० प्र° ना० प ८२
६. ब्रष्टव्य, प्रनो° ६.३४
------------------- ज
२५६ | आचाय विज्ञानभिक्च
लिये इस श्र.ति मेँ प्राणशन्द से महत्त्व का ही श्रथ लेना चाहिये ।१ वेदान्तसूत्र
ने भी महदादि क्रम से ही सृष्टि प्रक्रिया स्वीकृत की है । वेदान्त-सूवरहै (भन्तरा-
विज्ञानमानसी क्रमेणतल्लिङ्गात् ।'२ इसलिये सत् श्रौर भ्राका के बीच में वुद्धि
नौर मन की उत्ति हौ समभनी चाहिये । मन में श्रहद्कार भी श्रन्तर्भूत है 1२
इस प्रकार विज्ञानभिश्चु एकमात्र सांख्य-व्यास्याता हैँ जिन्होंने सांख्य की सृष्टि
भ्रक्रिया को प्र तिसम्मत सिद्ध किया है । सभौ सांख्यशास्व्ियो से भिन्न उन्होने
सूत्र श्रौर कारिका" से यह म्र्थं निकाला है कि सात्त्विक ब्रहङ्कार से मन, राजस
अहङ्कार से दशेन्द्रियँ श्रौर तामस श्रहद्ार से तन्मावराग्नों को उत्पति होती है
जबकि श्न्य लोग दो प्रकार के साच्िक श्रौर राजस श्रहद्धार से ही इनकी उत्पति
मानते है ।* प्राणों के स्वरूप में भौ उनका सवते स्पष्ट मतभेद है । वाचस्पति
श्रोर अनिरुद्ध श्रादिने प्राणों को वाधुविशेष रूप माना है जवकि विज्ञानभिक्षु
प्राणों को वायु न मानकर सचारसाम्य के कारंण। वायुवत् स्वौकार करते हुये
श्रन्तःकरण-परिणामविरेष' या श्रन्तःकरणवृति" मानते ह । प्राणों को वायु
मानने का उन्होने खण्डन भी किया है ।६
उन्होनि श्रनिरुद्ध के द्वारा मानी गई 'सक्रम' इन्द्रियवृत्ति का भी खण्डन किया
श्रौर उते सकरम तथा ्रक्रम दोनों वताया है ।७ उन्होने लिद्धशरीर के स्वरूप-
निवारण में भी नवीन सिद्धान्त स्थापित किए हैँ रौर उन्हें ही. भ्र तिस्मृतिसम्मत
बताया है ! ८ उनके मत मे सर्गादि मे लिङ्खशरीर समष्टि रूप से एक ही रहता है
वह॒ यद्यपि सावयव नहीं है फिर भी एकादश इद्र्या, पाच तन्मात्राएं श्रौर
बुद्धि मिल कर वह् एकराशि लिङ्खशरीर बनता है । लिङ्गशरीर श्रन्यसम्मत
श्रदरार्ह् भ्रवयव मानना ठीक नहीं है । साथ दही पाच प्राणों के स्थान पर उन्होने
पाचि तन्माव्राश्नां को लिङ्ग शरीर के भ्रन्तगंत ग्रहण किया है जिससे स्थुल देह ने
रहने पर भी भोगायतनत्व-रूप ररीरलक्षण उसमे बना रहता है । स्थूल देह न
रहने पर उसका प्राश्रय भ्रधिष्ठान-शरीर बनता है! यह् लिङ्ख शरीर महा-
प्रलय पर्यन्त रहता है भ्रथवा उस पुरुष के कंवल्य के ग्रन्यवहितपूवं नष्ट हो
जाता है।
द्रष्टव्य, सां० प्र° भा० पुत्र
द्रष्टव्य, वेदान्तसूत्र २।३।१५
द्रष्टन्य, सा० प्र° भा० पु० ठर
~ सा० षर० भा० ठ
द्रष्टव्य, सां० त° को० पु० २५
द्रव्टन्य, सा० पर० भा०षु० ठत
द्रष्टव्य, सां० प्र० भा०्पु० ८९
द्रष्टव्य, सरा९ प्र ना० पुण ९४-९७
@ 5 < < ~ ८० ८
री
स गि सा घना
केतल्य ओर् उसकी साधना
कंवल्य या मोक्ष के विषय मेँ विज्ञानभि्ु ते भो सभी साख्य प्रौर वेदान्त के
भ्राचायो कौ माति यही स्वीकार कियाद करि तत्वत्ञान से दी मोक्ष होता है
योगसिद्धान्त से वे बहुत श्रधिक प्र भावित है ।१ उन्होने सिद्धान्तित किया दै कि भूत
प्रोर बतंमानदुःखतोभोगसेदुरहो ही जाते है, ग्रतः ग्रनागतदुःख श्रौर उसकी
सारी सम्भावना की निवृत्ति ही मोक्ष! इस प्रकार के दुःख की प्राव्यन्तिक
बृत्ति ह्
श्रोर एकान्तिक निवृत्ति तभी सम्भव है जव चित्त का लय हो जाय । अ्र्थात् चित्त
¢ व॑ ह् त
रौर पुरुष के पुनः संयोग कौ सम्भावना न रह् जाय । प्रतः मूरवित-दशा मे पुरुष
केवली प्र्थात् उपाधि्षम्पकंशुन्थ रहता दै । इसलिणए प्रतिविम्बरूप दुःख का भोग
उसमें नहीं रह जाता । यही उसका कंवल्य या ग्रपवगं है 1 इस दला मे पुरुष
न्यायवैरपिकसम्मतापवरगे दशा की भांति शिलाकलवत् नदीं रहता, क्योकि नैया-
यिकादि तो चैतन्य याज्ञान को श्रात्मा का गुण मानते ह भ्रौर मोक्षदशामें
गएसम्पकं राहित्य अरनिवायं है । इस सांख्य-सम्मत मुक्तिदशा मे पुरूष ॒चिन्मा्रूप
से रहता है जैसा कि उसका शाश्वत स्वभाव है । ओओौपाधिक या प्रातिविम्बिक
दुःखकी भी निवृत्ति हो जाती है । प्रानन्दरूपता इस दसा में विल्कूुल श्रसम्भव
है । श्र तियो मे जहां कहीं इस प्रकार की श्रानन्दवत्ता कटी गर है वह॒ केवल भ्रवम
साधको की दृष्टि म मूवित की प्ररोचना करने के लिए ही है 1२ भ्रानन्दल्पता
पुरुष मे सवथा श्रसम्भव है ।० अनिरुद्ध ने भी ्रपनी वृत्ति मे यही वात सूत्रानुरोव
हू हयं दुःखमनागतम् 1-यो० सू्० २
२. अविवेकनिमित्तात्मकृतिपुरुषथोः संयोगः \ तस्माच्च
प्रकृतदुःखस्य पुरषे यः ्रतिविस्बः स एव दुःखभोगो दुःखसम्बन्धस्तलनि-
वृत्तिरेव च मोक्षाख्यः पुरुषां इति !-सां० प्र° भा० पु० ११२
३. मन्दानज्ञान् प्रति- प्ररोचनां मित्यर्थः 1-सां० प्र भा० पु० १३७
एकम आनन्दचेतन्योभयर्पत्वं न भवति! दुःखज्ञानकालेसुखानवुभवेन
सुलज्ञानयो्भेदादित्य्थः । नच जञानविेषःसुखमिति वक्तुं शक्यते ।
आत्मस्वरूपज्ञानस्याखण्डत्वात् 1 अत एव चेतन्यानुभवकाले सुखस्या मर-
रमपि वक्तुं न शक्यते \ अखण्डत्वेनानन्दावररे दुःखं जानामीत्यनुपपत्त : 1
न ह्यात्मनोशभेदोऽस्ति येनानन्दांज्ञावरणऽपि चंतन्यांजो भायादिति । न
च श्रतिबलेनैते सतर्का इति वाच्यम् । 'नानन्द॒न निरानन्दमित्यादि-
श्त्या", अदुःखमसुखं ्रह्यभुतभव्यभवात्मकमित्यादिस्मृत्या चानन्दा-
भावस्यापि प्रतिपादितत्वेन तर्क॑स्यैवात्रादतंग्यत्वादिति -सां० प्र° भा?
० १३७
२५७
फा०- १७
२५८ | आचार्यं विज्ञानभिष्षु
से कंबल के द्वारा सिद्ध की है 1^ किन्तु इस सांख्य-सिद्धान्त को तकं के हौ साथ
श्रुति श्रौर स्मृति प्रमाणो से उपोद्वलित करने का श्रेय ॒विज्ञानभिष्षु कोहीदै।
्रनिरुदध की ही भांति बौद्ध श्रौर श्रद्तवेदान्तसम्मत मुक्ति रूपों का इन्दोने भी
खण्डन किया है श्रौर परमात्मा मे जीवात्मा के एकत्व का पुरं निरास किया है ।
जहां तक मोक्ष-साधन का प्रश्न है, सव ने तच््वज्ञान को मोक्ष-साघन माना
है । कारिकाकार ने स्पष्ट ही 'व्यक्तान्यक्तज्ञ के विज्ञान" को मोक्ष-साघन बताया
है । इसकी प्रापि श्रवणमनन श्रौर निदिध्यासन से ही सम्भव है । इस निदिघ्यासन
का विज्ञानभिष्ु ने घ्यान भ्रथं लिया हैर । श्रौर इसके पञ्चात् उनकी दृष्टिसे
सम्प्रज्ञात में ही पूणं तत्त्वज्ञान प्र्थात् ग्यक्त, श्रव्यक्त श्रौर ज्ञ का ज्ञान होता
है । यही विवेकख्याति होती है 1 जिसे वाचस्पति मिश्र ने सत्तवपुरुषान्यताप्रत्यय
कह कर स्पष्ट किया है । इस स्थिति में भी सत्तवसंभेद पुरुप मँ रहता है !* यही
जीवन्मुक्त दशा है । इसमे कर्माशयप्रचय को दग्वबीजभावता हो जाती है ।* किन्तु
परार्धकम श्रवलिष्ट रहते है 1 जिनका विपाक प्रारम्भ हौ चुकता है । उनका
भग हो जानेऽ पर विदेह्-मुकरित होती है । विज्ञानभिश्वु ने जन्म नामक संयोग
को वन्व कहु कर प्रकृतिपुरुषसंयोग के श्र्पष्ट धरातल से ऊपर उठाया है, श्रौर
इस प्रकार से जन्मपरम्परागत प्रारन्य कर्मभोग॒की ग्रनिवायंता रहने पर भी
जीवन्ुक्तिदश। की संभावना स्पष्ट की है ।८ इस दशा में पुरुष का व्लेशान्वित
१. एवञ्च मुक्तौ आनन्दातुभवः अान्तइति \- सां ° सू० व° ५।६६
२. मन्दविवेकस्तु साक्षात्कारात् पुवं श्रवणमननघ्यानमात्ररूपः इति विभागः!
--सां० प्र०भा० पु० ११३
३. उक्तप्रकारततत्वविषयक्नानाभ्यासादादरनैरन्तयंदीधंकालसेवित्वात् सत्त्व-
पुरुषान्यतासाक्षात्कारि ज्ञानमुत्पद्यते !--सां० को० पु० २११
४, सात्तिक्या तु बुद्धया तदाप्यस्य मनाक् सम्भेदोऽस्त्येव, अन्यथेवम्भुत-
प्रकृतिदशेनान् पपत्ते रिति -- सां० त० कौ० पु० २१४
५. वलेरासलिलावसक्तायां हि बुद्धिभरुमो कमंबोजान्यङ्कः.रप्रसवते 1 तत्त्वज्ञान
निदाघनिपीतसकलक्लेशसलिलायामुषरायां कुतःक्मवीजानामङ्धः .रप्रसवः 1
ध --सां० त० कौ० प° २१८
६. अनारब्धविवेकाः तावत् कर्मारायानांतत्वज्ञानाग्निना बीजभावो दग्धः ।
भ्रारञ्चविवेकानां तुपभोगेन क्षये सति ।*- सां ० त० कौ० पु० २१९
७. जन्मास्यकङ्चसंयोगःश्रारव्धसरमा्प्ति विना न नक्यति 1- सां० प्र भा०
पु १८
( ५. मध्यविवेकावस्थ एव भवति इत्यथः ।- सां० प्र° भा०
9
माचायं विज्ञानभिक्षु के दन कौ तुलनात्मक समोक्षा | २५९
भोग भले न हो किन्तु भोगाभास तो वना ही रहता है ।१ सद्यः-मोक्ष के
भ्रधिकारी तो भ्रसम्परज्ञात समाधि सिद्ध करनेवाले ही होते ्।२ उन्दंन भोग
होता है भ्रौर न भोगाभास वरन् सद्योऽपवगं लाभ होता दै । यह मोक्ष भी कोई
भावात्मक प्राति नहीं है । ्रपितु श्रौपाधिक या व्यपदिष्ट भोग की निवृत्ति मात्र
है । श्रतः यह् नित्यस्थायी स्थिति होती है ।
- ट जीवनुकताना तु भोगाभास एवेति प्रागुक्तम् (-सां० प्र° भा०
पुण ११४
विवेकनिष्पततिदचापुनरुत्थानाद् असम्प्रत्ातादेव भवतीत्यतस्तस्यां सत्यां न
विवेकनिष्पत्तिश्चापुनरुःमानाद्
% आोकतोति }-सा० भ० भा० ११३
णोगा स्तरूप
विज्ञानभिचु ने सांख्य श्रौर वेदान्त शास्न मे स्वीकृत किए ज्ञान के साधनभूत
योग से ही सन्तोष नहीं किया ।१ ज्ञन का साघन-भरूत योग॒ मोक्ष का साक्षात्
साधन नहीं माना जा सकता । विज्ञानभिष्चु ने योगसूव्रभाष्य के श्राघार पर योग
को मोक्ष का साक्षात् साघन भी स्वीकार क्या हे । इस प्रकार से मोक्षलाभके
लिए केवल ज्ञानमाग ही नदीं श्रपितु योगमार्गं भी एक श्रो यस्कर साधन निरिचित
होता दै । किन्तु भ्राचायं विज्ञानमिष्षु का व्यक्तिगत भुक्राव योगमा कौ दही ग्रोर
भ्रधिक है । इसके लिए उन्होने स्मृति के प्रमाण भी उपस्थित किए रँ ।२ श्रौर
यह् भी निदेश किया है कि ज्ञानमागं तुरन्त मोक्ष देने मे श्रसमथं है उसमे विवेक-
ख्याति श्रवा तत्त्वसाक्षात्कार होने पर भी कम से कम प्रारन्धरकमं का भोग करना
ही पड़ता है । ग्नौर तव कहीं परममुक्ति हो सकती है ) योगमागं का वैरिष्य्य
यह् है कि श्रसम्पज्ञातसमाधि सिद्ध होते ही प्रार्य कर्मोकाभी तुरन्त क्षय हो
जाता है» रतः तुरन्त मोक्षलाभ सम्भव हो जाता है। यही योग॒ का बल है
जिसे स्मृतियों ने प्रतिपादित किया है ।
इस प्रकार से योग का महत्त्व ज्ञानमागे के कारण कम॒ नहीं होता भ्र्थात्
ज्ञानमागं के द्वारा योगमागं श्रनावह्यक, निष्प्रयोजन या भ्रन्यथासिद्ध नहीं माना
जा सकता बल्कि एक ग्रच्छै साधन के रूप में मूमृषुप्रों को ग्राह्य होता है । योग
कीजो परिभाषा सूत्र रूप में प्राप्त है उसे भाषा में श्रधिक चुस्त ठंग से विज्ञानभिषु
ने व्यक्त किया है श्रौर निरोध का रूप भी पहले-पहल स्पष्ट किया है ।
१. द्रष्टव्य, यो० वा०पु०रे
२. भुदितर्योगात्--इत्यादिस्मृतिषु च योगोमोक्षहेतुतया विहितः ।
-यो० वा० पु०५
३. तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।--श्रौमद्भगवद्गीता
पु० ११
४. तत्र चासम्प्र्ञातयोगेनाविलसंस्कारदाहकेन प्रारज्धकर्माप्यतिकरमूयत इति
ज्ञानाद्िरोषः । ज्ञानस्य हि प्रार्धनाशकत्वे बाधिकाऽस्ति तस्य तावदेव-
चिरमित्यादिशरुतिर्जीवनमुव्तिश्रुतिस्मृतयद्च ! योगस्य प्रारब्धनाशकत्वे-
बाधकं नास्ति प्रत्यत, दग्धकमंचयोऽचिराद् इत्ति एव स्मर्यते । अतः
प्रारब्धमपिकमं कमंविपाकोक्तप्रायङ्चितादिवदेवातिक्रम्थ फटितिमोचन-
मेव योगस्य फलम् \--यो० वा० पु° ११
२६०
भाचायं विज्ञानभिकषु के दरंन कौ तुलनात्मक समीक्षा | २६१
वाचस्पति मिश्च श्रौर भोजराज दोनों की टीकाभ्रों मे योग की सामान्य रूप
सेश्रौर समभ्रञात तथा श्रसम्प्रज्ञात की विशेष रूप से परिमाषाएं दीगरईर्है।ये
परिमि षां सुव श्र भष्य के ृव्दायंमात् की निर्वाहिका प्रतीव होती ह ।
इनमे क्रमवद्धता श्रौर पारस्परिक संदिलघ्टता तथा उनके श्रभीष्ट मन्तव्यो की श्रोर
संकेत सर्वत्र विज्ञानभिष्चु नेदीकरते कौ चेष्टा कीरटै। जैसे उन्होने योगको
सुगठित परिभाषा दी है वैसे ही सम्प्रज्ञात१ श्रौर भ्रसम्परज्ञातर के लिए भी उन्होने
र्थाववोधिनी एवं सृस्पष्ट परिभाषां दी है । दोनों प्रकार के योगों का दृष्टफल
तथा श्रदृष्टफल श्रौर उनका पारस्परिक सम्बन्ध तथा श्रलग-ग्रलग महतत्व॒विज्ञान-
भिक्षु ने बड़े साफ-पुथरे वाक्यों मेँ सरवेथा सुबोष श्रौर प्रभावपूणं रोली में
प्रतिपादित किया है । किस प्रकार से क्लेशनाशक सहकारी के उच्छेद से कर्मो
काक्षयहोताहै? कमं क्षय का प्रथं क्यों केवल फलाक्षमीकरशमात्र लिया
जाना चाहिए १९ क्यो यही कर्मक्षय स्मृतियो मेँ दाहं नाम से बताया गया ह (>
यह् सव एक रोचक, विशद तथा विस्तृत पैमाने पर योगसारसंग्रह ओर योग-
वाक्िक मे प्रतिपादित किया गया है । इन ग्रन्थो के पने से वाचस्पति मिश्च श्रौर
भोजराज कौ टीकाश्रों का स्वरूप टीका श्रौर व्याख्याभ्नों तक ही प्रतीत होता है
जवकि विज्ञानभिश्षु इस क्तौटी पर खरे उतरतेहै साथ ही यह भी विदित
होता है कि एक योगी सारे, प्रतिपादित सत्यो का मानो साक्षात् दर्शन करके
हमे भी सब तथ्यों का साक्षात्कार कराये दे रहा दै । कटी कोई गुत्थी विना
पूरे ठग से विवेचित हृए पौ नहीं रटने पाती ।
सम्भरज्ञात की चारों भूमिकां या चारों भेद वैकल्पिक नहीं, ्रपितु उच्चारोहि-
तरमिक सोपान परस्परा कौ भांति है । उनमें विज्ञानभि्ु के भ्रनुसार एक ही श्रालम्बन .
ग्रहण करना भ्रच्छा रहता है, नहीं तो पहले कौ गई साधनाभ्र के त्याग का दोष
ध
(ए. ध्येयसाक्षाव्कारास्यरलोपहितनिरोधत्वं सम्र्ाततत्वम् । अथवा ष््येया-
तिसिकतवृत्तिनिरोधविशेषः सम््ज्ञातः --यो० सा० सं° पुर
२. तत्त्वन्नानसंस्कारदाहकत्वे सति स्वंवृत्तिनिरोघत्वम् ।--यो° सा० संर
८ ध योगस्य च कर्मनाशकत्वं सहकार्युच्छेदेन एलाक्षमोकररए-
मात्रम् (-यो० सां० सं° पृ ७
इदमेव च दाहः । तयाहि ज्ञानेनाविद्यादिवलेशक्षये सति क्लेशाख्यसहकायु-
च्छेदादेव कर्मणां विपाक आरब्धुं न शक्यते" सति सूलेतिद्विपाकः, यो०
स० २.१३ इत्तसूत्ेण कर्मणाम् स्वमूले क्लेशे सत्येव दिपाकारन्भवच-
~ उ्ासभाष्येण तथा न्याख्यानाच्च [--यो० सा० सं० पु० ठ `
नाद्
२६२ | आचाय विज्ञानमिश्
भ्रा पडता है साथ ही चित्तचाच्चल्य की भी श्रागङ्का बनी रहती है 1१ श्रानन्दानुगत
सम्प्ज्ञात के रूप मेँ रौर श्रस्मितानुगत सम्रज्ञात में श्रस्मिता के निरूपण मे उन्होने
वाचस्पति मिश्र रौर भोजराज दोनों के मतो का खण्डन करके भ्रपना सिद्धान्त श्रलग
से स्थापित किया है । विज्ञानभिष्चु की दृष्ट में भ्रानन्दान्गत सम्प्रज्ञात मे, चौवीस-
तत्त्वानुस्यूत सुखरूपपुरूपाथं का सुखाकार साक्षात्कार होता है । जबकि वाचस्पति
मिध, रामानन्द सरस्वती श्रौर भोजराज इत्यादि ह्लादवान् इन्द्रियवगं को ही हस
भूमिका में साक्षात्करणीय मानते ह । चित्त के परिकर्मो के प्रसंग मे श्राए हृए् 'त््-
तिषेधार्थमेकतत्वाभ्यासः, 'सूव्रगत एकततवः पद से वाचस्पति मिश्र, रामानन्द
सरस्वती श्नौर नारायणतीथं “ईइवर' र्थं लेते है । जवकि विज्ञानभिश्ु ने इसमें पुन-
रुक्ति की सतकं घोषणा करके इस पद का श्रथ कोई भी स्थूलादिपदा्थं' श्रालम्बन
रूप में ग्रहृण किया है । भोजराज को भी यही मत ्रभीष्ट ही
शरस्मितानुगत सम्भरज्ञात कौ दशा में विज्ञानमि्यु श्रनौपाधिक भ्रात्माकार-
साक्षात्कार मानते ह । इसी की पराकाष्ठा धर्ममेवसमापि कहलाती है जिसके
उदित होने पर परवैराग्य श्रौर तदनु श्रसम्भ्ज्ञात का क्रम बताया जाता है । वाच-
स्पति मिश्च ७, रामानन्द सरस्वती तथा भोज के मत मे श्रट्भार' इस समाधि के
साक्षात्कार का विषय है । विज्ञानभिष्यु कहते हँ कि उसी ्ालम्बन में कूटस्थविभु-
चिन्मात्रत्वप्रकार से स्थुलसूक्ष्मानन्द के स्वरूपो से विविक्त केवल पुरुषाकारासंवित्
या साक्षाक्रार दी--भ्रस्मि इ्येतावन्मात्राकार होने के कारणं श्रस्मिता कहलाती
है । यह शुद्धजी वात्म-विषयक ग्रौर निरपाय ईर्वर-विषयक होती है 1“ विज्ञानभिक्षु
ने इस सम्बन्ध में वाचस्पति मिश्र प्रादि के सिद्धान्त का स्पष्ट खण्डन.कियाहै।ः
भ्रस्मिता के इन दो साक्षात्करणीय विषयो में भूमिका-क्रम भी विज्ञानभिष्षु ने माना
१, एतच्च भरुमिकाचतुष्टयमेकस्मिन्नेवालम्बने ऋमात्कर्तंग्यम्, प्रन्यथा पुवं
पर्वोपासनात्यागदोषापत्त :;, चित्तचाञ्चल्यप्रसद्खाच्च ।--यो० सा०
स० पु० ९-१०
२. द्रष्टव्य, यो० वा० पु० १०३
३. तत्रैवालम्बने-सोऽस्मितेत्युच्यते ।-यो० वा० प° १२
४. अस्मितास्पदं हि ग्रहीता पुरुषः 1- त० वै° पु० १०८
५. सोपाषिकेरवरसम्प्रज्नातस्य च विचारानुगते प्रवेशः ।--यो० वा०
पु० ५३
६. नाप्यहङ्रोपरक्तचेतन्यमस्मितारब्देन व्याख्येयम्, लक्षरणापत्त : ।
अस्मिता च चेतन्यमात्रसंविदिति भाष्यकृता प्रोक्तम्।--यो ० वा० पु
१२५; अस्मितात्र नाहद्धारः किन्तु आत्मत्वम् ।--यो०वा०पु०१०३
भाचायं विज्ञानभिकषु के दोन कौ तुलनात्मक समीक्षा | २६३
हे । पहले शुद्ध जीवात्म-विषयक श्रौर फिर निरुपाधि-परमात्मविषयक समभ्रज्ञात
समावि होती है इन सभी सम्प्त्ातों मे उन्होने इस भूमिका-क्रम के बल से परमात्म-
विषयकास्मितानुगत सम्प्ज्ञातसमाधि को ह सश्र ष्ठ माना है ।१
भव-्रत्यय भ्रसम्प्ज्ञात का स्वरूपनिर्णंय करते समय प्राचार्य विज्ञान्भिक्षुने
भ्रपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय दिया है श्रौर वाचस्पति मिश्र तथा भोजराजा-
भिमत सिद्धान्त का सटीक सण्डन किया है । (१) इन लोगों के द्वारा कल्पित यह्
योग केवल योगाभास या समाधिमात्र ही सिद्ध होता है।२ जव प्रकृतिलीन तथा
विदेह संसार मे फिर वन्वन प्राप्त करते हँ तथा सारी स्थिति ्रविदामूलक रहती
है तो पता नहीं इसमे भ्रसम्परज्ञातयोगत्व कंसे व्यस्थित किया जा सक्ता है ?
(२) यदि "भवप्रत्ययः" श्रसम्म्रज्ञातसमाि पूणं रूपेण श्रविद्याजन्य तथा संस्ार-
क्रम को ही वढानेवाली है तो उसको सूत्रकार एवं भाष्यकार ने श्रसम्म्रज्ञात कोटि
मे गिनायादहीक्योदहै?
(२) सूत्रकार एवं भाष्यकार ने कहीं पर इसे योगाभास्र या त्याज्य समावि
के रूपमे नहीं वशित किया है ।
विज्ञानभिक्ु के इन तर्क के वावद्ुद भ किसी योगलास्त्रो ने इस समाधि को
योगकोटि में नहीं स्वीकार किया है 1 उपायप्रत्यय ्रसम्ब्रज्ञात के स्वरूप के विषय
सं श्रवद्य कोई मुख्य मतभेद नहीं है । घर्ममेवसमावि के स्वरूप रौर महत्व के
प्रसंग मे भी वाचस्पति मिश्र की टीका भ्रौर योगवातिक तथा योगसारसंग्रह एक-
मत है । ® पातञ्जलरहस्यकार राघवानन्द सरस्वती की दुष्टि में श्रलवत्ता पर-
वैराग्य श्रौर घर्ममेषसमाधि एक ही है उनमें काष्ठाप्राप्ति भ्रथवा ग्रङ्गाङ्धिरूपता
„ अतः सर्वेषु सम्भज्ञातेषु मध्येपारमेदवरयोगएव भे ष्ठः 1.. -नन्वस्मितायाः
कथमचेतनेषु घटाद्यालम्बनेषु संभव इतिचेन्त । कारररूपेण जीवेश्वरयोः
सर्वत्रानुगमात्, मुक्तात्मनां च विभुत्वेन सर्त्रानुगमादिति । -यो° सा०
1 भरणादितुल्यत्वेनापुख्ष थेत्वाच्च ।
कादाचित्कस्य प्रलय त
२. वुतत्यभावस्य व
धर्ममेघस्य पराकाष्ठा ज्ञानप्रसादमात्रं परं वेराग्यम् \--त० व°
© दैत ध । :
श सर्वथा विवेकख्यातिरिति तदास्य : समाविः 1- त° व°
पु० ४६
४, धर्ममेधः परवैराग्यम् ।--पा० र° ° ४४९
२६४ | आचायं विज्ञानभि ष
का स्वीकार उन्होने नहीं किया है । परवती होने के कारण विज्ञानरभि्षु के खण्डन-
दण्ड से उनका वच जाना स्वाभाविक है । ध ४
'एकाग्रता-परिणामः, समाधि-परिणाम श्रौर निरोध-परिणामों के प्रसङ्धमें
विज्ञानमिक्षु के मत निरचय ही वाचस्पति मिश्र से पयति भिन्न हैँ । वाचस्पति मिश्र
के मत में श्रसम्भज्ञात-दशा में निरोधपरिणाम ग्रौर प्रारम्भिक सम्प्रज्ञातदश्ाम
समाधि-परिणाम तथा परिनिष्ठित सम्भर्ञात में एकाग्रतापरिणाम होते है ।१
विज्ञानभिष्चु के मतानुसार श्रसम्परज्ञात श्रौर सम्प्रज्ञात दोनों में निरोध की प्रधानता
स्वीकृत होने से निरोध-परिणाम,२ योगाङ्खभूत समाधि की प्रारम्भिक श्रवस्या मे
समादिपरिणाम श्रौर सर्वार्थता के निःशेषेण क्षीण हो जाने पर परिनिष्ठितियोगा-
द्गसमाधि की दी दशा में एकाग्रतापरिणाम होते हैँ । इस प्रकार से श्रङ्खाङ्गिभूत-
समाधिदशाश्रों ? के चित्तपरिणाम का पूणं प्रतिपादन सम्भव है।०ध्यानदेनेकी
वात है कि वाचस्पति मिश्च के मतम श्रद्धभूतसमाधि' गत चित के परिणाम का
स्वरूप श्रनुक्त ही रह जाता ह ।*
दूसरा दोष इस मत में यह रै कि सम्परज्ञातसमाधि को स्थिति में चित्तका
निरोधपरिणाम न मानने से सम्प्रत्तातसमाधि की योगरूपता मे बाधा उत्पन्न होती
है जवकरि सूत्रकार को “योगदिचत्तवृत्तिनिरोधः।` यो० सू० १.२ के श्रनुसार
निरोधरूप ही योग अ्रभीष्ट है
सम्प्रज्ञातसमाधि में चित्त जितने प्रकारके रूप धारण करता है वही तद्रूपता
ही योगशास्त्र की पदावली में समापत्ति कहलाती है ।£ श्रौर जिन-जिन विषयों
१. तत्त्ववेशारदीटीका । यो० सू० ३।९, १०, ११, १२ पर वातिक ।
२. यो० सू० भा० ३।९, १०, ११, १२ पर वातिक
३. इदानीमद्धश्रतस्य समाधेरद्धिनोर्च योगयोः स्वरूपभेदावधारणाय
तत्तदवस्थागता विशेषा वक्तव्या, तावतेवैत्योरद्काद्धिनोः प्रयोजनमपि
प्रतिपादितं भविष्यति !-यो० वा० प° २८९
४. तदेवं योंगतदद्धयोः परिणामर्पवेलक्षण्यं तयोलिवेकाय प्रदाश्ितम् ।
--यो० वा० पु° २९३ ।
५. केवलस्यासमप्रज्ञातरूपस्य निरोधस्यात्र ग्रहणे सम्पज्ञाताख्यनिरोधस्य
परिणामाक्तथनान्तयुनताऽपत्ते; ।--यो० वा० प° २८९
६. समापत्तिःसम्यगालम्बनाकारत्वापत्तिः्रत्यक्वृत्तिरित्य्थः चित्तस्य॒चेयं-
भज्ञाख्यावस्था सम्र्ञातेष्वेव भवति न तु धारणोध्यानसमाधिषु तेषु
सामग्रयेएालम्बनाग्रहरात् साक्षात्कारस्येवविकेष।क\रत्वादिति ।
-यो० वा० पु०° १०७
च+
माचा विज्ञानभि्षु के दर्शन की तुलनात्मक समीक्षा । २६५
का साक्षात्कार करता है उन साक्षाकरणीय विषयों के श्राषार पर वितर्कानुगतादि
समभ्रल्ातयोग कै भेद कहे जाते ह । यचपि ्तयकनोकरणा श्रिय मे चित्त सदा साक्षा-
त्करणीयविषयाकाराकारित श्र्ात् तद्रूप हुग्रा करता है, भ्रः दद्रूषता श्रौर
साक्षा्तार एक ही विषय का!होगा । फलतः समापत्तियां श्रौर सम्परजञातसमायि के
प्रवान्तरभेद समानविषयाधारित हौगे । इसी कारण से लोग कभी कभी समापत्ति
ग्रौर सम्प्रज्ञातसमाधि को पर्यायवाची समभने लगते ह| परन्तु प्रावार समान
श्रथवा एक होने से विन्दं दो वस्तुग्रों का स्वरूप ्रौर लक्षण भी समान या एक हो,
यह् श्रावद्यक नहीं १ किन्तु समपत्तियों के फलस्वल्प श्रौर लक्षण इत्यादि मे
उतना मतभेद योगशास्त्रियों में नहीं है जितना कि उनको संख्या श्रौर उनके श्रलग-
श्रलग क्षेत्र के विषय में । सूत्र श्रौर भाष्य में सवितर्का, निवितर्का, सविचारा श्रौर
निविचारा नाम की केवल चार समापतिां प्रतिपादित की गई ह । किन्तु वाचस्पति
मिश्च ने भाष्य मे बताए गए ढंग पर श्राठ समापत्तियां मानी हैँ रौर यह् कहा कि
“तेनाष्टौ ते सिद्धा भवन्ति इति भाष्यहदयं प्रकटीकृतम् ” त० वै० । पृ० १२४।
भोजराज ने इस संख्या के प्रन पर मौन रहते हये सूत्रभाष्याभिमत सिद्धान्त पर
ही स्वारस्य प्रकट किया है । विज्ञानभिचु ने मिश्रमत का खण्डन र करके यह्
सिद्धान्त स्थापित किया कि समापरियां पांच हैँ । उन्होने भ्रानन्द को वुद्धि का
धर्मं वता कर उसे ग्राह्य के भ्रन्तगत माना है । श्रौर इस प्रकार से ग्राह्य म्नौर
ग्रहुएविषय मे स्ुलसुकष्म के भेद से सवितर्का, निर्वितर्का, सविचारा श्रौर निविचारा
समापत्तियां हुई । चूंकि ग्रहीतृ-विषय पुरुष है या श्रात्मा दै श्रत वह् न स्थूलसमापत्ति
क श्न्तमत मिना जा सकता है भ्नौर न तो सृक्ष्म के अन्तगंत क्योकि सूक्ष्मता कौ
सोमा प्रकृति पर्यन्त ही सूत्रकार ने मानी है । * अतः ग्रहीतृविषय कौ एक समापत्ति
श्रलग माननी ही पड़गौ । इस प्रकार से कुल पांच समाप्ता हई ।* कुछ
शराधुनिक विद्वानों ने ५ विज्ञानभिक्ुसम्मत छह समापत्तियां वताई हँ । योगवातिक
करो इस प॑क्ति--“तसभादवान्तरभेदेन पञ्चैव समापत्तयः को पठने के वाद कदाचित्
१. समापत्तिरूपसाक्षात्कारहैवुत्वाद्योगस्य सभापत्तित्वमुक्तम् \-यो° वा०
पुर १२४
२. द्रष्टव्य, यो० वा० प° १२५
. सृषष्मविषयत्वं चालिङ्खपर्यवसानम् (--शष्५ यो०सू°
४, तस्मादवान्त रभेदेन पञ्चैव समापत्तयः- ग्राह्चग्रहणएतोः स्थुलसूष्ष्मभेदेन
सवितकद्याइ्चतचख;, पञ्चमी च ्हीतृष्विति ।--यो० वा० प° १२५
५. द्रष्टव्य, रह्मलीनमुनिृतपातञ्जलयोगदर्शन पृ० २४५
--
२६६ | भचा विज्ञानभिक्षु
उनके भ्रम? का स्पष्ट निराकरण हो जाय । कुच लोगो ने तो विज्ञानभिश्चु की श्रभिमत
छह समापत्तियों पर कयि गये खण्डन का निराकरण भी किया है । कदाचित् पूवेपक्षी
नौर उत्तरपक्षी दोनों ने विज्ञानभिष्चु का समापत्ति-सिद्धान्त ठीक से समभा ही नहीं
था । समापत्ति का पंचसंख्याकत्व ही विज्ञानभिश्चु का सिद्धान्त है । समापत्तियों के
विषय मेँ श्रीतृग्रहणग्राह्य' के प्रसङ्ग में सूत्रभाष्य त० वै०, योऽ वा° श्रौर राज-
मातंण्डकार सब एकमत हैँ ।
योग-साधना के सोपान
योगसाधना का प्रतिपादन करने में विज्ञानभि्चु की मौलिकता तोन प्रकारके
साधको का वर्गीकरण प्रस्तुत करने मेंहै। यद्यपि पुराणों मेये भेद यत्रतत्र
बिखरे हुये पड़ थे किन्तु उन भेदो के भ्रन्सार सूत्र श्रौर भाष्य की क्रमवद्ध उपयो-
गिता प्रस्तुत करने का श्रय क्रियायोग, ज्ञानयोग प्रौर कममंयोगनामक योगाङ्ख की
भ्रसंकीर उपादेयता स्पष्ट करने काश्य निस्संदेह् उन्हीं को है।२ एकम्रौर
प्रवत्ति उनके वातिक में स्पष्ट परिलक्षित होती है जिसके लिये सांख्ययोग की पृष्ठ-
भूमि मेँ उन्हँ केवल वैकल्पिक गुञ्जायश दीख पडती है, वह् है भक्तियोग \ वाचस्पति
मिश्च श्रौर भोजराज ने ईख्वरप्ररिधान भ्रादि को केवल एक स्थलीय महत्ता दी है ।
जब कि विज्ञानभिष्चु ने ईखवरप्रणिघान श्रादिके द्वारा को गई साधना को सार्वत्रिक
उपादेयता से युक्त बताया है । सांख्यपद्धति के भ्रनुकूल को गई निरीरवर-योगसाधना
-ययपि सफल होती है- तथापि विज्ञानभिश्चु की दृष्टि में वहु सौविध्यगुणं नहीं
है । इसीलिये जीवात्मयोगसाधना से परमात्मयोगसाधना उन्हं कहीं भ्रविक श्रं यस्कर
लगती है । ईख्वरभ्रिधान का मागं उनकी दृष्टि में राजमार्गं है ।* उन्होने भक्ति-
१. इस भ्रम के दो कारण ह--
(१) एूवपक्षल्प से विज्ञानभिष्चु॑का यह् कथन कि “ननुस्थलसूक्ष्म-
समापत्ते रेव चर्तुवधत्वादानन्दास्मितासमापत्तिभ्यां सह षट्समा-
पत्तयो भवन्ति \--यो० वा० प° १२४
(२) सम््रज्ञातयोग के चार मुख्य भेद मे ही अवान्तर भेदों
सहित कुल छह प्रकारत्व का कथन कि-- सम्पर्ञातयोगस्त्वा-
नन्दानुगतमादायावान्तरभेदेन षोढेवेति ।--यो ° वा० प° १२५
२. यत्त्वत्र समापत्तिषोढात्वं वदतो--षोढात्वस्य निरावाधात् ! श्री दामोदर
शास्त्री कृत टिप्पणी ।--यो० वा० पु० १२४
३. द्रष्टव्य, यो० वा० पु० २४२
४. मुख्यकल्पत्वे तु राजमागं एव मम इति वाक्यवत् ।--यो० वा० प° ६३
भाचायं विज्ञानभिष्ु के दोन को।तुलनात्मक समीक्षा | २६७
भावना से किए गणु परमेदवरयोग को ही मुख्य कल्प माना है ।१ पुरुषसामान्य-
संयम योग को भ्रनुकल्प ही प्रतिपादित किया है । यह् भक्तियोग उनकी साधना
को; उनके दर्शन-सिद्धन्त को कहीं प्रधिक ऊँची मानवीय भूमि पर प्रतिष्ठित करने
मे समथं होता है ।
ईैश्वर-प्रस्तावना
यद्यपि पतञ्जलि श्रौर व्यास ने ईश्वर का स्वरूप स्वयं साधना के क्षर मँ
प्रस्तुत किया था किन्तु ईरवर की मान्यता केवल वैकल्पिक रूप से ही उपस्थित
हई थी । विज्ञानभिश्षु ने इस विकल्पः को पख्यकल्प एवं भ्रनुकल्प के क्रम मेँ
परिवत्ित कर दिया है। ईइवरसाधना मुख्यकल्प॒हू्रा ओ्रौर जीवात्मसाघना
मरनुकल्प कहा गया । इस प्रकार से विज्ञानभिक्ु का संरम्भ प्रषानतः भक्तियोग में
ही दीष पड़ता दै । श्रतः उनके सम्प्रदाय मेँ भवितिभावना अ्रनिवायं रौर भ्रविभाज्य
तत्तव है । इस भक्ति का वैरिष्ट्य ग्रम्य भक्तदाशंनिकों से इस वात में स्फुट है कि
यह निर्गुण ईदवर की भक्ति है । जव कि भ्रन्यत् सर्वत्र सगुण ईश्वर की ही
भक्रिति भवतदार्शानिकों मे देखने को मिलती है । इसी तथ्य को हम इस प्रकार भी
प्रकट कर सकते है कि विज्ञानभिश्ु की ईख्वर-भव्ति योग की सूक््मसाधना के
सर्वथा भ्रनुरूप है उसमें स्थूलघमंता के लिए भ्रवकाश नहीं है । यदपि विज्ञानभिचु
विष्णु को ब्रह्मा, शङ्कुर, हिरप्यगर्भादि से उ्छृष्ट मानते है किन्तु यहं सदा
स्मरणीय है किये विष्णु विज्ञानभिष्षु के ईश्वर नहीं ह । न दही कृष्ण या हरि
उनके वे ईश्वर ह जिनके अनुद का इच्छा भी विज्ञानभिचु ने श्रपने म्रन्थ के
इलोकों मँ की है, वे सव केवल उच्चकोटि के जीव ह अथवा ईरवर के लीलावतार
या श्रावेश्ावतारं मावर ह । ईव्वर वस्तुतः निर्गुण है, चिन्मात्र टै चिरन्तन है ।
उसका वाचकशब्द केवल ॐ है । इस प्रकार से योगसाधना मे व
ल्प हवे निर्गुण श्वर ह नकि ब्रह्माविष्ुहरादिक । इस प्रकार ~
त ८ वैष्णव दार्शनिक इत्यादि नाम से अ्रभिदित करना श्रत्युक्ति
ही होगी ।
१. अतःपरमेऽवरे संयमो सम्भर्ञातपयन्तयोगे मोक्ष च मु्यकल्पः, भासन्त
रतासंपादनात्, जीवात्मसंयमस्तु तत्रानुकल्प इति सिद्धम् 1--यो० सा०
५. यवदविकलपः स्यात्तहि तमेवविदित्वातिमतयुमेति,
२. यदि चोभयोरेव वु सः य
नार्यः पतथाः विद्यतेऽयनाय (वैकं जानथात्मानमन्यावाचो विमुञ्च
अमृतस्येव सेतुरित्यादिश तयो व्याकुपयेरन् । -यो° वा० १० ६२
३. एतेन प्रीयतामीशो य आत्मा
की अन्तिम पंक्ति।
सवदेहिनाम् -यो० वा अन्तिम श्लोक
. -. {ति
~क
सिद्धिं
सिद्धिपों का वर्गीकरण श्रौर उनका श्रापिक्षिक बलाबल निरूपण करके विज्ञान
भिश्च ने जिज्ञासुप्रों का काम सरल कर दिया है । विज्ञानभिष्यु ने पुरुषसंयम से प्राप्त
होनेवाली सिद्धि को सर्वोकृष्ट सिद्धि बताया है 1» साय ही इस सिद्धि की योगा-
नुकूलता एवं वैराग्यविरोधहीनता भी प्रतिपादित कौ ह । पुरुष-संयमसिद्धि के इस
विशेष भाग पर भ्रन्य टीकाकारो ने भी कोई प्रकाशा इनके पूर्वं तक नहीं डाला
था । एक सच्चे योगी की भाति इन्होंने भी श्रन्य सिद्धियों को योग के लिए व्यव-
घानस्वरूप ही माना है ।
१. तमिमं संयमं विहायात्मसाक्षात्कारस्यान्य उपायो नास्ति । अत्तःआत्मनि-
जञासुरयमेव संयमः संयमान्तराण्य णिमादिसिदिहेतु्रतानि विहाय कर्तव्य
इति । साख्ययोगयो रहस्यं स्वान्भवसिद्धमुपदिष्टम् ।--यो० सा० |
सं° पु० ९१
२६८
कैतल्य
कंवल्य के स्वरूप श्रौर उसके भेदो का साङ्ध विवेचन पिच श्र्याय मेँ भली
भाति हो चुका है । उसके साधनों के स्वरूपो पर भी पं प्रकाश डाला जा चुका
है । यह् कहना यहाँ भ्रावश्यक है कि यद्यपि अरन्य दार्शनिकों ने भी ध्यानयोग,
श्रष्टाङ्खयोग श्रौर निदिष्यासन कै द्वारा ही तत्त्वसाक्षात्कार या ज्ञानलाभे का होना
माना है किन्तु योग का प्राधान्य उन्होने नहीं प्रदशित किया था । विज्ञानभिष्षु ने
योग के श्रप्रतिम माहात्म्य को स्थापित किया है" श्रोर सभी साघना-मारगो के लिए
योग को भ्रनिवायं सिद्ध कर दिया है ।
119.
सर्ववेवार्थसारोऽत् वेदन्यासेल भाषितः 1
९. सर्व मुमुकषएामिदं गतिः ।॥\३॥
। यद्वदन्धेरंशेषु षु संस्थिताः ।
ग व ृतस्शाः ११४॥--यो० वा० ४०९.
२६९
.- {वै
फुटकल~चचां
स्फोट के विषय में विज्ञानभिक्षु ने योगभाष्य के सिद्धान्त का प्रक्षरशः पालन
किया है। यद्यपि नाद प्रौर विन्दु श्रादि विषयों का प्रतिपादन उन्होने ्रलग से
प्रस्तुत किया है । शब्दस्फोट के साथ-साय वाक्यस्फोट को भी उन्दने स्वीकार
किया है । स्फोटसिद्धि के तकं प्रायः वैयाकरणो के ही समान हैँ । श्रुतिप्रमाण
देने मेँ ्रवश्य ही उनकी चमत्कारपूरं मौलिकता है । वैयाकरणाभिमत श्राठ स्फोट
(बरंस्फोट, पदस्फोट, वाक्यस्फोट, सखण्डपदस्फोट, सखण्डवाक्यस्फोट, वर्णंजाति-
स्फोट, पदजातिस्फोट श्रौर वावय-जातिस्फोट) उन्होने न तो स्पष्ट रूप से माने हँ
न उनका स्पुट खण्डन ही क्रियाहै। वैयाकरण लोगों ने वाक्य-स्फोटकोही
प्रधानता दी हैर किन्तु विज्ञानभिक्षु ने शब्दस्फोट को प्रधानता प्रदान कीदहै।
भतूहरिनिदिष्ट प्राकृत-व्वनि को ही उन्ोने नाद माना है श्रौर परिणामरूप वैकृत-
घ्वनि के स्थल पर बिन्दु को स्वीकार कियाहै। स्फोट को श्रक्रमता, भ्रखण्डता
रादि में वे वैयाकरणो से पूतया सहमत हैँ । इतना होने पर भी वैयाकरणो से
उनका मौलिक मतभेद इस वात मेँ है कि वैयाकरणो के लिये स्फोट ही ब्रह्यहै°
जब किं विज्ञानभिक्ु के लिए स्फोट केवल भ्रथंप्रत्यायक शब्द मात्र ५ इस प्रसङ्ख में
सांख्यमत का खण्डन भी विज्ञानभिश्षु ने भलीर्भाति किया है!
१. नन्वेवं वाक्यमपि स्फोटः स्यादिति चेत्, बाधकाभावे सतीष्यतामिति
दिक् 1-यो० सा० सं० पु° ७१
२. वरंस्फोट, पदस्फोट, वाक्यस्फोट, अखण्डपदस्फोट, अखण्डवाक्यस्फोट,
= पदजातिस्फोट ओर वाक्यजातिस्फोट1- वेयाकरण-
भुषरण, द्रष्टव्य, स्फोटमोमांसा प° ४९२
३. तत्र वाक्यस्फोटो मुख्यो लोके तस्यं वार्थंबोधकत्वात्ते नैवा्थसमाप्तेश्च ।
-वे० सि० ल० मण्पु० १
४. तस्मान्नित्यो ब्रह्मस्वरूप स्फोटः एव वाचको न वर्णा इति सिद्धम् ।
--स्फोटमीमांसा पु० ४९१
५. घट इत्यादिनिपदानि तु बुद्धिमास्यविषयः वक्ष्यमोष्ठमुक्त्या बुदधिमात्र-
ग्राह्यत्वात् । तानि पदानि ` एवा्थस्फुटीकरणएत्वात्स्फोर इत्य् च्यते ।
-यो० सा० सं० पुर दण
४, द्रष्टव्या ग्रो० सा° सं० पु० ६९
। २७०
प्ापिक-मातना
ज्ञानमार्गी विज्ञानभिश्चु की भक्ति-भावना भी दर्शनीय है । भव्ति का उनका
भ्रादर्श वडा ऊँचा दै । श्रत्युकतसपरेमलक्षणा-भक्ति* ही उनकी दृष्टि मेँ सच्ची भविति
है । वेदान्त में ब्रह्म विचार करते हए उन्होने ईस्वर को निर्गुण बताया प्रौर शकिति-
मान् भी । तथापि ईखवर की प्राप्ति ज्ञान सेटही मानी है। निर्ग ईइवर के प्रति
वस्तुतः भवित श्रौर वह् भी शत्युकरटप्रमलक्षणा भक्ति होनी स्वया कठिन है 1
फिर भी विष्णु श्रादि जो उनके भ्रंशावतार हँ उनको उपास्य माना जा सकता था ।
यद्यपि विष्णु को विज्ञानभिश्ु ब्रह्य प्रौर खर भ्रादि से ऊंचा तथा प्राथमिक मानते
रह श्नौर श्रीराम तथा श्रीकृष्ण रादि का स्मरण भौ बड़े श्रादरसे करते ह
तथापि इन सव को वे उच्चवर्गीय जीव मात्र मानते ह । इसलिए उनका भक्त होना
उनके लिये अ्रसम्भव है।
सांस्यभाष्य लिखते समय मद्धलाचरण मेँ श्रपने भक्तिभाव का अ्रवलम्बन
स्थिर करने मेँ प्रकट की गई उनकी विचिकित्सा उनके भक्तिभाव के भगवान् का
विशद प्रकाशन करती है । अरन्त मेँ “चिदेकरसवस्तु' प्रथवा "चित्सामान्य' ही-जिसे
कोई ईश्वर श्रौर कोई अ्रनीदवर कहता है उनकी भक्ति का ्रालम्बन बनता
है । उनकी स्पष्ट स्वीकारोक्ति है --“चित्सामान्यमुपास्महे 1 अदभुत उपासना है!
विचित्र भविति-भावना है !
वस्तुतः उनकी भक्तिभावन का र्यं किसी साधारण सगुण देवता के लिये
है ही नहीं । उनके उपास्य साख्य की चरम सत्ता चित्सामान्य' या “्योग' के
“वलेश्वकमंविषाकाशवेरपरामृष्टपुरुषविशेष' श्रथवा वेदान्त के निग ब्रह्य है । उनके
सिद्धान्तो की भ्रेष समीक्षाभरो से इतना तो निरिचत ही हो चुका है कि ये तीनों
सत्ताएं निस्संदेह एक ही परम रस्तत्र के विभिन्न नामान्तर ह । इस तरह से
विज्ञानभिश्चु की भविति सोलहवीं शताब्दी के तथा उसके ्रास-पास के समय के भ्रनेक
भारतीय भक्तों की भक्ति से बिल्कुल भिन्न प्रकारकीदै। नतो उन्हब्रह्मका
दर्हानि. न स्मरण, न सांख्यभाव न् भ्रत्य किसी प्रकार की भक्तिभावना की साघना
की काशा है श्रौरनही उन्हें परलोक मे सायुज्य, सात्निष्य श्रादिकी ही कामना
1
१. द्रष्टव्य, ईदवरगीताभाष्य पा० लि°
२. द्रष्टव्यः सां० प्रा ना मद्धलाचरण
२७१
२७२ | आचायं विज्ञानभिक्षु
है । वे वस्तुतः कबीर की कोटि के निगुरावारा के भक्त थे । जिनका ष्येय
निगुण, जिनका उपास्य गुणातीत श्रौर जिनका भवितमागे योगसाधना का रूपान्तर
मात्र था
रसे लोगों की भक्ति, योगमागं की वारणा१ ध्यान श्रौर समाधि की भ्रावाहक-
विधि मात्र होती है 1 चित्तशुद्धि श्नौर चित्त का केन््रीकरण ही उसका सहज लक्ष्य
है । विज्ञानभिश्चु ईइवर को जीव के कर्मो श्रौर इसी बहाने कर्मफलों का प्रेरक
मानते है । कदाचित् इसी कारण मनुष्यों को ईरवर के हाथों मेँ "दास्यन्तरसमाः'
भी कहा है । इसी कारण श्रपने योगसारसंग्रह मे उन्होने निरीश्व र-सम्प्रज्ञात साधना
की तुलना में सेद्वर सम्भ्रज्ञातसाधना को बढ़कर माना है । इससे चित्त के विक्षों
की लान्ति श्रौर उत्तरोत्तर भूमिलाभ भी सुलभ होते रहते है । भक्ति का विनियोग
उनकी ज्ञान-साधना में केवल इतना ही है । इससे प्रधिक नहीं । यह भक्तिनतो
मुक्ति के लिये श्रनिवायं है प्नौरन योग के लिए । कदाचित् सांख्यसाधना को सफल
ग्रौर सक्षम स्वीकार करने के कारण विज्ञानभिष्चु ने इस स्थिति को स्वीकार किया
है । निरीश्वरसाधना से भी प्रात्मसाक्षात्कार भ्नौर पूं ज्ञान तथा तल्लभ्य मुवि
निर्वाच प्रासन होती है 1 एेसौ उनकौ स्पष्ट घोषणा है 1 श्रतः भक्ति एक वैकल्पिक
्ञानवारा ही ठह्रती है । उनका एकमात्र उदर्य ज्ञानप्राि है । उसी के लिये
भवित विकल्प से ग्रहण कौ जा सकती है । उसका श्रपना निजी व्यक्तित्व कोई
विरिष्ट महत्व नहीं रखता ।
तात्कालिक परिस्थितियों में ज्ञन-प्राप्ति के लिये भक्ति का अ्रवलम्बन स्वीकार
करना कदाचित् श्रपरिहायं था प्रन्यथा कौन भक्तिरस का आ्रास्वाद छोड कर ज्ञान
का सूखा सन्देश सुनता ? इसीलिए चित्सामान्यनिर्गुणक्ह्य के भक्त बन कर विज्ञान-
भिक्षु ने वस्तुतः भगवान् की भविति नहं, भक्त कौ भविति नहीं, श्रपितु प्रवानतः
ज्ञान की श्रौर गौणतः भविति की भक्तिकीहै।
वर्णाश्रमधर्मके वे पूरे व्यवस्थापक भ्रौर संन्यास के प्रबल पोषक थे । वे निष्काम
कर्मं के द्वारा चित्तशुद्धि ्रौर ज्ञान की पूवंपोठिका की पूति मानते थे। ज्ञान के
मागं को प्रशस्त करने के लिये इन समस्त प्रक्रियाग्रों कौ उपयोगिता उन्हे मान्य
थी । ज्ञान की उच्च भूमि पर इन सव की निष्प्रयोजनता उन लिये स्वयंसिद्ध थी ।
ज्ञान की वेदी पर पहुंच कर भक्ति श्रौर कर्म दोनों की बलि चदा देना ही उनकी
साधना का रहस्य है ।
निष्कपं
उनके समग्र दाशंनिक संस्थान की इस सूक्ष्म समीक्षासे हम संक्षेप मे इस
निष्कषं पर पहुंचे ह कि वे श्रुतिसंवेय चिदाकाश की चोटी पर कम श्रौर भविति
भाचायं विज्ञानभिश्ु के दरंन को तुलनात्मक समीक्षा | २७३
की भावना्नों से संबलित-योग-सोपान के सहारे समारूढ हौ कर भ्रात्मस्वरूप में
प्रतिष्ठित होनेवाले भ्रास्तिकदशंनजगत् के समन्वयवादी द्रष्टा थे । आस्तिकदशंनों
का भ्रविरोव श्रौर शारवत प्रामाण्य ही उनका मूलमन्त्र है । आ्रआात्मवाद कौ यह्
दिव्यसाघना हौ उनका श्रभर-संदेद है 1 दृष्टि की इस व्यापकता तथा साधना को
यह् जागरूकता ही उनकी पुंज है । भारतीय-दर्शन के इस श्रप्रतिम व्यक्तित्व के
प्रति सभी तत्वानुसंबान-परायण प्राणियों की हादिक संवेदनशीलता निस्संदेह
स्वाभाविक श्रौरं प्रक्षुण्ण है ।
फा०- १ ८
अध्याय २
आचाय विज्ञानभिततु का भारतीय दशन मे स्थान |
दाशंनिक पुष्तमूमि
१५बीं, १६ वीं तथा १७ वीं शताव्दियां भारतवषं मं मुसलमानी
शासन की चरम प्रम्य्नति का निदर्शन प्रस्तुत करती हैँ । इन शासकों के सैनिक
भ्रभियानों एवं प्रगासनिक व्यापारं की सर्मा का स्थान सामाजिक स
सांस्कृतिक चेतनाश्रं की प्ररणाए ग्रहण कर रही थीं । हिन्दुग्रों श्रौर मुसलमानों
ने न केवल मिलना-जुलना स्वीकार कर लिया था श्रपितु वैचारिक एवं भावनात्मक
क्षेत्रों में घुलना-मिलना भी एक विशाल स्तर पर प्रारम्भ हो गया था। इस
विशाल संघटन के साथ-साथ ्रांशिक विघटन भी स्वाभाविक होता है । किसी भी
सिद्धान्त या प्रथा के स्वीकरण में उसके पूरवग्रदीत सिद्धान्त या प्रथा का परिहार
भ्रनिवायं होता है) इस प्रकार संघटन का प्रवदयंभावी भ्रंग विघटन भी
लब्धप्रसर होने लगा था ।
किन्तु इस सांस्कृतिक विनिमय मेँ शासक वगं भ्रौर शासित वगं कौ तुलनात्मक
हैसियत का भी प्रभाव पडना आवश्यक था । एकं बात भ्रौर इस सम्बन्व में
ध्यान देने योग्य है कि हिन्दू शौर मुसलमान वर्गो की भ्रान्तरिक बनावट का भद्
भी इस घोलमेल में प्रभाव डालनेवाला तत्त्व है 1 उदाहरणार्थं एक सनातनधर्म
हिन्दू किसी भी मुसलमान को चाहे वह पुरष हो या स्त, श्रपने वर्गं मे किसी
भी परिस्थिति में नही भिला सकता था प्रत्युत इस व के अनेक भ्रंश न्य प्रों
की कटुरवादिता के कारण एक प्रकार से वर्ग-परिवतंन के लिए मजबूर भी
बना दिए जाते थे । जबकि मुसलमान लोग हिनदुभरों श्रौर हिन्दुप्रानियों को न
केवल मुसलमान बना नेते थे ्रपितु उन्हे सामाजिक, धामिक भ्नौर प्रशासनिक
समानताएं भी सहं सर्मपित करते थे।
इन विकट परिस्थितियों मे भारतीय-चिन्तनघाराश्रो, दार्ानिक-सिद्धान्तों रौर
धाभिक-मान्यताग्रो के विगलन का विराद् भय उपस्थित हो गया था1 इन्दीं
तयों ने हिन्दू-धमं श्रौर हल्दू गों रौर उपाङ्घोके
ते हिन्दू-धरमं नौर हि्ू-दर्शन के भ्रनेकानेक भ्रं
व । फलस्वरूप धर्म श्रौर दर्शन के क्षेत्रे
एकीकरण की प्रवृत्ति को जन्म दिया
२७७
२७८ | आचायं विन्नानभिकषु
समन्वय-साघना की भावना पनपने लगौ श्रौर १६ वीं शताब्दी मेँ तुलसीदासः
श्रौर विज्ञानभिक्षु इत्यादि इस समन्वय की भावना के सजग प्रतिनिधिकेसरूप में
भ्रवतीशं हए 1 जैसे तुलसीदास की स्वना नें श्रद्रौत श्रौर विशिष्टाद्वैत का सुमधुर
सामंजस्य, भक्ति श्रौर ज्ञान का एेक्य तथा श्रुतिस्मृतिपुराणों का सम्मतः प्रतिफलित
हुमा है उसी प्रकार विज्ञानभिष्चु की रचनाश्रों में भी सांख्ययोग ॒श्रौर वेदान्त का
समन्वय, भक्तिकर्म श्नौर ज्ञान का पारस्परिक श्रविरोध श्रौर श्रुतिस्मृति तथा
पुराणों का श्रभित् भ्रस्तित्व साकार होउठादहै।
सांख्य, योग श्रौर वेदान्त मे शार्वत विरोध श्रौर ताच्विक वैपरीत्यका
प्रतिपादन पारस्परिक तकंजालों के द्वारा परपक्ष-लण्डन श्रौर स्व-पक्ष-मण्डन
निस्संदेह लोगों के मन मे इन शास्त्रों के प्रति अनास्था श्रौर उनके मूलसख्रोत
श्र ति-स्मृतियों की सत्यपरता में संशय उत्पन्न करता -हैजो कि प्रात्मसाधनाके
मा मे बाधा उसन्न करने के साथ-साथ तात्कालिक सामाजिक-स्थित्तिके भय को
श्रौर श्रधिक भीषण बनाताहै।
इस संदभं मे विज्ञानभिधु ने भ्रपने दार्शनिक मतवाद की प्रतिष्ठा,कौ, जिसकी
श्राधार-भित्ति समन्वयसाघना में !निहित रै । यह समन्वय, न केवल सांख्य, योग
्नौर वेदान्त के हितों क सुरक्षा का साधक है, श्रपितु न्याय, वैशेषिक श्रौर मीमांसा
आदि सभी श्र तिमूलक श्रास्तिक दर्शनों के सफल भ्रस्तित्व का ्रनमोल संवल है ।
सारे भेदवाद को निमूल करनेवाला प्रबल श्र. ति-स्मृति-संस्थापक तत्तव हैँ । इससे
साधना का पथ अ्रनन्त काल के लिए भ्रालोकित हभ्रा है। भारतीयदार्शनिकपर-
स्परा का पावन क्षेत्र सामाजिक प्रहारो से निभेय हुश्रा है । इससे भारतीय
संस्कृति की निरन्तर प्रवहमान धारा को युगपेश्नी श्रनुश्राणन प्राप्त हुम्राहै1
१. तुलसीदास अकबर के समकालिक थे! उनके जन्म ओर मृत्युके
सम्बन्ध मे ये दोहे प्रसिदढ ह -
पन्रहुसो चोवनविषे कालिन्दी के तीर ।
श्रावणक्रष्णा तीज सनि तुलसो धरयो सरीर ॥ : जन्म-
सम्बन्धो दोहा 1
संवत् सोरह सो असी असीगंग के तीर ।
सावन शुक्ला सप्तमो तुलसौ तज्यो सरीर ॥ : मृत्यु-सम्बन्धो-
दोहा ।
२. 'नानापुराणनिगमागमसम्मतं यत्-- रामचरितमानस का मद्धला-
चरण ।
~+
भाचाय विज्ञानभिश्ु का भारतीय दरदान में स्यान | .२७९
माव्यम से दधवा 1 क न 1 ४
ति त क तोष का साधन वनाने का श्रय वस्तुतः
दको ै।
विज्ञानभिष्षु ने भारतीय संस्छृति की पेवा मँ कदाचित् तुलसीदास से भी
भ्रधिक कठोर नत लिया है । उन दोषज विद्रज्जगत् के सामने इस समन्वयात्मक
साधना को प्रतिष्ठित करना था । श्रत उन्दं संस्कत भाषा का माघ्यम स्वीकार
करना पड़ा । वामिक गायभ्नों का प्राश्य भी दर्शन के क्षत्र में सुलभ नहीं
था । यहां काव्यकला का भ्रालम्ब नहीं, ्ात्म-विज्ञान का निर्मम प्रयोग था, जहाँ
भावनाश्रों ्रौर संवेदनाग्नों का तीव्र वहिष्कार तथा शुष्कं तकंसरणि का ही
एकमात्र भ्रवलम्बर था । तथापि इन दो समकालिक सन्तों ने श्रपने-ग्रपते क्षेत्र में
भ्रपनी साघनाश्रों के सक्षम विनियोग में उत्कट सफलता प्राप्त की । दोनों ने युग-
धमं को पुकार सुनी ग्रौर उसके ्राह्.वान पर दोनों ने श्रपना सर्वस्व दांव पर
लगा दिया ।
भारतीय जनता ने दोनों के कृतित्व का मूक-प्राभार स्वीकार कियाहै।
दोनों कौ परम प्रसिद्धि हुई है किन्तु हिन्दी के स्थान पर संस्कृत भाषा के माध्यम
से सामान्य जन से उपर विशिष्ट विद्रज्जन के लिए, कथा की जगह तकंप्रवणः
्रनुच्छेदो के सहारे शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तो का प्रतिपादन करने के कारण विन्ञान-
भिक्षुके प्रभाव-्षेत्र की सीमा ्रपेक्षाकृत बहुत स्वल्प रही । विद्वानों क प्रवृत्त
के सामान्यत द्या श्र श्रहंका सुने विज्ञानभि्षु के प्रभाव को श्रचिक नहीं वदने
देना चाहा । भावागरर, प्रसादमाधवयोगौ श्रौर दिव्यसिंहं मिश्र इत्यादि? उनके .
प्रिय चिष्यों के कृतित्व श्रौर चिन्तन-साधना की हीनता ने भी उनके बहते हृए
तेजस्वी यश को क्षति पहूंबाई । समन्वयसिद्धान्त की प्रतिष्ठित भमिका कीं म्रसोम
उवाई पर अ्रसामान्य वृद्धिका ही पदापंण सम्भव हो सकता है। इन कारणोसे
र्नं क क्षेत्र मेँ श्न्य मतवाद कहीं भ्रविक लोकश्रिय शौर विख्यात हो गए ४
जिनके कारणा विज्ञान्िष्षु को यदास्विता पर गहरा पर्दा पड़ता गया ।
तथापि कुछ एेसे समय तक बिल्कुल श्रप्रसिद्ध या रात रहना-जवकि
पूरा देश पराधीनता की बेडियों में जकड़ा रहे, अपने 'पूरवंजों के इतित्व का
घान करने की दिशाही न जान सके भौर पुरातन गरिमा पर गौरव का
+ की स्वच्छन्दता न पा सके-किसौ कती के वास्तविक मूल्याङ्कन
इन शिष्यो के सम्बन्ध स यथासम्भव सुलभ सुचना इसी ग्रन्थ के प्रथम
१.
पटल पृष्ठ संस्था ३३ पर दी हई ह ।
२८० | आचाय विज्ञानभिकष
विज्ञानभिष्ु भारतीय दार्शनिकपरम्परा के
उज्जवल नक्षत्र है । उनकी यलोज्योति को मलिन कएनेवाली पराधीनता की
परम्पराशनों का ध्वंस हो चुका है 1" भ्रव हुम तत्सम्बद्ध साधन श्रौर सुविघाएुं
सुलम है । हम से रलो की साघनाग्नों के महत्व का पूर्णा श्राकलन श्रव सुविधा
से कर सकते है 1 विज्ञानभिष्चु के व्यक्तित्व श्रौर कृतित्व के सम्बन्ध मे यथासम्भव
प्रकारा इस ग्रन्थ मे डाला जा चुका है ।
का स्वरूप नहीं प्रस्तुत करता । विज्ञा
१. १५ अगस्त सन् १९४७ ई० -
पञ्चात् । न् १९४७ ई० को भारतं कौ स्वतन््रताशराप्ति के
साख्य ~ ---- ए ~ @ ©
(दशन १ वि्ानभिष्षुका स्थान ।
भारतीय मनीषा का पुरातन प्रकाश सांख्यदशंन है । श्रू तियो ने भी जिसके
महत्व का संकेत क्रिया है श्रौर महाभारत, गीता तथा पुराणादि स्मृतयो ने जिस
निधि को विधिवत् संजो कर रखा दै,१ चिदचिद्-विवेक का प्रयम पाठ पढ़ानेवाले
उस महनीय दर्शन के श्रादि प्रणेता कपिल ह । करन्तु उनका प्रवतित साख्य क्सि “
गरन्थमें संग्रहीत है? इस प्रखल के उत्तरे श्रौर लोगों का चाहे जो मत हो,
भ्राचायं विज्ञानभिष्षु स्वयं उसे सांयप्रवचनसूव्र या षडध्यायी ही समभते 2६
इसीलिए सांख्यकारिका को प्रामाणिक मानते हृए॒भी उन्दोने इन सूत्रो पर टी
भाष्य लिखा है । उनके मत में ठेसा लगता है क्रि कोई विशाल सांख्य-ग्रन्थ जो
कपिल की रिष्य-परम्परा के किसौ समथ विद्धान् ने लिखा था तवं तक भारतवषं
मँ लुप हो चला था । उसको श्रपने वचनात से पूणं करने का वीड़ा विज्ञानभिशु
ने उठाया है 1 ° सांख्यभ्रवचनभाष्य उसी सत्या का दिव्य फल है ।
यहु भाष्य कारिका-विरोधी नदीं है जैषाकि कु लोग समभे लगते है।
प्रत्युत कारिकाएं भी उम्हीं तथ्यों की ही प्रकाशिका है, जो सूत्र मेँ विद्यमान है।
इसीलिए उनके भाष्य में समर्थक रूप मेँ कारिकां भ्रनेकशः उद्ध.त हुई हँ 19
निन स्थलों पर।उनका वाचस्पति मिश्र ्रादि से मतभेद है उन स्थलों पर उन्होनि
प्रपने सूत्र-भाष्यमे ही कारिकाग्रों का भी भाष्य किया है श्रौर उनका वही ।
=-=
१, “नास्ति सांख्यसमं ज्ञानम् 1*- गीता
२. तस्य श्रुतस्य मननार्थमथोपदेषटु
सद वितजालमिह सांख्यकृदाविरासीत् 1
नारायणःकपिलमूतिरशेषदुःख
हानाय जीवनिवहस्य नमोऽस्तु तस्म ।॥ २ 1--सां० प्र० भा० पु०१
, कालाकंभक्षितं सास्यां जञानसुधाकरम् 1 = _ _ ,
कलावशषिष्टं भरयोऽपि पूरयिष्य वचोऽमृतैः ॥ ५1 सां० प्रण्वमाण्पु० १.
स क 1
एतदेव कारिकायामुक्तम्--दृष्टवदानुश् विक ह्विशयदिक्षयातिशय
वतः--सा० प्र० भाण्प० १० ओर द्रष्टव्य सां० प्र भा० पु० १५,
२७, ३२ इत्यादि 1
५. सां० प्र० माण पुर ४
1 ॥ ।
(1 इत्यादि 1
२८१
२८२ | आचायं विज्नानभिक्षु
भ्रथं उचित समभा है जो सूत्रों से श्रभिन्नहै। इस प्रकार साख्थमेवे उसी धारा
के प्रनुयायी रै, जिसके कि ईइवरङृष्ण ।
कुछ लोगों ने एेसी धारणा फैला रक्खी है कि ईङइवरकृष्ण निरीश्वर सांख्य-
वादी थे जैसे कि स्वयं कपिल, श्रासुरिश्रौर पंचकशिख भ्रादि जवकि विज्ञानभि्
सेइवर सांख्यवादी थे महाभारत, मनुस्मृति श्रौर भागवत श्रादि कौ परम्परामें।
इस विषय में पहले ही स्पष्ट किया जा चुका कि विज्ञानभिश्चु ईइवरवादी भले
हो किन्तु सेवर सांख्यवादी नहीं हैँ । सांख्य को वे मी उतना ही निरीइवर मानते
हैँ जितना कि ईरवर कृष्ण ने उसे प्रतिपादित किया हैँ । इसी मान्यता के कारण
इस ्रंश मे सास्यकी दुर्बलता मी वे स्वीकार करते दँ) इस प्रकारसे वें
ईक्वरङृष्ण की ही परम्परा के सांख्यशास्त्री थे--इसके विरुद्ध तकं मिलने
ग्रसम्भव ह ।
हां, वाचस्पति मिश्र, शंकराचायं, माठर ्रादि सांख्यकारिका क टीकाकारो
तथा सांख्यसूवर के एकमात्र श्रपने पूर्ववर्ती टीकाकार श्रनिरुद्ध से यदि उनका कदी
कहीं मतभेद हे तो उसका यह् भ्रथं नहीं कि उन्होने सांख्य का एक नया रूप गढ
कर तैयार कर दिया है । या वेदान्तानुकूल सांख्य की स्थापना की है । यदि माठर ने
पुरूष के मोक्षकालिक स्वरूप में श्रानन्द कौ मान्यता स्वीकार की है श्रौर विज्ञान
भिष्लु ने इम वात का खण्डन किया है, तो शुद्ध सांख्यसिद्धान्त किसका है माठर का
या विज्ञानभिष्षुका?
यदि उन्होने सांख्य कौ प्रकृतिकरतस्वतन्त्ररचना की व्याख्या करते हुए उसे
वेदान्त कौ भूमिका में श्रनुपपन्न बताया श्रौर स्पष्टतः यह् स्वीकार किया कि यह
` मत सांख्य का है किन्तु तकंयुक्त नहीं है, तो सांख्य का स्वल्प मी उन्होने सच्चा
ही प्रस्तुत क्या श्रोर उस मत का मूल्यांकन मौ भारतीय दर्शन के परिप्रक््य मे कर
दिया । इसमे सांख्य की शुद्धरूपता का क्या श्रपलाप हुश्रा, मै यह नहीं समभ
पाता । श्रात्मा का श्रदैत भी उन्होने सांख्य में माना है । इसमे भ्रम हो सकता है
कि इस स्थल पर विज्ञानभिक्षु ने निङ्चय ही वेदान्त की हिमायत की है । परन्तु
यह् स्मरणीय है कि सांख्य के पुरुष-बहुत्व को सतकं प्रमाणित करनेवाले विज्ञान-
भि्चु ने जातिपरकश्रदैतको ही माना है, श्रखण्ड श्रदैत को हगिज , नहीं । केवल
१. सस्यिशास्त्रस्य तु पुरुषाथंतत्साधनप्रकृतिपुरुषविवेकावेव मुख्यो विषय
इति ईङ्वरप्रति्धांशावाधेऽपि नाप्रामाण्यम् । यत्वरःशब्दः स शब्दार्थः--
इति न्यायात् । अतः सावकाडातया सांस्यमेवेइवरप्रतिषेधाशे दुबलमिति }
-सां० प्र° भा० पु०४
>~
वि
"माचायं विज्नानभिकषु का भारतीय दर्शन मे स्थान | २८३
यही एक एेसा मागं है जिससे सांख्य का शुद्ध सूप भीगश्र
ह ण्ण रहता है श्रौर
श्रदत-प्रतिपादक प
श्र तियो का विरोध उसमे नहीं पड़ता है । श्रन्यथा सांख्य को
भ्रास्तिक दर्शन या श्र ति-मूलक दर्शन या वैदिक दर्शन कहना ही स्व-वचोव्याधात
होता ।
इसी प्रकार से प्रकृति को भोक्त्री कहुनेवाले श्रनिरुद्ध को भतमना करते समय
विनज्ञानमिक्षु ने द्रष्दुतवरूप-योग का व्यपदेश पुरुष मे ही स्वीकार क्रिया है ।
संयोग से इस मान्यता मं वाचस्पति मिश्र उनके ही साथ है । प्रमा या पौरुषेय वोच
के स्वरूप के सम्बन्ध मेँ भिक्षु-मिश्र-विरोव के कारण जो दो सिद्धान्त प्रचलित रहै,
उनसे सांख्य के स्वरूप का शुद्धाद्भुन न करने का कोई प्ररन ही विज्ञानमिष्चु के
सम्बन्ध मे नहीं उठ सकता । इस प्रकार से जिन-जिन प्रसद्धों श्रौर 'मतभेदों
कोले कर लोग विज्ञानभिक्ु केद्वारा प्रस्तुत सास्य को वेदान्त-विकरेत कटने का
साहस करते है, वही प्रसंग विज्ञाभिक्चु के छृतित्व को सांख्य में स्थायी श्रौर
महत््वपणं बनाते है ।
यदि सांख्य के शुद्धल्प की हानि न करते , हुए विज्ञानभिश्चु ने उसे भ्रवैदिक,
श्ुतिविमुख ्नौर परम्परा-विहीन होने से बचाया तो उनका यह् योगदान साख्य के
लिए स्पृहणीय दै । वस्तुतः ईवरङृष्ण के पश्चात् सांप के इतिहास में कोई एेसा
सवल व्यक्तित्व विज्ञानभि्षु के पूवं हृध्रा हीं नही, जो शस्व कौ इन साङ्ग
श्रौर समीचीन व्याख्याश्रों की भ्रोर॒दुष्टि डालता । वाचस्पति £ मिश्रने
सांस्यलास्न की सवलता को तो श्र्षुण्ण करने का प्रयास व है किन्तु
वैद-विरुद होने से सांख्य को वचा सकने की उन्होने परवाह नहीं की । भ्रन्यं
टीकाकारो कातो कहनाही क्या हं? साख्यसिद्धान्त की दर्शान-नगत् म ५
) विज्ञानभि
करनेवाले आचाय ईदवरङृष्ए के पश्चात् विक्ञानमिशचु निरय टी ५ र
व्यक्ति हुए ह । निस्संदेह कलावशिष्टसास्यास्मर १ ज्ञानसुघाकर
वचनामृतों से पूणां करने का उनका दावा यथाथं है ।
^ ©> © (८ ~ श
योग प्रं तिजञानमिक्षु का स्थान
भारतवषं की मनोषा ने श्रनादि काल से योगसाधना की निधि संजोरखीहै।
सुप्राचीन सिन्धु-वाटी की सभ्यता के अ्रवशेषों मे भी योग की मूद्राश्रं का स्पष्ट
दर्शन होता है। योग की प्रक्रियाएं भारतीय संस्कृतिके मूल में सुदी्धैकालसे
निहित ह । इस दित्य-साधना की भ्रप्रतिममहत्ता का सूल्याङ्धुन भारतभूमि के कण-
कणा ने श्रनादि कालसे कर रखा है । प्रागेतिहासिक काल की इस श्रमूल्य धरोहर
का सदुपयोग वैदिक ऋषियों ने भो छृतकृत्य होकर किया है 1 इसी परम्परा के
चिन्तको में ्रग्रणी महपि पतञ्जलि ने इस साधना के प्रशेष-विशेषों का म्रनुशासन
भ्रपने योग-सूत्रो मे सर्वप्रथम किया है १ इसलिये मल प्रवर्तंक न होने पर भी इसके
प्रथम शास्त्र-प्रचारककाश्रयतो उन्हंहैही।
योग की अ्रमोघ उपदेयता के क(रण॒ न केवल सांख्य-वेदान्त श्रौर न्याय-वेशे-
षिक ्रादि आस्तिक दर्शन, ग्रपितु बोद्ध श्रौर जैन भ्रादि नास्तिक दर्शन भी मोक्ष-
सावन का अ्रवलम्बन इसे ही मानते हैँ । इन सव दर्ानों की तत्त्वमीमांसा भले ही
योग की तत्त्वमीमांसा से भिन्न है। व्यावहारिक स्वरूप में भी यद्यपि मिन्न-मिन्न
रूपो का योग इनके द्वारा व्यवहृत होता हँ तथापि योग के मौलिक महत्त्व को सभी
समुदायो मे स्वीकृत रौर व्यवहृत किया गया है । वस्तुतः भारतीय दर्शन का यह्
एक ्रपरिहायं श्रद्ध है।
एसे शास्त्र के मौलिकं स्वरूप का विवेचन ्रौर व्याख्यान करनेवाले मनीषी
दार्शनिकों का नाम भारतीय दर्दान में सदा भ्रादरसे लिया जायगा । वे लोग
भारतीय दर्शन के महिमामय रत्न हँ । तथापि योग-दलेन का कलेवर भ्रन्य दर्शनों
कौ तुलना में पर्याप्त लघुकाय दै । इसका प्रमु कारण भी स्पष्ट है । बौद्धिक-
चिन्तन, मनन के प्रावार पर तत्त्वों की मीमांसा करना उतना कठिन नहीं था
जितना कि स्वयं योगमागं का श्राश्रय लेना, उसकी साधना में सफलतापूर्वक रत
रहना श्रौर उसके पड्चात् लोक-कल्याण की भावना से साधना के उन श्रनेक रहस्यों
१. “हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः ।' इस स्मृति के आधार पर
योगज्ञास्त्र के प्रथमवदता निश्चय ही हिरण्यगर्भ है । किन्तु उनकी कोई
हृति उपलब्ध न हो सकने के कारण मर्हषि पतञ्जलि के योगसूत्र ही
योगपरम्परा के पुरातन आधार माने जाते है ।
(42
=> ~
आचाय विन्ञानभिश्ु का भारतीय दर्शन भे स्थान | ए२ण्५ु
का उद्धाटन करना । इसी कारण योगशास्त्र मे ग्रन्थो श्रौर ग्रन्थकारो की संख्या
कम है । महपि पतञ्जलि के पश्चात् लब्धवणं भाष्यकार भगवान् व्यास नै योग-
भाष्य लिखा । वहु स्वना भी योगशास्त्र के मूलमन््रो का निषिचिकिल्सित प्रकाशन
है । योगिजनों के हदय में इस भष्य के लिए योगसूत्र से कम सम्मान नहीं है।
इसके पञ्चात् कालक्रम से योगशास्त्र की सेवा करनेवाले मनीषी व
भोजराज, विज्ञानभिष्ु श्रौर नागोजिभटू इत्यादि है । ।
भोजराज की वृत्ति सूत्रों पर दै ग्नौर संक्षिप्त दै। किसी शास्त्रीय-ग्रन्यि की
विस्तृत व्याख्या की इसमें प्रागा नहीं की जा सकती । वाचस्पतिमिश्र की टीका
तत्त्ववैशारदी का योगिजनों के मध्य वडा प्रादर है क्योकि उसमें सूत्र श्रौर भाष्यं
के श्रनेक शूढस्थलों का विस्तृत व्याख्यान वड़ी बुद्धिमत्ता के साथ क्रिया गया है ।
एेसा प्रतिभाशाली व्याख्याता भारतीय दर्शन का चमकता हुभ्रा नक्षत्र ही माना
जायगा । विन्तु वेदान्त-तत्त्वो के ्रप्रतिम साक्षातकर्ता होने पर भौ वाचस्पति मिश्र
कदाचिद् अनुभवी योगी नहीं थे । इसलिये श्रनेक प्रसङ्गो मे उनकी योग--व्याख्या
वास्तविक रहस्य को न प्रकाशित करके उस समस्या के सम्बन्व मे प्रज्ञा के प्रखर
भ्रनुसंधानों का संभावित परिणाम ही प्रस्तुत कर सकी है ।
योगदासत्र की इस कमी को आचारय विज्ञानमिधु ने पुरा किया । उनका
योगवा्तिक योगभाष्य के रहस्य का आमूल भ्र विविवत् व्याख्यान करनेवाला
ग्रन्थ है । उनकी योगसाधना के रनुभवी नुस्खो के उपयोग का लाभ साधक यु
प्रों को इसी वातिक से प्राप्त होता है । स्यल-स्थल पर वाचस्पतिमिभ के मत-
मदो का प्रकटीकरण इन्दोने इस वातिकमें किया है भौर श्रपते सिद्धान्त स
प्रस्तुत किए ह । मिशन जी के मतों की समालोचना भी इन्टोने सम्बन्धित स्थ १
कीहै। फिरभी जहाँ मतभेद नहीं या वहां मतभेद करने का भ्रनावश्यक श
इन्होनि कदापि नहीं क्या । इस 1 ईमानदार के त
्नौर श्रधिक बढ जाता है । कु विद्वानों ने इस मतभेद का कार्ण व ष ५
युयुत्सु प्रकृति शौर उनका प्रज्ञान बताया है । भन्य नेकं प्रकाण्ड 1
भी सम्भावना की है कि इस मतभेद के मूल म विज्ञानभिश्चु को वेद
योग-व्याख्या है । ध
तथापि मेरी तो यह धारणा है करि योग श्रौर वदान्त का समन्वय इस मतभेद
~ के भवप्रत्यय-
न बयोकि जो मतभेद भ्रसम्प्रजञातः समाधि
का कारण नहीं हो सक निरोध श्नौर"एकाग्रता-परिणाम के लक्षण
मे धि-
ते स्वरूप के विषय म श्रथवा समा 4 स
१ तर के सम्बन्ध मे क्रिबा समा की संख्या ्रौर शरस्मितानुगतसम्परज्ञात
२८६ | भाचायं विज्ञानभिक्षु
के स्वरूप भ्रादि के विषय में 2--जो किं सर्वाधिक महत्वपुणं मतभेद के स्थल माने
जाते है--उनमें वेदान्त-भावना या साख्य-साधना का क्या प्रभाव "पड सकता है ?
रही वात उनकी प्रकृति श्रथवा श्रज्ञान की, तो इसका निणंय तो उनके तकं स्वयं
कर देते हैँ । फिर भी हठवादी, तत्त्व से पराडः मूख रहने के ठेकेदार श्रौर व्यवित-
पुजावादी समीक्षकों को रोकने को सामर्थ्यं भला किस समभदार तत्त्ववेत्ता मे होती
है । वास्तविकता तो यह है कि जिन मतभेदीं में विज्ञानभिश्षु मौलिक हैम यह्
नहीं कहता कि सरवर भ्राचायं वाचस्पति मिश्र हौ भ्रान्त हैँ तथा विज्ञानभिक्चु से कहीं
गलती हुई ही नही--उनमें उन्हें योगानुभव का श्राधार है । वैयक्तिक श्रनुभवों को
कोई भुला नहीं सकता 1 वस्तुतः उनके स्वकीय योगानुभव ही उनकी योगव्याख्या के
सरक्त संबल हैँ । नागेशभदटु जैसे तत्त्वदर्शी को उनकी व्याख्याएटं कदाचित् इन्हीं कारणों
से बहुत प्रिय लगीं । उनकी योगव्याख्याभ्रों पर विज्ञानभिश्चु का प्रभाव बहुमुखी
है ।१ भावागरीश तो उनके शिष्य ही थे ।२ इस प्रकार योगशास्त्रनिवेषण-परम्परा में
विज्ञानभिष्चु का प्रभाव अ्रयुण्ण है । उनकी रचनाग्रों से योगदर्शनधारा की गति की
दिशा का निर्धारण हुश्रा है । भारतीय दर्शन के योगवाडमय में वे व्यास भगवान्
के परचात् सर्वाधिक प्रकाशमान ज्योतिविन्दु हैँ 1
१. स्व | नागेशभट योगसूत्र की छायान्याख्या मे पु० १८, २० इत्यादि)
२. भाष्ये परीक्षितो योऽर्थो वातिके गुरुभिः स्वयम् ।
संक्षिप्तः सिद्धवत्सोऽस्या युव्तिषुक्ताधिका क्वचित् ॥
-भावागरेशीयवृत्तिः पु० १
= रि ~ © तानं ©
वदान्त म॑ पिरान भिक्षु का स्थान
भारतवषं में दार्शनिक चिन्तनधारा को जो भ्रजघ स्रोतस्विनी उपनिषदों के
रूप में वैदिक युग मे प्रवाहित हुई उसका समग्र स्वरूप वेदान्तसूत्र श्रौर उसके
भाष्यों में देखने को मिलता दै । वेदान्त के समान लब्यप्रसर, व्यापक श्रौर जीवन
के समस्त श्रंगों को प्रभावित करने वाला कोई दूसरा दर्शन भारत में नहीं है ।
इसकी लोकप्रियता भ्रौर सर्वोगीराता के कारण ही इसका वाड् मय भी भ्रगाध है ।
वेदान्तसूत्र इन सभी परवर्ती स्ना का मूलावार है । वेदान्तसू्रों का वैचित्र्य
तो यह् है करि इस पर ्रनेक. भाष्य लिखे गए श्रौर सव एक दूसरे से भिन्न । एक
शरोर जहां शङ्कुर का ्रदैत इसी पर स्थापित है वहीं मध्वाचा्यं का द्व॑त भी इसी
पर् भ्राधारित है । भास्कर, निम्बाकं, विज्ञानभिष्षु श्रौर वलदेव के भेदाभेद की
पोषकं पृष्ठभूमि भी यही है । एक श्रोर वैष्णव, दौव श्रौर शाक्त धर्मो की साधना
का जहाँ यह मूलाविष्ठान है, वहीं दूसरी श्रोर शङ्कुर, भस्कर नौर ॒विज्ञानभिषु
के शुद्ध निए दार्शनिक-चिन्तन का श्रमोष संबल भी यहीहै।
सिद्धान्तो की प्रसिद्धि श्रौर लोकप्रियता को यदि किसी आआचायं की प्रामा-
शिकता का मापदण्ड माना जाय तो निस्संदेह शंकर, रामानुज मघ्व का
स्थान इन सब वेदान्तभाष्यकारों मे सर्वोच्च है । यदि भ्रनुयायियों की संख्या पर
ही सारे निणंय का भार स्वीकार किया जाय तो श्रवश्य ही भास्कर भ्रौर विज्ञान-
मिषु बड़े घाटे मँ ह । कदाचित् शंकर शरीर रामा ही इष दृष्टि से भौ सच्चं
माष्यकार हैँ । तथापि विना शुद्ध समीक्षा के भारकरभ्रौर विज्ञानमिष्चु पर इस
्रधोगति का कलंक मढ़ देना ठीक नहीं है ।
जहां तक प्रामाणिक अर्थो को उपस्थित करने का प्रदन टहैये त
निमूल या निराधार कोई वात नही कर । इनकी आ
दों श्नौर प्रासद्धिक तर्को से होता दै । 0 विज्ञानभिक्षु के सम्बन्व में
वे के साथ कटी जा सकती है । र तियो श्नौरस्मृतियों का खण्डन
ती व = । साग मतभेद दृष्टयो का होता है। विद्रान् लोग
५१५ 0 क साय विज्ञानभिषु क वेदान्तभाष्य का भी भ्रनुशीलन रौर
न करे तो विज्ञानामृतमाष्य कै तथ्यो की वास्तविकता का क्रायल उन्द होना
वगा
ही पड़गा । उनके दास की गई शांकरमत की कटु आलोचना भले ही ्रतिरंजित
ही पड
२८७
२८८ | आचार्यं विज्ञानभिकषु
हो किन्तु उनके मूल सिद्धान्तो की साकल्येन उपेक्षा कर॒ सकना सम्मव नहीं ।
श्रात्मा की श्रखण्डता, संसार की मायामयता तथा जीव की भ्रामासिक स्थितिका
विज्ञानभिश्षकृत भ्रस्वीकार रामानुज श्रादि भाष्यकारो केद्वारा मी सिद्धान्ततः
समथित है । साथ ही जीव का श्रात्मैक्य या ब्रह्मरूप होना शङ्कुर, भास्कर के
श्रतिरिक्त भ्रन्य समी भाष्यकारों को श्रस्वीकृत दहै केवल विज्ञानमिष्चुकोदही
नहीं । रही बात भेदाभेद सिद्धान्त की, तो यह् मतवाद भी कोई नया पदाथं नहीं
है । इसे मौलिक तथा परम्परागत सिद्धान्त को कौन भ्रस्वीकृत कर सकता ?
उपासना के प्रसङ्क में प्रायः समी भाष्यकार एकमत हँ । थोडा बहुत भ्रन्तर
होना तो स्वाभाविक ही है 1 वैष्णव प्रौर हौव भाष्यों की जीव-सम्बन्धिनी शाश्वत
ईरवरदासता का भ्रस्वीकार श्रकेले विज्ञानभिष्चु के जिम्मे नहीं है, प्रत्युत शङ्कुर
श्रौर भास्कर श्रादि भीतो यही मानते ह । रह गई बात जीवन्मुक्ति की, इसमें
भी शङ्कुर श्रौर भास्कर श्रादि उनके समान ही जीवन्मुक्ति की दशा को स्वीकृत
करते ह । हाँ, मुक्ति काल मे भ्रात्मा कौ श्रानन्द-हीनता के सम्बन्ध मे प्रदशित
विज्ञानभिश्ु का आग्रह किसी श्रापात-निणंय-पटु-समीक्षक को मले ही सांख्य को
रप्रिय याद दिलाए किन्तु जिस श्रानन्दशीलता के लिए उनका श्राग्रहु है वह शंकरा-
चायं की सुखदुःखातीत स्थिति से मिन्न नहीं है । दोनों भ्राचार्योँ का लक्ष्य चेतनतत्तत
की सुखदुःख -रहित स्थिति को प्रतिपादित करने का है । मतभेद शब्द-प्रयोग
करने यान करने माव्रमें है।
सच तो यह है कि शंकर के श्रेत (में व्यक्ति का उदेश्य श्रसीम भ्रनन्त हो
जाने में है जव कि विज्ञानभिष्चु के श्रद्रेत भेदाभेदवाद) में व्यक्ति अ्रसीम-प्रनन्त का
निलिप्त शुद्ध श्रद्ध बनना चाहता है । व्यष्टि का समष्टि में उत्सर्गं उनके वेदान्त
का चरम उदेश्य नहीं, बल्कि व्यष्टि का समष्टिगत हो जाना ही उनका परम
ग्रभिमत है । इससे जीवन की एकान्तसावना को बल मिलता । संसारकौ
घोर श्रसत्यता न होने से नैतिक भ्रास्था का श्क्चुण्ण श्रर्तित्व सुरक्षित रहता है ।
भारतीय दर्शन की इस स्वस्य दिशा कौ श्रवहैलना पूर्वाग्रहो के कारणा श्रधिक दिनों
तक नहीं की जा सकती । विज्ञानरभिक्षु की मान्यताम्रों क। प्रभाव दिनोदिन
व्यापक होगा । १६ वीं शताब्दी की संस्कृत-रचना का प्रभाव उस समय व्यापक
न हो सकने के सामाजिक, राजनीतिक श्रौर भाषा-सम्बन्ी कारण श्रव विज्ञान-
भिष्षु के वेदान्त के महत्त्व को कम करने मे सक्षम नहीं रह सकते । वेदान्तदशंन
परम्परा मे उनका वह् स्थान निर्चित हो कर ही रहेगा जो स्थान शङ्कुर, रामा-
नज, मघ्व श्रौर वल्लभ श्रादि श्रन्थ भाष्यकारों को प्राप्त है । भले ही धार्मिक
भ्रनुयायी उनके न मिले, किन्तु दार्शनिक चेतनाश्रों के सच्चे पारखियों का
मूल्या ङ्घन उनके पक्ष में पहले जैसा उपेक्षापुणं नहीं रह सकता ।
भाचायं विज्ञानभिक्षु का भारतीय दर्ोन मे स्थान | २८९
उपसंहार
त भ्रचायं लिजञानभिशर के व्यवितित्व श्रौर कृतित्व कँ प्रकाशन का पयेवसान
कन शब्दो मे किया जाय ? जिस श्रात्मख्यापनविरतमनीषी ने भारतीय दार्शनिक
चिन्तनधारा के रतरः प्रवाहो को एकाग्र करके उसके श्रमृतमय जीवन-संदेश का
संकलित कलश हमे प्रदान किया, राजनीतिक दवावों श्रौर श्राथिक विषमतां
एवं सामाजिक संक्रान्तियों के जटिल श्रवसर पर हमें श्राच्यात्मिक एकता का
ज्योतित मागे दिखाया, वैदिक वाणी का मधु घोलकर ज्ञानपथ पर उद्भ्रान्त
तथा हताश भारतीयों को पान कराया, वर्णश्रमच्यवस्था को ज्ञान, कर्मं ्रौर
भक्ति की त्रिपुरी से भ्रालोकित किया, उस ज्ञानमूति तपोवन योगी की भ्रात्मा को
हमारे कृतज्ञ मन का कोटिशः नमन अ्रपित है । भारतीय दार्शनिक जगत् के इस
जाज्ञ्वल्यमान ज्योतिष्पुञ्ज की प्रकाश-रेखाग्नो का हम निरन्तर श्राकलन करते
रहै, यही हमारा पावन कत्तव्य है । भारतीय संस्कृति की समन्वयात्मक प्रवृत्ति के
प्रस्त प्रतीक के रूप मे विज्ञानभिष्ु यहां की युग-युग-पुरातन ज्ञान-गाथा के
्रप्रतिम चरित.नायकों की पंक्ति में सदा ्रासीन रहगे 1 उनकी प्रजरामर ज्ञान
साधना से कृतकृत्य होनेवाले हम लोगों के मानसपटल पर श्रद्धाकुद्क -ममण्डित जो
नाम श्रद्धित है उनमें ्राचायेविज्ञानभिष्ु का नाम निस्संदेह बहुत ऊँचा हे ।
फा०--१९
` प्रस्ततःगरन्थके निमीण मे सहायकग्रन्थो की षची
क्रम- ग्रन्थकानाम रचयिता प्रकालन- प्रकारन- |
संख्या + काल
१--घ्रणुभाष्यम् वल्लभाचायं निरणयसागर प्रेस, १९८७ ।
वाम्बे ई० |
२--प्रदैततब्रह्मसिद्धिः सदानन्द यति कलकत्ता विश्व- १८९० |
विद्यालय
३--्रदवैतामोदः श्रम्यडः करवासुदेव शास्त्री पूना १९१८
--प्रनिरुद्वृत्तिः भ्रनिरुढ कलकत्ता १९३५
५- इण्डियन लिट्रेवर एम विन्तरनित्न कलकत्ता १९२७
६-इण्डियन फिलासफ़ी डा० एस° राघाछृष्णन् = लन्दन १९२७ |
७--उपनिषद्भाष्यम् गीता प्रेस, गोरखपुर
| :२य खण्डः
८ ए क्रिटिकल स्टडी श्राफ ए० एन० जानी श्रोरियेण्टल इन्स्टी- १९५७
नैषधीय चरित ख्य.ट, बङौदा
स्-कूमंपुराण : व्यासः कलकत्ता १८९०
१०--खण्डनखण्डखायम् श्रीहुषं कारी १८८८ ।
११ गोविन्दभाष्यम् बलदेव कलकत्ता १८९७ |
१२--गौडपादभाष्यम् गौडपाद चौ° सं° सी०, १९५३ ।
[ सां० का० ] बनारस |
१३--चितलेभटप्रकरणम् श्रार० एस पिम्पुत्कर वम्बई १९२६
१४-- छान्दोग्योपनिषद् राङ्कुरभाष्ययुता आनन्दाश्रम १८९० +
सं° सी० पूना
१५--जयमङ्गलाटीका रङ्धुरायं देहली ॥
१६-तत्त्वप्रदीपिका चित्पुखाचायं निरांयसागर प्रेस, १९१५ ।
। रम्ब ।
१७-तच्ववैरारदी वाचस्पति मिश्र चौ० सं०सी° १९३५
बनारस
१ ि भावागरीदा चौ० सं० सी° १९२०
बनारस
क्रम-
संख्या
ग्र्यकानाम
१९-- दि इवोल्यूरान शरफ़ दि डा० श्रणिमासेन
सास्य स्कूल श्रोफ़ थाट
२०--दि डाक्टिन्स श्राफ
निम्बाकं एण्ड हिन
फ़ालोग्रसं
२१- दि फरिलासफी श्रोफ
दि उपनिषद्
२२-दि फिलासफी श्राफ पी०एनशश्रीनिवासा- भङ्यार लायब्रेरी
भेदाभेद चारी
२३-- न्यायसूत्रम् गौतम पूना `
२४--पातजञ्जलरहुस्यम् राघवानन्द चौ० सं० सी
बनारस `
२५- पातञ्जलयोगदर्दानम् श्री ब्रह्मलीन सूरत [गुजरात]
मुनिद्रारा -
२६-पातञ्जल सूत्र, रा०मा० भोजराज वनारस
संपादित वृ° सहित ।
२७--पखदक्षी विद्यारण्य निणंयस्तागर प्रेस, `
1 बम्ब
२ ८-- ब्रह्मसूत्रो के वैष्णव डा० रामृष्ण ` भ्रागरा
भाष्यों का तुलना- ` ` भ्राचाय
त्मक श्रघ्ययन ` ~ ४
- त्रह्यसूत्र मध्वाचायं
" म० म० उमेश मिश्र लखनऊ `
३ १--भारतीय-दर्शन पं० बलदेव उपाध्याय वाराणसी
३२--भावेकरुलवृततान् जी० वीण भवे पूना
स्करभाष्यम् भास्कर चौ० सं० सी,
€ बनारस
मनुस्मृतिः मन् कला प्रेस,
३ ५ इलाहाबाद
_ मदहिमनस्तं ुष्पदन्ताचायं चौ० सं० सो०;
५५ 4 "बनारस
( २९१ )
रचयिता प्रकाशन-
स्यल
लखनऊ
गत
डा० रोमाबोस कलकत्ता
पण डायसां . एडिनवरो
( २९२ )
करस ग्रन्थ का नाम रचयिता
तिः एस० के० बेल्वेलकर श्रा्भूषण प्रेस,
द्वारा सम्पादित पूना
३७-- मीमांस सूत्रम् जैमिनि कलकत्ता
३८ -याज्ञवल्वयस्मृतिः याज्ञवल्क्य त्रिवेन्दरम्
३९ योगवासिष्ठः बम्बई
+०_ योगवासिष्ठ श्रौर बी एल० भ्रात्रेय वनारस
उसके सिद्धान्त
८१--रपुवंशम् कालिदास चौ० सं° सी,
बनारस
-४२-- लाइट्स प्रान वेदान्त डा्वीरमरिप्रसाद चौ० सं सी०,
उपाध्याय बनारस
-छरे--वाचस्पतिमिश्र प्रान डा० एस एस दरमंगा
श्रदरेत वेदान्त हस् रकर
४४-- विष्णुपुराणम् व्यास वे० प्रे०, वम्बई
४भ--वायुपुराणम् व्यास भ्रान० सं सी०,
पूना
४६ तरेदान्तपरिजातसौरभम् निम्बाकं काली
४७- वेदान्तसारः सदानन्द व्यास पूना
४८-- वेदान्तसारः श्री रामानुजाचायं भ्रङ्यार लायब्र री
४९--वेदान्तकौमुदी रामाद्याचायं मद्रास विर्वविद्यालय `
५०-- शाङ्करभाष्यम् श्री शङ्कुराचायं काशो
५१-शिशुपालवघम् माघ प्रयाग
[ प्रथम भ्रौर द्वितीय सगं |
१ २्--श्रीकण्ठभाष्यम् श्रीकण्ठ बम्बर
५ २--भ्रीकरभाष्यम् सी ° हयवदनराव बंगलौर
हारा सम्पादित
५४--श्रीभाष्यम् रामानुजाचायं मद्रास
५५--श्रीमद् भगवद्गीता-- शांकरभाष्ययुता कलकत्ता
५६- सवंदर्शानसंग्रहः माघवाचायं पूना
५७--साख्यततत्वकौमुदी डा ०भराद्ाप्रसाद सत्य-प्रकाडन,
-प्रभा मिश्र इलाहाबाद
(२)
४५8 ग्रत्यकानाम रचयिता
सख्या
*८-सांख्यदर्शान का पं० उदयवीर
इतिहास शास्त्री
५९-सास्य-सिस्टेम प्रो° ए० बी० कौथ
६०- सिद्धान्तविन्दुः मधुसुदन सरस्वती
६१-युवरंसप्ततिगास्तर परमार्थं
६२--हिस्टी श्राफ़ डा° एस० एन°
इण्डियन फिलासफ़री दास गुप
प्रकाहन-
स्यल
ज्वालापुर
लन्दन
काशी
तिरुपति
कैम्त्रिजि
प्रकाहशन-
काल
१९५०
१९१८
१९५६
१९४४
१९४०
हस ग्रन्थ में सहायक पत्र-पत्रिका् की घची
१-- दि श्रङ्यार लायब्र री बुलैटिन श्रद्ध ८५ भाग १, फरवरी १९४४ ई०
२-एेनल्स श्रोफ भण्डारकर भ्रोरियेन्टल रिसचं इन्स्टीय्य.ट, पूना भाग १४,
१९३२ ई० ।
३- जौर्नल भ्राफ़ दि एस० वी० श्रोरियेन्टल इन्स्टीस्य.ट श्रद्ध १३ भाग ४
तिरुपति ।
४--उपनिषद्-्रङ्क--'कल्याण', गीताप्रेस, गोरखपुर २००५ वि०
५- जौर्नल श्राफ प्रौरियेण्टल रिसचं इन्स्टीय्य.ट भाग २१, ॥
परिशिष्ट सं ०१
श्री डा० राजेन्रलाल मित्र द्वारा प्रस्तुत संग्रह नोटिसेज भ्राफ़ संसृत
मैनुस्क्िपट्स' मं निदिष्ट विज्ञानभिक्षु की श्रप्रकाशित र्चनाग्रों का विवरण यहाँ
दियाजा रहा है। ये पाण्डुलिपियां “एशियाटिक सोसायटी आफ़ वंगाल' के
पुस्तकसंग्रहालय १ पाकंस्टरीट, कलकत्ता मे इस समय सुरक्षित हैँ । पुस्तक संग्रा-
लय के श्रष्यक्ष श्री चौघरी जी से सम्पकं स्थापित करने पर यह पता चला कि
इन रचनाभ्नों कौ केवल एक-एक प्रति ही पूस्तकसंग्रहालय मँ ह श्रौर कु
श्रपरिहायं कारणो सेये प्रतियां भी निरीक्षण के लिए श्रभी सुलभ नहींहो
सकती । इसलिए इन पाण्डुलिपियों से सम्बद्ध सूचना के लिए इस समय डा
मित्रके निर्देशों पर ही आवारित रहने की विवशता है । वतमान परिस्थिति में
डा० मित्र की सूचना केश्राधार पर इन पाण्डुलिपियों का विवरण इस प्रकार है
१-माण्डुवयोपनिषदालोकः १८०८
देशी कागज ११३५८३४५ । फलिया *॥ पंक्त्यां प्रति पृष्ठं १०।
इलोक संख्या-१६७ । वंगला प्रषर । निर्माणकाल ? प्राचीन । गद्य ।
पुष्पिका--“इतिविज्ञानमिधरुकृते वेदान्तालोके माण्डूव्योपनिषदालोकः
समाप्तः ।'
२--उपदेशरत्नमाला १७०७ 9
देशी कागज ११९५४९३२ । फोलियो ३५ पं पुष्पिका ११।
लोक १ {
सं० ११५६ । बंगला श्रक्षर । निर्माणकाल ? प्राचीन । पण
(तिविजञानभिषचुविरचितमुपदेशरलनमालास्यं वेदान्तप्रकरणं समासतम् ।'
| --दश्वरगीताभाष्यम् = २०५०
१ प देशौ कागज ११२५८ ३ । फोलियो १०५ । पडःक्तियां
तिपृष्ठ ९।
1 २० । बंगला भरक्षर 1 तिथि ? प्राचीन । ग । |,
श नतसारायसग्ाि्ा मू ुराणान्त्गतदवरगी ताया व्याख्यानम् । ।
1 नेषदालोकः २०५१
४1 प्ररनोपन ५ १॥ | 4 ३३॥ ] फोलियो १७ ॥ पवितियां व १ [।
कसंख्या-- । बगला भक्षर । तिथि ? प्राचीन । गद्य ।
इ तानभि वेदान्तालोक्े प्रनोपनिषदालोकः
( २९६ )
५-- तत्तिरीयोपनिषदालोकः १७९८
देशी कागज ११९५ >८ १२ फोलियो २१ । पक्तिं प्रति ० १०।
दलोक संख्या--६५१ । नागरी श्रक्षर । तिथि ? गद्य । पृष्पिका--
(इतिविज्ञानभिष्ुकृते वेदान्तालोके त॑त्तिरीयोपनिषदालोकः।समास : ।*
६--उवेतावतरोपनिषदालोकः १८०९
देशी कागज १०२३५५८ ३२“ फोलियो ३३ । पंक्तियांँ प्रति पृष्ठ ११।
दलोक संरूया--१०२३ । बंगला श्रक्षर । तिथि ? प्राचीन । गद्य ।
प्रथम पृष्ठ नहीं है । पुष्पिका--इति विज्ञानभिश्षुकृते वेदान्तालोके
इवेतारबतरोपनिषदालोकः समाप्तः 1"
७-मैत्रेयुयुपनिषदालोकः १८११
देशी कागज ११३ >८५३२५ फोलियो २६॥ पड कतिया प्रतिपृष्ठ १० ।
इलोकसंख्या ८५० । बंगला भ्रक्षर । तिथि ? प्राचीन । गद्य ।
पुष्पिका --"इतिविज्ञानभिश्ुकृते वेदान्तालोके मैत्रेय युपनिषदालोकः
समासः 1
८-कवल्योपनिषदालोकः १८१०
देरी कागज ११२५ >< ३२ । फोलियो ८ । पड वितियां प्रतिपृष्ठ--१० ।
इलोक संख्या १६४ । वंगला श्रक्षर । तिथि ? प्राचीन । गद्य ।
पुष्पिका-'इतिविज्ञानभिश्ुकृेते वेदान्तालोके कैवल्योपनिषदालोकः
समाप्तः ।'
९--र्ठवल्थुपनिषदालोकः १८१२
देशी कागज ११३८ >< ३२“ फोलियो २४ । पड: क्तियां प्रति-पृष्ठ
१० । इलोकसंख्या--६२६ । बंगला भ्रक्षर । तिथि ? प्राचीन ।
गद्य । पुष्पिका--“इतिविज्ञानभिश्यकृते वेदान्तालोकेकठवल्युपनिषदा-
लोकः समाप्तः ।'
१०--मुण्डकोपनिषदालोकः १८१३
देशी कागज ११३५८ ३२५ फोलियो १७ । पड क्त्या पृ० १०।
इलोक संख्या-२७९ । बंगला श्रक्षर । तिथि ? पराचीन । गद्य ।
पुष्पिका--
"इति विज्ञानभिश्युकृते वेदान्तालोके मुण्डकोपनिषदालोकःसमाप्तः ।
।
।
भस्तुत ग्रन्थ में प्रयुक्त संकेतो का विवर्ण
१ °-भरदेतत्रह्म--सिद्धिः [कलकत्ता विश्वविद्यालय प १८९०
प्रकाशित]
भर भा०- अणएुभाष्यम् [निरय -सागर- प्रेस गम्बे से सं० १९८७
प्रकाशित |
श्र° यो० ~ प्रसम्प्र्नातयोग
भ° ला० बु° -श्रड्ार लायक्ररौ बुलेटिन
ई० गी° भा० - वर गीता भाष्यम् [पाण्ूलिपि]
उ० भा०- उत्तर भागः
उ०° २० मा० ~ उपदेशरत्नमाला
० ख० खा०- सण्डनखण्डलाद्यम् [काशी से १८८० ई० मे प्रकाशित]
त° या० दी० ~ तत्वयाथाथ्यं दीपनम् ।चौ० सं० सी० बनारससे १९२०
ई० में प्रकाशित]
त° वै० ~ तत्त्ववैशारदी ये पाचों ग्रन्थ एक ही प्रन्यमें “साङ्घ-
यो० सु° - योगसूत्रम् | योग दनम्" माम से चौ० सं° सौ
यो० भा०- योगरभाष्यम् । बनारस से १९३५ ई० में प्रकारित
भा० - भास्वती | इए ह । इस श्लोष-परबन् में संकेत के
प° र० - पातजञ्जलरहस्यम् लिए इसी संस्करण क। उपयोग करिया
प° वा०--योगवातिकम् | गया है।
° सू० वृ° ~ पातञ्जलसूत्रवृत्तः
° लि० - पाण्डुलिपि
० भा० ~ पूवंभागः
~
० ~ पुष्पिका
° सं° ~ पृष्ठ संख्या
' मी० भा० ~ ब्रह्ममीमांसा भाष्यम् ये तीनों नाम एक ही प्न्य
' सु° ऋ० व्या०-ब्रह्यसूव्र्जु्यास्या ( के है । यहग्रन्य ५
० भा० ~ विज्ञानामृत भाष्यम् | सी बनारस से प्रकाशित
) हप्ाहै।
भु° ~ वैयाकरणभषणम् #
( २९८ )
वै० सि० ल० म० ~ वैयाकरणसिद्धान्तलघुमञ्जूषा [गाजीपुर से १९२९ ई°
में प्रकारित|
भा० कु° व° ~ भावेकुलवृततान्तः [पूना से १९४० ई० में प्रकारित|
भा० भा० ~ भास्करभाष्यम् [चौ० सं° सी० बनारस से १९४० ई० में
प्रकाशित]
यो० सा० सं० -योगसार-संग्रह [मोतीलाल बनारसीदास, बनारस के यहां
से प्रकाशित]. ।
यो० सि° चं० - योगसि द्धान्त-चन्दरिका
रा० मा० वृ० - राजमार्तण्डवृत्तिः [बनारस से १९१३ ई० में प्रकारित |
वा० भि० ~ वाचस्पति मिश्वः
वि० भि० ~ विज्ञानभिक्षुः
वे० पा० सौ० - वैदान्तपरिजातसौरभम् [काशी से १९३२ ई० में
प्रकाशित]
वे० सू° - वेदान्तसुत्रम्
स० यो० ~ सम्प्रज्ञातयोगः
सां० त° कौ० ~ साख्यतत्त्वकौमुदी [सत्य-प्रकाशन प्रयाग से १९५६ ई०
। मे प्रकारित]
सां द० इ० - सांख्यदर्शन` कौं इतिहास [उदयवीरशास्तीकृत, ज्वालापुर से
। १९५० ई० मेँ प्रकारित]
सां० प्र° भा० - साख्यप्रवचनभाष्यम् [चौ० सं० सी० बनारस से १९२०
ई० में प्रकाशित]
सां° सा० - सांख्यसार : [बिव्लियोथिका इण्डिका से एशियाटिक सोसायटी
श्राफ बद्धाल के श्रषीन कलकत्ता से १८६२ ई०
मे प्रकारित]
सां° सु° - साख्यसूत्रम्
हैम० - हमको :